श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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मः ५ ॥ जीवन पदु निरबाणु इको सिमरीऐ ॥ दूजी नाही जाइ किनि बिधि धीरीऐ ॥ डिठा सभु संसारु सुखु न नाम बिनु ॥ तनु धनु होसी छारु जाणै कोइ जनु ॥ रंग रूप रस बादि कि करहि पराणीआ ॥ जिसु भुलाए आपि तिसु कल नही जाणीआ ॥ रंगि रते निरबाणु सचा गावही ॥ नानक सरणि दुआरि जे तुधु भावही ॥२॥ {पन्ना 322}

पद्अर्थ: जीवन पदु = असली जिंदगी का दर्जा। निरबाणु = (निर्वाण) वासना रहित प्रभू। जाइ = जगह। किनि बिधि = किस तरह। धीरीअै = धीरज आए, मन टिके। छारु = राख। बादि = व्यर्थ। रस = चस्के। करहि = तू करता है। कल = शांति की सार। रंगि = प्यार में। गावही = गाते हैं। दुआरि = दर पे। भावही = अच्छे लगे।

अर्थ: अगर वासना-रहित एक प्रभू को सिमरें तो असल जीवन का दर्जा हासिल होता है, (पर इस अवस्था की प्राप्ति के लिए) कोई और जगह नहीं है, (क्योंकि) किसी और तरीके से मन टिक नहीं सकता। सारा संसार (टटोल के) देखा है, प्रभू के नाम के बिना सुख नहीं मिलता। (जगत इस तन और धन में सुख तलाशता है) ये शरीर और धन नाश हो जाएंगे, पर कोई विरला ही इस बात को समझता है।

हे प्राणी! तू क्या कर रहा है? (भाव, तू क्यों नहीं समझता कि जगत के) रंग-रूप और रस सब व्यर्थ हैं (इनके पीछे लगने से मन का टिकाव हासिल नहीं होता) ? (पर जीव के भी क्या बस में?) प्रभू जिस मनुष्य को खुद कुमार्ग पर डालता है, उसे मन की शांति की समझ नहीं आती। जो मनुष्य प्रभू के प्यार में रंगे हुए हैं, वह उस सदा कायम रहने वाले व वासना-रहित प्रभू को गाते हैं। हे नानक! (प्रभू के आगे ये आरजू कर - हे प्रभू!) अगर तुझे ठीक लगे तो जीव तेरे दर पे तेरी शरण आते हैं।2।

पउड़ी ॥ जमणु मरणु न तिन्ह कउ जो हरि लड़ि लागे ॥ जीवत से परवाणु होए हरि कीरतनि जागे ॥ साधसंगु जिन पाइआ सेई वडभागे ॥ नाइ विसरिऐ ध्रिगु जीवणा तूटे कच धागे ॥ नानक धूड़ि पुनीत साध लख कोटि पिरागे ॥१६॥ {पन्ना 322}

पद्अर्थ: लड़ि लागे = आसरा लिया। जीवत = जीते ही, इसी जिंदगी में। कीरतनि = कीर्तन से, सिफत सालाह करके। जागे = सुचेत रहे, विकारों से बचे रहे। नाइ = (अधिकरण कारक, एक वचन)। नाइ विसरिअै = (पूरब पूरन कारदंतक) अगर नाम बिसर जाए। पुनीत = पवित्र। कोटि = करोड़। पिराग = प्रयाग।

अर्थ: जो मनुष्य परमात्मा का आसरा लेते हैं, उनके लिए जनम-मरण का चक्र नहीं रहता। वे इसी जीवन में (प्रभू के दर पर) कबूल हो जाते हैं (क्योंकि) प्रभू की सिफत सालाह करके वे विकारों से बचे रहते हैं। वही मनुष्य भाग्यशाली हैं, जिन्हें (ऐसे) गुरमुखों की संगति हासल होती है, पर अगर प्रभू का नाम बिसर जाय तो जीना धिक्कारयोग्य है टूटे हुए कच्चे धागे की तरह (व्यर्थ) है।

हे नानक! गुरमुखों के चरणों की धूड़ लाखों-करोड़ों प्रयाग आदि तीर्थों से भी ज्यादा पवित्र है।16।

सलोकु मः ५ ॥ धरणि सुवंनी खड़ रतन जड़ावी हरि प्रेम पुरखु मनि वुठा ॥ सभे काज सुहेलड़े थीए गुरु नानकु सतिगुरु तुठा ॥१॥ {पन्ना 322}

पद्अर्थ: धरण = धरती। सुवंनी = सुंदर रंग वाली। खड़ = घास। रतन = ओस रूपी मोती। जड़ावी = जड़ाऊ। मनि = मन में।

अर्थ: जिस मन में प्यार-स्वरूप हरी अकाल पुरख बस जाता है वह मन ऐसे है जैसे ओस की बूँद रूपी मोतियों से जड़ी हुई घास वाली धरती सोहने रंग वाली हो जाती है। हे नानक! जिस मनुष्य पर गुरू सतिगुरू नानक स्वयं प्रसन्न होता है, उसके सारे काम आसान हो जाते हैं।1।

मः ५ ॥ फिरदी फिरदी दह दिसा जल परबत बनराइ ॥ जिथै डिठा मिरतको इल बहिठी आइ ॥२॥ {पन्ना 322}

पद्अर्थ: दह = दस। दिसा = दिशाओं में। दहदिसा = दसों दिशाओं में, हर तरफ। बनराइ = बनस्पति। मिरतको = मुर्दा। बहिठी = बैठती है। जल = (भाव) दरिआ आदि।

अर्थ: चारों तरफ दरियाओं, पहाड़ों और वृक्षों पेड़ों पर से उड़ती-उड़ती चील ने जहाँ मुर्दा देखा वहीं आ बैठी (यही हाल उस मन का है जो परमात्मा से विछुड़ के विकारों में आ गिरता है)।2।

पउड़ी ॥ जिसु सरब सुखा फल लोड़ीअहि सो सचु कमावउ ॥ नेड़ै देखउ पारब्रहमु इकु नामु धिआवउ ॥ होइ सगल की रेणुका हरि संगि समावउ ॥ दूखु न देई किसै जीअ पति सिउ घरि जावउ ॥ पतित पुनीत करता पुरखु नानक सुणावउ ॥१७॥ {पन्ना 322}

पद्अर्थ: जिसु = जिस (प्रभू) से। लोड़ीअहि = मांगते हैं। कमावउ = मैं कमाऊँ (भाव,) सिमरन करूँ। (ये शब्द ‘वर्तमानकाल उत्तमपुरष, एकवचन’ है। इस का अर्थ ‘कमाओ’ करना गलत है, उस हालत में इसका जोड़ होता ‘कमावहु’ जो व्याकरण के अनुसार ‘हुकमी भविष्यत, मध्यम पुरष, बहुवचन’ है)। देखउ = मैं देखूँ। धिआवउ = मैं ध्याऊँ। समावउ = मैं समा जाऊँ। देई = मैं देऊँ। जावउ = मैं जाऊँ। सुणावउ = मै (औरों को भी) सुनाऊँ।

अर्थ: मैं उस सच्चे प्रभू को सिमरूँ, जिससे सारे सुख और सारे फल मांगते हैं। उस पारब्रहम को अपने अंग-संग देखूँ और केवल उसी का ही नाम ध्याऊँ। सबके चरणों की धूड़ हो के मैं परमात्मा में लीन हो जाऊँ। मैं किसी भी जीव को दुख ना दूँ और (इस तरह) बा-इज्जत (अपने असल) घर जाऊँ (भाव, प्रभू की हजूरी में पहचूँ)। हे नानक! मैं औरों को भी बताऊँ कि करतार अकाल-पुरख (विकारों में) गिरे हुओं को भी पवित्र करने वाला है।17।

सलोक दोहा मः ५ ॥ एकु जि साजनु मै कीआ सरब कला समरथु ॥ जीउ हमारा खंनीऐ हरि मन तन संदड़ी वथु ॥१॥ {पन्ना 322}

पद्अर्थ: जि = जो। कला = ताकत, सत्ता। खंनीअै = टुकड़े टुकड़े हो, कुर्बान जाए, सदके हो। संदड़ी = की। वथु = वस्तु, चीज।

अर्थ: मैंने एक उस (हरी) को ही अपना मित्र बनाया है जो सारी ताकतों वाला है, परमात्मा ही मन और तन के काम आने वाली असली चीज है, मेरी जिंद उसके सदके हैं।1।

मः ५ ॥ जे करु गहहि पिआरड़े तुधु न छोडा मूलि ॥ हरि छोडनि से दुरजना पड़हि दोजक कै सूलि ॥२॥ {पन्ना 322}

पद्अर्थ: करु = (मेरा) हाथ। गहहि = (तू) पकड़ ले। न मूलि = कभी ना। छोडनि = छोड़ देते हैं, विसार देते हैं। दुरजना = दुर्जन, बुरे कामों वाले लोग। पड़हि = पड़ते हैं। सूलि = असह पीड़ा में।

अर्थ: हे अति प्यारे प्रभू! अगर तू मेरा हाथ पकड़ ले, मैं तूझे कभी ना छोड़ूं। जो मनुष्य प्रभू को बिसार देते हैं वह दुष्कर्मी हो के नर्क की असह पीड़ा में पड़ते हैं (भाव, पीड़ा से तड़फते हैं)।2।

पउड़ी ॥ सभि निधान घरि जिस दै हरि करे सु होवै ॥ जपि जपि जीवहि संत जन पापा मलु धोवै ॥ चरन कमल हिरदै वसहि संकट सभि खोवै ॥ गुरु पूरा जिसु भेटीऐ मरि जनमि न रोवै ॥ प्रभ दरस पिआस नानक घणी किरपा करि देवै ॥१८॥ {पन्ना 322}

पद्अर्थ: सभि = सारे। जिस दै घरि = जिसके घर में (‘दे’ की जगह ‘दै’ का प्रयोग स्मरणीय है, देखें पौड़ी 8वीं)। संकट = कलेश। भेटीअै = मिले। घणी = बहुत, तीव्र।

अर्थ: जिस परमात्मा के घर में सारे खजाने हैं वह जो कुछ करता है वही होता है। उसके संत जन उसको सिमर-सिमर के जीते हैं (भाव, उसके सिमरन को अपनी जिंदगी का आसरा बनाते हैं, क्योंकि प्रभू उनके) पापों की सारी मैल धो देता है, प्रभू के सुंदर चरण उनके मन में बसते हैं, प्रभू उनके सारे कलेश नाश कर देता है। (पर यह दाति गुरू के द्वारा ही मिलती है) जिस मनुष्य को पूरा गुरू मिलता है वह ना जनम-मरण के चक्कर में पड़ता है और ना ही दुखी होता है। प्रभू के दर्शन की चाह नानक को भी तीव्र है, पर वह अपने दर्शन स्वयं ही मेहर करके देता है।18।

सलोक डखणा मः ५ ॥ भोरी भरमु वञाइ पिरी मुहबति हिकु तू ॥ जिथहु वंञै जाइ तिथाऊ मउजूदु सोइ ॥१॥ {पन्ना 322}

पद्अर्थ: भोरी = थोड़ा सा भी। वञांइ = (यहां ‘ञं’ का उच्चारण, ‘ञ’ और ‘ज’ के बीच की आवाज मिला कर करना है) अगर दूर करें। पिरी = प्यारा। मुहबति = प्यार। जिथहु = जहाँ। जाइ वंञै = (यहां भी ‘ञै’ का उच्चारण, ‘ञ’ और ‘ज’ के बीच की आवाज मिला कर करना है) जाएगा। तिथाऊ = वहीं ही। सोइ = वह प्रभू।

अर्थ: (हे भाई!) अगर तू रक्ती मात्र भी (मन की) भटकना दूर कर दे और सिर्फ प्यारे प्रभू से प्रेम करे; तो जहाँ जाएगा वहीं वह प्रभू हाजिर (दिखेगा)।1।

मः ५ ॥ चड़ि कै घोड़ड़ै कुंदे पकड़हि खूंडी दी खेडारी ॥ हंसा सेती चितु उलासहि कुकड़ दी ओडारी ॥२॥ {पन्ना 322}

पद्अर्थ: घोड़ड़ा = सुंदर घोड़ा। घोड़ड़ै = सुंदर घोड़े पर। कुंदे = बंदूक का हत्था। खेडारी = खेल जानने वाले। उलासहि = उत्साह में ले आते हैं। सेती = साथ।

अर्थ: (जिन मनुष्यों को) आती तो खूंडी की खेल खेलनी है, (पर, बड़े खिलाड़ियों की नकल करके) सुंदर घोड़ों पर चढ़ के बंदूकों के हत्थे (हाथ में) पकड़ते हैं (वे ऐसे हास्यास्पद लगते हैं, जिन्हें) आती तो मुर्गे की उड़ान है पर हँसों के साथ (उड़ने के लिए अपने) मन को उत्साह देते हों। (ठीक यही हाल उन मनमुखों का समझो जो गुरमुखों की रीस करते हैं)।2।

पउड़ी ॥ रसना उचरै हरि स्रवणी सुणै सो उधरै मिता ॥ हरि जसु लिखहि लाइ भावनी से हसत पविता ॥ अठसठि तीरथ मजना सभि पुंन तिनि किता ॥ संसार सागर ते उधरे बिखिआ गड़ु जिता ॥ नानक लड़ि लाइ उधारिअनु दयु सेवि अमिता ॥१९॥ {पन्ना 322}

पद्अर्थ: रसना = जीभ से। स्रवणी = कानों से। मिता = हे मित्र! भावनी = श्रद्धा, प्रेम। हसत = हाथ। अठसठि = अड़सठ। मजना = स्नान। सभि = सारे। तिनि = उस (मनुष्य) ने। बिखिआ = माया। उधारिअनु = उस (हरी) ने उद्धार दिए हैं। दयु = प्यारा (प्रभू)। अमिता = बेअंत।

अर्थ: हे मित्र! जो मनुष्य जीभ से हरी नाम उच्चारता है, और कानों से हरी नाम सुनता है, वह (मनुष्य संसार सागर से) बच जाता है। उसके वह हाथ पवित्र हैं जो श्रद्धा से परमात्मा की सिफत सालाह लिखते हैं। उस मनुष्य ने जैसे, अढ़सठ तीर्थों का स्नान कर लिया है और सारे पुंन कर्म कर लिए हैं। ऐसे मनुष्य संसार समुंद्र (के विकारों में डूबने) से बच जाते हैं, उन्होंने माया का किला जीत लिया (समझो)।

हे नानक! ऐसे बेअंत प्रभू को सिमर, जिसने अपने साथ लगा के (अनेकों जीव) बचाए हैं।19।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh