श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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गउड़ी कबीर जी ॥ अंधकार सुखि कबहि न सोई है ॥ राजा रंकु दोऊ मिलि रोई है ॥१॥ जउ पै रसना रामु न कहिबो ॥ उपजत बिनसत रोवत रहिबो ॥१॥ रहाउ ॥ जस देखीऐ तरवर की छाइआ ॥ प्रान गए कहु का की माइआ ॥२॥ जस जंती महि जीउ समाना ॥ मूए मरमु को का कर जाना ॥३॥ हंसा सरवरु कालु सरीर ॥ राम रसाइन पीउ रे कबीर ॥४॥८॥ {पन्ना 325}

पद्अर्थ: अंधकार = अंधेरा, अज्ञानता का अंधेरा, परमात्मा को भूलने-रूपी अंधेरा। सुखि = सुख में। कबहि = कभी। सोई है = सो सकते है। रंकु = कंगाल। दोऊ = दोनों। रोई है = रोते हैं, दुखी होते हैं। मिलि = मिल के। दोऊ मिलि = दोनों ही।1।

जउपै = अगर, जब तक। रसना = जीभ (से)। कहिबो = कहते, सिमरते, उचारते। उपजत = पैदा होते। बिनसत = मरते। रोवत = रोते। रहिबो = रहोगे।1। रहाउ।

जस = जैसे। तरवर = वृक्ष। कहु = बताओ। कां की = किस की (भाव, किसी और की?, बेगानी)।2।

जस = सैसे। जंती = (राग का) साज़। जीउ = जिंद, राग की जान, आवाज़। मरमु = भेद। मूऐ मरमु = मर गए प्राणी का भेद (कि वह कहाँ गया है)। को = कोई मनुष्य। का करि = कैसे?।3।

सरवरु = सरोवर, तालाब। कालु = मौत। रसाइन = (रस+अयन। अयन = घर) सब रसों का घर, नाम अमृत।4।

अर्थ: (परमात्मा को भुला के अज्ञानता के) अंधकार में कभी सुखी नहीं सो सकते, राजा हो कंगाल, दोनों ही दुखी होते हैं।1।

(हे भाई!) जब तक जीभ से परमात्मा को नहीं जपते, तब तक पैदा होते मरते व (इस दुख में) रोते रहोगे।1। रहाउ।

जैसे वृक्ष की छाया देखते हैं (भाव, जैसे पेड़ की छाया सदा टिकी नहीं रहती, वैसे ही इस माया का हाल है); जब मनुष्य के प्राण निकल जाते हैं तो बताओ, ये माया किस की होती है? (भाव, किसी और की बन जाती है, इसलिए इसका क्या मान?)।2।

जैसे (जब गवईया अपना हाथ साज से हटा लेता है तो) राग की आवाज साज़ में (ही) लीन हो जाती है (कोई बता नहीं सकता कि वह कहाँ गई), वैसे ही मरे मनुष्य का भेद (कि उसकी जीवात्मा कहाँ गई) कोई मनुष्य कैसे जान सकता है?।3।

जैसे हंसों के लिए सरोवर है (भाव, जैसे हंस सरोवर के नजदीक ही उड़ते रहते हैं) वैसे ही मौत शरीरों (के लिए) है। इसलिए हे कबीर! सब रसों से श्रेष्ठ रस राम-रस पी।4।8।

भाव: परमात्मा का नाम जपे बिना निरा दुख ही दुख है। ये माया और ये शरीर भी अंत में साथ नहीं देते। नाम ही असल साथी और सुखों का मूल है।8।

गउड़ी कबीर जी ॥ जोति की जाति जाति की जोती ॥ तितु लागे कंचूआ फल मोती ॥१॥ कवनु सु घरु जो निरभउ कहीऐ ॥ भउ भजि जाइ अभै होइ रहीऐ ॥१॥ रहाउ ॥ तटि तीरथि नही मनु पतीआइ ॥ चार अचार रहे उरझाइ ॥२॥ पाप पुंन दुइ एक समान ॥ निज घरि पारसु तजहु गुन आन ॥३॥ कबीर निरगुण नाम न रोसु ॥ इसु परचाइ परचि रहु एसु ॥४॥९॥ {पन्ना 325}

पद्अर्थ: जोति = (रॅबी) नूर, परमात्मा। की = की (बनाई हुई)। जाति = पैदायश, सृष्टि। जाति की जोति = (इस) सृष्टि (के जीवों) की है जो बुद्धि। तितु = उस (बुद्धि) में। कंचूआ = कांच।1।

कवनु = कौन सा? घरु = टिकाना। निरभउ = भय से मुक्त। भजि जाइ = दूर हो जाय। अभै = अभय, निडर।1। रहाउ।

तटि = तट पर, किनारे पर (किसी पवित्र नदी के) किनारे पर। तीरथि = तीर्थ पर। पतीआइ = पतीजता, धीरज करता, ठिकाने आता। चार = अच्छे (काम)। अचार = (अ+चार) बुरे कर्म। रहे उरझाइ = उलझ रहे हैं, फस रहे हैं।2।

दुइ = दोनों। ऐक समान = एक जैसे (भाव, दोनों ही मन को वासना में रखते हैं)। निज घर = अपने घर में, अपने अंदर ही। पारसु = लोहे आदि को सोना बनाने वाला (नीचे से ऊँचा करने वाला प्रभू)। तजहु = छोड़ दो। आन = और।3।

निरगुण = (निर+गुण) तीन गुणों से रहित, जो माया के तीन गुणों से ऊपर है। निरगुण नाम = माया के प्रभाव से ऊपर प्रभू का नाम। न रोसु = ना रूठ, ना भुला। इसु = इस (मन) को। परचाइ = व्यस्त हो के लगा के। परचि रहु = पतीजे रहो, व्यस्त रहो। ऐसु = इस (नाम) में।4।9।

अर्थ: परमात्मा की बनाई हुई (सारी) सृष्टि है, इस सृष्टि के जीवों की (जो) बुद्धि है (उसे) काँच व मोती फल लगे हुए हैं (अर्थात, कोई भली तरफ लगे हुए हैं कोई बुरी तरफ)।1।

वह कौन सी जगह है जो डर से खाली है? (जहाँ रहने से हृदय का) डर दूर हो सकता है, जहाँ निडर हो के रह सकते हैं?।1। रहाउ।

किसी (पवित्र नदी के) किनारे अथवा तीर्थ पर (जा के भी) मन को धैर्य नहीं मिलता, वहाँ भी लोग पाप-पुंन्न में लगे हुए हैं।2।

(पर) पाप और पुन्न दोनों ही एक जैसे हैं (भाव, दोनों ही वासना की और दोड़ाए फिरते हैं), (हे मन! नीचों से ऊँचा करने वाला) पारस (प्रभू) तेरे अपने अंदर ही है, (इसलिए, पाप-पुन्न वाले) और गुण (अंदर धारण करने) छोड़ दे (और प्रभू को अपने अंदर संभाल)।3।

हे कबीर! माया के मोह से ऊँचे प्रभू के नाम को ना बिसार; अपने मन को नाम जपने में लगा के नाम में ही व्यस्त रह।4।9।

शबद का भाव: तीर्थों पर जा के भी लोग पाप-पुन्न आदि कर्मों में लगे रहते हैं, मन को निर्भयता इस तरह भी नहीं मिलती। प्रभू का एक नाम ही है जिस में जुड़े रहके मन अडोल रह सकता है और वह नाम मनुष्य के अंदर ही है।9।

गउड़ी कबीर जी ॥ जो जन परमिति परमनु जाना ॥ बातन ही बैकुंठ समाना ॥१॥ ना जाना बैकुंठ कहा ही ॥ जानु जानु सभि कहहि तहा ही ॥१॥ रहाउ ॥ कहन कहावन नह पतीअई है ॥ तउ मनु मानै जा ते हउमै जई है ॥२॥ जब लगु मनि बैकुंठ की आस ॥ तब लगु होइ नही चरन निवासु ॥३॥ कहु कबीर इह कहीऐ काहि ॥ साधसंगति बैकुंठै आहि ॥४॥१०॥ {पन्ना 325}

पद्अर्थ: जो जन = जो मनुष्य। परमिति = (मिति = अंदाजा, गिनती, हद बंदी) जो मिनती से परे है, जिसकी हद बंदी नहीं ढूँढी जा सकती। परमनु = जो मन की कल्पना से परे है, जिसका सही मुकम्मल स्वरूप मन की विचार में नहीं आ सकता। जाना = जान लिया है। बातन ही = निरी बातों से ही। समाना = समाए हैं, पहुँचे हैं।1।

ना जाना = मैं नहीं जानता, मुझे नहीं पता। कहा ही = क्हाँ है? जानु जानु = चलना है चलना है। तहा ही = वहीं ही।1। रहाउ।

कहन कहावन = कहने कहलाने से, कहने सुनने से। पतीआई है = पतीज सकते हैं, तसल्ली हो सकती । तउ = तब ही। मानै = मानता है, पतीजता है। जा ते = जब। जई है = देर हो जाए।2।

मनि = मन में। चरन निवासु = (प्रभू के) चरनों में निवास।3।

काहि = कैसे? कहीअै = समझा के बताईए। आहि = है।4।10।

अर्थ: जो मनुष्य (निरा कहते ही हैं कि) हमने उस प्रभू को जान लिया है, जिसकी सीमा नहीं ढूँढी जा सकती जो मन की पहुँच से परे है, वह मनुष्य निरी बातों से ही बैकुंठ में पहुँचे हैं (भाव, वे गप्पें ही मार रहे हैं, उन्होंने बैकुंठ असल में देखा ही नहीं है)।1।

मुझे तो पता ही नहीं, वह बैकुंठ कहाँ है, जहाँ ये सारे लोग कहते हैं, चलना है चलना है।1। रहाउ।

निरा ये कहने से और सुनने से (कि हमने बैकुंठ जाना है) मन को तसल्ली नहीं हो सकती, मन को तभी धैर्य आ सकता है कि जब अहंकार दूर हो जाय।2।

(एक बार और याद रखने वाली है कि) जब तक मन में बैकुंठ जाने की चाहत बनी हुई है, तब तक प्रभू के चरणों में मन नहीं जुड़ सकता।3।

हे कबीर! कह–ये बात कैसे समझा के बताएं (भाव, ये स्पष्ट बात है कि) साध-संगति ही (असली) बैकुंठ है।4।10।

भाव: असल बैकुंठ साध-संगति है, यहीं मन का अहम् दूर हो सकता है, यहीं मन प्रभू के चरणों में जुड़ सकता है।10।

गउड़ी कबीर जी ॥ उपजै निपजै निपजि समाई ॥ नैनह देखत इहु जगु जाई ॥१॥ लाज न मरहु कहहु घरु मेरा ॥ अंत की बार नही कछु तेरा ॥१॥ रहाउ ॥ अनिक जतन करि काइआ पाली ॥ मरती बार अगनि संगि जाली ॥२॥ चोआ चंदनु मरदन अंगा ॥ सो तनु जलै काठ कै संगा ॥३॥ कहु कबीर सुनहु रे गुनीआ ॥ बिनसैगो रूपु देखै सभ दुनीआ ॥४॥११॥ {पन्ना 325}

पद्अर्थ: उपजै = उगता है, शुरूआत होती है। निपजै = वजूद में आता है। निपजि = बन के, वजूद में आ के, अस्तित्व में आ के। समाई = नाश हो जाता है। नैनहु देखत = आँखों से देखते हुए। जाई = चला जाता है, चला जा रहा है।1।

लाज = शर्म। कहहु = तुम कहते हो। अंत की बार = जिस वक्त मौत आएगी।1। रहाउ।

काइआ = शरीर। मरती बार = मरने के समय। जाली = जलती है।2।

चोआ = इत्र। मरदन = मालिश। अंगा = शरीर के अंगों को। जलै = जल जाता है। काठ कै संगा = लकड़ियों के साथ।3।

रे गुनीआ = हे विचारवान मनुष्य! बिनसैगो = नाश हो जाएगा।4।11।

अर्थ: (पहले इस जीव की पिता के बिंद से) शुरूआत होती है, (फिर माँ के पेट में यह) वजूद में आता है, वजूद में आ के (पुनः) नाश हो जाता है। (सो) हमारी आँखों के सामने ही ये संसार इसी तरह चलता जा रहा है।1।

(इसलिए, हे जीव!) शर्म से क्यूँ नहीं डूब मरता (भाव, तुझे शर्म क्यूँ नहीं आती) जब तू ये कहता है कि ये घर मेरा है, (याद रख) जिस वक्त मौत आएगी, तब कोई भी चीज तेरी नहीं रहेगी।1। रहाउ।

अनेकों यतन करके ये शरीर पालते हैं, पर जब मौत आती है, इसे आग से जला देते हैं।2।

(जिस शरीर के) अंगों को इत्र व चंदन मलते हैं, वह शरीर (आखिर को) लकड़ियों से जल जाता है।3।

हे कबीर! कह– हे विचारवान मनुष्य! याद रख, सारी दुनिया देखेगी (भाव, सबके देखते-देखते) ये रूप नाश हो जाएगा।4।11।

शबद का भाव: कोई चीज मनुष्य के साथ नहीं जा सकती। और तो और, ये शरीर भी यहीं नाश हो जाता है। इसलिए, धन पदार्थों को अपना कह कह के मोह में फंसना नहीं चाहिए।11।

नोट: साधारण तौर पर जगत की आसारता का जिक्र करते हुए, कबीर जी कहते हैं कि मरने पर शरीर जला दिया जाता है। शरीर को जलाने संबंधी ये स्वाभाविक वचन जाहिर करते हैं कि कबीर जी हिन्दू घर में जन्में–पले थे, मुसलमान नहीं थे। बाबा फरीद जी की रची हुई बाणी पढ़ के देखो, वे हर जगह मुसलमानी बोली ही बरतते हैं, क्योंकि वे मुसलमान थे।

गउड़ी कबीर जी ॥ अवर मूए किआ सोगु करीजै ॥ तउ कीजै जउ आपन जीजै ॥१॥ मै न मरउ मरिबो संसारा ॥ अब मोहि मिलिओ है जीआवनहारा ॥१॥ रहाउ ॥ इआ देही परमल महकंदा ॥ ता सुख बिसरे परमानंदा ॥२॥ कूअटा एकु पंच पनिहारी ॥ टूटी लाजु भरै मति हारी ॥३॥ कहु कबीर इक बुधि बीचारी ॥ ना ओहु कूअटा ना पनिहारी ॥४॥१२॥ {पन्ना 325}

पद्अर्थ: अवर = और। करीजै = करें, करना चाहिए। जीजै = जीते रहना हो।1।

मरउ = (आत्मिक मौत) मरूँगा, मुर्दा (दिल) होऊँगा। मरिबो = मरेगा (भाव, परमात्मा की तरफ से मुर्दा रहेगा)। मोहि = मुझे। संसारा = दुनिया, जगत के धंधों में फंसे हुए जीव। जीआवनहारा = (सच्ची) जिंदगी देने वाला।1। रहाउ।

इआ देही = इस शरीर को। परमल = खुशबुएं। महकंदा = महकाता है। ता सुखु = इन सुखों में। परमानंदा = ऊँचे से ऊँचा आनंद दाता।

कूअटा = (कूप+टा। संस्कृत शब्द ‘कूप’ से ‘कूआँ’ प्राकृत रूप् है; ‘टा’ साथ जोड़ के इसे ‘अल्पार्थक’नाम बनाया है, जैसे ‘चमार’ का ‘चमरटा’) छोटा सा कूआँ, कूई, शरीर रूपी कूई, शरीर का मोह रूपी कूप। पनिहारी = पानी भरने वालियां, चरखियां, पाँचों इंद्रियां, जो अपने-अपने तरीके से शरीर में सक्ता खींचते जाते हैं। मति हारी = हारी हुई मति, दुरमति, बुरी मति, अविद्या में फंसी हुई बुद्धि। भरै = भर रही है पानी। टूटी लाजु भरै = टूटी हुई रस्सी (लॅज) से पानी भर रही है ( अर्थात, पानी भरने के व्यर्थ यत्न कर रही है, पानी नहीं मिलता)। लॅज (रस्सी) टूटी हुई है, ज्ञान नहीं है।

लाजु: ये शब्द आमतौर पे शब्द के पीछे ‘ु’ मात्रा के साथ इस्तेमाल होता है।

संस्कृत शब्द ‘रज्जु’ से बना है जिसके आखिर में भी ‘ु’ है। पिछले शब्द का ‘लाज’ मुक्ता अंत है, वह संस्कृत के ‘लज्जा’ से बना है।

नोट: शरीर मोह की कुई है, विषौ–विकारों में फंसी हुई बुद्धि पानी भरने वाली है, इंद्रियां चरखियों का काम कर रही हैं, पर रस्सी नहीं है। जैसे, कोई स्त्री कूएं से पानी भरने जाए, चरखी भी कूएं पर लगी हुई हो, पर रस्सी ना हो तो रस्सी के बिना उसे पानी नहीं मिल सकता, उसका यत्न व्यर्थ होता है। वैसे ही दुर्मति इन इंद्रियों से शरीर में से विषौ–विकारों का आनंद लेने का व्यर्थ ही प्रयत्न करती है। जब तक शरीर के मोह में जीव लगा हुआ है सुख की जगह दुख ही मिलता है।

अर्थ: औरों के मरने पर शोक करने से क्या लाभ? (उनके विछोड़े का) तो तभी करें अगर खुद (यहाँ सदा) जीवित रहना हो।1।

मेरी आत्मा की कभी मौत नहीं होगी। मुर्दा हैं वो जीव जो जगत के धंधों में फंसे हुए हैं। मुझे (तो) अब (असल) जिंदगी देने वाला परमात्मा मिल गया है।1। रहाउ।

(जीव) इस शरीर को कई प्रकार की सुगंधियों से महकाता है, इन ही सुखों में इसे परम आनन्द-स्वरूप परमात्मा भूल जाता है।2।

(शरीर, जैसे) एक छोटा सा कूआँ है, (पाँचों ज्ञानेंदियां जैसे) पाँच चरखिआं हैं, भ्रष्ट हुई बुद्धि रस्सी के बिना (पानी) भरने की कोशिश कर रही है (भाव, विकारों में फंसी हुई बुद्धि ज्ञानेंद्रियों द्वारा विकारों में से सुख लेने के व्यर्थ यत्न कर रही है)।3।

हे कबीर! कह– (जब) विचार वाली बुद्धि अंदर (जाग गई), तब ना वह शरीरिक मोह रहा और ना ही (विकारों की तरफ खींचने वाली) वे इंद्रियां रहीं।4।12।

शबद का भाव: जिस मनुष्य को जिंदगी-दाता प्रभू मिल जाए, वह विषौ-विकारों का सुख भोगने में लग के प्रभू की तरफ से मुर्दा नहीं होता। मुर्दा वही है जो ईश्वर से विछुड़ा हुआ है।12।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh