श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 298 सलोकु ॥ संत मंडल हरि जसु कथहि बोलहि सति सुभाइ ॥ नानक मनु संतोखीऐ एकसु सिउ लिव लाइ ॥७॥ पउड़ी ॥ सपतमि संचहु नाम धनु टूटि न जाहि भंडार ॥ संतसंगति महि पाईऐ अंतु न पारावार ॥ आपु तजहु गोबिंद भजहु सरनि परहु हरि राइ ॥ दूख हरै भवजलु तरै मन चिंदिआ फलु पाइ ॥ आठ पहर मनि हरि जपै सफलु जनमु परवाणु ॥ अंतरि बाहरि सदा संगि करनैहारु पछाणु ॥ सो साजनु सो सखा मीतु जो हरि की मति देइ ॥ नानक तिसु बलिहारणै हरि हरि नामु जपेइ ॥७॥ {पन्ना 298} पद्अर्थ: सलोकु = मंड = मण्डलियां, समूह। जसु = सिफत सालाह। सति = सदा स्थिर प्रभू (के गुण)। सुभाइ = प्रेम में। लिव = लगन।7। पउड़ी। सपतमि = सप्तमी तिथि। संचहु = इकट्ठा करो। न जाहि = नहीं जाते। भंडार = खजाने। महि = में। पाईअै = मिलता है। आपु = स्वै भाव। हरै = दूर करता है। भवजलु = संसार समुंद्र। चिंदिआ = सोचा हुआ। मनि = मन में। संगि = साथ। पछाणु = साथी। सखा = मित्र। देइ = देता है। जपेइ = जपता है।7। अर्थ-सलोकु- हे नानक! संत जन (सदा) परमात्मा की सिफति सालाह उचारते हैं, प्रेम में टिक के सदा कायम रहने वाले प्रभू के गुण बयान करते हैं (क्योंकि) एक परमात्मा (के चरनों) में सुरति जोड़े रखने से मन शांति रहता है।7। पउड़ी- (हे भाई!) परमात्मा का नाम-धन इकट्ठा करो। नाम-धन के खजाने कभी खत्म नहीं होते, (पर, उस परमात्मा का ये नाम-धन) साध-संगति में रहने से ही मिलता है, जिसके गुणों का अंत नहीं पाया जा सकता, जिसके स्वरूप के इस पार उस पार का छोर नहीं मिलता। (हे भाई!) स्वै भाव दूर करो, परमात्मा का भजन करते रहो, प्रभू पातशाह की शरण पड़े रहो (जो मनुष्य प्रभू की शरण पड़ा रहता है, वह अपने सारे) दुख दूर कर लेता है, संसार समुंद्र से पार लांघ जाता है, और मन-चाहा फल प्राप्त कर लेता है। (हे भाई!) जो मनुष्य आठों पहर अपने मन में परमात्मा का नाम जपता है, उसका मानस जनम कामयाब हो जाता है, वह (परमात्मा की हजूरी में) कबूल हो जाता है, जो परमात्मा (हरेक जीव के) अंदर बाहर सदा साथ (बसता) है वह सृजनहार प्रभू उस मनुष्य का मित्र बन जाता है। (हे भाई!) जो मनुष्य (हमें) परमात्मा (का नाम जपने) की मति देता है, वही (हमारा असली) सज्जन है, साथी है, मित्र है। हे नानक! (कह–) जो मनुष्य सदा हरि-नाम जपता है, मैं उससे कुर्बान जाता हूँ।7। सलोकु ॥ आठ पहर गुन गाईअहि तजीअहि अवरि जंजाल ॥ जमकंकरु जोहि न सकई नानक प्रभू दइआल ॥८॥ पउड़ी ॥ असटमी असट सिधि नव निधि ॥ सगल पदारथ पूरन बुधि ॥ कवल प्रगास सदा आनंद ॥ निरमल रीति निरोधर मंत ॥ सगल धरम पवित्र इसनानु ॥ सभ महि ऊच बिसेख गिआनु ॥ हरि हरि भजनु पूरे गुर संगि ॥ जपि तरीऐ नानक नाम हरि रंगि ॥८॥ {पन्ना 298} पद्अर्थ: सलोकु = गाईअहि = (अगर) गाए जाएं। तजीअहि = (अगर) त्यागे जाएं। अवरि = और (बहुवचन)। जंजाल = (माया में फंसाने वाले) बंधन। जम कंकरु = (किंकरु = नौकर) जमों के सेवक, जमदूत। जोहि न सकई = देख नहीं सकता।8। पउड़ी। असट = आठ। सिधि = सिद्धियां। नव = नौ। निधि = खजाने। पूरन = पूर्ण, जो कभी गलती ना खाय। बुधि = बुद्धि। कवल = (हृदय का) कमल फूल। रीति = मर्यादा, जीवन-जुगति। निरोधर = (निरुध्) जिसका असर रोका ना जा सके। मंत = मंतर। बिसेख = विशेष, खास तौर पर। संगि = साथ, संगति में। जपि = जप के। रंगि = प्रेम में।8। अर्थ-सलोकु- हे नानक! अगर आठों पहर (परमात्मा) के गुण गाए जाएं, और अन्य सभी बंधन त्याग दिए जाएं, तो परमात्मा दयावान हो जाता है और जमदूत देख नहीं सकते (मौत का डर नजदीक नहीं फटकता, आत्मिक मौत पास नहीं आ सकती)।8। पउड़ी- (परमात्मा का नाम एक ऐसा) मंत्र है जिस का असर बेकार नहीं जा सकता, (इस मंत्र की बरकति से) जीवन-जुगति पवित्र हो जाती है, (मन में) सदा चाव ही चाव टिका रहता है, (हृदय का) कमल-फूल खिल जाता है (जैसे सूरज की किरणों से कमल-फूल खिलता है, वैसे ही नाम की बरकति से हृदय खिला रहता है)। (नाम के प्रताप में ही) आठों करामाती ताकतें और दुनिया के नौ खजाने आ जाते हैं, सारे पदार्थ प्राप्त हो जाते हैं, वह बुद्धि मिल जाती है जो कभी गलती नहीं करती। (हे भाई! परमात्मा का नाम ही) सारे धर्मों (का धर्म है, सारे तीर्थ-स्नानों से) पवित्र स्नान है। (नाम-सिमरन ही सारे शास्त्र आदि के दिए ज्ञान से) सबसे ऊँचा और श्रेष्ठ ज्ञान है। हे नानक! पूरे गुरू की संगति में रह के अगर हरि नाम का भजन किया जाय, परमात्मा के प्रेम रंग में टिक के हरि नाम जप के (संसार समुंद्र से) पार लांघ जाते हैं।8। सलोकु ॥ नाराइणु नह सिमरिओ मोहिओ सुआद बिकार ॥ नानक नामि बिसारिऐ नरक सुरग अवतार ॥९॥ पउड़ी ॥ नउमी नवे छिद्र अपवीत ॥ हरि नामु न जपहि करत बिपरीति ॥ पर त्रिअ रमहि बकहि साध निंद ॥ करन न सुनही हरि जसु बिंद ॥ हिरहि पर दरबु उदर कै ताई ॥ अगनि न निवरै त्रिसना न बुझाई ॥ हरि सेवा बिनु एह फल लागे ॥ नानक प्रभ बिसरत मरि जमहि अभागे ॥९॥ {पन्ना 298} पद्अर्थ: सलोकु = नामि बिसारिअै = अगर (परमात्मा) का नाम विसार दिया जाय। अवतार = जनम।9। पउड़ी। नवे = नौ ही। छिद्र = छेद, गोलकें (कान, नाक आदिक)। अपवीत = अपवित्र, गंदे। बिपरीत = उलटी रीति। पर = पराई। त्रिअ = सि्त्रयां। रमहि = भोगते हैं। बकहि = बोलते हैं। करन = कानों से। सुनही = सुनते। बिंद = थोड़ा समय भी। हिरहि = चुराते हैं। परदरबु = पराया धन (द्रव्य)। उदर = पेट। कै ताई = की खातिर। अगनि = लालच की आग। निवरै = दूर होती। ऐह फल = (बहुवचन)। मरि = मर के। जमहि = पैदा होते हैं। अभागे = बदनसीब, भाग्यहीन।9। अर्थ-सलोकु- (जिस मनुष्य ने कभी) परमात्मा का नाम नहीं सिमरा, (वह सदा) विकारों में (दुनिया के पदार्थों के) स्वादों में फंसा रहता है। हे नानक! अगर परमात्मा का नाम भुला दिया जाए तो नरक-स्वर्ग (भोगने के लिए बार-बार) जनम लेना पड़ता है।9। पउड़ी- जो मनुष्य परमात्मा का नाम नहीं जपते, वे (मानवता की मर्यादा के) उलट (बुरे) कर्म करते रहते हैं (इस वास्ते कान-नाक आदिक) नौवों इंद्रियां गंदी हुई रहती हैं। (प्रभू के सिमरन से टूटे हुए मनुष्य) पराई सि्त्रयां भोगते हैं और भले मनुष्यों की निंदा करते रहते हैं, वे कभी पल भर के लिए भी (अपने) कानों से परमात्मा की सिफत सालाह नहीं सुनते। (सिमरन-हीन लोग) अपना पेट भरने की खातिर पराया धन चुराते रहते हैं (फिर भी उनकी) लालच की आग नहीं बुझती, (उनके अंदर से) तृष्णा नहीं मिटती। हे नानक! परमात्मा की सेवा भगती के बिना (उनके सारे उद्यमों को ऊपर बताए हुए) ऐसे फल ही लगते हैं, परमात्मा को बिसारने के कारण वह भाग-हीन मनुष्य नित्य जनम-मरण के चक्कर में पड़े रहते हैं।9। सलोकु ॥ दस दिस खोजत मै फिरिओ जत देखउ तत सोइ ॥ मनु बसि आवै नानका जे पूरन किरपा होइ ॥१०॥ पउड़ी ॥ दसमी दस दुआर बसि कीने ॥ मनि संतोखु नाम जपि लीने ॥ करनी सुनीऐ जसु गोपाल ॥ नैनी पेखत साध दइआल ॥ रसना गुन गावै बेअंत ॥ मन महि चितवै पूरन भगवंत ॥ हसत चरन संत टहल कमाईऐ ॥ नानक इहु संजमु प्रभ किरपा पाईऐ ॥१०॥ {पन्ना 298-299} पद्अर्थ: सलोकु = दिस = (दिश्) तरफें। खोजत = ढूँढता। जत = (यत्र) जहाँ। देखउ = दूखूँ, मैं देखता हूँ। तत = तत्र, वहाँ। सोइ = वह (परमात्मा) ही। बसि = वश में।10। पउड़ी। दस दुआर = दस दरवाजे (दो कान, दो आँखें, दो नासिकाएं, मुंह, गुदा, लिंग और दिमाग)। मनि = मन में। करनी = कानों से। जसु = सिफत सालाह। नैनी = आँखों से। साध = गुरू। रसना = जीभ। भगवंत = भगवान, प्रभू। हसत = हाथों से। संजमु = जीवन-जुगति।10। अर्थ-सलोकु- हे नानक! (कह– वैसे तो) मैं जिधर देखता हूँ, उधर वह (परमात्मा) ही बस रहा है। (पर घर छोड़ के) दसों दिशाओं में मैं ढूँढता फिरा हूँ (जंगल आदि में कहीं भी मन वश में नहीं आता); मन तभी वश में आता है यदि सर्व-गुणों के मालिक परमात्मा की (अपनी) मेहर हो।10। पउड़ी- (जब परमात्मा की कृपा से मनुष्य) परमात्मा का नाम जपता है तो उसके मन में संतोख पैदा होता है, दसों ही इंद्रियों को मनुष्य अपने काबू में कर लेता है। (प्रभू की कृपा से) कानों से सृष्टि के पालनहार प्रभू की सिफतसालाह सुनी जाती है, आँखों से दया के घर गुरू का दर्शन करते हैं, जीभ बेअंत प्रभू के गुण गाने लग पड़ती है, और मनुष्य अपने मन में सर्व-व्यापक भगवान (के गुण) याद करता है। हाथों से संत जनों के चरणों की टहल की जाती है। हे नानक! ये (ऊपर बताई) जीवन-जुगति परमात्मा की कृपा से ही प्राप्त होती है।10। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |