श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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खेम सांति रिधि नव निधि ॥ बुधि गिआनु सरब तह सिधि ॥ बिदिआ तपु जोगु प्रभ धिआनु ॥ गिआनु स्रेसट ऊतम इसनानु ॥ चारि पदारथ कमल प्रगास ॥ सभ कै मधि सगल ते उदास ॥ सुंदरु चतुरु तत का बेता ॥ समदरसी एक द्रिसटेता ॥ इह फल तिसु जन कै मुखि भने ॥ गुर नानक नाम बचन मनि सुने ॥६॥ {पन्ना 296}

पद्अर्थ: खेम = अटॅल सुख। सांति = मन का टिकाव। रिधि = योग की ताकतें। नव निधि = नौ खजाने, जगत के सारे ही पदार्थ। सिधि = करामातें। तह = वहाँ, उस मनुष्य में। कमल प्रगास = हृदय रूपी कमल के फूल का खिलना। सभ कै मधि सगल ते उदास = सब के बीच में रहता हुआ भी सब से उपराम। तत का बेता = प्रभू का महिरम, (जगत के) मूल तत्व को जानने वाला। समदरसी = (सभी को) एक सा देखने वाला। इह फल = ये सारे फल (जिनका ऊपर जिक्र किया गया है)। मुखि = मूह से। भने = उचारने से।

अर्थ: अटॅल सुख मन का टिकाव, रिद्धियां और नौ खजाने, अक्ल, ज्ञान और सारी ही करामातें उस मनुष्य में (आ जाती हैं)।

विद्या, तप, जोग, अकाल-पुरख का ध्यान, श्रेष्ठ ज्ञान, बढ़िया से बढ़िया (भाव, तीर्थों का) स्नान;

(धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) चारों पदार्थ, हृदय कमल का खिलना; सभी में रहते हुए भी सभी से उपराम रहना;

सुंदर, समझदार, (जगत के) मूल तत्व को जानने वाला, सब को ऐक जैसा जानना और सब को एक नजर से देखना;

ये सारे फल; हे नानक! उस मनुष्य के अंदर आ बसते हैं; जो गुरू के शबद और प्रभू का नाम मुँह से उचारता है और मन लगा के सुनता है।6।

इहु निधानु जपै मनि कोइ ॥ सभ जुग महि ता की गति होइ ॥ गुण गोबिंद नाम धुनि बाणी ॥ सिम्रिति सासत्र बेद बखाणी ॥ सगल मतांत केवल हरि नाम ॥ गोबिंद भगत कै मनि बिस्राम ॥ कोटि अप्राध साधसंगि मिटै ॥ संत क्रिपा ते जम ते छुटै ॥ जा कै मसतकि करम प्रभि पाए ॥ साध सरणि नानक ते आए ॥७॥ {पन्ना 296}

पद्अर्थ: जुग = (सं: युग) जिंदगी का समय। गति = उच्च अवस्था। बाणी = (नाम जपने वाले की) वाणी, वचन। गुण गोबिंद = गोबिंद के गुण। नाम धुनि = प्रभू के नाम की धुनि, नाम की रौंअ। बखाणी = कही है। मतांत = मतों का अंत, मतों का नतीजा। करम = बख्शिश। प्रभि = प्रभू ने। कोइ = अगर कोई मनुष्य।

अर्थ: जो भी मनुष्य इस नाम को (जो गुणों का) खजाना है, जपता है, सारी उम्र उसकी उच्च आत्मिक अवस्था बनी रहती है।

उस मनुष्य के (साधारण) वचन भी गोबिंद के गुण और नाम की रौंअ के ही होते हैं, स्मृतियों, शास्त्रों और वेदों ने भी यही बात कही है।

सारे मतों का निचोड़ प्रभू का नाम ही है, इस नाम का निवास प्रभू के भगत के मन में होता है।

(जो मनुष्य नाम जपता है उस के) करोड़ों पाप सत्संग में रह के मिट जाते हैं, गुरू की कृपा से वह मनुष्य जमों से बच जाता है।

(पर) हे नानक! जिन के माथे पर प्रभू ने (नाम की) बख्शिश के लेख लिख धरे हैं, वह मनुष्य गुरू की शरण आते हैं।7।

जिसु मनि बसै सुनै लाइ प्रीति ॥ तिसु जन आवै हरि प्रभु चीति ॥ जनम मरन ता का दूखु निवारै ॥ दुलभ देह ततकाल उधारै ॥ निरमल सोभा अम्रित ता की बानी ॥ एकु नामु मन माहि समानी ॥ दूख रोग बिनसे भै भरम ॥ साध नाम निरमल ता के करम ॥ सभ ते ऊच ता की सोभा बनी ॥ नानक इह गुणि नामु सुखमनी ॥८॥२४॥ {पन्ना 296}

पद्अर्थ: ततकाल = (सं: तद्+कालं, तत्कालं = instantly, at that time) उसी समय। ता की बानी = उस मनुष्य के बचन। करम = काम। इह गुणि = इस गुण के कारण। सुखमनी = सुखों की मणि। देह = शरीर।

अर्थ: जिस मनुष्य के मन में (नाम) बसता है जो प्रीत लगा के (नाम) सुनता है, उस को प्रभू याद आता है;

उस मनुष्य के पैदा होने मरने के कष्ट काटे जाते हैं, वह इस दुर्लभ मानव-शरीर को उसी वक्त (विकारों से) बचा लेता है।

उसकी बेदाग शोभा और उसकी बाणी (नाम-) अमृत से भरपूर होती है, (क्योंकि) उसके मन में प्रभू का नाम ही बसा रहता है।

दुख, रोग, डर और वहम उसके नाश हो जाते हैं, उसका नाम ‘साधु’ पड़ जाता है और उसके काम (विकारों की) मैल से साफ होते हैं।

सबसे ऊँची शोभा उसको मिलती है। हे नानक! इस गुण के कारण (प्रभू का) नाम सुखों की मणी है (भाव, सर्वोक्तम सुख है)।8।24।

थिती गउड़ी महला ५ ॥ सलोकु ॥ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ जलि थलि महीअलि पूरिआ सुआमी सिरजनहारु ॥ अनिक भांति होइ पसरिआ नानक एकंकारु ॥१॥

पउड़ी ॥ एकम एकंकारु प्रभु करउ बंदना धिआइ ॥ गुण गोबिंद गुपाल प्रभ सरनि परउ हरि राइ ॥ ता की आस कलिआण सुख जा ते सभु कछु होइ ॥ चारि कुंट दह दिसि भ्रमिओ तिसु बिनु अवरु न कोइ ॥ बेद पुरान सिम्रिति सुने बहु बिधि करउ बीचारु ॥ पतित उधारन भै हरन सुख सागर निरंकार ॥ दाता भुगता देनहारु तिसु बिनु अवरु न जाइ ॥ जो चाहहि सोई मिलै नानक हरि गुन गाइ ॥१॥ गोबिंद जसु गाईऐ हरि नीत ॥ मिलि भजीऐ साधसंगि मेरे मीत ॥१॥ रहाउ ॥ {पन्ना 296}

पद्अर्थ: थिती = (शब्द ‘थिति’ का बहुवचन; जैसे ‘राति’ से ‘राती’, ‘रुति’ से ‘रुती’)।

नोट: अमावस्या के बाद चंद्रमा सहजे-सहजे एक-एक ‘कला’ करके बढ़न शुरू होता है और चौदह दिनों में मुकम्मल होता है, जिसे पूरनमासी कहते हैं। पूरनमासी के बाद एक-एक ‘कला’ करके घटना शुरू हो जाता है, और आखिर अमावस की रात को पूरी तरह अलोप हो जाता है। ‘थिति’ की संस्कृत शब्द ‘तिथि’ है, भाव चंद्रमा के घटने-बढ़ने का हिसाब दिवस। इनके नाम हैं– एकम, दूज, तीज, चतुर्थी, पंचमी, खट, सप्तमी, अष्टमी, नौमी, दसमी, एकादशी, द्वादशी, त्रियोदशी, चौदश, पूरनमाशी। पूरनमाशी के बाद फिर उसी तरह एकम, दूज आदि से चल के आखिर पर अमावस।

जलि = पानी। थलि = धरती पर। महीअलि = मही तलि, धरती के तल पर, पाताल में, आकाश में। भांति = तरीके। पसरिआ = पसरा हुआ, खिलरा हुआ। एकंकारु = एक अकाल-पुरख।1।

पउड़ी- एकम = पूरनमाशी से अगली ‘तिथि’ जब चंद्रमा की एक कला कम हो जाती है और चंद्रमा का आकार पूरे आकार से चौदहवाँ हिस्सा रौशन नहीं रहता। करउ = करूँ, मैं करता हूँ।

बंदना= नमस्कार। परउ = मैं पड़ता हूँ। ता की= उस (परमात्मा) की। जा ते = जिस (परमात्मा) से। कुंट = कूट, पासे। दह दिसि = दसों दिशाओं में (चढ़ता, उतरता, दक्षिण, पहाड़, चारों कोने, ऊपर, नीचे)। सुने = सुन के। पतित उधारन = (विकारों में) गिरे हुए को बचाने वाला। भै हरन = (सारे) डर दूर करने वाला। सागर = समुंद्र। भुगता = (सब जीवों में व्यापक हो के) भोगने वाला। जाइ = जगह। चाहहि = तू चाहेगा।1।

जसु = सिफत = सालाह। गाईअै = गाना चाहिए। नीत = सदा। मिलि = मिल के। साध संगि = साध = संगति में। मीत = हे मित्र! । रहाउ।

अर्थ: सलोकु- हे नानक! सारे जगत को पैदा करने वाला मालिक प्रभू जल में, धरती में और आकाश में भरपूर है, वह एक अकाल-पुरख अनेकों ही तरीकों से (जगत में हर जगह) बिखरा हुआ है।

पउड़ी- (हे भाई!) मैं एक अकाल-पुरख प्रभू को सिमर के (उसके आगे ही) नमस्कार करता हूँ, मैं गोबिंद, गोपाल, प्रभू के गुण (गाता हूँ, और उस) प्रभू पातशाह की शरण पड़ता हूँ। (हे भाई!) जिस मालिक प्रभू (के हुकम) से ही (जगत में) सब कुछ हो रहा है, उसकी आस रखने से सारे सुख मिलते हैं। मैंने चारों कुंटों और दसों दिशाओं में घूम के देख लिया है उस (मालिक प्रभू) के बिना और कोई (रक्षक) नहीं है।

(हे भाई!) वेद, पुराण, स्मृतियां (आदि धर्म-पुस्तकें) सुन के मैं (और भी) अनेकों ढंग-तरीकों से विचार करता हूँ (और, इस नतीजे पर पहुँचता हूँ कि) आकार-रहित परमात्मा ही (विकारों में) गिरे हुए जीवों को (विकारों से) बचाने वाला है (जीवों के) सारे डर दूर करने वाला है और सुखों का समुंद्र है।

हे नानक! (सदा) परमात्मा के गुण गाता रह, (उससे) जो कुछ तू चाहेगा वही मिल जाता है। वह परमात्मा ही सब दातें देने वाला है, (सब जीवों में व्यापक हो के सारे पदार्थ) भोगने वाला है, सब कुछ देने की स्मर्था वाला है, उसके बिना (जीवों के लिए) और कोई जगह-आसरा नहीं है।1।

हे मेरे मित्र! सदा ही गोबिंद प्रभू की सिफत-सालाह गाते रहना चाहिए, साधसंगति में मिल के (उसका) भजन सिमरन करना चाहिए। रहाउ।

सलोकु ॥ करउ बंदना अनिक वार सरनि परउ हरि राइ ॥ भ्रमु कटीऐ नानक साधसंगि दुतीआ भाउ मिटाइ ॥२॥

पउड़ी ॥ दुतीआ दुरमति दूरि करि गुर सेवा करि नीत ॥ राम रतनु मनि तनि बसै तजि कामु क्रोधु लोभु मीत ॥ मरणु मिटै जीवनु मिलै बिनसहि सगल कलेस ॥ आपु तजहु गोबिंद भजहु भाउ भगति परवेस ॥ लाभु मिलै तोटा हिरै हरि दरगह पतिवंत ॥ राम नाम धनु संचवै साच साह भगवंत ॥ ऊठत बैठत हरि भजहु साधू संगि परीति ॥ नानक दुरमति छुटि गई पारब्रहम बसे चीति ॥२॥ {पन्ना 296-297}

पद्अर्थ: सलोकु। करउ = मैं करता हूँ। परउ = मैं पड़ता हूँ। हरि राइ = प्रभू पातशाह (की)। भ्रम = भटकना। साध संगि = साध-संगति में रहने से। दुतिया = दूसरा। भाउ = प्यार। मिटाइ = मिटा के।2।

दुतीआ = दूज की तिथि। दुरमति = खोटी मति। नीत = नित्य, सदा। मनि = मन में। तनि = हृदय में। तजि = दूर कर। मीत = हे मित्र! मरणु = आत्मिक मौत। बिनसहि = नाश हो जाते हैं। सगल = सारे। आपु = स्वै भाव, अहंम्। भाउ = प्रेम। तोटा = (आत्मिक जीवन में पड़ रही) कमी। हिरै = दूर हो जाती है। पतिवंत = इज्ज़त वाले। संचवै = संचित करता है। साच = सदा कायम रहने वाले। भगवंत = भाग्यों वाले। चीति = चिक्त में।2।

अर्थ: सलोकु- (हे भाई!) मैं प्रभू पातशाह की शरण पड़ता हूँ और (उसके दर पर) अनेकों बार नमस्कार करता हूँ। हे नानक! साध-संगति में रह के (प्रभू के बिना) और-और मोह-प्यार दूर करने से मन की भटकना दूर हो जाती है।2।

पउड़ी- (हे भाई!) सदा गुरू की बताई हुई सेवा करता रह, (और इस तरह अपने अंदर से) खोटी मति निकाल। हे मित्र! (अपने अंदर से) काम-क्रोध-लोभ दूर कर, (जो मनुष्य ये उद्यम करता है उसके) मन में हृदय में रतन (जैसा कीमती) प्रभू नाम आ बसता है।

(हे मित्र! अपने मन में से) अहंकार दूर करो और परमात्मा का भजन करो। (जो मनुष्य ऐसा करने का प्रयत्न करता है उसको) आत्मिक जीवन मिल जाता है, उसे (स्वच्छ पवित्र) जीवन मिल जाता है। उसके सारे दुख-कलेश मिट जाते हैं, उसके अंदर प्रभू प्रेम आ बसता है, प्रभू की भक्ति आ बसती है।

(हे भाई!) जो जो मनुष्य परमात्मा का नाम धन इकट्ठा करता है, वे सब भाग्यशाली हो जाते हैं, वह सदा के लिए शाहूकार बन जाते हैं, (आत्मिक जीवन में उन्हें) फायदा ही फायदा होता है और (आत्मिक जीवन में पड़ रही) घाट (उनके अंदर से) निकल जाती है, वे परमात्मा की दरगाह में इज्ज़त वाले हो जाते हैं।

(हे भाई!) उठते-बैठते हर वक्त परमात्मा का भजन करो और गुरू की संगति में प्रेम पैदा करो। हे नानक! (जिस मनुष्य ने ये उद्यम किया उसकी) खोटी मति नहीं रही, परमात्मा सदा के लिए उसके चिक्त में आ बसा।2।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh