श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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साधसंगि मिलि करहु अनंद ॥ गुन गावहु प्रभ परमानंद ॥ राम नाम ततु करहु बीचारु ॥ द्रुलभ देह का करहु उधारु ॥ अम्रित बचन हरि के गुन गाउ ॥ प्रान तरन का इहै सुआउ ॥ आठ पहर प्रभ पेखहु नेरा ॥ मिटै अगिआनु बिनसै अंधेरा ॥ सुनि उपदेसु हिरदै बसावहु ॥ मन इछे नानक फल पावहु ॥५॥ {पन्ना 293}

पद्अर्थ: अनंद = खुशियां। प्रभ गुन = प्रभू के गुण। परमानंद = सबसे ऊँची खुशी वाला। उधारु = बचाव। सुआउ = वसीला, ढंग। तरन = बचाना।

अर्थ: परम खुशियों वाले प्रभू की सिफत-सालाह करो, सत्संग में मिल के ये (आत्मिक) आनंद लो।

प्रभू के नाम के भेद को विचारो और इस (मनुष्य-) शरीर का बचाव करो जो बड़ी मुश्किल से मिलता है।

अकाल-पुरख के गुण गाओ जो अमर करने वाले बचन हैं, जिंदगी को (विकारों से) बचाने का यही तरीका है।

आठों पहर प्रभू को अपने अंग-संग देखो (इस तरह) अज्ञानता मिट जाएगी और (माया वाला) अंधेरा नाश हो जाएगा।

हे नानक! (सतिगुरू का) उपदेश सुन के हृदय में बसाओ (इस तरह) मन-मांगी मुरादें मिलेंगीं।5।

हलतु पलतु दुइ लेहु सवारि ॥ राम नामु अंतरि उरि धारि ॥ पूरे गुर की पूरी दीखिआ ॥ जिसु मनि बसै तिसु साचु परीखिआ ॥ मनि तनि नामु जपहु लिव लाइ ॥ दूखु दरदु मन ते भउ जाइ ॥ सचु वापारु करहु वापारी ॥ दरगह निबहै खेप तुमारी ॥ एका टेक रखहु मन माहि ॥ नानक बहुरि न आवहि जाहि ॥६॥ {पन्ना 293}

पद्अर्थ: हलतु = (सं: अत्र) ये लोक। पलतु = (सं: परत्र) परलोक। उरि धारि = हृदय में टिकाओ। दीखिआ = शिक्षा। जिसु मनि = जिस (मनुष्य) के मन में। तिसु = उसे। परीखिआ = परख, समझ। वापारी = हे बंजारे जीव! निबहै = सफल हो जाए, निभ जाए। खेप = सौदा। बहुरि = फिर, दुबारा। साचु = सदा सिथर रहने वाला प्रभू।

अर्थ: प्रभू का नाम अंदर हृदय में टिकाओ, ( इस तरह) लोक और परलोक दोनों सुधार लो।

पूरे सतिगुरू की शिक्षा भी पूर्ण (भाव, संपूर्ण, मुकम्मल) होती है, जिस मनुष्य के मन में (ये शिक्षा) बसती है उसको सदा स्थिर रहने वाला प्रभू समझ जाता है।

मन और शरीर के द्वारा ध्यान जोड़ के नाम जपो, दुख-दर्द और मन से डर दूर हो जाएगा।

हे बंजारे जीव! सच्चा वणज करो, (नाम रूपी सच्चे व्यापार से) तुम्हारा सौदा प्रभू की दरगाह में बिक जाएगा।

हे नानक! मन में एक अकाल-पुरख का आसरा रखो, बार-बार जनम-मरन का चक्कर नहीं रहेगा।6।

तिस ते दूरि कहा को जाइ ॥ उबरै राखनहारु धिआइ ॥ निरभउ जपै सगल भउ मिटै ॥ प्रभ किरपा ते प्राणी छुटै ॥ जिसु प्रभु राखै तिसु नाही दूख ॥ नामु जपत मनि होवत सूख ॥ चिंता जाइ मिटै अहंकारु ॥ तिसु जन कउ कोइ न पहुचनहारु ॥ सिर ऊपरि ठाढा गुरु सूरा ॥ नानक ता के कारज पूरा ॥७॥ {पन्ना 293}

पद्अर्थ: तिस ते = उस प्रभू से। कहा = कहाँ? उबरै = बचता है। न पहुँचनहारु = बराबरी नहीं कर सकता। ठाढा = खड़ा। सूरा = सुरमा, शूरवीर। ता कै = उसके अंदर।

अर्थ: उस प्रभू से परे कहाँ कोई जीव जा सकता है? जीव बचता ही राखनहार प्रभू को सिमर के है।

जो मनुष्य निरभउ अकाल-पुरख को जपता है, उसका डर मिट जाता है, (क्योंकि) प्रभू की मेहर से ही बंदा (डर से) निजात पाता है।

जिस बंदे की प्रभू रक्षा करता है, उसे कोई दुख नहीं छूता, नाम जपने से मन में सुख पैदा होता है।

(नाम सिमरने से) चिंता दूर हो जाती है, अहंकार मिट जाता है, उस मनुष्य की कोई बराबरी ही नहीं कर सकता।

हे नानक! जिस आदमी के सिर पर सूरमा सतिगुरू (रक्षक बन के) खड़ा हुआ है, उसके सारे काम रास आ जाते हैं।7।

मति पूरी अम्रितु जा की द्रिसटि ॥ दरसनु पेखत उधरत स्रिसटि ॥ चरन कमल जा के अनूप ॥ सफल दरसनु सुंदर हरि रूप ॥ धंनु सेवा सेवकु परवानु ॥ अंतरजामी पुरखु प्रधानु ॥ जिसु मनि बसै सु होत निहालु ॥ ता कै निकटि न आवत कालु ॥ अमर भए अमरा पदु पाइआ ॥ साधसंगि नानक हरि धिआइआ ॥८॥२२॥ {पन्ना 293}

पद्अर्थ: जा की द्रिसटि = जिसकी नजर में। दरसनु पेखत = दीदार करके। अनूप = लासानी, बेमिसाल, अति सुंदर। सफल दरसनु = जिसका दीदार मुरादें पूरी करने वाला है। धंनु = मुबारक। परवानु = कबूल। प्रधानु = सब से बड़ा। ता कै निकटि = उसके नजदीक। अमरा पदु = सदा कायम रहने वाला दर्जा।

अर्थ: जिस प्रभू की समझ पूरन (infallible, अभॅुल) है, जिसकी नजर में से अमृत बरसता है, उसका दीदार करने से जगत का उद्धार होता है।

जिस प्रभू के कमलों (जैसे) अति सुंदर चरण हैं, उसका रूप सुंदर है, और, उसका दीदार मुरादें पूरी करने वाला है।

वह अकाल-पुरख घट घट की जानने वाला और सबसे बड़ा है, उसका सेवक (दरगाह में) कबूल हो जाता है (तभी तो) उसकी सेवा मुबारक है।

जिस मनुष्य के हृदय में (ऐसा प्रभू) बसता है वह (फूल जैसा) खिलता है, उसके नजदीक काल (भी) नहीं आता (भाव, मौत का डर उसे छूता नहीं)।

हे नानक! जिन मनुष्यों ने सत्संग में प्रभू को सिमरा है, वे जनम मरण से रहित हो जाते हैं, और सदा कायम रहने वाला दरजा हासिल कर लेते हैं।8।22।

सलोकु ॥ गिआन अंजनु गुरि दीआ अगिआन अंधेर बिनासु ॥ हरि किरपा ते संत भेटिआ नानक मनि परगासु ॥१॥ {पन्ना 293}

पद्अर्थ: अंजनु = सुरमा। गुरि = गुरू ने। अंधेर बिनासु = अंधेरे का नाश। संत भेटिआ = गुरू को मिला। मनि = मन में। परगासु = प्रकाश।

अर्थ: (जिस मनुष्य को) सतिगुरू ने ज्ञान का सुरमा बख्शा है, उसके अज्ञान (रूपी) अंधेरे का नाश हो जाता है।

हे नानक! (जो मनुष्य) अकाल-पुरख की मेहर से गुरू को मिला है, उसके मन में (ज्ञान का) प्रकाश हो जाता है।1।

असटपदी ॥ संतसंगि अंतरि प्रभु डीठा ॥ नामु प्रभू का लागा मीठा ॥ सगल समिग्री एकसु घट माहि ॥ अनिक रंग नाना द्रिसटाहि ॥ नउ निधि अम्रितु प्रभ का नामु ॥ देही महि इस का बिस्रामु ॥ सुंन समाधि अनहत तह नाद ॥ कहनु न जाई अचरज बिसमाद ॥ तिनि देखिआ जिसु आपि दिखाए ॥ नानक तिसु जन सोझी पाए ॥१॥ {पन्ना 293}

पद्अर्थ: अंतरि = (अपने) अंदर। नाना = कई किस्म के। द्रिसटाहि = देखने में आते हैं। समग्री = पदार्थ। ऐकसु = एक ही। घट माहि = घट में। ऐकसु घट माहि = एक (प्रभू) में ही! बिस्रामु = ठिकाना। सुंन समाधि = वह समाधि जिसमें कोई विचार ना उठे। अनहद = एक रस, लगातार। तह = वहाँ, उस शरीर में। नाद = आवाज, राग। बिसमाद = आश्चर्य।

अर्थ: (जिस मनुष्य ने) गुरू की संगति में (रह के) अपने अंदर अकाल-पुरख को देखा है, उसे प्रभू का नाम प्यारा लग जाता है।

(जगत के) सारे पदार्थ (उसे) एक प्रभू में ही (लीन दिखते हैं), (उस प्रभू से ही) अनेकों किस्मों के रंग तमाशे (निकले हुए) दिखते हैं

(उस मनुष्य के) शरीर में प्रभू के उस नाम का ठिकाना (हो जाता है) जो (मानो, जगत के) नौ ही खजानों (के बराबर) है और अमृत है।

उस मनुष्य के अंदर शून्य-समाधि की अवस्था (निरंतर-निर्विघ्न सुरति) बना रहती है, और, ऐसा आश्चर्य एक-रस राग (-रूपी आनंद बना रहता है) जिसका बयान नहीं हो सकता।

(पर) हे नानक! ये (आनंद) उस मनुष्य ने देखा है जिसे प्रभू खुद दिखाता है (क्योंकि) उस मनुष्य को (उस आनंद की) समझ देता है।1।

सो अंतरि सो बाहरि अनंत ॥ घटि घटि बिआपि रहिआ भगवंत ॥ धरनि माहि आकास पइआल ॥ सरब लोक पूरन प्रतिपाल ॥ बनि तिनि परबति है पारब्रहमु ॥ जैसी आगिआ तैसा करमु ॥ पउण पाणी बैसंतर माहि ॥ चारि कुंट दह दिसे समाहि ॥ तिस ते भिंन नही को ठाउ ॥ गुर प्रसादि नानक सुखु पाउ ॥२॥ {पन्ना 293-294}

पद्अर्थ: धरनि = धरती। पइआल = पाताल। सरब लोक = सारे भवनों में। बनि = जंगल में। तिनि = तृण में, घास आदि में। परबति = पर्वत में। आगिआ = आज्ञा, हुकम। करमु = काम। बैसंतर = आग। कुंट = कूट। दिस = दिशा, तरफ। भिंन = भिन्न, अलग।

अर्थ: वह बेअंत भगवान अंदर-बाहर (सब जगह) हरेक शरीर में मौजूद है।

धरती, आकाश व पाताल में है, सारे भवनों में मौजूद है और सब की पालना करता है।

वह पारब्रहम जंगल में है, घास (आदि) में है और पर्वत में है; जैसा वह हुकम करता है, वैसा ही (जीव) काम करता है।

पवन में, पानी में, आग में चहुँ कुंटों में दसों दिशाओं में (सब जगह) समाया हुआ है।

कोई (भी) जगह उस प्रभू से अलग नहीं है; (पर) हे नानक! (इस निश्चय का) आनंद गुरू की कृपा से ही मिलता है।२।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh