श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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जब होवत प्रभ केवल धनी ॥ तब बंध मुकति कहु किस कउ गनी ॥ जब एकहि हरि अगम अपार ॥ तब नरक सुरग कहु कउन अउतार ॥ जब निरगुन प्रभ सहज सुभाइ ॥ तब सिव सकति कहहु कितु ठाइ ॥ जब आपहि आपि अपनी जोति धरै ॥ तब कवन निडरु कवन कत डरै ॥ आपन चलित आपि करनैहार ॥ नानक ठाकुर अगम अपार ॥२॥ {पन्ना 291}

पद्अर्थ: धनी = मालिक। बंध = (माया के) बंधन। मुकति = माया से मुक्ति। गनी = समझें। अगम = जिस तक पहुँच ना हो सके। अपार = बेअंत। अउतार = जनम लेने वाले। सिव = जीवात्मा। सकति = माया। कितु ठाइ = क्हाँ? चलित = तमाशे।

अर्थ: जब मालिक प्रभू सिर्फ (स्वयं ही) था, तब बताओ, किसे बंधनों में फंसा हुआ, और किसे मुक्त समझें?

जब अगम और बेअंत प्रभू एक खुद ही था, तब बताओ, नर्कों और स्वर्गों में आने वाले कौन से जीव थे?

जब सहज स्वभाव ही प्रभू निर्गुण था (त्रिगुणी माया से परे था), (भाव, जब उसने माया रची ही नहीं थी) तब बताओ, कहाँ थे जीव और कहाँ थी माया?

जब प्रभू खुद ही अपनी ज्योति जगाए बैठा था, तब कौन निडर थे और कौन किससे डरते थे?

हे नानक! अकाल-पुरख अगम और बेअंत है; अपने तमाश आप ही करने वाला है।2।

अबिनासी सुख आपन आसन ॥ तह जनम मरन कहु कहा बिनासन ॥ जब पूरन करता प्रभु सोइ ॥ तब जम की त्रास कहहु किसु होइ ॥ जब अबिगत अगोचर प्रभ एका ॥ तब चित्र गुपत किसु पूछत लेखा ॥ जब नाथ निरंजन अगोचर अगाधे ॥ तब कउन छुटे कउन बंधन बाधे ॥ आपन आप आप ही अचरजा ॥ नानक आपन रूप आप ही उपरजा ॥३॥ {पन्ना 291}

पद्अर्थ: आसन = तख्त, स्वरूप। तह = वहाँ। त्रास = डर। जम = (सं: यम) मौत। अबिगत = (सं: अव्यक्त) अदृष्य प्रभू। अगोचर = जिस तक शारीरिक इंद्रियों की पहुँच ना हो सके। चित्र गुपत = जीवों के किए कर्मों का लेखा पूछने वाले। अगाध = अथाह। अचरजा = हैरान करने वाला। उपरजा = पैदा किया है।

अर्थ: जब अकाल-पुरख अपनी मौज में अपने ही स्वरूप में टिका बैठा था, तब बताओ, पैदा होना, मरना व मौत कहाँ थी?

जब करतार पूरन प्रभू खुद ही था, तब बताओ, मौत का डर किस को हो सकता था?

जब अदृष्य और अगोचर प्रभू एक खुद ही था, तब चित्रगुप्त किससे लेखा पूछ सकते थे?

जब मालिक माया-रहित अथाह अगोचर स्वयं ही था, तो कौन माया के बंधनों से मुक्त था और कौन माया के बंधनों में बंधे हुए हैं?

वह आश्चर्य जनक प्रभू अपने जैसा खुद ही है। हे नानक! अपना आकार उसने स्वयं ही पैदा किया है।3।

जह निरमल पुरखु पुरख पति होता ॥ तह बिनु मैलु कहहु किआ धोता ॥ जह निरंजन निरंकार निरबान ॥ तह कउन कउ मान कउन अभिमान ॥ जह सरूप केवल जगदीस ॥ तह छल छिद्र लगत कहु कीस ॥ जह जोति सरूपी जोति संगि समावै ॥ तह किसहि भूख कवनु त्रिपतावै ॥ करन करावन करनैहारु ॥ नानक करते का नाहि सुमारु ॥४॥ {पन्ना 291}

पद्अर्थ: पुरखु = अकाल-पुरख। पुरखपति = पुरखों का पति, जीवों का मालिक। निरबान = वासना रहित। जगदीस = जगत की (ईश) मालिक। छल = धोखा। छिद्र = ऐब। कीस = किस को? त्रिपतावै = तृप्त होता है। सुमारु = अंदाजा।

अर्थ: जिस अवस्था में जीवों का मालिक निर्मल प्रभू स्वयं ही था वहाँ वह मैल-रहित था, तो बताओ, उसने कौन सी मैल धोनी थी?

जहाँ माया रहित, आकार रहित और वासना रहित प्रभू ही था, वहाँ गुमान-अहंकार किसे होना था?

जहाँ केवल जगत के मालिक प्रभू की ही हस्ती थी, वहाँ बताएं, छल और ऐब किसे लग सकते थे?

जब ज्योति-रूप प्रभू खुद ही ज्योति में लीन था, तब किसे (माया की) भूख हो सकती थी और कौन तृप्त था?

करतार खुद ही सब कुछ करने वाला और जीवों से कराने वाला है। हे नानक! करतार का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता।4।

जब अपनी सोभा आपन संगि बनाई ॥ तब कवन माइ बाप मित्र सुत भाई ॥ जह सरब कला आपहि परबीन ॥ तह बेद कतेब कहा कोऊ चीन ॥ जब आपन आपु आपि उरि धारै ॥ तउ सगन अपसगन कहा बीचारै ॥ जह आपन ऊच आपन आपि नेरा ॥ तह कउन ठाकुरु कउनु कहीऐ चेरा ॥ बिसमन बिसम रहे बिसमाद ॥ नानक अपनी गति जानहु आपि ॥५॥ {पन्ना 291}

पद्अर्थ: सुत = पुत्र। भाई = भ्राता। कला = ताकत। परबीन = प्रवीण, समझदार। चीन् = जानता, पहिचानता। आपन आपु = अपने आप को। उरिधारै = हृदय में टिकाता है। ठाकुरु = मालिक। चेरा = सेवक। कहा बीचारै = कहाँ कोई विचारता है? बिसमन बिसम = आश्चर्य से आश्चर्यजनक।

अर्थ: जब प्रभू ने अपनी शोभा अपने साथ बनाई थी (भाव, जब कोई और उसकी शोभा करने वाला नहीं था) तो कौन माँ, पिता, मित्र, पुत्र अथवा भाई थे?

जब अकाल पुरख स्वयं ही सारी ताकतों में प्रवीण था, तब कहाँ कोई वेद (हिंदू धर्म पुस्तक) और कतेबों को (मुसलमानों की धर्म पुस्तकें) विचारता था?

जब प्रभू अपने आप को खुद ही अपने आप में टिकाए बैठा था, अच्छे-बुरे शगुन (अपशगुन) कौन सोचता था? बताएं, मालिक कौन था और सेवक कौन था?

हे नानक! (प्रभू के आगे अरदास कर और कह– हे प्रभू!) तू अपनी गति आप ही जानता है, जीव तेरी गति तलाशते हुए हैरान और आश्चर्यचकित हो रहे हैं।5।

जह अछल अछेद अभेद समाइआ ॥ ऊहा किसहि बिआपत माइआ ॥ आपस कउ आपहि आदेसु ॥ तिहु गुण का नाही परवेसु ॥ जह एकहि एक एक भगवंता ॥ तह कउनु अचिंतु किसु लागै चिंता ॥ जह आपन आपु आपि पतीआरा ॥ तह कउनु कथै कउनु सुननैहारा ॥ बहु बेअंत ऊच ते ऊचा ॥ नानक आपस कउ आपहि पहूचा ॥६॥ {पन्ना 291}

पद्अर्थ: अछल = जो छला ना जा सके, जिसे धोखा ना दिया जा सके। अछेद = जो छेदा ना जा सके। अभेद = जिसका भेद ना पाया जा सके। ऊहा = वहाँ। किसहि = कसको? आपस कउ = अपने आप को। आपहि = स्वयं ही। आदेसु = नमस्कार, प्रणाम। परवेसु = दखल, प्रभाव। अचिंतु = बेफिक्र। आपन आपु = अपने आप को। पतीआरा = पतिआने वाला। पहूचा = पहुँचा हुआ है।

अर्थ: जिस अवस्था में अछल-अबिनाशी और अभेद प्रभू (अपने आप में) टिका हुआ है, वहाँ किसे माया छू सकती है?

(जब) प्रभू अपने आप को ही नमस्कार करता है, (माया के) तीन गुणों का (उस पर) असर नहीं पड़ता।

जब भगवान केवल एक खुद ही था, तब कौन बेफिक्र था और किसको कोई चिंता लगती थी।

जब अपने आप को पतियाने वाला प्रभू स्वयं ही था,तब कौन बोलता था और कौन सुनने वाला था?

हे नानक! प्रभू बड़ा बेअंत है, सबसे ऊँचा है, अपने आप तक आप ही पहुँचने वाला है।6।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh