श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 304 पहिला आगमु निगमु नानकु आखि सुणाए पूरे गुर का बचनु उपरि आइआ ॥ गुरसिखा वडिआई भावै गुर पूरे की मनमुखा ओह वेला हथि न आइआ ॥२॥ {पन्ना 304} पद्अर्थ: आगमु = शास्त्र। निगमु = वेद। उपरि आइआ = (सबसे ज्यादा) प्रामाणिक है। हथि न आवै = नहीं मिलता।2। अर्थ: नानक कह के सुनाता है (भाव, इस बात पर जोर दे के कहता है कि) (गुरसिख के लिए यह) पहला आगम-निगम है (यही है वेद-शास्त्रों का उक्तम सिद्धांत कि) पूरे सतिगुरू का वचन (सबसे ज्यादा) प्रामाणिक है। (इस वास्ते) गुरसिखों को पूरे सतिगुरू की वडिआई अच्छी लगती है (पर) मनमुखों को गुरू की वडिआई समझने का वह समय हाथ नहीं आता।2। पउड़ी ॥ सचु सचा सभ दू वडा है सो लए जिसु सतिगुरु टिके ॥ सो सतिगुरु जि सचु धिआइदा सचु सचा सतिगुरु इके ॥ सोई सतिगुरु पुरखु है जिनि पंजे दूत कीते वसि छिके ॥ जि बिनु सतिगुर सेवे आपु गणाइदे तिन अंदरि कूड़ु फिटु फिटु मुह फिके ॥ ओइ बोले किसै न भावनी मुह काले सतिगुर ते चुके ॥८॥ {पन्ना 304} पद्अर्थ: टिके = टिक्के, तिलक देता है, आशीश देता है, मेहर की नजर करता है। (नोट: ‘टिके’ का अर्थ गद्दी देना गलत है। गद्दी तो गुरू गोबिंद सिंघ जी के बाद किसी मनुष्य को नहीं मिली। क्या ‘गुरू’ बने बिना किसी और को परमात्मा नहीं मिल सकता?)।8। अर्थ: सदा स्थिर रहने वाला जो सच्चा प्रभू सबसे बड़ा है, उस मनुष्य को मिलता है जिसको सतिगुरू तिलक दे (भाव, आशीश दे)। सतिगुरू भी वही हैजो सदा सच्चे प्रभू को याद रखता है (और इस तरह) सच्चा प्रभू और सतिगुरू एक-रूप (हो गए हैं,) जिस ने (कामादिक) पाँचों वैरी खींच के वश कर लिए हैं। जो मनुष्य सतिगुरू की सेवा से वंचित रहते हैं और अपने आप को बड़ा कहलवाते हैं, उनके हृदय में झूठ होता है (इस करके उनका) मुंह फीका (रहता है, भाव, उनके मुँह पर नाम की लाली नहीं होती और) उन्हें सदा धिक्कार मिलती है। किसी को उनके वचन अच्छे नहीं लगते (अंदर झूठ होने के कारण) उनके मुँह भी भ्रष्टे हुए होते हैं (क्योंकि) वह सतिगुरू को भूले हुए हैं।8। सलोक मः ४ ॥ हरि प्रभ का सभु खेतु है हरि आपि किरसाणी लाइआ ॥ गुरमुखि बखसि जमाईअनु मनमुखी मूलु गवाइआ ॥ {पन्ना 304} पद्अर्थ: किरसानी = खेती। बखसि = बख्श के, माफ करके, क्षमा करके, मेहर करके। जमाइअनु = जमा दी है उसने, उगा दी है उसने। अर्थ: सारा संसार प्रभू का (जैसे) खेत है (जिस में) प्रभू ने (जीवों को) खेती के काम में लगाया हुआ है (भाव, नाम जपने के लिए भेजा हुआ है)। जो मनुष्य सतिगुरू के सन्मुख रहते हैं, उनकी (खेती) प्रभू ने मेहर करके उगा दी है, (पर) पर जो मनुष्य मन के पीछे भूले रहे, वे मूल भी गवा बैठे (भाव, मनुष्य जनम हाथों से छीन लिया)। सभु को बीजे आपणे भले नो हरि भावै सो खेतु जमाइआ ॥ गुरसिखी हरि अम्रितु बीजिआ हरि अम्रित नामु फलु अम्रितु पाइआ ॥ {पन्ना 304} पद्अर्थ: सभु को = हरेक जीव। भावै = अच्छा लगे। अर्थ: (अपनी ओर से) हर कोई अपने भले के लिए बीजता है (पर) वही खेत अच्छा उगता है (भाव, वही कमाई सफल होती है) जो प्रभू को अच्छा लगता है। (इस करके हरी की प्रसन्नता के लिए) सतिगुरू के सिख अमर करने वाले प्रभू का आत्मिक जीवन देने वाला नाम बीजते हैं और उन्हें हरि-नाम-रूपी अमृत फल की प्राप्ति हो जाती है। जमु चूहा किरस नित कुरकदा हरि करतै मारि कढाइआ ॥ किरसाणी जमी भाउ करि हरि बोहल बखस जमाइआ ॥ {पन्ना 304} पद्अर्थ: किरस = फसल, खेती। कुरकदा = कुतरता। किरसाणी = फसल। भाउ करि = प्रेम करके, फॅब के। बख्श = बख्शिश। अर्थ: (मनमुखों की) फसल को जो जम (रूपी) चूहा सदा कुतरता जाता है गुरसिखों का वह कुछ बिगाड़ नहीं सकता, (क्योंकि) सृजनहार प्रभू ने मार के उसे निकाल बाहर कर दिया है (भाव, गुरसिखों के हृदय में माया वाला प्रभाव ही नहीं रहने दिया,) (इस वास्ते उनकी) फसल प्रेम से (भाव बढ़िया फॅब के लहरा के) उगती है और प्रभू की मेहर-रूपी बोहल का ढेर लग जाता है। तिन का काड़ा अंदेसा सभु लाहिओनु जिनी सतिगुरु पुरखु धिआइआ ॥ जन नानक नामु अराधिआ आपि तरिआ सभु जगतु तराइआ ॥१॥ {पन्ना 304} पद्अर्थ: लाहिओनु = उतार दिया है उस (प्रभू) ने। अर्थ: जो मनुष्य सतिगुरू पुरखु का ध्यान धरते हैं, प्रभू ने उनकी सारी चिंताएं उतार दी हैं। हे दास नानक! जो मनुष्य प्रभू के नाम का सिमरन करता है, वह खुद (इस काड़े-अंदेसे भरे समुंद्र में से) तैर जाता है और सारे संसार को पार कर लेता है।1। मः ४ ॥ सारा दिनु लालचि अटिआ मनमुखि होरे गला ॥ राती ऊघै दबिआ नवे सोत सभि ढिला ॥ मनमुखा दै सिरि जोरा अमरु है नित देवहि भला ॥ जोरा दा आखिआ पुरख कमावदे से अपवित अमेध खला ॥ कामि विआपे कुसुध नर से जोरा पुछि चला ॥ {पन्ना 304} पद्अर्थ: लालचि = लालच में। अटिआ = लिबड़ा हुआ। ऊघै = ऊँघते हुए, नींद में। सोत = इंद्रियां। सिरि = सिर पर। जोरा = सि्त्रयां। अमरु = हुकम। भला = अच्छी चीजें। अमेध = मति हीन। खल = मूर्ख। कुसुध = खोटे। अर्थ: मन के अधीन हुआ मनुष्य सारा दिन लालच में लिबड़ा हुआ (नाम के अलावा) और-और बातें करता फिरता है। (दिन का कार्य-व्यवहार करके थका हुआ) रात को नींद में घुटा जाता है, उसकी सारी नौ इंद्रियां ही ढीली पड़ जाती हैं। (ऐसे) मनमुखों के सिर पर सि्त्रयों का हुकम चलता है, और वह उनको (ही) सदा बढ़िया-बढ़िया पदार्थ ला के देते हैं। जो मनुष्य सि्त्रयों के कहे में चलते हैं (भाव, अपना वजीर जान के सलाह नहीं लेते, बल्कि पूरी तरह जो सि्त्रयां कहें वही करते हैं), वह (आम तौर पर) मलीन-मति बुद्धिहीन और मूर्ख होते हैं, (क्योंकि) जो विषौ के मारे हुए गंदे आचरण वाले होते हैं, वही सि्त्रयों के कहे में चलते हैं। सतिगुर कै आखिऐ जो चलै सो सति पुरखु भल भला ॥ {पन्ना 304} पद्अर्थ: आखिअै = कहे अनुसार। भल भला = भलों से भला। (नोट: शब्द ‘आखीअै’ और ‘आखिअै’ में फर्क समझने योग्य है)। अर्थ: सच्चा और अच्छे से अच्छा मनुष्य वह है, जो सतिगुरू के हुकम में चलता है। जोरा पुरख सभि आपि उपाइअनु हरि खेल सभि खिला ॥ सभ तेरी बणत बणावणी नानक भल भला ॥२॥ {पन्ना 304} पद्अर्थ: उपाइअनु = पैदा किए उस (प्रभू) ने। सभि खेल = सारे तमाशे। खिला = खेले हैं।2। अर्थ: (पर, स्त्री या मनमुख मनुष्य के क्या इख्तियार?) सभ सि्त्रयां और मनुष्य प्रभू ने खुद पैदा किए हैं। हे नानक! (कह कि) हे प्रभू! (संसार की) यह सारी बनतर तेरी बनाई हुई है, जो कुछ तूने किया है सब भला है।2। पउड़ी ॥ तू वेपरवाहु अथाहु है अतुलु किउ तुलीऐ ॥ से वडभागी जि तुधु धिआइदे जिन सतिगुरु मिलीऐ ॥ सतिगुर की बाणी सति सरूपु है गुरबाणी बणीऐ ॥ सतिगुर की रीसै होरि कचु पिचु बोलदे से कूड़िआर कूड़े झड़ि पड़ीऐ ॥ ओन्हा अंदरि होरु मुखि होरु है बिखु माइआ नो झखि मरदे कड़ीऐ ॥९॥ {पन्ना 304} पद्अर्थ: बणीअै = बन जाना है। होरि = कई और मनुष्य। कूड़िआर = झूठ के व्यापारी। झड़ि पड़ीअै = रह जाते हैं।9। (नोट: शब्द ‘होरि’ तथा ‘होरु’ का फर्क समझने योग्य है)। अर्थ: हे प्रभू! तुझे कैसे तोलें? तू बेपरवाह, अथाह व अतोल है। जिन्हें सतिगुरू मिलता है और जो तेरा सिमरन करते हैं, वह बहुत भाग्यशाली हैं। सतिगुरू की बाणी द्वारा (सत्य-स्वरूप) बन जाते हैं (भाव, जो नाम जपता है वह नाम में समा जाता है)। कई और झूठ के व्यापारी सतिगुरू की रीस करके कच्ची बाणी उचारते हैं, पर वह (हृदय में) झूठ होने के कारण झड़ जाते हैं (भाव, सतिगुरू की बराबरी नहीं कर सकते, और उनका पर्दा फाश हो जाता है), उनके दिल में कुछ और होता है और मुँह में और। वे विषौली-माया को एकत्र करने के लिए झुरते हैं और खप-खप के मरते हैं।9। सलोक मः ४ ॥ सतिगुर की सेवा निरमली निरमल जनु होइ सु सेवा घाले ॥ जिन अंदरि कपटु विकारु झूठु ओइ आपे सचै वखि कढे जजमाले ॥ सचिआर सिख बहि सतिगुर पासि घालनि कूड़िआर न लभनी कितै थाइ भाले ॥ {पन्ना 304-305} पद्अर्थ: सतिगुर की सेवा = गुरू का बताया हुआ रास्ता। जजमाले = कोड़े। सचिआर = सच के व्यापारी। अर्थ: सतिगुरू की (बताई) सेवा (एक) पवित्र (कर्म) है, जो मनुष्य निर्मल हो (भाव, जिस मनुष्य का हृदय मलीन ना हो) वही ये मुश्किल कार कर सकता है। जिनके हृदय में धोखा-विकार और झूठ है, सच्चे प्रभू ने खुद ही उन कड़वों को (गुरू से) अलग कर दिया है। सत्य के व्यापारी सिख तो सतिगुरू के पास बैठ के (सेवा की) मेहनत करते हैं, पर वहाँ झूठ के व्यापारी ढूँढने से भी नहीं मिलते। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |