श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सलोक मः ४ ॥ सुणि साजन प्रेम संदेसरा अखी तार लगंनि ॥ गुरि तुठै सजणु मेलिआ जन नानक सुखि सवंनि ॥१॥ {पन्ना 302}

पद्अर्थ: अखी = आँखें। गुरि = गुरू ने। सवंनि = सोते हैं, लीन रहते हैं।1।

अर्थ: सज्जन प्रभू का प्यार भरा संदेशा सुन के (जिन की) आँखें तार में (भाव, दीदार की उम्मीद में) लग जाती हैं; हे नानक! गुरू ने प्रसन्न हो के उनको सज्जन मिलाया है, और वे सुख में टिके रहते हैं।1।

मः ४ ॥ सतिगुरु दाता दइआलु है जिस नो दइआ सदा होइ ॥ सतिगुरु अंदरहु निरवैरु है सभु देखै ब्रहमु इकु सोइ ॥ निरवैरा नालि जि वैरु चलाइदे तिन विचहु तिसटिआ न कोइ ॥ सतिगुरु सभना दा भला मनाइदा तिस दा बुरा किउ होइ ॥ सतिगुर नो जेहा को इछदा तेहा फलु पाए कोइ ॥ नानक करता सभु किछु जाणदा जिदू किछु गुझा न होइ ॥२॥ {पन्ना 302}

पद्अर्थ: तिसटिआ = टिका हुआ, शांत चिक्त हुआ। गुझा = छुपा हुआ।2।

अर्थ: दातें बख्शने वाला सतिगुरू दया का घर है, उसके (हृदय) में सदा दया (ही दया) है। सतिगुरू के (हृदय) में किसी के साथ वैर नहीं, वह सब जगह एक प्रभू को देख रहा है (इसलिए वह वैर किस के साथ करे? पर कई मूर्ख मनुष्य निर्वैर गुरू के साथ भी वैर करने से नहीं हटते) जो मनुष्य निर्वैरों के साथ वैर कमाते हैं उनमें से किसी भी के हृदय में कभी भी शांति नहीं आई (भाव, वे सदा दुखी रहते हैं) (और) सतिगुरू का बुरा तो हो ही नहीं सकता (क्योंकि) वह सबका भला सोचता है। जिस भावना से कोई जीव सतिगुरू के पास जाता है उसको वैसा फल मिल जाता है (जाहरदारी सफल नहीं हो सकती); क्योंकि, हे नानक! रचनहार प्रभू से कोई बात छुपाई नहीं जा सकती, वह (अंदर की और बाहर की) हर बात जानता है।2।

पउड़ी ॥ जिस नो साहिबु वडा करे सोई वड जाणी ॥ जिसु साहिब भावै तिसु बखसि लए सो साहिब मनि भाणी ॥ जे को ओस दी रीस करे सो मूड़ अजाणी ॥ जिस नो सतिगुरु मेले सु गुण रवै गुण आखि वखाणी ॥ नानक सचा सचु है बुझि सचि समाणी ॥५॥ {पन्ना 302}

पद्अर्थ: साहिब मनि = साहिब के मन में। सचि = सदा स्थिर प्रभू में।5।

अर्थ: जिस (जीव-स्त्री) की मालिक प्रभू सराहना करे वही (दरअसल) बड़ी समझनी चाहिए। जिस को चाहे प्रभू मालिक बख्श लेता है, और वह साहिब के मन में प्यारी लगती है। वह (जीव-स्त्री) मूर्ख व अंजान है जो उसकी रीस करती है, (क्योंकि, रीस करने से कुछ भी हाथ नहीं आता, यहाँ तो) जिसे सतिगुरू मिलाता है (वही मिलती है और) (हरी की) सिफत सलाह ही उच्चारण करके (औरों को सुनाती है)। हे नानक! प्रभू सदा स्थिर रहने वाला है, (इस बात को अच्छी तरह) समझ के (वह जीव-स्त्री) सच्चे प्रभू में लीन हो जाती है।5।

सलोक मः ४ ॥ हरि सति निरंजन अमरु है निरभउ निरवैरु निरंकारु ॥ जिन जपिआ इक मनि इक चिति तिन लथा हउमै भारु ॥ जिन गुरमुखि हरि आराधिआ तिन संत जना जैकारु ॥ कोई निंदा करे पूरे सतिगुरू की तिस नो फिटु फिटु कहै सभु संसारु ॥ सतिगुर विचि आपि वरतदा हरि आपे रखणहारु ॥ धनु धंनु गुरू गुण गावदा तिस नो सदा सदा नमसकारु ॥ जन नानक तिन कउ वारिआ जिन जपिआ सिरजणहारु ॥१॥ {पन्ना 302}

पद्अर्थ: निरंजनु = निर+अंजन। अंजन = कालिख, माया का प्रभाव। निरभउ = जिसे कोई डर नही। निरंकारु = जिस का कोई खास शरीर नहीं। इक मनि = एक मन से, मन लगा के, मन एक हरी की ओर लगा के। गुरमुखि = गुरू की ओर मुंह करके। जैकारु = वडिआई, उपमा। फिटु फिटु कहै = धिक्कारें डालता है। वरतदा = मौजूद है। धंनु = मुबारक। वारिआ = सदके।1।

अर्थ: प्रभू सचमुच है, माया से निर्लिप है, काल रहित निरभउ निर्वैर और आकार रहित है, जिन्होंने एकाग्र मन हो के उसका सिमरन किया है, उनके मन से अहंकार का बोझ उतर गया है। (पर) उन संत जनों को ही वडिआई मिलती है जिन्होंने गुरू के सन्मुख हो के सिमरन किया है। जो कोई पूरे सतिगुरू की निंदा करता है उसे सारा संसार धिक्कारता है (वह निंदक सतिगुरू का कुछ बिगाड़ नहीं सकता, क्योंकि) प्रभू स्वयं सतिगुरू में बसता है और वह स्वयं रक्षा करने वाला है। धन्य है गुरू जो हरी के गुण गाता है, उसके आगे सदा सिर झुकाना चाहिए। (कह) हे नानक! मैं सदके हूँ, उन हरी के दासों से जिन्होंने सृजनहार को आराधा है।1।

मः ४ ॥ आपे धरती साजीअनु आपे आकासु ॥ विचि आपे जंत उपाइअनु मुखि आपे देइ गिरासु ॥ सभु आपे आपि वरतदा आपे ही गुणतासु ॥ जन नानक नामु धिआइ तू सभि किलविख कटे तासु ॥२॥ {पन्ना 302}

पद्अर्थ: साजीअनु = साजी उसने। उपाइअनु = पैदा की उसने। गिरासु = ग्रास, खुराक। सभु = हर जगह। गुणतासु = गुणों का खजाना। सभि = सारे। किलविख = पाप। तासु = उस के।2।

अर्थ: प्रभू ने खुद ही धरती की रचना की और खुद ही आकाश। इस धरती में उसने जीव-जंतु पैदा किए और खुद ही (जीवों के) मुंह में ग्रास देता है। गुणों का खजाना (हरी) खुद ही सब जीवों के अंदर व्यापक है। हे दास नानक! तू प्रभू का नाम जप, (जिसने जपा है) उसके सारे पाप प्रभू दूर करता है।2।

पउड़ी ॥ तू सचा साहिबु सचु है सचु सचे भावै ॥ जो तुधु सचु सलाहदे तिन जम कंकरु नेड़ि न आवै ॥ तिन के मुख दरि उजले जिन हरि हिरदै सचा भावै ॥ कूड़िआर पिछाहा सटीअनि कूड़ु हिरदै कपटु महा दुखु पावै ॥ मुह काले कूड़िआरीआ कूड़िआर कूड़ो होइ जावै ॥६॥ {पन्ना 302}

पद्अर्थ: जम कंकरु = जम का सेवक, जमदूत। उजले = खिले हुए। सटीअनि = फेंके जाते हैं। हिरदै = हृदय में। कूड़ो = झूठ ही।6।

अर्थ: हे हरी! तू सच्चा और स्थिर रहने वाला मालिक है, तुझे सच ही प्यारा लगता है। हे सच्चे प्रभू! जो जीव तेरी सिफत सालाह करते हैं, जमदूत उनके नजदीक नहीं फटकता। जिनके हृदय को सच्चा प्रभू प्यारा लगता है, उनके मुंह दरगाह में उज्जवल होते हैं, (पर) झूठ का व्यापार करने वालों के हृदय में झूठ और कपट होने के कारण वे पीछे फेंक दिए जाते हैं और बहुत दुखी होते हैं। झूठों का मुँह (दरगाह में) काले होते हैं (क्योंकि) उनके झूठ का पर्दा-फाश हो जाता है।6।

सलोक मः ४ ॥ सतिगुरु धरती धरम है तिसु विचि जेहा को बीजे तेहा फलु पाए ॥ गुरसिखी अम्रितु बीजिआ तिन अम्रित फलु हरि पाए ॥ ओना हलति पलति मुख उजले ओइ हरि दरगह सची पैनाए ॥ इकन्हा अंदरि खोटु नित खोटु कमावहि ओहु जेहा बीजे तेहा फलु खाए ॥ जा सतिगुरु सराफु नदरि करि देखै सुआवगीर सभि उघड़ि आए ॥ ओइ जेहा चितवहि नित तेहा पाइनि ओइ तेहो जेहे दयि वजाए ॥ नानक दुही सिरी खसमु आपे वरतै नित करि करि देखै चलत सबाए ॥१॥ {पन्ना 302-303}

पद्अर्थ: गुरसिखी = गुरू के सिखों ने। हलति = इस लोक में। पलति = परलोक में। पैनाऐ = माने जाते हैं, आदर दिया जाता है। ओइ = (शब्द ‘ओह’ का बहुवचन)। सुआवगीर = स्वार्थ को पकड़ने वाले, स्वार्थी लोग। दयु = पति। दइ = पति ने। वजाऐ = प्रगट किए। सिरी = सिरीं, सिरे से, तरफ से। चलत = चलित्र, चमत्कार। सबाऐ = सारे।1।

अर्थ: (धरती के स्वभाव की तरह) सतिगुरू (भी) धर्म की भूमि है, जिस तरह (की भावना) का बीज कोई बीजता है, वैसा ही फल लेता है। जिन गुरसिखों ने नाम-अमृत बीजा है उन्हें प्रभू-प्राप्ति-रूपी अमृत फल ही मिल गया है। इस संसार में और अगले जहान में वे सुर्ख-रू होते हैं, और प्रभू की सच्ची दरगाह में उनका आदर होता है। एक जीवों के हृदय में खोट (होने के कारण) वे सदा खोटे कर्म करते हैं। ऐसा आदमी वैसा ही फल खाता है, (क्योंकि) जब सतिगुरू-सर्राफ ध्यान से परखता है तो सारे खुदगरज प्रगट हो जाते हैं (भाव, छुपे नहीं रह सकते)। जैसी उनके हृदय की भावना होती है, वैसा ही उनको फल मिलता है, और पति प्रभू के द्वारा वह उसी तरह नश्र कर दिए जाते हैं, (पर) हे नानक! (जीव के भी क्या वश?) ये सारे चरित्र प्रभू खुद हमेशा करके देख रहा है और दोनों तरफ (गुरसिखों में और स्वावगीरों में) स्वयं ही परमात्मा मौजूद है।1।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh