श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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मः ४ ॥ इकु मनु इकु वरतदा जितु लगै सो थाइ पाइ ॥ कोई गला करे घनेरीआ जि घरि वथु होवै साई खाइ ॥ बिनु सतिगुर सोझी ना पवै अहंकारु न विचहु जाइ ॥ अहंकारीआ नो दुख भुख है हथु तडहि घरि घरि मंगाइ ॥ कूड़ु ठगी गुझी ना रहै मुलमा पाजु लहि जाइ ॥ जिसु होवै पूरबि लिखिआ तिसु सतिगुरु मिलै प्रभु आइ ॥ जिउ लोहा पारसि भेटीऐ मिलि संगति सुवरनु होइ जाइ ॥ जन नानक के प्रभ तू धणी जिउ भावै तिवै चलाइ ॥२॥ {पन्ना 303}

पद्अर्थ: जितु = जहाँ। थाइ पाइ = हासिल कर लेता है। वथु = वस्तु। घरि घरि = हरेक घर में। गुझी = छुपी। मुलंमा पाजु = दिखावा। पारसु = पारस से। सुवरनु = सोना। धणी = मालिक।

अर्थ: मन एक है और एक तरफ ही लग सकता है, जहाँ जुड़ता है, वहाँ सफलता हासिल कर लेता है। बहुती बातें बाहर-बाहर से कोई करता रहे (भाव, बातें करने से कोई लाभ नहीं), खा तो वही वस्तु सकता है जो घर में हो (भाव, मन जहाँ लगा हुआ है, प्राप्त तो वही चीज होनी है)। मन को सतिगुरू के अधीन किए बिना (ये बात) समझ नहीं आती और हृदय में से अहंकार दूर नहीं होता। अहंकारी जीवों को (सदा) तृष्णा और दुख (सताते हैं), (तृष्णा के कारण) हाथ फैला के घर-घर मांगते फिरते हैं (भाव, उनकी तृप्ति नहीं होती इसी कारण वे दुखी रहते हैं)। उनका मुलम्मा पाज (दिखावा) उतर जाता है और झूठ और ठॅगी छुपी नहीं रह सकती। (पर, उन बिचारों के भी क्या वश?) पिछले (किए अच्छे कर्मों के मुताबिक जिनके हृदय पर भले संस्कार) लिखे हुए हैं, उन्हें पूरा सतिगुरू मिल जाता है, और जैसे पारस लग के लोहा सोना बन जाता है वैसे ही संगति में मिल के (वह भी अच्छे बन जाते हैं)। हे दास नानक के प्रभू! (जीवों के हाथ कुछ नहीं) तू खुद ही सब का मालिक है जैसे तुझे ठीक लगता है वैसे ही जीवों को चलाता है।2।

पउड़ी ॥ जिन हरि हिरदै सेविआ तिन हरि आपि मिलाए ॥ गुण की साझि तिन सिउ करी सभि अवगण सबदि जलाए ॥ अउगण विकणि पलरी जिसु देहि सु सचे पाए ॥ बलिहारी गुर आपणे जिनि अउगण मेटि गुण परगटीआए ॥ वडी वडिआई वडे की गुरमुखि आलाए ॥७॥ {पन्ना 303}

पद्अर्थ: विकणि = बेचने के लिए। पलरी = पराली के बदले। आलाऐ = उच्चारता है।7।

(नोट: शब्द ‘विकणि’ का अर्थ ‘बिकते है’ करना गलत है; वह शब्द ‘विकनि’ होता है)।

अर्थ: जिन जीवों ने प्रभू का सिमरन किया, उन्हें प्रभू (अपने में) मिला लेता है, उनके साथ (उनके) गुणों की जिन्होंने सांझ की है, उनके सारे पाप शबद द्वारा जल जाते हैं। (पर) हे सच्चे प्रभू! अवगुणों को पराली के भाव बेचने के लिए (अर्थात, सहजे ही नाश करने के लिए) गुणों की ये सांझ उसी को मिलती है जिसे तू खुद देता है। मैं सदके हूँ अपने सतिगुरू से जिसने (जीव के) पाप दूर करके गुण प्रगट किए हैं। जो जीव सतिगुरू के सनमुख होता है, वही महान प्रभू की महान सिफतसालाह करने लग जाता है।7।

सलोक मः ४ ॥ सतिगुर विचि वडी वडिआई जो अनदिनु हरि हरि नामु धिआवै ॥ हरि हरि नामु रमत सुच संजमु हरि नामे ही त्रिपतावै ॥ हरि नामु ताणु हरि नामु दीबाणु हरि नामो रख करावै ॥ जो चितु लाइ पूजे गुर मूरति सो मन इछे फल पावै ॥ {पन्ना 303}

पद्अर्थ: वडिआई = गुण। अनदिनु = हर रोज। रमत = सिमरना। ताणु = बल। दीबाणु = आसरा। रख = रक्षा। गुर मूरति = गुरू का ये स्वरूप (जिसका वर्णन ऊपर किया गया है)।

अर्थ: सतिगुरू में ये बहुत बड़ा गुण है कि वह हर रोज प्रभू नाम का सिमरन करता है, सतिगुरू की सुच और संयम हरी-नाम का जाप है और वह हरी-नाम में ही तृप्त रहता है। हरी का नाम ही आसरा और नाम ही सतिगुरू के लिए रक्षा करने वाला है। जो मनुष्य इस गुर-मूरति का पूजन चिक्त लगा के करता है (भाव, जो जीव ध्यान से सतिगुरू के उक्त लिखे गुणों को धारण करता है) उसे वही फल मिल जाता है जिसकी मन में इच्छा करे।

जो निंदा करे सतिगुर पूरे की तिसु करता मार दिवावै ॥ फेरि ओह वेला ओसु हथि न आवै ओहु आपणा बीजिआ आपे खावै ॥ नरकि घोरि मुहि कालै खड़िआ जिउ तसकरु पाइ गलावै ॥ फिरि सतिगुर की सरणी पवै ता उबरै जा हरि हरि नामु धिआवै ॥ हरि बाता आखि सुणाए नानकु हरि करते एवै भावै ॥१॥ {पन्ना 303}

पद्अर्थ: मार = सजा। तसकर = चोर। गलावै = गले की रस्सी।1।

(नोट: ईष्या के कारण मनुष्य दूसरे की निंदा करता है सो निंदा करते वक्त वह ईष्या के आग-रूपी घोर नरक में जल रहा होता है, और जिन के पास निंदा करता है उनकी नजरों में भी हलका पड़ता है। सो, जलने और मुँह-कालख, ये दो किस्म की मार निंदक को पड़ती है)।

अर्थ: जो मनुष्य पूरे सतिगुरू की निंदा करता है, उसे प्रभू मार पड़वाता है, अपने हाथों से निंदा के बीज बीजने का फल उसे भोगना पड़ता है (तब पछताता है, पर) फिर जो समय (निंदा करने में बीत गया है) उसे मिलता नहीं, और जैसे चोर को गले में रस्सी डाल के ले जाते हैं वैसे मुँह काला करके (मानो) डरावने नरक में (उसको भी) डाल दिया जाता है।

फिर इस (निंदा-रूपी घोर नरक में से) तब ही बचता है, अगर सतिगुरू की शरण पड़ कर प्रभू का नाम जपे। नानक परमात्मा (के दर) की बातें कह के सुना रहा है; परमात्मा को ऐसे ही भाता है (कि निंदक ईष्या के नर्क में खुद ही जलता रहे)।1।

मः ४ ॥ पूरे गुर का हुकमु न मंनै ओहु मनमुखु अगिआनु मुठा बिखु माइआ ॥ ओसु अंदरि कूड़ु कूड़ो करि बुझै अणहोदे झगड़े दयि ओस दै गलि पाइआ ॥ ओहु गल फरोसी करे बहुतेरी ओस दा बोलिआ किसै न भाइआ ॥ ओहु घरि घरि हंढै जिउ रंन दुोहागणि ओसु नालि मुहु जोड़े ओसु भी लछणु लाइआ ॥ {पन्ना 303}

पद्अर्थ: बिखु = जहर। अणहोदे = जिनका कोई अस्तित्व नहीं, निकम्मे। दयु = पति। दयि = पति ने। गलि = गले में। गल फरोसी = बातों की कमाई खानी, बातें बेचनी। लछणु = कलंक।

दुोहागणि: अक्षर ‘द’ के साथ ‘ु’ मात्रा लगा के पढ़ना है, असल शब्द ‘दोहागणि’ है।

अर्थ: जो मनुष्य पूरे सतिगुरू का हुकम नहीं मानता, वह अपने मन के पीछे चलने वाला बेसमझ आदमी माया (रूपी जहर) का ठगा (हुआ है,) उसके मन में झूठ है (सत्य को वह) झूठ ही समझता है, इस वास्ते पति ने (झूठ बोलने से पैदा हुए) व्यर्थ के झगड़े उसके गले में डाल दिए हैं, ऊल-जलूल बोल के रोटी कमाने के वह बहुत यत्न करता है, पर उसके वचन किसी को अच्छे नहीं लगते। छुटॅड़ औरत की तरह वह घर घर घूमता है, जो मनुष्य उससे मेल-मुलाकात रखता है उसको भी कलंक लग जाता है।

गुरमुखि होइ सु अलिपतो वरतै ओस दा पासु छडि गुर पासि बहि जाइआ ॥ जो गुरु गोपे आपणा सु भला नाही पंचहु ओनि लाहा मूलु सभु गवाइआ ॥ {पन्ना 303-304}

पद्अर्थ: अलिपतो = निराला, अलग। पासु = पासा, साथ। गोपे = निंदा करता है। ओनि = उस ने। लाहा = कमाई, लाभ।

अर्थ: जो मनुष्य सतिगुरू के सन्मुख होता है वह मनमुख से अलग रहता है। मनमुख का साथ छोड़ के सतिगुरू की संगति करता है। हे संत जनों! (सिरे की बात ये है कि) जो मनुष्य अपने सतिगुरू की निंदा करता है, वह ठीक नहीं, (मानस जनम में) जो कमाना था वह भी गवा लेता है और (मनुष्य-जन्म-रूप) भी गवा लेता है।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh