श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 312 कोई विछुड़ि जाइ सतिगुरू पासहु तिसु काला मुहु जमि मारिआ ॥ तिसु अगै पिछै ढोई नाही गुरसिखी मनि वीचारिआ ॥ {पन्ना 312} अर्थ: जो मनुष्य सतिगुरू से विछुड़ जाए, उसका मुंह काला होता है और यमराज से उसको मार पड़ती है, (भाव, वह जगत में एक तो मुकालख कमाता है, दूसरा मौत आदि का उसे सदा सहिम बना रहता है)। उसे ना इस लोक में ना ही परलोक में कहीं आसरा मिलता है - सब गुरसिखों ने मन में ये विचार की है। सतिगुरू नो मिले सेई जन उबरे जिन हिरदै नामु समारिआ ॥ जन नानक के गुरसिख पुतहहु हरि जपिअहु हरि निसतारिआ ॥२॥ {पन्ना 312} अर्थ: जो मनुष्य सतिगुरू को जा के मिलते हैं, वह (संसार सागर से) बच जाते हैं, क्योंकि वह हृदय में नाम को संभालते हैं। (इसलिए प्रभू के) दास नानक के सिख पुत्रो! प्रभू का नाम जपो, (क्योंकि) प्रभू (संसार से) पार उतारता है।2। महला ३ ॥ हउमै जगतु भुलाइआ दुरमति बिखिआ बिकार ॥ सतिगुरु मिलै त नदरि होइ मनमुख अंध अंधिआर ॥ नानक आपे मेलि लए जिस नो सबदि लाए पिआरु ॥३॥ {पन्ना 312} अर्थ: अहंकार ने जगत को कुमार्ग पर डाला हुआ है, खोटी मति और माया में (फस के) विकार किए जाता है। जिस मनुष्य को गुरू मिलता है उस पर (प्रभू की मेहर की) नजर होती है, मन के मुरीद मनुष्य नदार अंधे रहते हैं। हे नानक! हरी जिस मनुष्य में शबद के प्रति प्यार पैदा करता है, उसे हरी खुद ही अपने साथ मिला लेता है।3। पउड़ी ॥ सचु सचे की सिफति सलाह है सो करे जिसु अंदरु भिजै ॥ जिनी इक मनि इकु अराधिआ तिन का कंधु न कबहू छिजै ॥ धनु धनु पुरख साबासि है जिन सचु रसना अम्रितु पिजै ॥ सचु सचा जिन मनि भावदा से मनि सची दरगह लिजै ॥ धनु धंनु जनमु सचिआरीआ मुख उजल सचु करिजै ॥२०॥ {पन्ना 312} पद्अर्थ: अंदरु = हृदय। इकि मनि = एक मन लगा के, मन लगा के। कंधु = शरीर। मनि लिजै = मान लिए जाते हैं, आदर पाते हैं। सचिआरीआ = सच के व्यापारियों का। अर्थ: सच्चे प्रभू की (की हुई) सिफत सालाह सदा स्थिर रहने वाली है; (ये सिफत सालाह) वह मनुष्य कर सकता है जिसका हृदय (भी) (सिफत में) भीगा हो। जो मनुष्य एकाग्रचिक्त हो के एक हरी का सिमरन करते हैं, उनका शरीर कभी जर-जर नहीं होता (विकारों में खचित नहीं होता)। वे मनुष्य धन्य हैं, शाबाश है उनको जो जीभ से सच्चा नाम अमृत पीते हैं। जिनके मन को सच्चा हरी सचमुच प्यारा लगता है वह सच्ची दरगाह में सतिकारे जाते हैं। सच के व्यापारियों का मानस जनम सफला है (क्योंकि दरगाह में) वह सुर्खरू किए जाते हैं।2। सलोक मः ४ ॥ साकत जाइ निवहि गुर आगै मनि खोटे कूड़ि कूड़िआरे ॥ जा गुरु कहै उठहु मेरे भाई बहि जाहि घुसरि बगुलारे ॥ {पन्ना 312} पद्अर्थ: साकत = ईश्वर से टूटे हुए बंदे। अर्थ: अगर साकत मनुष्य सतिगुरू के आगे जा के झुक भी जाएं, (तो भी) उनके मन में खोट (रहता है) और खोट होने के कारण झूठ के व्यापारी बने रहते हैं। जब सतिगुरू (सब सिखों को) कहता है - ‘हे मेरे भाईयो! सचेत हो जाओ!’ (तो ये साकत भी) बगुलों की तरह (सिखों में) मिल के बैठ जाते हैं। गुरसिखा अंदरि सतिगुरु वरतै चुणि कढे लधोवारे ॥ ओइ अगै पिछै बहि मुहु छपाइनि न रलनी खोटेआरे ॥ {पन्ना 312} पद्अर्थ: अंदरि = पउड़ी नं:20 के लफज़ ‘अंदरु’ और इस ‘अंदरि’ का फर्क ध्यान रखने लायक है। लधोवारे = वह समय जब परख की जाती है, परख का समय। अर्थ: (पर साकतों के हृदय में झूठ बसता है) और गुरसिखों के दिल में सतिगुरू बसता है, (इस करके सिखों में मिल के बैठे हुए भी साकत) परख के समय चुन के निकाल दिए जाते हैं। वे आगे-पीछे हो के मुँह तो बहुत छुपाते हैं, पर झूठ के व्यापारी (सिखों में) मिल नहीं सकते। ओना दा भखु सु ओथै नाही जाइ कूड़ु लहनि भेडारे ॥ जे साकतु नरु खावाईऐ लोचीऐ बिखु कढै मुखि उगलारे ॥ {पन्ना 312} अर्थ: साकतों का खाना वहाँ (गुरसिखों के संग में) नहीं होता, (इस वास्ते) भेड़ों की तरह (किसी और जगह) जा के झूठ को तलाशते हैं। अगर साकत मनुष्य को (नाम-रूपी) बढ़िया पदार्थ खिलाना भी चाहें तो भी वह मुँह से (निंदा-रूपी) विष ही उगलता है। हरि साकत सेती संगु न करीअहु ओइ मारे सिरजणहारे ॥ जिस का इहु खेलु सोई करि वेखै जन नानक नामु समारे ॥१॥ {पन्ना 312} अर्थ: (हे संत जनों!) ईश्वर से टूटे हुए का संग ना करना, (क्योंकि) सृजनहार ने स्वयं उनको (नाम से) मुर्दा किया हुआ है, (उन्हें सीधे राह पर लाना किसी जीव के वश नहीं), जिस प्रभू का ये खेल है वह खुद इस खेल को रच के देख रहा है। हे दास नानक! तू प्रभू का नाम संभाल।1। मः ४ ॥ सतिगुरु पुरखु अगमु है जिसु अंदरि हरि उरि धारिआ ॥ सतिगुरू नो अपड़ि कोइ न सकई जिसु वलि सिरजणहारिआ ॥ सतिगुरू का खड़गु संजोउ हरि भगति है जितु कालु कंटकु मारि विडारिआ ॥ सतिगुरू का रखणहारा हरि आपि है सतिगुरू कै पिछै हरि सभि उबारिआ ॥ {पन्ना 312} पद्अर्थ: अगंमु = पहुँच से परे। खड़गु = तलवार। संजोउ = जिरह बक़तर, युद्ध में शरीर रक्षा के लिए पहनी हुई लोहे की पोशाक। अर्थ: सतिगुरू अगम पुरख है जिसने हृदय में प्रभू को परोया हुआ है। सतिगुरू की बराबरी कोई नहीं कर सकता, क्योंकि सृजनहार उसीकी ओर है। सतिगुरू की खड़ग और संजोअ प्रभू की भक्ति है जिससे उसने काल (-रूपी) काँटे को (भाव मौत के डर को) मार के किनारे फेंका है। सतिगुरू का रक्षक प्रभू स्वयं हैऔर सतिगुरू के पद्चिन्हों पर चलने वाले सभी को भी प्रभू बचा लेता है। जो मंदा चितवै पूरे सतिगुरू का सो आपि उपावणहारै मारिआ ॥ एह गल होवै हरि दरगह सचे की जन नानक अगमु वीचारिआ ॥२॥ {पन्ना 312} अर्थ: जो मनुष्य पूरे सतिगुरू का बुरा लोचता है उसे खुद करतार मारता है। सच्चे हरी की दरगाह में ये न्याय होता है, और हे नानक! अगम हरी का सिमरन करने से (ये समझ पड़ती है)।2। पउड़ी ॥ सचु सुतिआ जिनी अराधिआ जा उठे ता सचु चवे ॥ से विरले जुग महि जाणीअहि जो गुरमुखि सचु रवे ॥ हउ बलिहारी तिन कउ जि अनदिनु सचु लवे ॥ जिन मनि तनि सचा भावदा से सची दरगह गवे ॥ जनु नानकु बोलै सचु नामु सचु सचा सदा नवे ॥२१॥ {पन्ना 312} पद्अर्थ: चवे = बोलते हैं। जुग = मानस जनम। रवे = सिमरते हैं। लवे = बोलते हैं। गवे = पहुँचते हैं। अर्थ: जो मनुष्य सोए हुए भी सच्चे हरी को सिमरते हैं और उठ के भी उसी का नाम उचारते हैं, मानस जनम में ऐसे मनुष्य दुर्लभ ही मिलते हैं जो गुरू के सन्मुख रहके इस तरह सच्चे नाम का आनंद लेते हैं। मैं उनके सदके हूँ जो रोज (अर्थात हर समय) सच्चे प्रभू का नाम उच्चारते हैं। जिन मनुष्यों को मन से और तन से सच्चा प्रभू प्यारा लगता है (भाव, जिनको हरी की याद भी और हरी की कार भी प्यारी लगती है) वह सच्ची दरगाह में पहुँचते हैं। दास नानक भी उस हरी का नाम उचारता है, जो सदा स्थिर रहने वाला है (भाव, हर समय प्यारा लगने वाला है)।21। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |