श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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बेद पुरान सिम्रिति महि देखु ॥ ससीअर सूर नख्यत्र महि एकु ॥ बाणी प्रभ की सभु को बोलै ॥ आपि अडोलु न कबहू डोलै ॥ सरब कला करि खेलै खेल ॥ मोलि न पाईऐ गुणह अमोल ॥ सरब जोति महि जा की जोति ॥ धारि रहिओ सुआमी ओति पोति ॥ गुर परसादि भरम का नासु ॥ नानक तिन महि एहु बिसासु ॥३॥ {पन्ना 294}

पद्अर्थ: ससीअरु = (सं: शशधर) चंद्रमा। सूर = (सं: सूर्य) सूरज। नखत्र = (सं: नक्षत्र) तारे। सभु को = हरेक जीव। कला = ताकते। करि = रच के। मोलि = मूल्य से। गुणह अमोल = अमूल्य गुणों वाला। धारि रहिओ = आसरा दे रहा है। ओति प्रोति = ताने बाने की तरह। बिसासु = विश्वास, यकीन।

अर्थ: वेदों में, पुराणों में, स्मृतियों में (उसी प्रभू को) देखो; चंद्रमा, सूरज, तारों में भी एक वही है।

हरेक जीव अकाल-पुरख की ही बोली बोलता है; (पर सब में विद्यमान होते हुए भी) वह आप अडोल है कभी डोलता नहीं।

सारी ताकतें रच के (जगत की) खेलें खेल रहा है, (पर वह) किसी मूल्य से नहीं मिलता (क्योंकि) अमूल्य गुणों वाला है।

जिस प्रभू की ज्योति सारी ही ज्योतियों में (जल रही है) वह मालिक ताने बाने की तरह (सबको) आसरा दे रहा है।

(पर) हे नानक! (अकाल-पुरख की इस सर्व-व्यापक हस्ती का) ये यकीन उन मनुष्यों के अंदर बनता है जिनका भरम गुरू की कृपा से मिट जाता है।3।

संत जना का पेखनु सभु ब्रहम ॥ संत जना कै हिरदै सभि धरम ॥ संत जना सुनहि सुभ बचन ॥ सरब बिआपी राम संगि रचन ॥ जिनि जाता तिस की इह रहत ॥ सति बचन साधू सभि कहत ॥ जो जो होइ सोई सुखु मानै ॥ करन करावनहारु प्रभु जानै ॥ अंतरि बसे बाहरि भी ओही ॥ नानक दरसनु देखि सभ मोही ॥४॥ {पन्ना 294}

पद्अर्थ: पेखनु = देखना। सभु = सारा, हर जगह। सभि = सारे। धरम = धर्म के ख्याल। सुभ = शुभ। जिनि = जिस (साधु) ने। रहत = रहनी। सभि सति बचन = सारे सचचे बचन। मोही = मस्त हो जाती है। सभ = सारी सृष्टि।

अर्थ: संत जन हरेक जगह अकाल-पुरख को ही देखते हैं, उनके हृदय में सारे (विचार) धर्म के ही (उठते हैं)।

संत जन भले वचन ही सुनते हैं और सर्व-व्यापक अकाल-पुरख के साथ जुड़े रहते हैं।

जिस जिस संत जन ने (प्रभू को) जान लिया है उसकी रहनी ही ये हो जाती है कि वह सदा सच्चे वचन बोलता है।

(और) जो कुछ (प्रभू के द्वारा) होता है उसी को सुख मानता है, सब काम करने वाला और (जीवों से) करवाने वाला प्रभू को ही जानता है।

(साधु जनों के लिए) अंदर बाहर (सब जगह) वही प्रभू बसता है। (प्रभू के सर्व-व्यापी) दर्शन करके सारी सृष्टि मस्त हो जाती है।4।

आपि सति कीआ सभु सति ॥ तिसु प्रभ ते सगली उतपति ॥ तिसु भावै ता करे बिसथारु ॥ तिसु भावै ता एकंकारु ॥ अनिक कला लखी नह जाइ ॥ जिसु भावै तिसु लए मिलाइ ॥ कवन निकटि कवन कहीऐ दूरि ॥ आपे आपि आप भरपूरि ॥ अंतरगति जिसु आपि जनाए ॥ नानक तिसु जन आपि बुझाए ॥५॥ {पन्ना 294}

पद्अर्थ: सति = अस्तित्व वाला। उतपति = उत्पक्ति, पैदायश, सृष्टि। जिस भावै = अगर उस प्रभू को ठीक लगे। कला = ताकत। निकटि = नजदीक। भरपूरि = व्यापक। अंतरगति = अंदर की ऊँची अवस्था। जनाऐ = सुझाता है।

अर्थ: प्रभू स्वयं हस्ती वाला है, जो कुछ उसने पैदा किया है वह सब अस्तित्व वाला है (भाव, भरम भुलेखा नहीं) सारी सृष्टि उस प्रभू से हुई है।

अगर उसकी रजा हो तो जगत का पसारा कर देता है, अगर उसे भाए, तो फिर एक खुद ही खुद हो जाता है।

उसकी अनेक ताकतें हैं, किसी का बयान नहीं हो सकता, जिस पर प्रसन्न होता है उसे अपने साथ मिला लेता है।

वह प्रभू कितनों के नजदीक, और कितनों से दूर कहा जा सकता है? वह प्रभू खुद ही हर जगह मौजूद है।

जिस मनुष्य को प्रभू स्वयं ही अंदर की उच्च अवस्था सुझाता है, हे नानक! उस मनुष्य को (अपनी इस सर्व-व्यापक की) समझ बख्शता है।5।

सरब भूत आपि वरतारा ॥ सरब नैन आपि पेखनहारा ॥ सगल समग्री जा का तना ॥ आपन जसु आप ही सुना ॥ आवन जानु इकु खेलु बनाइआ ॥ आगिआकारी कीनी माइआ ॥ सभ कै मधि अलिपतो रहै ॥ जो किछु कहणा सु आपे कहै ॥ आगिआ आवै आगिआ जाइ ॥ नानक जा भावै ता लए समाइ ॥६॥ {पन्ना 294}

पद्अर्थ: भूत = जीव। वरतारा = मौजूद है, बरत रहा है। नैन = आँखें। तना = शरीर। जस = शोभा। खेलु = तमाशा। आगिआकारी = हुकम में चलने वाली। मधि = में, अंदर। अलिपतो = निर्लिप।

अर्थ: सारे जीवों में प्रभू स्वयं ही बरत रहा है, (उन जीवों की) सारी आँखों में से प्रभू खुद ही देख रहा है। (जगत के) सारे पदार्थ जिस प्रभू के शरीर हैं, (सब में व्यापक हो के) वह अपनी शोभा आप ही सुन रहा है।

(जीवों का) पैदा होना मरना प्रभू ने एक खेल बनाई है और अपने हुकम में चलने वाली माया बना दी है।

हे नानक! (जीव) अकाल-पुरख के हुकम में पैदा होता है और हुकम में मरता है, जब उसकी रजा होती है तो उनको अपने में लीन कर लेता है।6।

इस ते होइ सु नाही बुरा ॥ ओरै कहहु किनै कछु करा ॥ आपि भला करतूति अति नीकी ॥ आपे जानै अपने जी की ॥ आपि साचु धारी सभ साचु ॥ ओति पोति आपन संगि राचु ॥ ता की गति मिति कही न जाइ ॥ दूसर होइ त सोझी पाइ ॥ तिस का कीआ सभु परवानु ॥ गुर प्रसादि नानक इहु जानु ॥७॥ {पन्ना 294}

पद्अर्थ: इस ते = इस (प्रभू) से। ओरै = (ईश्वर से) उरे, रॅब के बिना। किनै = किसी ने। करतूति = काम। नीकी = अच्छी। जी की = दिल की। साचु = अस्तित्व वाला। सभ = सारी रचना। ओति पोति = ताने पेटे की तरह। मिति = मिनती।

अर्थ: जो कुछ प्रभू की ओर से होता है (जीवों के लिए) बुरा नहीं होता; और प्रभू के बिना, बताओ किसी ने कुछ कर दिखाया है?

प्रभू खुद ठीक है, उसका काम भी ठीक है, अपने दिल की बात वह खुद ही जानता है।

स्वयं हस्ती वाला है, सारी रचना जो उसके आसरे है, वह भी अस्तित्व वाली है (भरम नहीं), ताने-पेटे की तरह उसने अपने साथ मिलाई हुई है।

वह प्रभू कैसा है और कितना बड़ा है– ये बात बयान नहीं हो सकती, कोई दूसरा (अलग) हो तो समझ सके।

प्रभू का किया हुआ सब कुछ (जीवों को) सिर-माथे मानना पड़ता है, (पर) हे नानक! यह पहिचान गुरू की कृपा से आती है।7।

जो जानै तिसु सदा सुखु होइ ॥ आपि मिलाइ लए प्रभु सोइ ॥ ओहु धनवंतु कुलवंतु पतिवंतु ॥ जीवन मुकति जिसु रिदै भगवंतु ॥ धंनु धंनु धंनु जनु आइआ ॥ जिसु प्रसादि सभु जगतु तराइआ ॥ जन आवन का इहै सुआउ ॥ जन कै संगि चिति आवै नाउ ॥ आपि मुकतु मुकतु करै संसारु ॥ नानक तिसु जन कउ सदा नमसकारु ॥८॥२३॥ {पन्ना 294-295}

पद्अर्थ: कुलवंतु = अच्छे कुल वाला। पतिवंतु = इज्ज़त वाला। जीवन मुकति = जिसने जीते जी ही (माया के बंधनों से) मुक्ति पा ली है। जिसु रिदै = जिस के हृदय में। धंनु = मुबारिक। सुआउ = प्रयोजन, मनोरथ। चिति = चिक्त में।

अर्थ: जो मनुष्य प्रभू से सांझ पा लेता है उसे सदा सुख होता है, प्रभू उसे अपने साथ आप मिला लेता है।

जिस मनुष्य के हृदय में भगवान बसता है, वह जीवित ही मुक्त हो जाता है, वह धन वाला, कुल वाला और इज्ज़त वाला बन जाता है।

जिस मनुष्य की मेहर से सारा जगत का ही उद्धार होता है, उसका (जगत में) आना मुबारक है।

ऐसे मनुष्य के आने का यही मनोरथ है कि उसकी संगति में (रह के और मनुष्यों को प्रभू का) नाम चेते आता है।

वह मनुष्य खुद (माया से) आजाद है, जगत को भी आजाद करता है; हे नानक! ऐसे (उक्तम) मनुष्य को हमारा सदा प्रणाम है।8।23।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh