श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 320 पउड़ी ॥ तिसै सरेवहु प्राणीहो जिस दै नाउ पलै ॥ ऐथै रहहु सुहेलिआ अगै नालि चलै ॥ घरु बंधहु सच धरम का गडि थमु अहलै ॥ ओट लैहु नाराइणै दीन दुनीआ झलै ॥ नानक पकड़े चरण हरि तिसु दरगह मलै ॥८॥ {पन्ना 320} पद्अर्थ: सरेवहु = सेवा करो। दै = (श्लोक नं 2 में देखें शब्द ‘संदड़ै’)। सुहेलिआ = सुखी। गडि = गाड़ के। अहलै = ना हिलने वाला। बंधहु = बनाओ। झलै = झेलता है, आसरा देता है। तिसु = उस प्रभू की। अर्थ: उस (गुरू) की, हे लोगो! सेवा करो जिसके पल्ले प्रभू का नाम है (भाव, जिससे नाम मिल सकता है)। (इस तरह) यहाँ सुखी रहोगे और परलोक में (ये नाम) तुम्हारे साथ जाएगा। (ये नाम रूपी) पक्का स्तम्भ (खम्भा) गाड़ के सदा कायम रहने वाले धर्म का मंदिर (सत्संग) बनाओ, अकाल-पुरख की टेक रखो जो दीन और दुनिया का आसरा देने वाला है। हे नानक! जिस मनुष्य ने प्रभू के पैर पकड़े हैं वह प्रभू की दरगाह में बना रहता है।8। सलोक मः ५ ॥ जाचकु मंगै दानु देहि पिआरिआ ॥ देवणहारु दातारु मै नित चितारिआ ॥ निखुटि न जाई मूलि अतुल भंडारिआ ॥ नानक सबदु अपारु तिनि सभु किछु सारिआ ॥१॥ {पन्ना 320} पद्अर्थ: जाचकु = मंगता। दानु = (‘अपार शबद’ का) ख़ैर। पिआरिआ = हे प्यारे! चितारिआ = याद रखता हूँ। अतुल = जो तोला ना जा सके, बेअंत। सारिआ = सवार दिया है। सभु किछु = हरेक कार्य। अर्थ: (हे प्रभू!) मैं मंगता (तेरे ‘अपार शबद’ की) ख़ैर मांगता हूँ, मुझे ख़ैर दे। तू दातें देने वाला है, तू दातें देने के स्मर्थ है, मैं तुझे सदा याद करता हूँ। तेरा खजाना बेअंत है (अगर उसमें से मुझे भी ख़ैर डाल दे तो) खत्म नहीं होता। हे नानक! (प्रभू की सिफत सालाह की) बाणी अपार है, इस बाणी ने मेरा हरेक कार्य सँवार दिया है।1। मः ५ ॥ सिखहु सबदु पिआरिहो जनम मरन की टेक ॥ मुख ऊजल सदा सुखी नानक सिमरत एक ॥२॥ {पन्ना 320} पद्अर्थ: सिखहु = सीख लो, याद रखने की आदत डाल लो। टेक = आसरा। जनम मरन = सारी उम्र। ऊजल = रौशन, खिला हुआ। अर्थ: हे प्यारे सज्जनों! (प्रभू की सिफत सालाह वाली) गुरबाणी याद रखने की आदत डालो, ये सारी उम्र का आसरा (बनती) है। हे नानक! (इस बाणी के द्वारा) एक प्रभू को सिमरने से सदा सुखी रहते हैं और माथा खिला रहता है।2। पउड़ी ॥ ओथै अम्रितु वंडीऐ सुखीआ हरि करणे ॥ जम कै पंथि न पाईअहि फिरि नाही मरणे ॥ जिस नो आइआ प्रेम रसु तिसै ही जरणे ॥ बाणी उचरहि साध जन अमिउ चलहि झरणे ॥ पेखि दरसनु नानकु जीविआ मन अंदरि धरणे ॥९॥ {पन्ना 320} पद्अर्थ: ओथै = उस (‘सच धर्म के घर’ में) उस सत्संग में। (नोट: इस ‘स्थान’ का जिक्र पिछली पौड़ी की तीसरी तुक में आ चुका है। सर्वनाम ‘ओथै’ साफ़ बताता है कि जिस स्थान की तरफ यहाँ इशारा है, उसका जिक्र जिछली पौड़ी में चाहिए)। जम कै पंथि = जम के राह पे। जरणे = जरने की ताकत, जिगरा। अमिउ = अमृत। झरणे = फुव्वारे। पेखि = देख के। धरणे = धारण किया है। सुखीआ = सुखी करने वाला। अर्थ: सब जीवों को सुखी करने वाला हरी-नाम अमृत उस सत्संग में बाँटते हैं। (जो मनुष्य वह अमृत प्राप्त करते हैं वह) जम के राह पर नहीं पाए जाते, उन्हें मुड़ मौत (का डर सताता) नहीं। जिस मनुष्य को हरी नाम के प्यार का स्वाद आता है, वह इस स्वाद को अपने अंदर टिकाता है। (सत्संग में) गुरमुख सिफत सालाह की बाणी उच्चारते हैं वहाँ अमृत के, जैसे, फुव्वारे चल पड़ते हैं। नानक (भी उस सत्संग का) दर्शन करके जी रहा है और मन में हरि-नाम को धारण कर रहा है।9। सलोक मः ५ ॥ सतिगुरि पूरै सेविऐ दूखा का होइ नासु ॥ नानक नामि अराधिऐ कारजु आवै रासि ॥१॥ {पन्ना 320} पद्अर्थ: सतिगुरि = (अधिकरण कारक, एकवचन)। सतिगुरि पूरै सेविअै = (पूरब पूरन कारदंतक) अगर पूरे गुरू की सेवा की जाए। नामि = (अधिकरण कारक, एकवचन)। नामि आराधिअै = (पूरब पूरन कारदंतक) अगर नाम सिमरा जाए। कारजु = जिंदगी का मनोरथ। रासि आवै = सफल हो जाता है। अर्थ: हे नानक! अगर पूरे गुरू के बताए हुए मार्ग पर चलें तो दुखों का नाश हो जाता है और अगर तेरा नाम सिमरें तो जीवन का मनोरथ सफल हो जाता है।1। मः ५ ॥ जिसु सिमरत संकट छुटहि अनद मंगल बिस्राम ॥ नानक जपीऐ सदा हरि निमख न बिसरउ नामु ॥२॥ {पन्ना 320} पद्अर्थ: संकट = दुख। मंगल = खशियां। बिस्राम = ठिकाना। निमख = आँख झपकने जितने समय के लिए। न बिसरउ = विसर ना जाय। अर्थ: हे नानक! जिस परमात्मा को सिमरने से सारे दुख दूर हो जाते हैं और (हृदय में) आनंद व खुशियों का निवास होता है उसको सदा सिमरें, कभी निमख मात्र भी वह हरी-नाम हमें ना भूले।2। पउड़ी ॥ तिन की सोभा किआ गणी जिनी हरि हरि लधा ॥ साधा सरणी जो पवै सो छुटै बधा ॥ गुण गावै अबिनासीऐ जोनि गरभि न दधा ॥ गुरु भेटिआ पारब्रहमु हरि पड़ि बुझि समधा ॥ नानक पाइआ सो धणी हरि अगम अगधा ॥१०॥ {पन्ना 320} पद्अर्थ: किआ गणी = क्या बयान करूँ? बयान नहीं हो सकती। गरभि = गर्भ में। दधा = जलता। भेटिआ = (जिसे) मिला। समाधा = समाधि वाला, ठहराव वाला। अगम = अपहुँच। अगधा = अगाध, अथाह। अर्थ: जिन (गुरमुखों) ने ईश्वर को पा लिया है उनका बड़प्पन बयान नहीं किया जा सकता, जो मनुष्य उन गुरमुखों की शरण आता है वह माया के बंधनों में बंधा हुआ मुक्त हो जाता है (भाव, उसके माया के बंधन टूट जाते हैं), वह अविनाशी प्रभू के गुण गाता है और जूनियों में पड़-पड़ के नहीं सड़ता, उसे गुरू मिल जाता है, वह प्रभू की सिफत सालाह उचार के और समझ के शांति प्राप्त करता है। हे नानक! उस मनुष्य ने अथाह और अपहुँच मालिक हरी को पा लिया है।10। सलोक मः ५ ॥ कामु न करही आपणा फिरहि अवता लोइ ॥ नानक नाइ विसारिऐ सुखु किनेहा होइ ॥१॥ {पन्ना 320} पद्अर्थ: न करही = तू नहीं करता। अवता = अवैड़ा, आवारा। लोइ = लोक में, जगत में। नाइ = (अधिकरण कारक, एकवचन)। नाइ विसारिअै = (पूरब पूरन कारदंतक), अगर नाम विसार दिया जाए। किनेहा होइ = कोई नहीं हो सकता। अर्थ: (हे जीव!) तू अपना (असल) काम नहीं करता और जगत में आवारा फिर रहा है। हे नानक! अगर प्रभू का नाम बिसार दिया जाए तो कोई भी सुख नहीं हो सकता।1। मः ५ ॥ बिखै कउड़तणि सगल माहि जगति रही लपटाइ ॥ नानक जनि वीचारिआ मीठा हरि का नाउ ॥२॥ {पन्ना 320} पद्अर्थ: बिखै = बिख की, विष की, माया रूप जहर की। सगल = सारे जीव। जगति = जगत में। रही लपटाइ = चिपक रही है। जनि = जन के, सेवक के। अर्थ: (माया) जहर की कड़वाहट सारे जीवों में है, जगत में सबको चिपकी हुई है। हे नानक! (सिर्फ प्रभू के) सेवक ने ये विचार की है कि परमात्मा का नाम ही मीठा है।2। पउड़ी ॥ इह नीसाणी साध की जिसु भेटत तरीऐ ॥ जमकंकरु नेड़ि न आवई फिरि बहुड़ि न मरीऐ ॥ भव सागरु संसारु बिखु सो पारि उतरीऐ ॥ हरि गुण गु्मफहु मनि माल हरि सभ मलु परहरीऐ ॥ नानक प्रीतम मिलि रहे पारब्रहम नरहरीऐ ॥११॥ {पन्ना 320} पद्अर्थ: इह निसाणी = ये निशानी। जिसु भेटत = जिस (साधु) को मिलने से। कंकरु = कंकड़, दास, सेवक। बहुड़ि = पुनः। बिखु = जहर। गुंफहु = गूंदो। मनि = मन में। परहरीअै = दूर हो जाती है। नरहरीअै = नरहरि, करतार। अर्थ: साधू की ये निशानी है कि उसको मिल के (संसार) समुंद्र से तैर जाते हैं, जम का सेवक (भाव, जमदूत) नजदीक नहीं फटकता और बार-बार नहीं मरना पड़ता, जो जहर-रूपी संसार समुंद्र है इससे पार लांघ जाते हैं। हे भाई! (साधू गुरमुख को मिल के) मन में परमात्मा के गुणों की माला गूँदो, मन की सारी मैल दूर हो जाती है। हे नानक! (जिन्होंने ये माला गूँदी है) वे पारब्रहम परमात्मा को मिले रहते हैं।11। सलोक मः ५ ॥ नानक आए से परवाणु है जिन हरि वुठा चिति ॥ गाल्ही अल पलालीआ कमि न आवहि मित ॥१॥ {पन्ना 320} अर्थ: हे नानक! जिन मनुष्यों के चित्त में परमात्मा आ बसा है उनका आना सफल है। हे मित्र! फोकी बातें किसी काम नहीं आतीं (नाम से टूट के फोकी बातों का कोई लाभ नहीं होता)।1। मः ५ ॥ पारब्रहमु प्रभु द्रिसटी आइआ पूरन अगम बिसमाद ॥ नानक राम नामु धनु कीता पूरे गुर परसादि ॥२॥ {पन्ना 320} पद्अर्थ: द्रिसटी आइआ = दिखाई पड़ा है। पूरन = हर जगह मौजूद। अगम = अपहुँच। बिसमाद = आश्चर्य। परसादि = कृपा से। अर्थ: हे नानक! (जिस मनुष्य ने) पूरे गुरू की कृपा से परमात्मा के नाम को अपना धन बनाया है, उसे अपहुँच और आश्चर्य रूप प्रभू हर जगह मौजूद दिखाई दे गया है।2। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |