श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 292 जह आपि रचिओ परपंचु अकारु ॥ तिहु गुण महि कीनो बिसथारु ॥ पापु पुंनु तह भई कहावत ॥ कोऊ नरक कोऊ सुरग बंछावत ॥ आल जाल माइआ जंजाल ॥ हउमै मोह भरम भै भार ॥ दूख सूख मान अपमान ॥ अनिक प्रकार कीओ बख्यान ॥ आपन खेलु आपि करि देखै ॥ खेलु संकोचै तउ नानक एकै ॥७॥ {पन्ना 292} पद्अर्थ: परपंचु = (सं: प्रपंच) दृश्यमान संसार। बिसथारु = पसारा। कहावत = बात। बंछावत = चाहने वाला। आल जाल = घरों के बंधन। मान = आदर। अपमान = निरादरी। कीओ बख्यान = बताए गए। संकोचै = इकट्ठा करता है, समेटता है। अर्थ: जब प्रभू ने स्वयं जगत की खेल रच दी, और माया के तीन गुणों का पसारा पसार दिया; तब ये बात चल पड़ी कि ये पाप है ये पुंन है, तब कोई जीव नर्कों का भागी और कोई स्वर्गों का चाहवान बना। घरों के धंधे, माया के बंधन, अहंकार, मोह, भुलेखे, डर, दुख, सुख, आदर, निरादरी- ऐसी कई किस्मों की बातें चल पड़ीं। हे नानक! प्रभू स्वयं तमाशा रच के स्वयं देख रहा है। जब इस खेल को समेटता है तो एक स्वयं ही स्वयं हो जाता है।7। जह अबिगतु भगतु तह आपि ॥ जह पसरै पासारु संत परतापि ॥ दुहू पाख का आपहि धनी ॥ उन की सोभा उनहू बनी ॥ आपहि कउतक करै अनद चोज ॥ आपहि रस भोगन निरजोग ॥ जिसु भावै तिसु आपन नाइ लावै ॥ जिसु भावै तिसु खेल खिलावै ॥ बेसुमार अथाह अगनत अतोलै ॥ जिउ बुलावहु तिउ नानक दास बोलै ॥८॥२१॥ {पन्ना 292} पद्अर्थ: अबिगतु = (सं: अव्यक्त) अदृश्य प्रभू। संत परतापि = संतों के प्रताप वास्ते, संतों की महिमा बढ़ाने के लिए। धनी = मालिक। दुहू पाख का = (संतों का प्रताप और माया का प्रभाव रूप) दानों तरफ का। बनी = फबती है। निरजोग = निर्लिप। आपन नाइ = अपने नाम में। खेल = माया की खेलों में। बेसुमार = हे बेअंत! अर्थ: जहाँ अदृश्य प्रभू है वहाँ उसका भक्त है, जहाँ भक्त है वहाँ वह प्रभू स्वयं है। हर जगह संतों की महिमा के वास्ते प्रभू जगत का पसारा पसार रहा है। प्रभू जी अपनी शोभा स्वयं ही जानते हैं, (संतों का प्रताप और माया का प्रभाव- इन) दोनों पक्षों का मालिक प्रभू स्वयं ही है। प्रभू खुद ही खेलें खेल रहा है खुद ही आनंद तमाशे कर रहा है, खुद ही रसों को भोगने वाला है और खुद ही निर्लिप है। जो उसे भाता है, उसे अपने नाम में जोड़ता है, और जिसको चाहता है माया की खेलें खिलाता है। हे नानक! (ऐसे अरदास कर और कह–) हे बेअंत! हे अथाह! हे अगनत! हे अडोल प्रभू! जैसे तू बुलाता है वैसे तेरे दास बोलते हैं।8।21। नोट: इस अष्टपदी में इस ख्याल का खण्डन किया गया है कि जगत की रचना जीवों के कर्मों के कारण हुई। गुरू आशय अनुसार सिर्फ परमात्मा ही अनादि है। जब अभी जगत है ही नहीं था, केवल अकाल-पुरख ही था, तब ना कोई जीव था, ना ही माया थी। तब कर्मों का भी अभाव था। परमात्मा ने खुद ही ये खेल रचा। कर्मों का, नर्क–स्वर्ग का, पाप–पुंन का सिलसिला तब से शुरू हुआ जब से जगत अस्तित्व में आया। सलोकु ॥ जीअ जंत के ठाकुरा आपे वरतणहार ॥ नानक एको पसरिआ दूजा कह द्रिसटार ॥१॥ {पन्ना 292} पद्अर्थ: वरतणहार = सब जगह मौजूद। पसरिआ = सब जगह हाजिर है। कहु = कहाँ? द्रिसटार = देखने में आता है। अर्थ: हे जीवों जंतुओं के पालने वाले प्रभू! तू खुद ही हर जगह में व्याप्त है। हे नानक! प्रभू स्वयं ही हर जगह मौजूद है, (उससे बिना कोई) दूसरा कहीं देखने में आया है?।1। असटपदी ॥ आपि कथै आपि सुननैहारु ॥ आपहि एकु आपि बिसथारु ॥ जा तिसु भावै ता स्रिसटि उपाए ॥ आपनै भाणै लए समाए ॥ तुम ते भिंन नही किछु होइ ॥ आपन सूति सभु जगतु परोइ ॥ जा कउ प्रभ जीउ आपि बुझाए ॥ सचु नामु सोई जनु पाए ॥ सो समदरसी तत का बेता ॥ नानक सगल स्रिसटि का जेता ॥१॥ {पन्ना 292} पद्अर्थ: कथै = बोलता है। सुननैहारु = सुनने वाला। आपहि = आप ही। बिसथारु = विस्तार, पसारा, खिलारा। उपाऐ = पैदा करता है। लऐ समाऐ = समेट लेता है। भिंन = अलग। सूति = धागे में। बुझाऐ = सूझ देता है। समदरसी = सब को एक नजर से देखने वाला। जेता = जीतने वाला। तत = अस्लियत। बेता = वेक्ता, जानने वाला। अर्थ: (सब जीवों में) प्रभू खुद बोल रहा है खुद ही सुनने वाला है, खुद ही एक है (सृष्टि रचने से पहले), और खुद ही (जगत को अपने में) समेट लेता है। (हे प्रभू!) तुझसे अलग कुछ नहीं है, तूने (अपने हुकम-रूप) धागे में सारे जगत को परो रखा है। जिस मनुष्य को प्रभू जी स्वयं सूझ बख्शते हैं, वह मनुष्य प्रभू का सदा-स्थिर रहने वाला नाम हासिल कर लेता है। वह मनुष्य सबकी ओर एक नजर से देखता है, अकाल-पुरख का महिरम हो जाता है। हे नानक! वह सारे जगत का जीतने वाला है।1। जीअ जंत्र सभ ता कै हाथ ॥ दीन दइआल अनाथ को नाथु ॥ जिसु राखै तिसु कोइ न मारै ॥ सो मूआ जिसु मनहु बिसारै ॥ तिसु तजि अवर कहा को जाइ ॥ सभ सिरि एकु निरंजन राइ ॥ जीअ की जुगति जा कै सभ हाथि ॥ अंतरि बाहरि जानहु साथि ॥ गुन निधान बेअंत अपार ॥ नानक दास सदा बलिहार ॥२॥ {पन्ना 292} पद्अर्थ: हाथ = वश में। को = का। नाथु = मालिक। मनहु = मन से। बिसारै = भुला देता है। तजि = छोड़ के। अवर कह = और कहाँ? को = कोई मनुष्य। सभ सिरि = सभी के सिर पर। निरंजन राइ = वह राजा जो माया के प्रभाव से परे है। अर्थ: सारे जीव-जंतु उस प्रभू के वश में हैं, वह दीनों पर दया करने वाला है, और, अनाथों का मालिक है। जिस जीव की प्रभू स्वयं रक्षा करता है उसको कोई मार नहीं सकता। मरा हुआ (तो) वह जीव है जिसको प्रभू भुला देता है। उस प्रभू को छोड़ के और कहाँ कोई जाए? सब जीवों के सिर पर एक स्वयं प्रभू ही है जो माया के प्रभाव से परे है। उस प्रभू को अंदर बाहर सब जगह अंग-संग जानो, जिसके वश में सब जीवों की जिंदगी का भेद है। हे नानक! (कह– हे प्रभू!) सेवक उससे सदके हैं जो गुणों का खजाना है, बेअंत है और अपार है।2। पूरन पूरि रहे दइआल ॥ सभ ऊपरि होवत किरपाल ॥ अपने करतब जानै आपि ॥ अंतरजामी रहिओ बिआपि ॥ प्रतिपालै जीअन बहु भाति ॥ जो जो रचिओ सु तिसहि धिआति ॥ जिसु भावै तिसु लए मिलाइ ॥ भगति करहि हरि के गुण गाइ ॥ मन अंतरि बिस्वासु करि मानिआ ॥ करनहारु नानक इकु जानिआ ॥३॥ {पन्ना 292} पद्अर्थ: पूरि रहे = सब जगह व्यापक है। अंतरजामी = दिल की जानने वाला। जीअन = जीवों को। बहु भाति = कई तरीकों से। बिस्वासु = विश्वास, यकीन, श्रद्धा। अर्थ: दया के घर प्रभू जी हर जगह मौजूद हैं, और सब जीवों पर मेहर करते हैं। प्रभू अपने खेल खुद जानता है, सबके दिल की जानने वाला प्रभू हर जगह मौजूद है। जीवों को कई तरीकों से पालता है, जो जो जीव उसने पैदा किया है, वह उसी प्रभू को सिमरता है। जिस पर प्रसन्न होता है उसको साथ जोड़ लेता है, ( जिन पर प्रसन्न होता है) वह उसके गुण गा गा के उसकी भक्ति करते हैं। हे नानक! जिस मनुष्य ने मन में श्रद्धा धार के प्रभू को (सचमुख अस्तित्व वाला) मान लिया है, उस ने एक करतार को ही पहिचाना है।3। जनु लागा हरि एकै नाइ ॥ तिस की आस न बिरथी जाइ ॥ सेवक कउ सेवा बनि आई ॥ हुकमु बूझि परम पदु पाई ॥ इस ते ऊपरि नही बीचारु ॥ जा कै मनि बसिआ निरंकारु ॥ बंधन तोरि भए निरवैर ॥ अनदिनु पूजहि गुर के पैर ॥ इह लोक सुखीए परलोक सुहेले ॥ नानक हरि प्रभि आपहि मेले ॥४॥ {पन्ना 292} पद्अर्थ: नाइ = नाम में। बूझि = समझ के। परम पदु = ऊँचा दर्जा। इस ते ऊपरि = उससे ऊपर, इससे बढ़िया। जा के मनि = जिन के मन में। आपहि = आप ही। अर्थ: (जो) सेवक एक प्रभू के नाम में टिका हुआ है, उसकी आस कभी खाली नहीं जाती। सेवक को ये फबता है कि सब की सेवा करे। प्रभू की रजा समझ के उसे ऊँचा दर्जा मिल जाता है। जिन के मन में अकाल-पुरख बसता है, उन्हें इस (नाम-सिमरन) से बड़ा और कोई विचार नहीं सूझता। (माया के) बंधन तोड़ के वे निर्वैर हो जाते हैं और हर वक्त सतिगुरू के चरन पूजते हैं। वह मनुष्य इस जनम में सुखी हैं, और परलोक में सुखी होते हैं (क्योंकि) हे नानक! प्रभू ने,खुद उनको (अपने साथ) मिला लिया है।4। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |