श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 324 गउड़ी कबीर जी ॥ जब हम एको एकु करि जानिआ ॥ तब लोगह काहे दुखु मानिआ ॥१॥ हम अपतह अपुनी पति खोई ॥ हमरै खोजि परहु मति कोई ॥१॥ रहाउ ॥ हम मंदे मंदे मन माही ॥ साझ पाति काहू सिउ नाही ॥२॥ पति अपति ता की नही लाज ॥ तब जानहुगे जब उघरैगो पाज ॥३॥ कहु कबीर पति हरि परवानु ॥ सरब तिआगि भजु केवल रामु ॥४॥३॥ {पन्ना 324} पद्अर्थ: हम = हम। ऐको ऐकु करि = ये निष्चय करके कि सब जगह एक परमात्मा ही व्यापक है। जानिया = समझा है। लोगहु = लोगों ने। काहे = क्यूँ? दुखु मानिआ = इस बात को बुरा समझा है, इस बात से दुखी हुए हैं।1। अपतह = बेपता, निरलज्ज, जिसकी कोई इज्जत ना रह जाए। खोई = गवा ली है। खोजि = खोज पे, पीछे, राह पे। मति परहु = ना चलो।1। रहाउ। माही = में। मंदे = बुरे। साझ पाति = भाईचारा, मेल मुलाकात। काहू सिउ = किसी के साथ।2। पति अपति = आदर निरादरी। लाज = परवाह। जानहुगे = तुम्हें समझ आएगी। पाज = दिखावा।3। पति = (असल) इज्जत। परवानु = कबूल। तिआगि = छोड़ के। भजु = सिमर।4।3। अर्थ: जब हमने (भाव, मैंने) ये समझ लिया है कि सब जगह एक परमात्मा ही व्यापक है, तो (पता नहीं) लोगों ने इस बात को क्यों बुरा मनाया है।1। मैं निसंग हो गया हूँ और मुझे ये परवाह नहीं कि कोई मनुष्य इज्जत करे या ना करे। (तुम लोगों को जगत में मान-सम्मान का ख्याल है, इस वास्ते जिस राह मैं पड़ा हूँ) उस राह पे मेरे पीछे ना चलो।1। रहाउ। अगर मैं बुरा हूँ तो अपने ही अंदर बुरा हूँ ना, (किसी को इससे क्या?); मैंने किसी के साथ (इसलिए) कोई मेल-जोल भी नहीं रखा हुआ।2। मेरी कोई इज्जत करे या निरादरी करे, मैं इसमें कोई हीनता नहीं समझता, क्योंकि तुम्हें भी तब समझ आएगी (कि असल इज्जत व निरादरी कौन सी है) जब तुम्हारा ये जगत दिखावा उघड़ जाएगा।3। हे कबीर! कह– (असल) इज्जत उसी की है, जिसे प्रभू कबूल कर ले। (इसलिए, हे कबीर!) और सब कुछ (भाव, दुनिया की लोक-लाज) त्याग के परमात्मा का सिमरन कर।4।3। भाव: दुनिया के बंदे लोक-लाज के पीछे मरते मरते भगत जनों से कुतर्क करते हैं, क्योंकि बंदगी वाले मनुष्य लोक-लाज छोड़ के सब जीवों से एक-सा ही बर्ताव रखते हैं। पर, दुनिया की ये आदर-निरादरी प्रभू की हजूरी में किसी काम की नहीं। वहाँ तो बंदगी कबूल है।3। गउड़ी कबीर जी ॥ नगन फिरत जौ पाईऐ जोगु ॥ बन का मिरगु मुकति सभु होगु ॥१॥ किआ नागे किआ बाधे चाम ॥ जब नही चीनसि आतम राम ॥१॥ रहाउ ॥ मूड मुंडाए जौ सिधि पाई ॥ मुकती भेड न गईआ काई ॥२॥ बिंदु राखि जौ तरीऐ भाई ॥ खुसरै किउ न परम गति पाई ॥३॥ कहु कबीर सुनहु नर भाई ॥ राम नाम बिनु किनि गति पाई ॥४॥४॥ {पन्ना 324} पद्अर्थ: नगन फिरत = नंगे घूमते हुए। जौ = अगर। जोगु = (परमात्मा से) योग (मिलाप)। सभु मिरगु = हरेक पशु (हिरन आदि)। बन = जंगल। होगु = हो जाएगा।1। बाधे चाम = (मृगशाला आदि) चमड़ी (शरीर पर) पहनने से। किआ = क्या लाभ हो सकता है? नही चीनसि = तू नहीं पहिचान करता। आतम राम = परमात्मा।1। रहाउ। मूंड = सिर। जौ = यदि। काई = कोई। सिधि = सिद्धि, सफलता।2। बिंदु–वीर्य। राखि–रख के, संभाल के। बिंदु राखि–वीर्य संभालने से, बाल ब्रहमचारी रहने से (नोट: शब्द ‘बिंदु’ सदा ‘ु’ अंत है, वैसे ये स्त्री लिंग है)। भाई–हे भाई! हे सज्जन! परम गति–सबसे ऊूंची अवस्था, मुक्ति।3। नर भाई = हे भाईयो! किनि = किस ने? (भाव, किसी ने नहीं)।4।4 अर्थ: अगर नंगे फिरने से परमात्मा के साथ मिलाप हो सकता तो जंगल के हरेक पशु की मुक्ति हो जानी चाहिए।1। (हे भाई!) जब तक तू परमात्मा को नहीं पहचानता, तब तक नंगे रहने से क्या सँवर जाना है और शरीर पर चमड़ी (मृगशाला) लपेटने से क्या मिल जाना है?।1। रहाउ। अगर सिर मुनाने से सिद्धि मिल सकती (तो क्या कारण है कि) कोई भी भेड़ (अब तक मुक्त नहीं हुई?)।2। हे भाई! अगर ब्रहमचारी रहने से (संसार-समुंद्र से) पार हो सकते हैं, तो हिजड़े को क्यों मुक्ति नहीं मिल जाती?।3। हे कबीर! (बेशक) कह– हे भाईओ! परमात्मा का नाम सिमरे बिना किसी को मुक्ति नहीं मिली।4।4। शबद का भाव: नंगे रह के जंगलों घूमना, सिर मुना के फकरी बन जाना, बाल जती बने रहना- ऐसा कोई साधन मनुष्य को संसार सागर से पार नहीं लंघा सकता। केवल परमात्मा का नाम ही बेड़ा पार कर सकता है।4। गउड़ी कबीर जी ॥ संधिआ प्रात इस्नानु कराही ॥ जिउ भए दादुर पानी माही ॥१॥ जउ पै राम राम रति नाही ॥ ते सभि धरम राइ कै जाही ॥१॥ रहाउ ॥ काइआ रति बहु रूप रचाही ॥ तिन कउ दइआ सुपनै भी नाही ॥२॥ चारि चरन कहहि बहु आगर ॥ साधू सुखु पावहि कलि सागर ॥३॥ कहु कबीर बहु काइ करीजै ॥ सरबसु छोडि महा रसु पीजै ॥४॥५॥ {पन्ना 324} पद्अर्थ: संधिआ = शाम के वक्त। प्रात = सवेरे। कराही = करते हैं। भऐ = होते हैं। दादुर = मेंढक। माही = में।1। जउ पै = अगर (देखें सिरी राग रविदास जी: ‘जउ पै हम न पाप करंता’)। रति = प्यार। ते सभ = वह सारे (जीव)। धरमराइ कै = धर्मराज के वश में1। रहाउ। काइआ = शरीर। रति = मोह प्यार। बहु रूप = कई भेष। रचाई = रचते हैं, बनाते हैं। सुपने भी = सपने में भी, कभी भी। दइआ = तरस।2। चारि चरन = चार वेद। कहहि = उचारते हैं, पढ़ते हैं। बहु = बहत। आगर = समझदार मनुष्य। साधू = संत जन। कलि सागर = झगड़ों का समुंद्र, संसार।3। बहु काइ करीजै = बहुत सारी विचारें किसलिए करनी? भाव, पते की बात ये है, सारी विचारों का निचोड़ ये है। सरबसु = सर्वस्व, अपना सब कुछ, सब पदार्थों का मोह। छोडि = त्याग के। महा रसु = सबसे ऊँचा नाम रस। पीजै = पीएं।4।5। अर्थ: (जो मनुष्य) सवेरे और शाम को (भाव, दोनों वक्त निरा) स्नान ही करते हैं (और समझते हैं कि हम पवित्र हो गए हैं, वे इस तरह हैं) जैसे पानी में मेंढक बस रहे हैं।1। पर अगर उनके हृदय में परमात्मा के नाम का प्यार नहीं है तो वे सारे धर्मराज के वश पड़ते हैं।1। रहाउ। (कई मनुष्य) शरीर के मोह में ही (भाव, शरीर को पालने के खातिर ही) कई भेष बनाते हैं; उनको कभी सपने में दया नहीं आई (उनका हृदय कभी द्रवित नहीं हुआ)।2। ब्हुत समझदार मनुष्य चार वेद (आदि धर्म पुस्तकों को) ही (निरे) पढ़ते हैं (पर निरा पढ़ने से क्या होना है?)। इस संसार समुंद्र में (सिर्फ) संत-जन ही (असल) सुख पाते हैं।3। हे कबीर! कह– सारी विचारों का निष्कर्श ये है कि सब पदार्थों का मोह त्याग के परमात्मा के नाम का रस पीना चाहिए।4।5। भाव: तीर्थों के स्नान, कई तरह के भेष, वेद आदि धर्म-पुस्तकों के निरे पाठ- ऐसा कोई कर्म भी सच्चा सुख नहीं दे सकता। जिसके हृदय में प्रभू के नाम का प्यार नहीं, उसने जमों के ही वश पड़ना है। कोशिशों में सबसे कोशिश यही है कि मोह त्याग के प्रभू का सिमरन करें।5। कबीर जी गउड़ी ॥ किआ जपु किआ तपु किआ ब्रत पूजा ॥ जा कै रिदै भाउ है दूजा ॥१॥ रे जन मनु माधउ सिउ लाईऐ ॥ चतुराई न चतुरभुजु पाईऐ ॥ रहाउ ॥ परहरु लोभु अरु लोकाचारु ॥ परहरु कामु क्रोधु अहंकारु ॥२॥ करम करत बधे अहमेव ॥ मिलि पाथर की करही सेव ॥३॥ कहु कबीर भगति करि पाइआ ॥ भोले भाइ मिले रघुराइआ ॥४॥६॥ {पन्ना 324} पद्अर्थ: जा कै रिदै = जिस मनुष्य के हृदय में। दूजा भाउ = परमात्मा के बिना और किसी का प्यार। किआ = कैसा? किस अर्थ? अर्थात किसी काम का नहीं।1। रे जन = हे भाई! माधउ = माधव (मा = माया, धव = पति) माया का पति प्रभू। सिउ = साथ। चतुराई = समझदारियों से। चतुरभुजु = (चार बाहों वाला) परमातमा। न पाईअै = नहीं मिलता।1। रहाउ। परहरु = (संस्कृत: परि+हृ = त्याग देना) छोड़ दे। लोकाचारु = लोगों को ही दिखाने वाला काम, दिखावा, लोक पतियावा।2। करम = कर्म कांड, धार्मिक रस्में। अहंमेव = (अहं = मैं। ऐव = ही) ‘मैं मैं’ का ख्याल, अहंकार। बधे = बंध गए हैं। मिलि = मिल के। करही = करते हैं। सेव = सेवा।3। करि = करके, करने से। पाइआ = मिलता है। भोले भाइ = भोले स्वभाव से। रघुराइआ = प्रभू।4। अर्थ: जिस मनुष्य के हृदय में परमात्मा के बिना और किसी का प्यार है, उसका जप करना किस अर्थ? उसका तप करना किस मतलब का? उसकी वर्त और पूजा के क्या गुण?।1। हे भाई! मन को परमात्मा के साथ जोड़ना चाहिए (सिमरन को त्याग के और) समझदारियों से ईश्वर नहीं मिल सकता।1। रहाउ। (हे भाई!) लालच, दिखावा, काम, क्रोध और अहंकार छोड़ दे।2। मनुष्य धार्मिक रस्में करते-करते अहंकार में बंधे हुए हैं, और मिल के पत्थरों ही की पूजा कर रहे हैं (पर ये सब कुछ व्यर्थ है)।3। हे कबीर! कह– परमात्मा बंदगी करने से (ही) मिलता है, भोले स्वाभाव से प्राप्त होता है।4।6। शबद का भाव: भोले स्वाभाव (innocence) और अज्ञानता (ignorance) में फर्क समझने की जरूरत है। किसी ‘मूर्ति’ के लिए ये समझ लेना कि ये परमात्मा है– ये भोला स्वभाव नहीं है, ये अज्ञानता है, अन्जानपना है। भोला-पन छोटे बालक का स्वाभाव है; किसी के साथ पक्के वैर की गाँठ ना बाँध लेनी, ये भोलापन है; सब लोग एक जैसे ही लगने, ऊूंच-नीच का भेद ना होना - ये है भोलापन। गउड़ी कबीर जी ॥ गरभ वास महि कुलु नही जाती ॥ ब्रहम बिंदु ते सभ उतपाती ॥१॥ कहु रे पंडित बामन कब के होए ॥ बामन कहि कहि जनमु मत खोए ॥१॥ रहाउ ॥ जौ तूं ब्राहमणु ब्रहमणी जाइआ ॥ तउ आन बाट काहे नही आइआ ॥२॥ तुम कत ब्राहमण हम कत सूद ॥ हम कत लोहू तुम कत दूध ॥३॥ कहु कबीर जो ब्रहमु बीचारै ॥ सो ब्राहमणु कहीअतु है हमारै ॥४॥७॥ {पन्ना 324} पद्अर्थ: गरभ वास = माँ के पेट में बसेरा। जाती = जानी (किसी ने भी)। ब्रहम बिंदु = परमात्मा की अंश। बिंदु ते = बिंद से। उतपाती = उत्पत्ति, अस्तित्व, जन्म।1। (नोट: शब्द ‘बिंदु’ के अंत में ‘ु’ मात्रा लगी होती है, ‘संबंधक’ (preposition) के साथ भी ये ‘ु’ कायम रहती है)। कहु = बता। रे = हे! कब के होऐ = कब के बने हो (भाव, माँ के पेट में तो सब जीव एक जैसे ही होते हैं, बाहर आ के तुम कब के ब्राहमण बन गए?)। कहि कहि = कह कह के (भाव = ब्राहमणपन का गुमान कर के, अहंकार से ये कह कह के कि मैं ब्राहमण हूँ)। मत खोए = ना गवाओ।1। रहाउ। जौ = यदि। ब्रहमणी जाइआ = ब्राहमण स्त्री से पैदा हुआ। तउ = तो। आन बाट = (किसी) और रास्ते। काहे = क्यूँ? आइआ = पैदा हुआ।2। कत = कैसे? हम = हम। सूद = शूद्र, नीच जाति के। हम = हमारे (शरीर में)।3। जो = जो मनुष्य। ब्रहमु = परमात्मा को। बिचारै = विचारता है, सिमरता है, याद रखता है। सो = वह मनुष्य। कहीअतु है = कहा जाता है। हमारै = हमारे मत में।4।7। अर्थ: सारे जीवों की उत्पत्ति परमात्मा के अंश से (हो रही) है (सब का मूल कारण परमात्मा स्वयं है); माँ के पेट में तो किसी को ये समझ नहीं होती कि मैं किस कुल का हूँ।1। बताओ, हे पण्डित! तुम ब्राहमण कब से बन गए हो? ये कह–कह के कि मैं ब्राहमण हूँ, मैं ब्राहमण हूँ, मानस जनम (अहंकार में व्यर्थ) ना गवाओ।1। रहाउ। अगर (हे पण्डित!) तू (सचमुच) ब्राहमण है और ब्राहमणी के गर्भ से पैदा हुआ है, तो किसी और रास्ते से क्यों नहीं पैदा हो गया?।2। (हे पंडित!) तुम कैसे ब्राहमण (बन गए) ? हम कैसे शूद्र (रह गए) ? हमारे शरीर में कैसे निरा लहू ही है? तुम्हारे शरीर में कैसे (लहू की जगह) दूध है?।3। हे कबीर! कह– हम तो उस मनुष्य को ब्राहमण कहते हैं जो परमात्मा (ब्रहम) को सिमरता है।4।7। भाव: जो मनुष्य उच्च जाति का गुमान करते हैं, वे मानस जन्म व्यर्थ गवाते हैं। सारे जीव परमात्मा के ही अंश हैं। ऊँचा वही है जो प्रभू की बंदगी करता है।7। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |