श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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गउड़ी कबीर जी ॥ असथावर जंगम कीट पतंगा ॥ अनिक जनम कीए बहु रंगा ॥१॥ ऐसे घर हम बहुतु बसाए ॥ जब हम राम गरभ होइ आए ॥१॥ रहाउ ॥ जोगी जती तपी ब्रहमचारी ॥ कबहू राजा छत्रपति कबहू भेखारी ॥२॥ साकत मरहि संत सभि जीवहि ॥ राम रसाइनु रसना पीवहि ॥३॥ कहु कबीर प्रभ किरपा कीजै ॥ हारि परे अब पूरा दीजै ॥४॥१३॥ {पन्ना 326}

पद्अर्थ: असथावर = एक जगह पर अडिग खड़े रहने वाले पर्वत, वृक्ष आदि। जंगम = चलने-फिरने वाले पशु-पक्षी। कीट = कीड़े। पतंगा = पंखों वाले कीड़े। बहु रंगा = बहुत किस्मों के। कीऐ = हमने किए, हमने धारण किए।1।

बसाऐ = बसाए, आबाद किए। घर = (भाव) जूनें, शरीर। राम = हे राम! गरभ होइ आऐ = जूनों में पैदा हो गए।1। रहाउ।

साकत = (ईश्वर से) टूटे हुए मनुष्य। मरहि = मरते रहते हैं, जूनियों में पड़ते रहते हैं। जीवहि = जिंदा हैं। रसाइनु = (रस आइनु। अइनु = अयन, घर) रसों का घर, सब रसों से श्रेष्ठ नाम रस। रसना = जीभ (से)।3।

प्रभ = हे प्रभू! हारि = हार के, जूनियों में पड़ पड़ के थक के। परे = गिरे हैं (तेरे दर पे)। पूरा = ज्ञान।4।13।

अर्थ: हम (अब तक) अस्थावर, जंगम, कीट-पतंगे, ऐसे कई किस्मों और जन्मों में आ चुके हैं।1।

हे राम! जब हम जूनियों में पड़ते गए और ऐसे कई शरीरों में से गुजर के आए हैं।1। रहाउ।

कभी हम जोगी बने, कभी जती, कभी तपस्वी, कभी ब्रहमचारी, कभी छत्रपति राजे बने और कभी मंगते।2।

जो मनुष्य ईश्वर से टूटे रहते हैं वह सदा (इसी तरह) कई जूनियों में पड़े रहते हैं। पर संत जन सदा जीते हैं (भाव, जनम मरण के चक्र में नहीं पड़ते, क्योंकि) वह जीभ से प्रभू के नाम का श्रेष्ठ रस पीते रहते हैं।3।

(सो) हे कबीर! (परमात्मा के आगे इस तरह) अरदास कर- हे प्रभू! हम थके-टूट के (तेरे दर पर) आ गिरे हैं, मेहर करके अब अपना ज्ञान बख्श।4।13।

शबद का भाव: प्रभू से विछुड़ के जीव को कई जन्मों में भटकना पड़ता है। तभी निजात मिलती है जब अंदर से अहंकार को दूर करके नाम जपें।13।

गउड़ी कबीर जी की नालि रलाइ लिखिआ महला ५ ॥ ऐसो अचरजु देखिओ कबीर ॥ दधि कै भोलै बिरोलै नीरु ॥१॥ रहाउ ॥ हरी अंगूरी गदहा चरै ॥ नित उठि हासै हीगै मरै ॥१॥ माता भैसा अमुहा जाइ ॥ कुदि कुदि चरै रसातलि पाइ ॥२॥ कहु कबीर परगटु भई खेड ॥ लेले कउ चूघै नित भेड ॥३॥ राम रमत मति परगटी आई ॥ कहु कबीर गुरि सोझी पाई ॥४॥१॥१४॥ {पन्ना 326}

नोट: इस शबद का शीर्षक बताता है कि ये अकेले कबीर जी का नहीं है, इसमें गुरू अरजन साहिब जी का भी हिस्सा है और कुदरती तौर पर वह आखिरी बंद ही हो सकता है। तीसरे बंद (तुक) में कबीर जी का नाम आता है और यहीं वे अपनी रचना समाप्त कर देते हैं। शुरू में लिखते हैं कि जगत में एक अजीब तमाशा हो रहा है– जीव, दही के भुलेखे पानी बिलो (रिड़क) रहा है (भाव, व्यर्थ और उलटा काम कर रहा है जिसका कोई लाभ नहीं)। लाभ वाला काम तो ये है जैसे सिख रोज अरदास करता है– ‘मन नीवां मति उच्ची, मत का राखा वाहिगुरू’, भाव, वाहिगुरू के सिमरन में जुड़ी रहे बुद्धि, और ऐसी बुद्धि के अधीन रहे मन। पर कबीर जी कहते हैं कि जगत में उल्टी खेल हो रही है। बुद्धि मन के पीछे भाग रही है, बुद्धि विकारी मन के पीछे लगी हुई है। लोगों को इस तमाशे की समझ नहीं आ रही, पर कबीर ने ये खेल समझ ली है।

कबीर जी ने ये जिक्र नहीं किया कि इस तमाशे की समझ कैसे आई है तथा और लोगों को भी कैसे आ सकती है। इस घूँडी को खोलने के लिए गुरू अरजन साहिब जी ने आखिरी पदा नं:4 अपनी तरफ से लिख के मिला दिया है। अंक 4 के आगे अंक नं:1 भी इस शबद का अनोखापन बताने के वास्ते ही है। इन 35 शबदों में सिर्फ एक शबद है जिसमें यह अनोखी बात आई है।

इस शबद के इस अनोखे शीर्षक से एक बात और भी साफ हो जाती है कि भक्तों की बाणी गुरू अरजन देव जी ने खुद ‘बीड़’ में दर्ज करवाई थी।

पद्अर्थ: अचरजु = अनोखा चमत्कार, अजीब तमाशा। दधि = दही। भोलै = भुलेखे। बिरोलै = मथ रहा है, विरोल रहा है। नीरु = पाणी।1। रहाउ।

गदहा = गधा, मूर्ख मन। हरी अंगूरी = विकारों की ताजा अंगूरी, मन भाते विकार। चरै = चुगता है, चरता है। उठि = उठ के। हासै = हसता है। मरै = (पैदा होता) मरता है।1।

माता = मस्ताया हुआ। भैसा = सांड। अंमुहा = अमोड़। अंमुहा जाइ = अमोड़पना करता है, दकियानूसी। रसातलि = नर्क में। पाइ = पड़ता है।2।

परगटु भई = समझ में आ गई है। लेला = (भाव) मन। भेड = (भेड) मति, बुद्धि।3।

राम रमत = प्रभू को सिमरते हुए। मति = बुद्धि। परगटी आई = जाग पड़ी है। गुरि = गुरू ने।4।

अर्थ: हे कबीर! मैंने एक अजीब तमाशा देखा है कि (जीव) दही के भुलेखे पानी मथ रहा है।1। रहाउ।

मूर्ख जीव मन-भाते विकारों में खचित है, इसी तरह सदा हसता और (गधे की तरह) हींगता रहता है (आखिर) जनम-मरन के चक्कर में पड़ जाता है।1।

मस्ताए सांड जैसा मन दकियानूसपना करता है, कूदता है (भाव, अहंकार करता है) विषियों की खेती चुगता रहता है, और नर्क में पड़ जाता है।2।

हे कबीर! कह– (मुझे तो) ये अजीब तमाशा समझ में आ गया है (तमाशा यह है कि) संसारी जीवों की बुद्धि मन के पीछे लगी फिरती है।3।

(ये समझ किस ने दी है?) हे कबीर कह– सतिगुरू ने ये समझ बख्शी है, (जिसकी बरकति से) प्रभू का सिमरन करते-करते (मेरी) बुद्धि जाग पड़ी है (और मन के पीछे चलने से हट गई है)।4।1।14।

शबद का भाव: जब तक मनुष्य गुरू से बेमुख है और नाम नहीं जपता, तब तक इसकी अक्ल भ्रष्टी रहती है, विकारी मन के पीछे लगी फिरती है। गुरू की मेहर से नाम जपें तो बुद्धि मन के पीछे चलने से हट जाती है।14।

गउड़ी कबीर जी पंचपदे२ ॥ जिउ जल छोडि बाहरि भइओ मीना ॥ पूरब जनम हउ तप का हीना ॥१॥ अब कहु राम कवन गति मोरी ॥ तजी ले बनारस मति भई थोरी ॥१॥ रहाउ ॥ सगल जनमु सिव पुरी गवाइआ ॥ मरती बार मगहरि उठि आइआ ॥२॥ बहुतु बरस तपु कीआ कासी ॥ मरनु भइआ मगहर की बासी ॥३॥ कासी मगहर सम बीचारी ॥ ओछी भगति कैसे उतरसि पारी ॥४॥ कहु गुर गज सिव सभु को जानै ॥ मुआ कबीरु रमत स्री रामै ॥५॥१५॥ {पन्ना 326}

पद्अर्थ: मीना = मछली। पूरब जनम = पिछले जन्मों का। हउ = मैं। हीना = विहीन।1।

कवन = कैसी, कौन सी? गति = हालत, हाल। मोरी = मेरी। तजीले = मैंने छोड़ दी है। बनारसि = काशी नगरी बनारस। थोरी = थोड़ी।1। रहाउ।

सगल जनमु = सारी उम्र। शिव पुरी = शिव की नगरी काशी में। गवाइआ = व्यर्थ गुजार दिया। मरती बार = मरने के समय। उठि = उठ के, छोड़ के।2।

बहुतु बरस = कई सालों तक। कासी = कांशी में। मरनु = मौत। बासी = वास, बसेवा।3।

सम = एक जैसे। बीचारी = विचारे हैं, समझे हैं। ओछी = होछी, अधूरी। कैसे = किस तरह? उतरसि = तू उतरेगा। पारी = पार।4।

गुर गजि = गणेश! सभु को = हरेक मनुष्य। जानै = पहचानता है (भाव, समझता है कि यह गणेश और शिव ही मुक्ति देने वाले और छीनने वाले हैं)। मुआ कबीरु = कबीर मर गया है स्वै भाव से, कबीर की मैं मेरी मिट गई है। रमत = सिमर सिमर के।5।15।

अर्थ: (मुझे लोग कह रहे हैं कि) जैसे मछली पानी को छोड़ के बाहर निकल आती है (तो दुखी हो के मर जाती है, वैसे ही) मैंने भी पिछले जन्मों में तप नहीं किया (तभी मुक्ति देने वाली काशी को छोड़ के मगहर आ गया हूँ)।1।

हे मेरे राम! अब मुझे बता, मेरा क्या हाल होगा? मैं काशी छोड़ आया हूँ (क्या ये ठीक है कि) मेरी मति मारी गई है?।1। रहाउ।

(हे राम! मुझे लोग कहते हैं–) ‘तूने सारी उम्र काशी में व्यर्थ ही गुजार दी (क्योंकि अब जब मुक्ति मिलने का समय आया तो) मरने के समय (काशी) छोड़ के मगहर चला आया है’।2।

(हे प्रभू! लोग कहते हैं-) तूने काशी में रह कर कई साल तप किया (पर, उस तप का क्या लाभ ?) जब मरने का वक्त आया तो मगहर आकर बस गया।3।

(हे राम! लोक ताना मारते हैं–) तूने काशी और मगहर को एक समान समझ लिया है, इस होछी भगती से (जो तू कर रहा है) कैसे संसार-समुंद्र से पार गुजरेगा?।4।

(हे कबीर!) कह– ‘हरेक मनुष्य गणेश और शिव को ही पहचानता है (भाव, हरेक मनुष्य यही समझ रहा है कि शिव मुक्ति दाता है और गणेश की नगरी मुक्ति छीनने वाली है); पर कबीर तो प्रभू का सिमरन कर करके स्वै भाव ही मिटा बैठा है (कबीर को ये पता करने की जरूरत ही नहीं रही कि उसकी क्या गति होगी)।5।15।

शबद का भाव: किसी खास देश अथवा नगरी में मुक्ति नहीं मिल सकती। मुक्त वही है जो प्रभू का भजन करकेअपने अंदर से ‘मैं मेरी’ मिटा चुका है।15।

नोट: आम लोगों में यह वहिम पैदा किया हुआ है कि बनारस आदि तीर्थों पर शरीर त्यागने से मनुष्य को मुक्ति मिल जाती है। कबीर जी लोगों का यह भरम दूर करने के लिए अपनी आखिरी उम्र में बनारस छोड़ आए और मगहर आ बसे। मगहर के बारे में ये वहिम है कि ये धरती श्रापित है। जो यहां मरता है, वह गधे की जोनि में पड़ता है। मगहर गोरखपुर से 15मील पर है।

गउड़ी कबीर जी ॥ चोआ चंदन मरदन अंगा ॥ सो तनु जलै काठ कै संगा ॥१॥ इसु तन धन की कवन बडाई ॥ धरनि परै उरवारि न जाई ॥१॥ रहाउ ॥ राति जि सोवहि दिन करहि काम ॥ इकु खिनु लेहि न हरि को नाम ॥२॥ हाथि त डोर मुखि खाइओ त्मबोर ॥ मरती बार कसि बाधिओ चोर ॥३॥ गुरमति रसि रसि हरि गुन गावै ॥ रामै राम रमत सुखु पावै ॥४॥ किरपा करि कै नामु द्रिड़ाई ॥ हरि हरि बासु सुगंध बसाई ॥५॥ कहत कबीर चेति रे अंधा ॥ सति रामु झूठा सभु धंधा ॥६॥१६॥ {पन्ना 326}

पद्अर्थ: चोआ = इत्र। मरदन = मालिश। अंगा = (शरीर के) अंगों को। जलै = जल जाता है। काठ कै संगा = लकड़ियों के साथ।1।

कवन बडाई = कौन सा बड़प्पन है? क्या मान करना हुआ? धरनि = धरती पर। परै = पड़ा रह जाता है। उरवारि = इसी तरफ ही, यहीं। न जाई = (साथ) नहीं जाता।1। रहाउ।

दिन = दिन में सारा दिन। काम = काम काज। करहि = करते हैं। जि = जो मनुष्य। इकु खिनु = रक्ती भर भी, पल मात्र भी। न लेहि = नहीं लेते।2।

हाथि = (उनके) हाथ मे। त = तो। डोर = (बाजों की) डोरें। मुखि = मुंह में। तंबोर = तंबोल, पान। कसि = कस के, जकड़ के। चोर = चोरों की तरह।3।

गुरमति = गुरू की मति ले के। रसि रसि = स्वाद ले ले के, बड़े प्रेम से। रामै राम = केवल राम को। रमत = सिमर सिमर के।4।

द्रिड़ाई = (हृदय में) दृढ़ करवाता है, जपाता है। हरि हरि सुगंध = हरी के नाम की खुशबू। बसाई = बसाता है।5।

रे अंधा = हे अंधे मनुष्य! चेति = याद कर। सति = सदा अटल रहने वाला, स्थिर ना रहने वाला।6।16।

अर्थ: (जिस शरीर के) अंगों को इत्र और चंदन मलते हैं, वह शरीर (आखिर को) लकड़ियों में डाल कर जलाया जाता है।1।

इस शरीर और धन पर क्या गुमान करना? ये यहाँ ही धरती पर पड़े रह जाते हैं (जीव के साथ) नहीं जाते।1। रहाउ।

जो मनुष्य रात को सोए रहते हैं (भाव, रात सो के गुजार देते हैं), और दिन में (दुनियावी) काम-धंधे करते रहते हैं, पर एक पल मात्र भी प्रभू का नाम नहीं सिमरते।2।

जो मनुष्य मुंह में तो पान चबा रहे हैं, और जिनके हाथ में (बाजों की) डोरियां हैं (भाव, जो शिकार आदि शुगल में उलझे रहते हैं), वे मरने के समय चोरों की तरह कस के बाँधे जाते हैं।3।

जो मनुष्य सतिगुरू की मति ले के बड़े प्रेम से प्रभू के गुण गाता है, वह केवल प्रभू को सिमर-सिमर के सुख पाते हैं।4।

प्रभू अपनी मेहर करके जिसके हृदय में अपना नाम बसाता है, उसमें वह ‘नाम’ की खुशबू भी बसा देता है।5।

कबीर कहता है– हे अज्ञानी जीव! प्रभू को सिमर; प्रभू ही सदा स्थिर रहने वाला है, बाकी सारा जंजाल नाश हो जाने वाला है।6।16।

शबद का भाव: ये शरीर, ये धन-पदार्थ, ये राज-रंग -कोई भी अंत समय मनुष्य के काम नहीं आ सकते। बल्कि, ज्यों-ज्यों जीव इन पदार्थों के मोह में उलझते हैं, त्यों-त्यों आखिर के समय ज्यादा दुखी होते हैं। प्रभू का एक ‘नाम’ ही सदा सहाई है। जिस पर प्रभू मेहर करे, उसे ‘नाम’ गुरू-दर से मिलता है।

नोट: दुनिया की असारता के साधारण बयान में, मरे मनुष्य के सिर्फ जलाए जाने का जिक्र साबित करता है कि कबीर जी हिन्दू घर में जन्में–पले थे। ‘बोली’ भी सारी हिन्दुओं वाली प्रयोग करते हैं।

गउड़ी कबीर जी तिपदे चारतुके२ ॥ जम ते उलटि भए है राम ॥ दुख बिनसे सुख कीओ बिसराम ॥ बैरी उलटि भए है मीता ॥ साकत उलटि सुजन भए चीता ॥१॥ अब मोहि सरब कुसल करि मानिआ ॥ सांति भई जब गोबिदु जानिआ ॥१॥ रहाउ ॥ तन महि होती कोटि उपाधि ॥ उलटि भई सुख सहजि समाधि ॥ आपु पछानै आपै आप ॥ रोगु न बिआपै तीनौ ताप ॥२॥ अब मनु उलटि सनातनु हूआ ॥ तब जानिआ जब जीवत मूआ ॥ कहु कबीर सुखि सहजि समावउ ॥ आपि न डरउ न अवर डरावउ ॥३॥१७॥ {पन्ना 326-327}

पद्अर्थ: उलटि = पलट के, बदल के। बिनसे = नाश हो गए हैं, दूर हो गये हैं। बिसराम = डेरा, ठिकाना। भऐ हैं– हो गए हैं, बन गए हैं। मीता = मित्र, सज्जन। साकत = ईश्वर से टूटे हुए जीव। सुजन = भले, गुरमुख। चीता = अंतर आतमे।

मोहि = मैं। कुसल = सुख शांति, आनंद। जानिआ = जान लिया।1। रहाउ।

तन महि = शरीर में। होती = होती थीं। कोटि उपाधि = करोड़ों बखेड़े (विकारों के)। उलटि = पलट के। भई = हो गए हैं। सहजि = सहज में, अडोल अवस्था में, प्रभू के नाम रस में। समाधि = समाधि लगाए रखने के कारण, जुड़े रहने के कारण। आपु = अपने आप को। आपै आप = प्रभू ही प्रभू (दिखाई दे रहा है)। न बिआपै = व्याप नहीं सकता, अपना दबाव नहीं डाल सकता।2।

उलटि = अपने पहले वाले स्वभाव से हट के, विकारों वाली वादी छोड़ के। सनातनु = पुराना, पुरातन, आदि, जो यह पहले पहल था; (अपने असल रूप में, प्रभू का रूप)। जानिआ = जाना, समझ पड़ी। जीवत मूआ = जीता ही मर गया, दुनिया में बसता हुआ भी दुनिया से निराश हो गया हूँ, लीन हो गया हूँ, मस्त हूँ। डरउ = डरता हूँ। अवर = औरों को।3।17।

अर्थ: जमों से बदल के प्रभू (का रूप) हो गए हैं (भाव, पहले जो मुझे जम-रूप दिखते थे, अब वे प्रभू का रूप दिखाई देते हैं), मेरे दुख दूर हो गए हैं और सुखों ने (मेरे अंदर) डेरा आ जमाया है। जो पहले वैरी थे, अब वे सज्जन बन गए हैं (भाव, जो इंद्रियां पहले विकारों की तरफ जा के वैरियों वाला काम कर रही थीं, अब वही भली ओर ले जा रही हैं); पहले ये ईश्वर से टूटे हुए थे, अब उलट के अंतर-आतमे गुरमुख बन गए हैं।1।

अब मुझे सारे सुख आनंद प्रतीत हो रहे हैं; जब का मैंने प्रभू को पहचान लिया है (प्रभू से सांझ डाल ली है) तब से ही (मेरे अंदर) ठंड पड़ गई हैं1। रहाउ।

(मेरे शरीर में विकारों के) करोड़ों बखेड़े थे; प्रभू के नाम-रस में जुड़े रहने के कारण वे सारे पलट के सुख बन गए हैं। (मेरे मन ने) अपने असल स्वरूप को पहचान लिया है (अब इसे) प्रभू ही प्रभू दिखाई दे रहा है, रोग और तीनों ताप (अब) छू नहीं सकते।2।

अब मेरा मन (अपने पहले विकारों वाले स्वभाव से) हट के प्रभू का रूप हो गया है; (इस बात की) तब समझ आई है जब (यह मन) माया में विचरता हुआ भी माया के मोह से ऊँचा हो गया है।

हे कबीर! (अब बेशक) कह– मैं आत्मिक आनंद में अडोल अवस्था में जुड़ा हुआ हूँ; ना मैं खुद किसी और से डरता हूँ और ना ही औरों को डराता हूँ।3।17।

शबद का भाव: जब नाम सिमर-सिमर के प्रभू के चरणों में जीव का चिक्त जुड़ जाए, तब ये सुखी हो जाता है, मन माया के विकारों की तरफ से हट जाता है, और माया में बरतता (रहता) हुआ भी माया के मोह में नहीं फंसता।17।

नोट: इस शबद के शीर्षक के शब्द ‘तुके’ के नीचे एक छोटा सा अंक ‘2’ है। ये दो शबद (नं:17 और18) ऐसे हैं, जिनके हरेक ‘बंद’ में चार–चार तुकें हैं।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh