श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 327 गउड़ी कबीर जी ॥ पिंडि मूऐ जीउ किह घरि जाता ॥ सबदि अतीति अनाहदि राता ॥ जिनि रामु जानिआ तिनहि पछानिआ ॥ जिउ गूंगे साकर मनु मानिआ ॥१॥ ऐसा गिआनु कथै बनवारी ॥ मन रे पवन द्रिड़ सुखमन नारी ॥१॥ रहाउ ॥ सो गुरु करहु जि बहुरि न करना ॥ सो पदु रवहु जि बहुरि न रवना ॥ सो धिआनु धरहु जि बहुरि न धरना ॥ ऐसे मरहु जि बहुरि न मरना ॥२॥ उलटी गंगा जमुन मिलावउ ॥ बिनु जल संगम मन महि न्हावउ ॥ लोचा समसरि इहु बिउहारा ॥ ततु बीचारि किआ अवरि बीचारा ॥३॥ अपु तेजु बाइ प्रिथमी आकासा ॥ ऐसी रहत रहउ हरि पासा ॥ कहै कबीर निरंजन धिआवउ ॥ तितु घरि जाउ जि बहुरि न आवउ ॥४॥१८॥ {पन्ना 327} पद्अर्थ: पिंड = शरीर, शरीर का मोह, देह अध्यास। पिंडि मूअै = शरीर के मरने से, शरीर के मोह के मरने से, देह अध्यास दूर होने से। जीउ = आत्मा। किह घरि = किस घर में, कहाँ? सबदि = (गुरू के) शबद द्वारा, शबद की बरकति से। अतीति = अतीत में, उस प्रभू में जो अतीत है जो माया के बंधनों से परे है। अनाहदि = अनाहद में, बेअंत प्रभू में। राता = रता रहता है, मस्त रहता है। जिनि = जिस मनुष्य ने। तिनहि = उसी (मनुष्य) ने। गूँगे मनु = गूँगे का मन।1। कथै = बता सकता है। बनवारी = जगत = रूप बन का मालिक प्रभू (खुद ही अपनी कृपा करके)। मन रे = हे मन! पवन द्रिढ़ु = श्वासों की संभाल (भाव,श्वासों को खाली ना जाने दे) स्वास स्वास नाम जप। सुखमन नारी = (यही है) सुखमना नाड़ी (का अभ्यास) (प्राणायाम का अभ्यास करने वाले जोगी तो बाई नासिका के रास्ते साँस ऊपर खींच के दोनों भरवटों के बीच माथे में सुखमन नाड़ी में टिकाते हैं और, फिर दाई नासिका के रास्ते उतार देते हैं कबीर जी इस साधन की जगह गुरू की शरण पड़ कर स्वास-स्वास नाम जपने की हिदायत करते हैं)।1। रहाउ। करहु = धारण करो। जि = कि। बहुरि = फेर, दूसरी बार। पदु = दर्जा, ठिकाना। रमहु = रम जाओ, भोगो। न रवना = भोगने की आवश्यक्ता ना रहे।2। उलटी = उलटाई है, मन की बिरती दुनिया से उलटाई है। गंगा जमुन मिलावउ = (इस तरह) मैं गंगा और जमुना को मिला रहा हूँ (भाव, जो संगम मैंने अपने अंदर बनाया हुआ है वहाँ त्रिवेणी वाला पानी नहीं है)। नावउ = मैं नहा रहा हूँ, स्नान कर रहा हूँ । (नोट: अक्षर ‘न’ के नीचे आधा ‘ह’ है)। लोचा = लाचन से, आखों से। समसरि = एक जैसा (सबको देखता हूँ)। बिउहारा = बर्ताव, अमल, वरतारा। ततु = असलियत, परमात्मा। बीचारि = सिमर के। अवरि = और। बीचारा = विचारें, सोचें।3। अपु = जल। तेजु = हवा। अैसी = ऐसी। रहत = रहणी, जिंदगी गुजारने का तरीका। रहउ = मैं रहता हूँ। हरि पासा = हरी के पास, प्रभू के चरणों में जुड़ के। धिआवउ = मैं सिमर रहा हूँ। तितु घरि = उस घर में। जाउ = मैं चला गया हूँ, पहुँच गया हूँ। जि = कि। न आवउ = नहीं आऊँगा, आना नहीं पड़ेगा।4।18। अर्थ: (प्रश्न:) शरीर का मोह दूर होने से आत्मा कहाँ टिकती है? (भाव, पहले तो जीव अपने शरीर के मोह के कारण माया में मस्त रहता है, जब ये मोह दूर हो जाए, तब जीव की सुरति कहाँ जुड़ी रहती है?) (उक्तर:) (तब आत्मा) सतिगुरू के शबद की बरकति से उस प्रभू में जुड़ा रहता है जो माया के बंधनों से परे है और बेअंत है। (पर) जिस मनुष्य ने प्रभू को (अपने अंदर) जाना है उसने ही उसको पहचाना है, जैसे गूँगे का मन शक्कर में पतीजता है (कोई और उस स्वाद को नहीं समझता, किसी और को वह समझा भी नहीं सकता)।1। ऐसा ज्ञान प्रभू खुद ही प्रगट करता है (भाव, प्रभू से मिलाप वाला ये स्वाद प्रभू खुद ही बख्शता है, इसलिए) हे मन! स्वास-स्वास नाम जप, यही है सुखमना नाड़ी का अभ्यास।1। रहाउ। ऐसा गुरू धारण करो कि दूसरी बार गुरू धारण करने की जरूरत ना रहे; (भाव, पूरे गुरू की चरणी लगो); उस ठिकाने का आनंद लो कि किसी और स्वाद को भोगने की चाह ही ना रहे; ऐसी बिरती जोड़ो कि फिर (और कहीं) जोड़ने की जरूरत ही ना रहे; इस तरह मरो (भाव, स्वै भाव दूर करो कि) फिर (जनम) मरण में पड़ना ही ना पड़े।2। मैंने अपने मन की बिरती को पलट दिया है (इस तरह) मैं गंगा और जमुना को मिला रहा हूँ (भाव, अपने अंदर तृवेणी का संगम बना रहा हूँ); (इस उद्यम से) मैं उस मन-स्वरूप (तृवेणी) संगम में स्नान कर रहा हूँ जहाँ (गंगा-जमुना-सरस्वती वाला) जल नहीं है; (अब मैं) इन आँखों से (सब को) एक सा देख रहा हूँ- ये मेरा व्यवहार है। एक प्रभू को सिमर के मुझे अब और विचारों की जरूरत नहीं रही।3। प्रभू के चरणों में जुड़ के मैं इस तरह का रहन-सहन (रहणी) रह रहा हूँ, जैसे पानी, आग, हवा, धरती और आकाश (भाव, इन तत्वों के शीतलता आदि सब गुणों की तरह मैंने भी सब गुण धारण किए हैं)। कबीर कहता है– मैं माया से रहित प्रभू को सिमर रहा हूँ, (सिमरन करके) उस घर (सहज अवस्था) में पहुँच गया हूँ कि फिर (पलट के वहाँ) आना नहीं पड़ेगा।4।18। शबद का भाव: प्रभू की कृपा से जो मनुष्य पूरन गुरू का उपदेश ले के सिमरन करता है, वह सदा अपने अंतर-आत्मे नाम-अंमृत में डुबकी लगाए रखता है और सदा प्रभू में जुड़ा रहता है।18। गउड़ी कबीर जी तिपदे१५ ॥ कंचन सिउ पाईऐ नही तोलि ॥ मनु दे रामु लीआ है मोलि ॥१॥ अब मोहि रामु अपुना करि जानिआ ॥ सहज सुभाइ मेरा मनु मानिआ ॥१॥ रहाउ ॥ ब्रहमै कथि कथि अंतु न पाइआ ॥ राम भगति बैठे घरि आइआ ॥२॥ कहु कबीर चंचल मति तिआगी ॥ केवल राम भगति निज भागी ॥३॥१॥१९॥ {पन्ना 327} पद्अर्थ: कंचन सिउ = सोने से, सोना दे के, सोने के बदले। पाईअै नही = नहीं मिलता। तोलि = तोल के। दे = दे के। मोलि = मुल्य की जगह, मोल।1। मोहि = मैं। अपुना करि = निश्चय से अपना। सहज सुभाइ = सहज से ही, बिना यत्न किए। घरि = घर में, हृदय में।2। चंचल = चुलबुलापन। मति = अकल, बुद्धि। तिआगी = त्याग दी है, छोड़ दी है। केवल = निरी। निज भागी = मेरे हिस्से आई है।3। अर्थ: शुद्ध सोना तोल के बदले में ईश्वर नहीं मिलता, मैंने तो बतौर मूल्य अपना मन दे के ईश्वर को पाया है।1। अब तो मुझे यकीन हो गया है कि ईश्वर मेरा अपना ही है, सहज ही मेरे मन में ये बात गाँठ की तरह बंध गई है।1। रहाउ। जिस ईश्वर के गुण बता-बता के ब्रहमा ने (भी) अंत ना पाया, वह ईश्वर मेरे भजन के कारण सहज स्वभाव ही मुझे मेरे हृदय में आ के मिल गया है।2। हे कबीर! (अब) कह– मैंने चंचल स्वभाव छोड़ दिया है, (अब तो) निरी ईश्वर की भगती ही मेरे हिस्से आई हुई है।3।19। शबद का भाव: धन-पदार्थ आदि के बदले ईश्वर नहीं मिल सकता। जिस मनुष्य ने स्वैभाव दूर किया है, उसे आत्मिक अडोलता में आ मिला है, वह मनुष्य मन की चंचलता त्याग के सदा सिमरन में जुड़ा रहता है।19। नोट: इस शबद के शीर्षक के शब्द ‘तिपदे’ के नीचे छोटा सा अंक ‘15’ है। इस का भाव ये है कि शबद नं: 19 से 33 तक के 15 शबद तीन–तीन बंदों (पदों) वाले हैं। गउड़ी कबीर जी ॥ जिह मरनै सभु जगतु तरासिआ ॥ सो मरना गुर सबदि प्रगासिआ ॥१॥ अब कैसे मरउ मरनि मनु मानिआ ॥ मरि मरि जाते जिन रामु न जानिआ ॥१॥ रहाउ ॥ मरनो मरनु कहै सभु कोई ॥ सहजे मरै अमरु होइ सोई ॥२॥ कहु कबीर मनि भइआ अनंदा ॥ गइआ भरमु रहिआ परमानंदा ॥३॥२०॥ {पन्ना 327} पद्अर्थ: जिह मरनै = जिस मौत से। तरासिआ = त्रास किया, डरा दिया। गुर सबदि = गुरू के शबद (की बरकति) से। प्रगासिआ = प्रगट हो गया है, उसका असली रूप दिखाई दिया है, मालूम हो गया है कि असल में ये क्या है।1। मरउ = मैं मरूँ, जनम मरण में पड़ूँ। मरनि = मरने में, मौत में, संसारिक मोह की मौत में, स्वै भाव की मौत में। मरि मरि जाते = सदा मरते खपते हैं।1। रहाउ। मरनो मरनु = मौत आ जानी है, मर जाना है। सभु कोई = हरेक जीव। सहजे = सहज अडोलता में, स्थिर चिक्त हो के। मरै = मरता है, माया की ओर से मरता है, दुनियां की ख्वाहिशों से बेपरवाह हो जाता है। अमरु = मरने से रहित, सदा जिंदा। सोई = वह मनुष्य।2। मनि = मन में। भइआ = हुआ है, उपजा है, पैदा हो गया है। अनंदा = खुशी, खिड़ाव। भरमु = भुलेखा, शक। रहिआ = बाकी रह गया है, टिक गया है। परमानंदा = परम आनंद, परम सुख, बड़ी से बड़ी खुशी।3। अर्थ: जिस मौत ने सारा संसार डराया हुआ है, गुरू के शबद की बरकति से मुझे समझ आ गई है कि वह मौत असल में क्या चीज है।1। अब मैं जनम-मरण के चक्कर में क्यूँ पड़ूंगा? (भाव, नहीं पड़ूंगा) (क्योंकि) मेरा मन स्वै भाव की मौत में पतीज गया है। (केवल) वह मनुष्य सदा पैदा होते मरते रहते हैं जिन्होंने प्रभू को नहीं पहचाना (प्रभू से सांझ नहीं डाली)।1। रहाउ। (दुनिया में) हरेक जीव ‘मौत मौत’ कह रहा है (भाव, हरेक जीव मौत से घबरा रहा है), (पर जो मनुष्य) अडोलता में (रह के) दुनियां की ख्वाहिशों से बेपरवाह हो जाता है वह अमर हो जाता है (उसे मौत डरा नहीं सकती)।2। हे कबीर! कह– (गुरू की कृपा से मेरे) मन में आनंद पैदा हो गया है, मेरा भुलेखा दूर हो चुका है, और परम सुख (मेरे हृदय में) टिक गया है।3।20। शबद का भाव: जो मनुष्य प्रभू का सिमरन करते हैं उन्हें मौत का डर नहीं रहता, बाकी सारा जहान मौत से डर रहा है।20। गउड़ी कबीर जी ॥ कत नही ठउर मूलु कत लावउ ॥ खोजत तन महि ठउर न पावउ ॥१॥ लागी होइ सु जानै पीर ॥ राम भगति अनीआले तीर ॥१॥ रहाउ ॥ एक भाइ देखउ सभ नारी ॥ किआ जानउ सह कउन पिआरी ॥२॥ कहु कबीर जा कै मसतकि भागु ॥ सभ परहरि ता कउ मिलै सुहागु ॥३॥२१॥ {पन्ना 327} पद्अर्थ: कत = कहाँ। ठउर = जगह। मूलु = जड़ी बूटी, दवाई। कत = कहाँ? लावउ = मैं लगाऊँ। खोजत = तलाश करके। तन महि = शरीर में। न पावउ = मैं नहीं तलाश सकता।1। सु = वह मनुष्य। लागी होइ = (जिसे) लगी हुई हो। पीर = पीड़ा। राम भगति = प्रभू की भक्ति। अनीआले = तेज धार वाले, नुकीले।1। रहाउ। ऐक भाइ = एक (प्रभू) के प्यार में ( भाउ = प्यार। भाइ = प्यार में)। देखउ = मैं देखता हूँ। सभ नारी = सारी जीव सि्त्रयां। किआ जानउ = मैं क्या जानूं, मुझे क्या पता? सह प्यारी = पति की प्यारी।2। जा कै मसतकि = जिसके माथे पर। भागु = अच्छे लेख। ता कउ = उस जीव स्त्री को। सभ परहरि = सभी को छोड़ के। सुहागु = पति परमात्मा।3। अर्थ: तलाश करते हुए भी शरीर में कहीं (ऐसी खास) जगह मुझे नहीं मिली (जहाँ विरह की पीड़ा बताई जा सके); (शरीर में) कहीं (ऐसी) जगह नहीं है, (तो फिर) मैं दवा कहाँ इस्तेमाल करूँ? (भाव, कोई बाहरी दवा प्रभू से विछोड़े का दुख दूर करने के स्मर्थ नहीं है)।1। प्रभू की भगती तीखे तीर हैं, जिसे (इन तीरों के लगे हुए के जख्म की) दर्द हो रही हो वही जानता है (कि ये पीड़ा कैसी होती है)।1। रहाउ। मैं सभी जीव-सि्त्रयों को एक प्रभू के प्यार में देख रहा हूँ (पर) मैं क्या जानूं कि कौन सी (जीव स्त्री) प्रभू पति की प्यारी है।2। हे कबीर! कह–जिस (जिज्ञासु) जीव-सत्री के माथे पे बढ़िया लेख हैं (जिसके भाग्य अच्छे हैं), पति प्रभू और सभी को छोड़ के उसे आ मिलता है (भाव, औरों से ज्यादा उससे प्यार करता है और उसका बिरह का दुख दूर हो जाता है)।3।21। शबद का भाव: देखने को तो सब जीव प्रभू से मिलने का उद्यम कर रहे हैं, पर प्रभू मिलता उसी भाग्यशाली को है, जिसका हृदय प्रेम से भेदा जाता है।21। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |