श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सलोक मः ४ ॥ जिना अंदरि उमरथल सेई जाणनि सूलीआ ॥ हरि जाणहि सेई बिरहु हउ तिन विटहु सद घुमि घोलीआ ॥ हरि मेलहु सजणु पुरखु मेरा सिरु तिन विटहु तल रोलीआ ॥ {पन्ना 311}

पद्अर्थ: उमरथलु = अंदर का फोड़ा। सूली = तेज पीड़ा। बिरहु = विछोड़े से उपजा प्यार। तल = चरनों के नीचे।

अर्थ: (जैसे) जिनके शरीर के अंदर फोड़ा है, वह ही उस पीड़ा को समझते हैं (वैसे ही जिनके हृदय में विरह के काँटे की चुभन है वही उस पीड़ा को जानते हैं, और) विछोड़े से पैदा हुए प्यार को भी वही समझते हैं– मैं उनसे सदके हूँ। हे हरी! मुझे कोई ऐसा सज्जन मर्द मिला, ऐसे लोगों (के दीदार) के लिए मेरा सिर उनके पैरों तले रहे।

जो सिख गुर कार कमावहि हउ गुलमु तिना का गोलीआ ॥ हरि रंगि चलूलै जो रते तिन भिनी हरि रंगि चोलीआ ॥ करि किरपा नानक मेलि गुर पहि सिरु वेचिआ मोलीआ ॥१॥ {पन्ना 311}

पद्अर्थ: चलूला = गाढ़ा। रंगि चलूलै = गाढ़े रंग में। भिनी = भीगी हुई।

अर्थ: जो सिख सतिगुरू की बताई हुई कार करते हैं, मैं उनके गुलामों का गुलाम हूँ, जिनके मन प्रभू-नाम के गाढ़े रंग में रंगे हुए हैं, उनके चोले (भी, भाव, शरीर) प्रभू के प्यार में भीगे हुए रहते हैं। हे नानक! उन्हें प्रभू ने कृपा करके गुरू के साथ मिलाया है, और उन्होंने अपना सिर गुरू के आगे बेच दिया है।1।

मः ४ ॥ अउगणी भरिआ सरीरु है किउ संतहु निरमलु होइ ॥ {पन्ना 311}

अर्थ: (प्रश्न) हे संत जनों! (यह) शरीर अवगुणों से भरा हुआ है, साफ कैसे हो सकता है?

गुरमुखि गुण वेहाझीअहि मलु हउमै कढै धोइ ॥ {पन्ना 311}

अर्थ: (उक्तर) सतिगुरू के सन्मुख हो के गुण खरीदे जायं,तो (इस तरह मनुष्य के शरीर में से) अहंकार-रूपी मैल कोई धो के निकाल सकता है।

सचु वणंजहि रंग सिउ सचु सउदा होइ ॥ तोटा मूलि न आवई लाहा हरि भावै सोइ ॥ {पन्ना 311}

पद्अर्थ: वणंजहि = वणज करते हैं, व्यापार करते हैं। रंग = प्यार। लाहा = लाभ, नफा। तोटा = घाटा।

अर्थ: जो मनुष्य प्यार से सच को (भाव, सच्चे के नाम को) खरीरदते हैं, उनका ये सौदा सदा साथ निभता है, (इस सौदे में) लाभ (ये मिलता) है कि परमात्मा उन्हें प्यारा लगने लग पड़ता है।

नानक तिन सचु वणंजिआ जिना धुरि लिखिआ परापति होइ ॥२॥ {पन्ना 311}

अर्थ: हे नानक! सच्चे नाम की खरीद वह मनुष्य करते हैं, जिन्हें (ये सच्चा नाम) आरम्भ से ही (किए हुये भले कर्मों के अनुसार) (हृदय में) उकरा हुआ मिलता है।2।

पउड़ी ॥ सालाही सचु सालाहणा सचु सचा पुरखु निराले ॥ सचु सेवी सचु मनि वसै सचु सचा हरि रखवाले ॥ सचु सचा जिनी अराधिआ से जाइ रले सच नाले ॥ सचु सचा जिनी न सेविआ से मनमुख मूड़ बेताले ॥ ओह आलु पतालु मुहहु बोलदे जिउ पीतै मदि मतवाले ॥१९॥ {पन्ना 311}

पद्अर्थ: आल पतालु = आकाश पाताल, ऊँच नीच, बकवास। मदि = शराब के कारण। मतवाले = शराबी, मस्त।

अर्थ: (मेरा चिक्त चाहता है कि) जो निराला पुरख सच्चा हरी है, उस सच्चे हरी की सिफत करूँ, उसकी की हुई सिफत सदा साथ निभती है, (चिक्त चाहता है कि) जो सच्चा हरी सब का रक्षक है उसकी सेवा करूँ, और सच्चा हरी मेरे मन में निवास करे। जिन्होंने सच-मुच सच्चे हरी की सेवा की है, वह उस सच्चे के साथ जा मिले हैं। जिन्होंने सच्चे हरी की सेवा नहीं की, वह मनमुख मूर्ख और भूतने मुँह से ऐसी बकवास करते हैं जैसे शराब पी के शराबी (बकवास करते हैं)।19।

सलोक महला ३ ॥ गउड़ी रागि सुलखणी जे खसमै चिति करेइ ॥ भाणै चलै सतिगुरू कै ऐसा सीगारु करेइ ॥ सचा सबदु भतारु है सदा सदा रावेइ ॥ जिउ उबली मजीठै रंगु गहगहा तिउ सचे नो जीउ देइ ॥ रंगि चलूलै अति रती सचे सिउ लगा नेहु ॥ {पन्ना 311}

पद्अर्थ: गहगहा = गाढ़ा।

अर्थ: (जीव रूपी स्त्री) गउड़ी रागिनी से तभी अच्छे लक्षणों वाली हो सकती है अगर प्रभू पति को हृदय में बसाए। सतिगुरू की रजा में चले - ऐसा श्रृंगार करे; सच्चा शबद (रूप जो) पति (है) उसका आनंद ले (भाव, सदा उसे जपे)। जैसे मजीठ उबाल सहती है और उसका रंग गाढ़ा हो जाता है, वैसे ही (जीव रूपी स्त्री) अपना आप पति के सदके करे, (इसे भी नाम का गाढ़ा रंग चढ़ जाए) तो उसका सच्चे प्रभू के साथ प्यार बन जाता है, वह (नाम के) गूढ़े रंग में रंगी जाती है।

कूड़ु ठगी गुझी ना रहै कूड़ु मुलमा पलेटि धरेहु ॥ कूड़ी करनि वडाईआ कूड़े सिउ लगा नेहु ॥ {पन्ना 311}

अर्थ: झूठ (रूप) मुलम्मा (बेशक सच से) लपेट के रखो, (फिर भी) जो झूठ और ठगी है वह छुपे नहीं रह सकते। (हृदय में ठगी रखने वाले ऐसे ही) झूठी उपमा करते हैं, उनका प्यार झूठ से ही होता है (और ये बात छुपी नहीं रहती)।

नानक सचा आपि है आपे नदरि करेइ ॥१॥ {पन्ना 311}

अर्थ: (पर) हे नानक! (ये किसी के वश नहीं) जो हरी सच्चा स्वयं है वही मेहर करता है (और दिल में से ठॅगी दूर हो सकती है)।1।

मः ४ ॥ सतसंगति महि हरि उसतति है संगि साधू मिले पिआरिआ ॥ ओइ पुरख प्राणी धंनि जन हहि उपदेसु करहि परउपकारिआ ॥ हरि नामु द्रिड़ावहि हरि नामु सुणावहि हरि नामे जगु निसतारिआ ॥ {पन्ना 311}

अर्थ: सत्संग में परमात्मा की सिफत सालाह होती है (क्योंकि वहाँ) प्यारे (गुरसिख, संत जन) सतिगुरू के साथ मिलते हैं। वे लोग मुबारक हैं (क्योंकि) परोपकार के लिए वे (औरों को भी) उपदेश करते हैं, प्रभू के नाम में सिदक बनाते हैं, प्रभू का नाम ही सुनाते हैं और प्रभू के नाम द्वारा ही संसार को पार लंघाते हैं (ये सारी बरकति इसलिए है कि वह भाग्यशाली सत्संगति में जा के सतिगुरू में जुड़ते हैं)।

गुर वेखण कउ सभु कोई लोचै नव खंड जगति नमसकारिआ ॥ तुधु आपे आपु रखिआ सतिगुर विचि गुरु आपे तुधु सवारिआ ॥ तू आपे पूजहि पूज करावहि सतिगुर कउ सिरजणहारिआ ॥ {पन्ना 311}

अर्थ: (ये बरकतें सुन के) हरेक जीव सतिगुरू के दर्शन करने की चाहत रखता है और संसार में नवों खण्डों (के जीव) सतिगुरू के आगे सिर निवाते हैं। सतिगुरू को पैदा करने वाले हे प्रभू! तूने अपना आप सतिगुरू में छुपा के रखा है और तूने खुद ही सतिगुरू को सुंदर बनाया है। तू खुद ही सतिगुरू को बडिआई (आदर) देता है और खुद ही (औरों से गुरू की) वडिआई करवाता है।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh