श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 297 सलोकु ॥ तीनि बिआपहि जगत कउ तुरीआ पावै कोइ ॥ नानक संत निरमल भए जिन मनि वसिआ सोइ ॥३॥ पउड़ी ॥ त्रितीआ त्रै गुण बिखै फल कब उतम कब नीचु ॥ नरक सुरग भ्रमतउ घणो सदा संघारै मीचु ॥ हरख सोग सहसा संसारु हउ हउ करत बिहाइ ॥ जिनि कीए तिसहि न जाणनी चितवहि अनिक उपाइ ॥ आधि बिआधि उपाधि रस कबहु न तूटै ताप ॥ पारब्रहम पूरन धनी नह बूझै परताप ॥ मोह भरम बूडत घणो महा नरक महि वास ॥ करि किरपा प्रभ राखि लेहु नानक तेरी आस ॥३॥ {पन्ना 297} पद्अर्थ: सलोकु = तीनि = (माया के) तीन गुण (रजो, तमो व सतो)। बिआपहि = जोर डाले रखते हैं। तुरीआ = (तृरीय, तुर्य) चौथी। वेदांत फिलासफी के मुताबिक आत्मा की चौथी अवस्था जब ये परमात्मा के साथ एक रूप हो जाता है। कोइ = कोई विरला। मनि = मन में। सोइ = वह (परमात्मा) ही।3। पउड़ी- त्रितीआ-तीसरी तिथि। बिखै फल-विषौ विकारों के फल। भ्रमतउ-भटकना। घणो-बहुत जीव। संघारै-मारती है, आत्मिक मौत लाती है। मीचु-मौत, मौत का सहम। हरख-खुशी। सोग-ग़मी। सहसा-सहम। हउ हउ करत-‘मैं मैं’ करते, अहंकार में। जिनि-जिस (परमात्मा) ने। तिसहि-उस प्रभू को। जाणनी-जानते, गहरी सांझ डालते। उपाइ-ढंग। आधि-मन के रोग। व्याधि-शरीर के रोग। उपाधि-झगड़े ठॅगी फरेब आदि। रस-चस्के। धनी-मालिक। भरम-भटकना। प्रभ-हे प्रभू!।3। अर्थ: सलोक - हे नानक! जगत (के जीवों) पर (माया के) माया के तीन गुण अपना जोर डाल के रखते हैं। कोई विरला मनुष्य वह चौथी अवस्था प्राप्त करता है जहाँ वह परमात्मा से जुड़ा रहता है। जिन मनुष्यों के मन में वह परमात्मा ही सदा बसता है, वह संत जन पवित्र जीवन वाले हो जाते हैं।3। पउड़ी- माया के तीनों गुणों के प्रभाव में जीवों को विषौ-विकार रूपी फल ही मिलते हैं, कभी कोई (थोड़े समय के लिए) अच्छी अवस्था पाते हैं कभी नीची अवस्था में गिर पड़ते हैं। जीवों को नर्क-स्वर्ग (दुख-सुख भोगने पड़ते हैं) बहुत भटकना लगी रहती है, और मौत का सहिम सदा उनकी आत्मिक मौत का कारण बना रहता है। (तीन गुणों के अधीन जीवों की उम्र) अहंकार में बीतती है, कभी खुशी, कभी ग़मी, कभी सहम- ये चक्र (उनके वास्ते सदा बना रहता है)। जिस परमात्मा ने पैदा किया है, उससे गहरी सांझ नहीं डालते और (तीर्थ-स्नान वगैरा) और और धार्मिक कर्मों (यत्नों) के बारे में वह सदा सोचते रहते हैं। दुनिया के रसों (चस्कों) के कारन जीव को मन के रोग, शरीर के रोग व अन्य झगड़े-झमेले चिपके ही रहते हैं, कभी इसके मन का दुख-कलेश मिटता ही नहीं है। (रसों में फंसा मनुष्य) पूरन पारब्रहम मालिक प्रभू के प्रताप को नहीं समझता। बेअंत दुनिया माया के मोह और भटकना में गोते खा रही है, भारी नरकों (दुखों) में दिन काट रही है। (इससे बचने के लिए) हे नानक! (अरदास कर और कह–) हे प्रभू! किरपा करके मेरी रक्षा कर, मुझे तेरी (सहायता की) आस है।3। सलोकु ॥ चतुर सिआणा सुघड़ु सोइ जिनि तजिआ अभिमानु ॥ चारि पदारथ असट सिधि भजु नानक हरि नामु ॥४॥ पउड़ी ॥ चतुरथि चारे बेद सुणि सोधिओ ततु बीचारु ॥ सरब खेम कलिआण निधि राम नामु जपि सारु ॥ नरक निवारै दुख हरै तूटहि अनिक कलेस ॥ मीचु हुटै जम ते छुटै हरि कीरतन परवेस ॥ भउ बिनसै अम्रितु रसै रंगि रते निरंकार ॥ दुख दारिद अपवित्रता नासहि नाम अधार ॥ सुरि नर मुनि जन खोजते सुख सागर गोपाल ॥ मनु निरमलु मुखु ऊजला होइ नानक साध रवाल ॥४॥ {पन्ना 297} पद्अर्थ: सलोकु। चतुर = अक्लमंद। सुघड़ = सुजान। सोइ = वह (मनुष्य) ही। चारि पदारथ = (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष)। असट = आठ। सिधि = सिद्धियां, करामाती ताकतें। भजु = सिमरु, जप।4। पउड़ी। चतुरथि = चतुर्थी, चौथी तिथि। सुणि = सुन के। सोधिओ = निर्णय किया है। ततु = असल, निचोड़। खेम = खुशियां, सुख। निधि = खजाना। सारु = श्रेष्ठ। जपि = जप के। निवारै = दूर करता है। हरै = दूर करता है। तूटहि = टूट जाते हैं। मीचु = मौत, आत्मिक मौत। हुटै = समाप्त हो जाती है, थक जाती है। ते = से। रसै = रसता है, रच मिच जाता है। रंगि = रंग में। दारिद = दरिद्रता, गरीबी। अधार = आसरे। सुरि नर = दैवी गुणों वाले मनुष्य। ऊजला = रौशन। रवाल = चरणों की धूड़।4। अर्थ-सलोकु- हे नानक! परमात्मा का नाम (सदा) जपता रह (इसी में ही दुनिया के) चारों पदार्थ और (जोगियों वाली) आठों करामाती ताकतें। (नाम की बरकति से) जिस मनुष्य ने (अपने मन में से) अहंकार दूर कर लिया है, वही है अक्लमंद, सयाना और सुजान।4। पउड़ी- चारों ही वेद सुन के (हमने तो यह) निर्णय किया है, (यही) असल विचार (की बात मिली) है कि परमातमा का श्रेष्ठ नाम जप जप के सारे सुख मिल जाते हैं, सुखों का खजाना प्राप्त हो जाता है। (परमातमा का नाम) नरकों से बचा लेता है, सारे दुख दूर कर देता है, (नाम की बरकति से) अनेकों ही कलेश मिट जाते हैं। (जिस मनुष्य के हृदय में) परमातमा की सिफत सालाह का प्रवेश रहता है, उसकी आत्मिक मौत मिट जाती है, वह जमों से निजात प्राप्त कर लेता है। अगर निरंकार प्रभू के प्रेम रंग में रंगे जाएं तो (मन में से हरेक किस्म का) डर नाश हो जाता है और आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल (हृदय में) रच-मिच जाता है। परमात्मा के नाम के आसरे दुख, गरीबी और विकारों से पैदा हुई मलीनता- ये सब नाश हो जाते हैं। हे नानक! दैवी गुणों वाले मनुष्य और ऋषि लोग जिस सुखों-के-समुंद्र सृष्टि-के-पालनहार प्रभू की तलाश करते हैं, वह गुरू की चरण-धूड़ प्राप्त करने से मिल जाता है (और जिस मनुष्य को मिल जाता है उसका) मन पवित्र हो जाता है (लोक-परलोक में उसका) मुंह रौशन होता है।4। सलोकु ॥ पंच बिकार मन महि बसे राचे माइआ संगि ॥ साधसंगि होइ निरमला नानक प्रभ कै रंगि ॥५॥ पउड़ी ॥ पंचमि पंच प्रधान ते जिह जानिओ परपंचु ॥ कुसम बास बहु रंगु घणो सभ मिथिआ बलबंचु ॥ नह जापै नह बूझीऐ नह कछु करत बीचारु ॥ सुआद मोह रस बेधिओ अगिआनि रचिओ संसारु ॥ जनम मरण बहु जोनि भ्रमण कीने करम अनेक ॥ रचनहारु नह सिमरिओ मनि न बीचारि बिबेक ॥ भाउ भगति भगवान संगि माइआ लिपत न रंच ॥ नानक बिरले पाईअहि जो न रचहि परपंच ॥५॥ {पन्ना 297} पद्अर्थ: सलोकु = पंच = (काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार) पाँच (विकार)। महि = में। राचे = मस्त। संगि = साथ। साध संगि = साध-संगति में। रंगि = (प्रेम) रंग में।5। पउड़ी। पंचमि = पाँचवीं तिथि। पंच = संत जन। ते = वह मनुष्य (बहुवचन)। जिह = जिन्होंने। परुपंचु = जगत पसारा। कुसमबास = फूल की सुगंधि। मिथिआ = नाशवंत। बलबंचु = ठॅगी। जापै = सूझता। करत = करता। बेधिओ = बेधा हुआ। अगिआन = अज्ञान में। भ्रमण = भटकना। रचनहारु = सृजनहार करतार। मनि = मन में। बीचारि = विचार के। बिबेक = परख (की ताकत)। भाउ = प्रेम। रंच = रक्ती भर। पाईअहि = पाऐ जाते हैं, मिलते हैं। रचहि = रचते, मस्त होते।5। अर्थ-सलोकु- हे नानक! जो मनुष्य माया (के मोह) में मस्त रहते हैं, उनके मन में काम-क्रोध-लोभ-मोह-अहंकार (पाँचों विकार) टिके रहते हैं। पर जो मनुष्य गुरू की संगति में (रह के) परमात्मा के प्रेम रंग में रंगा रहता है, वह पवित्र जीवन वाला हो जाता है।5। पउड़ी- (जगत में) वह संत जन श्रेष्ठ माने जाते हैं जिन्होंने इस जगत पसारे को (ऐसे) समझ लिया है (कि ये) फूलों की सुगंधि (जैसा है, और भले ही) अनेकों रंगों वाला है (फिर भी) है सारा नाशवंत और ठॅगी ही। जगत (आम तौर पर) अज्ञान में मस्त रहता है, स्वादों में मोह लेने वाले रसों में बेधित रहता है, इसको (सही जीवन-जुगति) सूझती नहीं, ये समझता नहीं, और (सही जीवन-जुगति के बारे में) कोई विचार नहीं करता। जिस मनुष्य ने सृजनहार करतार का सिमरन नहीं किया, अपने मन में विचार के (भले-बुरे काम की) परख नहीं पैदा की, तथा और अनेकों ही कर्म करता रहा, वह जनम मरन के चक्कर में पड़ा रहा, वह अनेको जोनियों में भटकता रहा। हे नानक! (जगत में ऐसे लोग) दुर्लभ ही मिलते हैं जो इस जगत-पसारे (के मोह) में नहीं फंसते। जिन पर माया अपना रक्ती भर भी प्रभाव नहीं डाल सकती, और जो भगवान से प्रेम करते हैं भगवान की भगती करते हैं।5। सलोकु ॥ खट सासत्र ऊचौ कहहि अंतु न पारावार ॥ भगत सोहहि गुण गावते नानक प्रभ कै दुआर ॥६॥ पउड़ी ॥ खसटमि खट सासत्र कहहि सिम्रिति कथहि अनेक ॥ ऊतमु ऊचौ पारब्रहमु गुण अंतु न जाणहि सेख ॥ नारद मुनि जन सुक बिआस जसु गावत गोबिंद ॥ रस गीधे हरि सिउ बीधे भगत रचे भगवंत ॥ मोह मान भ्रमु बिनसिओ पाई सरनि दइआल ॥ चरन कमल मनि तनि बसे दरसनु देखि निहाल ॥ लाभु मिलै तोटा हिरै साधसंगि लिव लाइ ॥ खाटि खजाना गुण निधि हरे नानक नामु धिआइ ॥६॥ {पन्ना 297} पद्अर्थ: सलोकु = खट = छे। खट सासत्र = (सांख, योग, न्याय, वैशैषिक, मीमांसा, वेदांत)। पारावार = पार अवार, उस पार का इस पार का छोर। सोहहि = शोभते हैं। कै दुआरि = के दर पर।6। पउड़ी। खसटमि = छठी तिथि। कथहि = बयान करती हैं। सेख = शेशनाग (शेशनाग अपने हजार मुँहों से परमात्मा का नित्य नया नाम उचारता बताया गया है)। गुण अंत = गुणों का अंत। नारद = (ब्रहमां के दस पुत्रों में से एक, उसके जांघ में से पैदा हुआ। मनुष्यों और देवताओं के बीच का बिचोला, इनमें झगड़ा डालने में खुश रहता है। ‘वीणा’ इसी ने बनाई थी। एक स्मृति का कर्ता भी है)। सुक = मर्हिषी ब्यास का पुत्र (पैदा होता ही ज्ञानवान था। अप्सरा रम्भा ने बहुत भरमाया, पर डोला नहीं। राजा परीक्षित को भगवत् पुराण इसने सुनाई थी)। गीधे = भीगे हुए। बीधे = बेधे हुए। भगवंत = भगवान (की भगती में)। मनि = मन में। तनि = तन में, हृदय में। देखि = देख के। हिरै = दूर हो जाता है। लिव लाइ = लिव लगा के, सुरति जोड़ के। खाटि = कमा के। गुण निधि = गुणों के भंडार।6। अर्थ-सलोकु- छे शास्त्र ऊँचा (पुकार के) कहते हैं कि परमात्मा के गुणों का अंत नहीं पाया जा सकता, परमात्मा की हस्ती का इस पार का और उस पार का छोर नहीं मिल सकता। हे नानक! परमात्मा की भक्ति करने वाले बंदे परमात्मा के दर पर उस के गुण गाते सुंदर लगते हैं।6। पउड़ी- छे शास्त्र (परमात्मा का स्वरूप) बयान करते हैं, अनेको स्मृतियां (भी) बयान करती हैं (पर कोई उसके गुणों का अंत नहीं पा सकता)। परमात्मा (सबसे) श्रेष्ठ और (सबसे) ऊँचा है (किसी की उस तक पहुँच नहीं)। अनेकों शेशनाग भी उसके गुणों का अंत नहीं जान सकते। नारद ऋषि, अनेकों मुनिवर, सुखदेव और ब्यास (आदि ऋषि) गोबिंद की सिफत सालाह गाते हैं। भगवान के भगत उसके नाम-रस में भीगे रहते हैं, उसकी याद में परोए रहते हैं और भक्ति में मस्त रहते हैं। जिन मनुष्यों ने दया के घर प्रभू का आसरा ले लिया (उनके अंदर से माया का) मोह, अहंकार और भटकना सब कुछ नाश हो गया। जिन के मन में, हृदय में परमात्मा के सुंदर चरण बस गए, परमात्मा के दर्शन करके उनका तन-मन खिल पड़ा। साधसंगति के द्वारा प्रभू चरणों में सुरति जोड़ के (उच्च आत्मिक जीवन-रूप) लाभ कमा लेते हैं (विकारों की तरफ पड़ने से जो आत्मिक जीवन में कमी आती है, वह) कमी दूर हो जाती है। हे नानक! तू भी परमात्मा का नाम सिमर, और गुणों के खजाने परमात्मा के नाम का खजाना इकट्ठा कर।6। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |