श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 321 पउड़ी ॥ धोहु न चली खसम नालि लबि मोहि विगुते ॥ करतब करनि भलेरिआ मदि माइआ सुते ॥ फिरि फिरि जूनि भवाईअनि जम मारगि मुते ॥ कीता पाइनि आपणा दुख सेती जुते ॥ नानक नाइ विसारिऐ सभ मंदी रुते ॥१२॥ {पन्ना 321} पद्अर्थ: धोहु = ठॅगी, धोखा। लबि = लालच के कारण। मोहि = मोह में (पड़ के)। विगुते = ख्वार होते हैं। भलेरिआ = बुरे। मदि = नशे में। मुते = (पति विहीन) छोड़े हुए। पाइनि = डालते हैं। जुते = जोते जाते हैं। नाइ विसारिअै = (पूरब पूरन कारदंतक) अगर नाम बिसार दिया जाए। रुते = ऋतु, समय। अर्थ: पति (प्रभू) के साथ धोखा कामयाब नहीं हो सकता, जो मनुष्य लोभ में और मोह में फंसे हुए हैं वह ख्वार होते हैं, माया के नशे में सोए हुए लोग बुरी करतूतें करते हैं, बार-बार जूनों में धक्के खाते हैं और यमराज के राह में (पति-विहीन) छोड़े जाते हैं, अपने किए हुए (बुरे) कामों का फल पाते हैं, दुखों के साथ जोते जाते हैं। हे नानक! अगर प्रभू का नाम बिसार दिया जाय तो (जीव के लिए) सारी ऋतुएं बुरी ही समझें।12। नोट: गुरू अरजन साहिब की गूजरी राग की वार की पौड़ी नं:20 में इस पौड़ी के कई शब्द और विचार सांझे मिलते हैं। ये दोनों वारें आगे–पीछे लिखी गई प्रतीत होती हैं। दोनों ही वारों में श्लोक लहिंदी बोली के ही हैं। सलोक मः ५ ॥ उठंदिआ बहंदिआ सवंदिआ सुखु सोइ ॥ नानक नामि सलाहिऐ मनु तनु सीतलु होइ ॥१॥ {पन्ना 321} पद्अर्थ: सुख सोइ = वही सुख, भाव, एक सार सुख। नामि = (अधिकरण कारक, एकवचन)। नामि सलाहिअै = (पूरब पूरन कारदंतक) यदि नाम सलाहा जाय, अगर प्रभू के नाम की उपमा की जाय। सीतलु = ठंडा। अर्थ: हे नानक! अगर प्रभू के नाम की वडिआई करते रहें तो मन और शरीर ठंडे-ठार रहते हैं और ये सुख एक-सार उठते-बैठते-सोते हर समय बना रहता है।1। मः ५ ॥ लालचि अटिआ नित फिरै सुआरथु करे न कोइ ॥ जिसु गुरु भेटै नानका तिसु मनि वसिआ सोइ ॥२॥ {पन्ना 321} पद्अर्थ: लालचि = लालच से। अटिआ = लिबड़ा हुआ। सुआरथु = अपने असली भले का काम। कोइ = कोई भी जीव। भेटे = मिलता है। सोइ = वह प्रभू। तिसु मनि = उस (मनुष्य) के मन में। अर्थ: (जगत माया के) लालच से लिबड़ा हुआ सदा (भटकता) फिरता है, कोई भी आदमी अपने असल भले का काम नहीं करता। (पर) हे नानक! जिस मनुष्य को सतिगुरू मिलता है उसके मन में वह प्रभू बस जाता है।2। पउड़ी ॥ सभे वसतू कउड़ीआ सचे नाउ मिठा ॥ सादु आइआ तिन हरि जनां चखि साधी डिठा ॥ पारब्रहमि जिसु लिखिआ मनि तिसै वुठा ॥ इकु निरंजनु रवि रहिआ भाउ दुया कुठा ॥ हरि नानकु मंगै जोड़ि कर प्रभु देवै तुठा ॥१३॥ {पन्ना 321} पद्अर्थ: वसतू = चीजें। सादु = स्वाद। साधी = साध लीं, साध जनों ने। चखि डिठा = चख के देखा है। पारब्रहमि = पारब्रहम ने। जिसु = जिस (के भाग्य में)। तिसै मनि = उसके मन में। वुठा = आ बसा। निरंजनु = निर+अंजन, माया रहित। रवि रहिआ = हर जगह व्यापक (दिखता) है। दुया = दूसरा। कुठा = नाश हो जाता है। कर = (दोनों) हाथ। तुठा = प्रसन्न हो के। अर्थ: (दुनिया की बाकी) सारी चीजें (आखिर) कड़वी (हो जाती) हैं (एक) सच्चे प्रभू का नाम (ही सदा) मीठा (रहता) है, (पर) ये स्वाद उन साधुओं को हरी-जनों को ही आता है जिन्होंने (ये नाम रस) चख के देखा है, और उस मनुष्य के मन में (ये स्वाद) आ के बसता है जिसके भाग्य में प्रभू ने लिख दिया है। (ऐसे भाग्यशाली को) माया-रहित प्रभू ही हर जगह दिखाई देता है (उस मनुष्य का) दूसरा भाव नाश हो जाता है। नानक भी दोनों हाथ जोड़ के हरी से यह नाम-रसमांगता है, (पर) प्रभू (उसे) देता है (जिस पर) प्रसन्न होता है।13। सलोक मः ५ ॥ जाचड़ी सा सारु जो जाचंदी हेकड़ो ॥ गाल्ही बिआ विकार नानक धणी विहूणीआ ॥१॥ {पन्ना 321} पद्अर्थ: जाचड़ी = याचना, मांग। सारु = श्रेष्ठ, सब से अच्छी। जाचंदी = मांगती है। हेकड़ो = एक को, एक ईश्वर को। गाली बिआ = और बातें। विकार = बेकार, व्यर्थ। धणी = मालिक। अर्थ: वह याचना सब से बढ़िया है जो (भाव, जिससे मनुष्य) एक प्रभू (के नाम) को मांगता है। हे नानक! मालिक प्रभू से अन्य बाहरी बातें सब बेकार हैं।1। मः ५ ॥ नीहि जि विधा मंनु पछाणू विरलो थिओ ॥ जोड़णहारा संतु नानक पाधरु पधरो ॥२॥ {पन्ना 321} पद्अर्थ: नीहि = नेह में, प्रेम में। जि मंनु = जिस का मन। थिओ = होता है। पाधरु = रास्ता। पधरो = सीधा। अर्थ: ऐसा (ईश्वर की) पहचान वाला कोई दुर्लभ व्यक्ति ही होता है, जिसका मन प्रभु के प्रेम में भेद गया हो, हे नानक! ऐसा संत (औरों को भी रॅब से) जोड़ने के स्मर्थ होता है और (रॅब को मिलने के लिए) सीधा राह दिखा देता है।2। पउड़ी ॥ सोई सेविहु जीअड़े दाता बखसिंदु ॥ किलविख सभि बिनासु होनि सिमरत गोविंदु ॥ हरि मारगु साधू दसिआ जपीऐ गुरमंतु ॥ माइआ सुआद सभि फिकिआ हरि मनि भावंदु ॥ धिआइ नानक परमेसरै जिनि दिती जिंदु ॥१४॥ पद्अर्थ: जीअड़े = हे जिंदे! किलविख = पाप। भावंदु = प्यारा लगने लग पड़ता है। जिनी = जिस (परमेश्वर) ने। अर्थ: हे मेरी जिंदे! उस परमेश्वर को सिमर जो सब दातें देने वाला हैऔर बख्शिशें करने वाला है। परमेश्वर के सिमरन से सारे पाप नाश हो जाते हैं। गुरू ने प्रभू (को मिलने) का राह बताया है। गुरू का उपदेश सदा याद रखना चाहिए, (गुरू का उपदेश हमेशा याद रखने से) माया के सारे स्वाद फीके प्रतीत होते हैं और मन में परमेश्वर प्यारा लगने लगता है। हे नानक! जिस परमेश्वर ने (ये) जिंद दी है, उसे (सदा) सिमर।14। सलोक मः ५ ॥ वत लगी सचे नाम की जो बीजे सो खाइ ॥ तिसहि परापति नानका जिस नो लिखिआ आइ ॥१॥ {पन्ना 321} पद्अर्थ: वत = वॅतर, फॅब का समय। तिसहि = उसे ही, तिसे ही। अर्थ: (ये मानस जनम) सच्चा प्रभू नाम (रूपी बीज बीजने) के लिए फबवां समय मिला है, जो मनुष्य (‘नाम’-बीज) बीजता है वह (इसका फल) खाता है। हे नानक! ये चीज उस मनुष्य को ही मिलती है जिसके भाग्यों में लिखी हो।1। मः ५ ॥ मंगणा त सचु इकु जिसु तुसि देवै आपि ॥ जितु खाधै मनु त्रिपतीऐ नानक साहिब दाति ॥२॥ {पन्ना 321} पद्अर्थ: तुसि = त्रुठ के, प्रसन्न हो के। तितु = (अधिकरण कारक, एक वचन)। जितु खाधे = (पूरन कारदंतक) जिसके खाने से, अगर ये खाया जाय। त्रिपतीअै = तृप्त हो जाता है। साहिब दाति = मालिक की बख्शिश। अर्थ: अगर मांगना है तो सिर्फ प्रभू का नाम मांगो (ये ‘नाम’ उसे ही मिलता है) जिस पर प्रभू स्वयं प्रसन्न हो के देता है, अगर ये (नाम वस्तु) खाई जाए तो मन (माया की ओर से) संतुष्ट हो जाता है, पर हे नानक! है ये (निरोल, पूरी तरह से) मालिक की बख्शिश ही।2। पउड़ी ॥ लाहा जग महि से खटहि जिन हरि धनु रासि ॥ दुतीआ भाउ न जाणनी सचे दी आस ॥ निहचलु एकु सरेविआ होरु सभ विणासु ॥ पारब्रहमु जिसु विसरै तिसु बिरथा सासु ॥ कंठि लाइ जन रखिआ नानक बलि जासु ॥१५॥ {पन्ना 321} पद्अर्थ: लाहा = नफा, लाभ। से = वह लोग। रासि = पूँजी। दुतीआ = (संस्कृत: द्वितीय) दूसरा, किसी और का। भाउ = प्यार। सरेविआ = सिमरा। सासु = श्वास। कंठि = गले से। जन = जनों को, सेवकों को। बलि जासु = सदके जाता हूँ। अर्थ: जगत में वही (मनुष्य-बन्जारे) लाभ कमाते हैं जिनके पास परमात्मा का नाम-रूप धन है, पूँजी है। वह (परमात्मा के बिना) किसी और से मोह करना नहीं जानते, उन्हें एक परमात्मा की ही आस होती है। उन्होंने सदा कायम रहने वाले प्रभू को ही सिमरा है (क्योंकि) और सारा जगत (उन्हें) नाशवान (दिखता) है। जिस मनुष्य को परमात्मा भूल जाता है उस की (हरेक) सांस व्यर्थ जाती है, परमात्मा ने अपने सेवकों को (‘दुतिया भाव’ से) स्वयं अपने गले से लगा के बचाया है। हे नानक! मैं उस प्रभू से सदके जाता हूँ।15। सलोक मः ५ ॥ पारब्रहमि फुरमाइआ मीहु वुठा सहजि सुभाइ ॥ अंनु धंनु बहुतु उपजिआ प्रिथमी रजी तिपति अघाइ ॥ सदा सदा गुण उचरै दुखु दालदु गइआ बिलाइ ॥ पूरबि लिखिआ पाइआ मिलिआ तिसै रजाइ ॥ परमेसरि जीवालिआ नानक तिसै धिआइ ॥१॥ {पन्ना 321} पद्अर्थ: पारब्रहमि = परमात्मा ने। मीहु = नाम की बरखा। वुठा = बरसा, (बरसात) हुई। सहजि सुभाइ = अपने आप। प्रिथमी = हृदय रूपी धरती। अंनु धंनु = अन्न रूपी धन, (जैसे शरीर का आसरा अंन है, वैसे ही हृदय के आसरे के लिए) सिफत सालाह रूपी अन्न। तिपति अघाइ रजी = अच्छी तरह से तृप्त हो गई। दालदु = दरिद्रता। बिलाइ गइआ = दूर हो जाता है। पूरबि = पहले से। तिसै रजाऐ = उस (प्रभू) की रजा अनुसार। अर्थ: जब परमात्मा ने हुकम दिया तो (जिस किसी भाग्यशाली के हृदय रूपी धरती पर) अपने आप नाम की बरखा होने लग पड़ी, उस (हृदय-धरती) में (प्रभू की सिफत सालाह का) अन्न बहुत पैदा हो जाता है, (उसका हृदय अच्छी तरह संतोख वाला हो जाता है), वह मनुष्य सदा ही परमात्मा के गुण गाता है, उसकी दुख-दरिद्रता दूर हो जाती है। पर, ये ‘नाम’ रूपी अन्न पूर्बले लिखे भाग्यों के अनुसार मिलता है और मिलता है परमात्मा की रजा मुताबिक। (माया में मरे हुए जिस किसी में) जान डाली है परमेश्वर ने ही (डाली है), हे नानक! उस प्रभू को सिमर।1। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |