श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 323 सलोक मः ५ ॥ धंधड़े कुलाह चिति न आवै हेकड़ो ॥ नानक सेई तंन फुटंनि जिना सांई विसरै ॥१॥ {पन्ना 323} पद्अर्थ: धंधड़े = कोझे धंधे। कुलाह = (कु+लाह) लाहे वाले नहीं, घाटे वाले। चिति = चिक्त में। हेकड़ो = एक परमात्मा। तंन = शरीर। फुटंनि = फूट जाते हैं, विकारों से गंदे हो जाते हैं। अर्थ: वे कोझे धंधे घाटे वाले हैं जिनके कारण एक परमात्मा चिक्त में ना आए, (क्योंकि) हे नानक! वे शरीर विकारों से गंदे हो जाते हैं जिन्हें मालिक प्रभू भूल जाता है।1। मः ५ ॥ परेतहु कीतोनु देवता तिनि करणैहारे ॥ सभे सिख उबारिअनु प्रभि काज सवारे ॥ निंदक पकड़ि पछाड़िअनु झूठे दरबारे ॥ नानक का प्रभु वडा है आपि साजि सवारे ॥२॥ {पन्ना 323} पद्अर्थ: परेतहु = प्रेत से, भूत से। कीतोनु = उसने बना दिया। तिनि = उस ने। उबारिअनु = उसने बचा लिए। प्रभि = प्रभू ने। पछाड़िअनु = धरती पर पटका के मारे उसने। साजि = पैदा करके। अर्थ: उस सृजनहार ने (नाम की दाति दे के जीव को) प्रेत से देवते बना दिया है। प्रभू ने स्वयं काज सँवारे हैं और सारे सिख (विकारों से) बचा लिए हैं। झूठे और निंदकों को पकड़ के अपनी हजूरी में उसने (जैसे) पटका के धरती पे दे मारा है। नानक का प्रभू सबसे बड़ा है, उसने जीव पैदा करके खुद ही (‘नाम’ में जोड़ के) सँवार दिए हैं।2। पउड़ी ॥ प्रभु बेअंतु किछु अंतु नाहि सभु तिसै करणा ॥ अगम अगोचरु साहिबो जीआं का परणा ॥ हसत देइ प्रतिपालदा भरण पोखणु करणा ॥ मिहरवानु बखसिंदु आपि जपि सचे तरणा ॥ जो तुधु भावै सो भला नानक दास सरणा ॥२०॥ {पन्ना 323} पद्अर्थ: अगमु = पहुँच से परे। अगोचरु = इंद्रियों की पहुँच से परे। परणा = आसरा। हसत = हाथ। देइ = दे के। भरण पोखणु = पालना। अर्थ: परमात्मा बेअंत है, उसका कोई अंत नहीं पा सकता, सारा जगत उसी ने बनाया है। वह मालिक अपहुँच है, जीवों की इंद्रियों की पहुँच से परे है, सब जीवों का आसरा है। हाथ दे के सब की रक्षा करता है, सब को पालता है। वह प्रभू मेहर करने वाला है, बख्शिश करने वाला है, जीव उसको सिमर के पार हो जाता है। हे दास नानक! (कह) ‘जो कुछ तेरी रजा में हो रहा है, वह ठीक है, हम जीव तेरी शरण में हैं’।20। सलोक मः ५ ॥ तिंना भुख न का रही जिस दा प्रभु है सोइ ॥ नानक चरणी लगिआ उधरै सभो कोइ ॥१॥ {पन्ना 323} पद्अर्थ: का = कोई, किसी तरह की। सभो कोइ = हरेक जीव। अर्थ: जिस-जिस मनुष्य के सिर पर रक्षक वह प्रभू है उन्हें (माया की) कोई भूख नहीं रह जाती। हे नानक! परमात्मा के चरणों में लग के हरेक जीव माया की भूख से बच जाता है।1। मः ५ ॥ जाचिकु मंगै नित नामु साहिबु करे कबूलु ॥ नानक परमेसरु जजमानु तिसहि भुख न मूलि ॥२॥ {पन्ना 323} पद्अर्थ: जाचिकु = मंगता। जजमानु = दक्षिणा देने वाला। न मूलि = रक्ती भी नहीं। अर्थ: (जो मनुष्य) मंगता (बन के मालिक प्रभू से) सदा नाम मांगता है (उसकी अर्ज) मालिक कबूल करता है। हे नानक! जिस मनुष्य का जजमान (खुद) परमेश्वर है उसे रक्ती भी (माया की) भूख नहीं रहती।2। पउड़ी ॥ मनु रता गोविंद संगि सचु भोजनु जोड़े ॥ प्रीति लगी हरि नाम सिउ ए हसती घोड़े ॥ राज मिलख खुसीआ घणी धिआइ मुखु न मोड़े ॥ ढाढी दरि प्रभ मंगणा दरु कदे न छोड़े ॥ नानक मनि तनि चाउ एहु नित प्रभ कउ लोड़े ॥२१॥१॥ सुधु कीचे {पन्ना 323} पद्अर्थ: सचु = प्रभू का सदा स्थिर नाम। जोड़े = पोशाक। ऐ = यह प्रीति। हसती = हाथी। मिलख = जमीनें। घणीं = बहुत सारी। ढाढी = प्रभू की सिफत सालाह करने वाला। दरि प्रभ = प्रभू के दर पर। सुधु कीचे = शुद्ध करके लेना। अर्थ: (जो मनुष्य प्रभू की सिफत सालाह करता है उसका) मन परमात्मा के साथ रंगा जाता है उस के लिए प्रभू का नाम ही बढ़िया भोजन व पोशाक है। परमात्मा के नाम के साथ उसका प्यार बन जाता है, यही उसके लिए हाथी घोड़े है। प्रभू के सिमरन से वह कभी अकता नहीं, यही उसके लिए राज-माल, जमीनें और बेअंत खुशियां हैं। वह ढाढी प्रभू के दर से ही सदा मांगता है, प्रभू का दर कभी नहीं छोड़ता। हे नानक! सिफत सालाह करने वाले के मन में, तन में सदा ये चाव बना रहता है, वह सदा प्रभू को मिलने की तमन्ना रखता है।21।1। शुद्ध करके लेना। नोट: श्री करतार पुर वाली बीड़ में ये शब्द हाशिये से बाहर है। वैसे, ‘वार’ की समाप्ति पर बाकी बहुत सारा पन्ना खाली पड़ा है। इसका मतलब ये है कि इन शब्दों का बाणी से कोई संबंध नहीं है। शब्द ‘सुधु कीचे’ सिर्फ इस ‘वार’ के साथ है। बाकी ‘वारों’ के साथ ‘सुधु’ हाशिए के बाहर प्रयोग किया गया है। __________________0000______________ रागु गउड़ी भगतां की बाणी अब मोहि जलत राम जलु पाइआ ॥ राम उदकि तनु जलत बुझाइआ ॥१॥ रहाउ ॥ मनु मारण कारणि बन जाईऐ ॥ सो जलु बिनु भगवंत न पाईऐ ॥१॥ जिह पावक सुरि नर है जारे ॥ राम उदकि जन जलत उबारे ॥२॥ भव सागर सुख सागर माही ॥ पीवि रहे जल निखुटत नाही ॥३॥ कहि कबीर भजु सारिंगपानी ॥ राम उदकि मेरी तिखा बुझानी ॥४॥१॥ {पन्ना 323} पद्अर्थ: मोहि = मैं। जलत = जलते हुए, तपते हुए। राम जलु = प्रभू के नाम का पानी। राम उदकि = प्रभू (के नाम) के पानी ने। तनु = शरीर। बुझाइआ = बुझा दिया है, ठंडा कर दिया है।1। रहाउ। मारण कारणि = मारने के वास्ते, काबू करने के लिए। बन = जंगलों की ओर। जाईअै = जाते हैं। सो जलु = वह (नाम रूप) पानी (जो मन को मार सके)। भगवंत = परमात्मा।1। जिह पावक = (विषियों की) जिस आग ने। पावक = आग। सुरि = देवते। नर = मनुष्य। है जारे = जला दिए हैं। राम उदकि = प्रभू (के नाम) के नाम के पानी ने। जन = सेवक। उबारे = बचा लिए हैं।2। भव सागर = संसार समुंद्र। सुख सागर = सुखों का समुंद्र। माही = में। पीवि रहे = लगातार पी रहे हैं। निखुटत नही = समाप्त नहीं होता।3। भजु = सिमर। सारंगि पानी = परमात्मा (जिसके हाथ में ‘सारंग’ धनुष है)। सारिंग = विष्णु के धनुष का नाम है। पानी = पाणि, हाथ। तिखा = तृष्णा, प्यास। बुझानी = बुझा दी है, शांत कर दी है। कहि = कहे, कहता है।4। अर्थ: (ढूँढते-ढूँढते) अब मैंने प्रभू के नाम का अमृत ढूँढ लिया है, उस नाम-अमृत ने मेरे तपते शरीर को ठंडा कर दिया है।1। रहाउ। जंगलों की ओर (तीर्थों आदि पर) मन को मारने के लिए (शांत करने के लिए) जाते हैं, पर वह (नाम-रूपी) अमृत (जो मन को शांत कर सके) प्रभू के बिना (प्रभू के सिमरन के बिना) नहीं मिल सकता।1। (तृष्णा की) जिस आग ने देवते और मनुष्य जला डाले हैं, प्रभू के (नाम-) अमृत ने भगत जनों को जलने से बचा लिया है।2। (वह भगत-जन जिनको ‘राम-उदक’ ने जलने से बचाया है) इस संसार समुंद्र में (जो अब उनके लिए) सुखों का समुंद्र (बन गया है) नाम-अमृत लगातार पी रहे हैं और वह अमृत कभी खत्म नहीं होता।3। कबीर कहता है– (हे मन!) परमात्मा का सिमरन कर, परमात्मा के नाम-अमृत ने मेरी (माया की) तृष्णा मिटा दी है।4।1। शबद का भाव: संसार समुंद्र में जीवों के मनों को माया की तृष्णा रूपी आग तपा रही है; तीर्थों आदि का स्नान इस आग को बुझा नहीं सकता। परमातमा का नाम अमृत ही तपे हुए हृदयों को ठंडा करके सुख दे सकता है।1। गउड़ी कबीर जी ॥ माधउ जल की पिआस न जाइ ॥ जल महि अगनि उठी अधिकाइ ॥१॥ रहाउ ॥ तूं जलनिधि हउ जल का मीनु ॥ जल महि रहउ जलहि बिनु खीनु ॥१॥ तूं पिंजरु हउ सूअटा तोर ॥ जमु मंजारु कहा करै मोर ॥२॥ तूं तरवरु हउ पंखी आहि ॥ मंदभागी तेरो दरसनु नाहि ॥३॥ तूं सतिगुरु हउ नउतनु चेला ॥ कहि कबीर मिलु अंत की बेला ॥४॥२॥ {पन्ना 323-324} पद्अर्थ: माधउ = हे माधव! हे माया के पति प्रभू! (मा+धव; मा = माया, धव = पति)। पिआस = प्यास। न जाइ = खत्म नहीं होती। जल महि = नाम रूप पानी में। नाम रूप पानी पीते पीते, नाम जपते जपते। अगनि = चाहत रूपी अग्नि। उठी = पैदा हो गई है। अधिकाइ = अधिक।1। रहाउ। जल निधि = जल का खजाना, समुंद्र। मीनु = मछली। रहउ = मैं रहता हूँ। जलहि बिनु = जल के बिना। खीनु = कमजोर, मुर्दा।1। पिंजरु = पिंजरा। हउ = मैं। सुअटा = कमजोर सा तोता। (सूअ = शूक, तोता। पछेतर ‘टा’ = छोटापन जाहिर करने के वास्ते है, जैसे ‘चमरेटा’ का भाव है गरीब चमार)। तोर = तेरा। मंजारु = बिल्ला। कहा करै = क्या कर सकता है? क्या बिगाड़ सकता है? मोर = मेरा।2। तरवरु = सुंदर वृक्ष (तर = वृक्ष, वर = सुंदर, श्रेष्ठ)। आहि = हां। मंद भागी = बुरे भाग्य वाले को। नाहि = नहीं।3। नउतनु = नया। चेला = सिख। कहि = कहै, कहता है। अंत की बेला = आखिर के समय (भाव, ये मानस जनम, जो कई जूनियों में भटक के बाद मिला है)।4।2। अर्थ: हे माया के पति प्रभू! तेरे नाम-अमृत की प्यास मिटती नहीं (भाव, तेरा नाम जप-जप के मैं तृप्त नहीं होता), तेरा नाम अमृत पीते पीते और अधिक चाहत पैदा हो रही है।1। रहाउ। हे प्रभू! तू जल का खजाना (समुंद्र) है, मैं उस जल की मछली हूँ। जल में ही मैं जीवित रह सकती हूँ, जल के बिना मैं मर जाती हूँ।1। तू मेरा पिंजरा है, मैं तेरा कमजोर सा तोता हूँ, (तेरे आसरे रहने पर) जम-रूपी बिल्ला मेरा क्या बिगाड़ लेगा?।2। हे प्रभू! तू सुंदर वृक्ष है और मैं (उस वृक्ष पर आसरा लेने वाला) पंछी हूँ। (मुझ) अभागे को (अभी तक) तेरे दर्शन नसीब नहीं हुए।3। हे प्रभू! तू (मेरा) गुरू है, मैं तेरा नया सिख हूँ (भाव, तेरे साथ वैसे ही प्यार है जैसे नया नया सिख अपने गुरू के साथ करता है)। कबीर कहता है– अब तो (मनुष्य जनम) आखिरी समय है, मुझे जरूर मिल।4।2। शबद का भाव: मनुष्य ज्यों-ज्यों नाम जपता है, त्यों-त्यों उसे नाम का ज्यादा रस आने लगता है, और वह प्रभू को अपना ओट आसरा समझता है। प्रभू भी उसके सिर पर हाथ रखता है, और उसे प्रत्यक्ष दीदार देता है।2। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |