श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 329 गउड़ी कबीर जी ॥ मन का सुभाउ मनहि बिआपी ॥ मनहि मारि कवन सिधि थापी ॥१॥ कवनु सु मुनि जो मनु मारै ॥ मन कउ मारि कहहु किसु तारै ॥१॥ रहाउ ॥ मन अंतरि बोलै सभु कोई ॥ मन मारे बिनु भगति न होई ॥२॥ कहु कबीर जो जानै भेउ ॥ मनु मधुसूदनु त्रिभवण देउ ॥३॥२८॥ {पन्ना 329} पद्अर्थ: मनहि बिआपी = (सारे) मन पर प्रभाव डाले रखता है। मनहि मारि = मन को मार के। कवन सिधि = कौन सी सफलता? थापी = मिथ ली है, कमा ली है। सुभाउ = (स्व+भाव) निज की लगन, रुचि। मारि = मार के। कहहु = बताओ। किसु = किसे?।1। रहाउ। मन अंतरि = मन के अंदर, मन के प्रभाव तहत, मन से प्रेरित हुआ। सभु कोई = सब जीव।2। भेउ = भेद। मधु सूदनु = मधु दैंत को मारने वाला, परमात्मा। त्रिभवण देउ = तीनों लोकों को प्रकाशित करने वाला।3। अर्थ: (हरेक मनुष्य के) मन की अंदरूनी लगन (जो भी हो, वह उस मनुष्य के) सारे मन (भाव, मन की सारी दौड़-भाग, सारे मानस जीवन) पर प्रभाव डाले रखती है, (तो फिर) मन को मार के कौन सी कमाई कर ली है (भाव, कोई कामयाबी नहीं होती)।1। वह कौन सा मुनि है जो मन को मारता है? बताओ, मन को मार के वह किसे पार लंघाता है?।1। रहाउ। हरेक मनुष्य मन का प्रेरित हुआ ही बोलता है (भाव, जो अच्छे-बुरे काम मनुष्य करता है, उनके लिए प्रेरणा मन से ही होती है; इस वास्ते) मन को मारे बिना (भाव, मन को विकारों से हटाए बिना) भगती (भी) नहीं हो सकती।2। हे कबीर! कह– जो मनुष्य इस रम्ज़ को समझता है उसका मन तीन लोकों को प्रकाशित करने वाला परमात्मा का रूप हो जाता है।3।28। शबद का भाव: जो जो अच्छा-बुरा काम आदमी करता रहता है उन सबके संस्कार मनुष्य के अंदर एकत्र होते रहते हैं, संस्कारों के इस समूह का नाम है ‘मन’। जब कोई एक खास अच्छी या बुरी वादी बन जाए तो वह मन के बाकी संस्कारों को दबा के रखती है और मनुष्य के सारे जीवन को उधर ही पलटा लेती है। मनुष्य की सारी दौड़-भाग मन के इन संस्कारों की प्रेरणा के आसरे होती है। अगर मन को मारने का प्रयत्न किया जाय, मन को बिल्कुल ही खत्म कर देने की कोशिश की जाय तो मनुष्य के जीवन की सारी क्रिया ही ठहर जाएगी। सो, मन को मारना नहीं है, इसकी उन रुचियों को वश में लाना है जो बुरी तरफ़ ले जाती हैं, जैसे; कामु क्रोधु दुइ करहु बसोले गोडहु धरती भाई॥ जिउ गोडहु तिउ सुखु पावहु किरतु न मेटिआ जाई॥ (बसंतु महला १) काम (प्यार) और क्रोध को खत्म नहीं करना, इन्हें बसोले बनाना है। जैसे जिमींदार खेती में गोड़ी करके बेकार वाली घास बूटियां उखाड़ता है, पर फसल के पौधों को ध्यान से बचाए जाता है। इसी प्रकार मानस-जीवन रूपी फसल में से विकारों के संस्कारों वाले नदीनों को जड़ से उखाड़ना है; विकारों के संस्कारों पर, जैसे, क्रोध करना है, पर शुभ गुणों को प्यार करना है, संभाल के रखना है।28। नोट: इस शबद में जोगियों के सुन्नमुन्न हो के बैठे रहने को व्यर्थ का उद्यम बताते हुए कबीर जी कहते हैं कि असल में मन को विकारों की तरफ से रोकना है, और जगत की कार–किरत भी करनी है। सुन्नमुन्न हो के जो विकारों की तरफ से हटा, तो वह जड़ सा हो के भली तरफ से भी हटा रहा। गउड़ी कबीर जी ॥ ओइ जु दीसहि अ्मबरि तारे ॥ किनि ओइ चीते चीतनहारे ॥१॥ कहु रे पंडित अ्मबरु का सिउ लागा ॥ बूझै बूझनहारु सभागा ॥१॥ रहाउ ॥ सूरज चंदु करहि उजीआरा ॥ सभ महि पसरिआ ब्रहम पसारा ॥२॥ कहु कबीर जानैगा सोइ ॥ हिरदै रामु मुखि रामै होइ ॥३॥२९॥ {पन्ना 329} पद्अर्थ: ओइ = (ये शब्द ‘ओह’ का बहुवचन plural है)। दीसहि = दिखाई दे रहे हैं। अंबरि = आकाश में। किनि = किस ने? चीते = चित्रित किए हैं। चीतनहारे = चित्रकार ने।1। अबरु = आकाश। का सिउ = किससे, किस के आसरे? बूझनहारु = जानने वाला, सयाना।1। रहाउ। करहि = कर रहे हैं। उजिआरा = रोशनी। ब्रहम पसारा = प्रभू का खिलारा, प्रभू की ज्योति का प्रकाश।2। सोई = वही मनुष्य। हिरदै = हृदय में। मुखि = मुंह में। रामै = राम ही (राम ई = रामै)।3। अर्थ: वे तारे जो आकाश में दिखाई दे रहे हैं किस चित्रकार ने चित्रे हैं? बताओ, हे पंडित! आकाश किस के सहारे है? कोई भाग्यशाली समझदार व्यक्ति ही इस (रम्ज़ को) समझता है।1। रहाउ। (ये जो) सूरज और चंद्रमा (आदि जगत में) प्रकाश कर रहे हैं (इन) सभी में प्रभू की जोति का (ही) प्रकाश बिखरा हुआ है।2। हे कबीर! (बेशक) कह– (इस भेद को) वही मनुष्य समझेगा, जिसके हृदय में प्रभू बस रहा है, और मुंह में (भी) केवल प्रभू ही है (भाव, जो मुंह से भी प्रभू के गुण उचार रहा है)।3।29। शबद का भाव: इस सारे जगत को पैदा करने वाला और आसरा देने वाला प्रभू स्वयं ही है उसकी अपनी ज्योति का प्रकाश हर जगह हो रहा है, पर इस बात की समझ सिर्फ उस मनुष्य को ही आती है जो प्रभू की बंदगी करता है।29। गउड़ी कबीर जी ॥ बेद की पुत्री सिम्रिति भाई ॥ सांकल जेवरी लै है आई ॥१॥ आपन नगरु आप ते बाधिआ ॥ मोह कै फाधि काल सरु सांधिआ ॥१॥ रहाउ ॥ कटी न कटै तूटि नह जाई ॥ सा सापनि होइ जग कउ खाई ॥२॥ हम देखत जिनि सभु जगु लूटिआ ॥ कहु कबीर मै राम कहि छूटिआ ॥३॥३०॥ {पन्ना 329} पद्अर्थ: भाई = हे भाई! बेद की पुत्री = वेदों की बेटी, वेदों की पैदा की हुई, वेदों के आधार पर बनी हुई। सांकल = (वर्ण आश्रम के) संगल, जंजीरें। जेवरी = (कर्म काण्ड की) रस्सियां। लै है आई = ले के आई हुई है।1। आपन नगरु = अपना शहर, अपने श्रद्धालुओं की बस्ती, अपने सारे श्रद्धालु। आप ते = आप ही। मोह कै = मोह (की फासीं) में। फाधि = फसा के। काल सरु = मौत का तीर, जनम मरण का तीर। सांधिआ = खींचा हुआ है।1। रहाउ। सापनि = सँपनी। जग = संसार, अपने श्रद्धालुओं को।2। हम देखत = हमारे देखते ही। जिनि = जिस (स्मृति) ने। सभु जगु = सारे संसार को। राम कहि = राम राम कह के, प्रभू का सिमरन करके। छूटिआ = बच गया हूँ।3। अर्थ: हे भाई! ये स्मृतियां, जो वेदों के आधार पर बनीं हैं (ये तो अपने श्रद्धालुओं के वास्ते वर्ण-आश्रम की जैसे) जंजीरें (कर्म-कांड की) रस्सियां ले के आई हुई हैं।1। (इन स्मृतियों ने) अपने सारे श्रद्धालु स्वयं ही जकड़े हुए हैं, (इन को स्वर्ग आदि के) मोह की फांसी में फसा के (इनके सिर पे) मौत (के सहम) का तीर (इसने) खींचा हुआ है।1। रहाउ। (ये स्मृति रूपी फांसी की रस्सी श्रद्धालुओं द्वारा) काटे काटी नहीं जा सकती और ना ही (अपने आप) ये टूटती है। (अब तो) साँपिन बन के जगत को खा रही है (भाव, जैसे सांपिन अपने बच्चों को खा जाती है, वैसे ही स्मृति अपने ही श्रद्धालुओं का नाश कर रही है)।2। हे कबीर! कह– हमारे देखते-देखते जिस (स्मृति) ने सारे संसार को ठॅग लिया है, मैं प्रभू का सिमरन करके उससे बच गया हूँ।3।30। शबद का भाव: स्मृतियों के बनाए हुए वर्ण-आश्रम और कर्म-काण्ड स्मृतियों में श्रद्धा रखने वाले के लिए गले की जंजीरें बन जाती हैं। उन्हें यह ऐसे वहिमों-भरमां में जकड़ देती हैं कि छुटकारा होना मुश्किल हो जाता है। प्रभू का सिमरन ही इनसे बचाने में स्मर्थ है।30। गउड़ी कबीर जी ॥ देइ मुहार लगामु पहिरावउ ॥ सगल त जीनु गगन दउरावउ ॥१॥ अपनै बीचारि असवारी कीजै ॥ सहज कै पावड़ै पगु धरि लीजै ॥१॥ रहाउ ॥ चलु रे बैकुंठ तुझहि ले तारउ ॥ हिचहि त प्रेम कै चाबुक मारउ ॥२॥ कहत कबीर भले असवारा ॥ बेद कतेब ते रहहि निरारा ॥३॥३१॥ {पन्ना 329} पद्अर्थ: देइ = दे के, पा के। मुहार = घोड़े की पूजी जो मुंह से तंग के साथ नीचे से बंधी होती है (भाव, मुंह+हार, मुंह को बंद करना, निंदा उस्तति से बच के रहना)। लगामु = (भाव) प्रेम की लगन। लगाम पहिरावउ = मैं लगाम चढ़ाऊँ, भाव, मन को प्रेम की लगन लगाऊँ। सगलत = सर्व व्यापकता। गगन = आकाश, भाव, दसम द्वार। गगन दउरावउ = दसम द्वार में दौड़ाऊँ, मैं प्रभू के देश की उड़ानें भरूँ, मन को प्रभू की याद में जोड़ूँ।1। अपनै बीचारि = अपने आप की विचार पे, अपने स्वरूप के ज्ञान (रूपी घोड़े) पर। असवारी कीजै = सवार हो जाईए। पावड़ै = सहिज अवस्था की रकाब में। पगु = पैर, बुद्धि रूपी पैर, ता कि गिर ना जाएं (मन विनम्रता भरा, मति ऊँची, मति का रक्षक स्वयं ईश्वर, ‘मन नीवां, मति ऊॅची, मति का राखा वाहिगुरू’, इस अरदास में यही भाव है कि अकल प्रभू के अधीन रहके सहज अवस्था में टिकी रहे और मन पर काबू रखे)। धरि लीजै = रक्षा करें, रख लें।1। रहाउ। चलु रे = हे (मन!) चल। तुझहि = (हे मन!) तुझे। तारउ = ताऊँ, तैराऊं, तैराकी का आनंद दूँ। बैकुंठ तारउ = बैकुंठ की तैराकी का आनंद दूँ। हचहि = अगर तू जिद करेगा।2। भले = अच्छे, सियाने। ते = से। निरारा = निराला, अलग। रहहि = रहते हैं।2। अर्थ: मैं तो (अपने मन रूपी घोड़े को उस्तति-निंदा से रोकने) मुहार दे के (प्रेम की लगन की) लगाम डालता हूँ और प्रभूको हर जगह व्यापक जानना- ये काठी डाल के (मन को) निरंकार के देश की उड़ान लगवाता हूँ। (भाव, मन को प्रभू की याद में जोड़ता हूँ)।1। (आओ भाई!) अपने स्वरूप के ज्ञान-रूप घोड़े पर सवार हो जाएं (भाव,हमारी असलियत क्या है, इस विचार को घोड़ा बना के इस पर सवार होएं), और अकल रूपी पैर को सहज अवस्था की रकाब में रखी रहें।1। रहाउ। चल, हे (मन-रूप घोड़े)! तुझे बैकुंठ की सैर कराऊँ, अगर जिद की तो तुझे मैं प्रेम का चाबुक मारूँगा।2। कबीर कहता है– (ऐसे) सियाने सवार (जो अपने मन पे सवार होते हैं) वेदों और कतेबों (को सच्चे-झूठे कहने के झगड़े) से अलग रहते हैं।3।31। शबद का भाव: और मतों की धर्म-पुस्तकों की निंदा करने की बजाय, धर्म का सही रास्ता ये है कि अपने असल परमात्मा को हमेशा याद रखें, और इस तरह मन को विकारों में ना डोलने दें। जो मनुष्य सर्व-व्यापक प्रभू के चरणों से प्रेम जोड़ता है, वह मानो, बैकुंठ में उड़ानें भरता है।31। गउड़ी कबीर जी ॥ जिह मुखि पांचउ अम्रित खाए ॥ तिह मुख देखत लूकट लाए ॥१॥ इकु दुखु राम राइ काटहु मेरा ॥ अगनि दहै अरु गरभ बसेरा ॥१॥ रहाउ ॥ काइआ बिगूती बहु बिधि भाती ॥ को जारे को गडि ले माटी ॥२॥ कहु कबीर हरि चरण दिखावहु ॥ पाछै ते जमु किउ न पठावहु ॥३॥३२॥ {पन्ना 329} पद्अर्थ: जिह मुखि = जिस मुंह से। पांचउ = पाँचों ही। पांचउ अंम्रित = पाँचों ही अमृत, पाँचों ही उक्तम कहे जाने वाले भोजन: दूध, दहीं, घी, खण्ड, शहिद। खाऐ = खाते हैं। देखत = देखते ही। लूकट = छुपी, लांबू, चिंगारी लगाना।1। राम राइ = हे सुंदर राम! काटहु = दूर करो। अगनि = आग। दहै = जलाती है। बसेरा = वासा।1। रहाउ। बिगूती = खराब होती है। बहु बिधि भाती = बहुत सी बिधि से बहुत भांति से, कई तरह से। को = कोई मनुष्य। जारे = जला देता है।2। हरि = हे हरी! दिखावहु = दर्शन करा दो। पाछै ते = उससे पीछे। किउं न = भले ही। पठावहु = भेज दो।3। अर्थ: जिस मुंह से पाँचों ही उक्तम पदार्थ खाते हैं, (मरने पर) उस मुंह को अपने ही लांबू (जला के) लगा देते हैं।1। हे मेरे सुंदर राम! ये जो तृष्णा की आग जलाती है, और गरभ का बसेरा है (अर्थात, ये जो बार-बार पैदा होना-मरना पड़ता है और तृष्णा की आग में जलते हैं) - मेरा एक ये दुख दूर कर दे।1। रहाउ। (मरने के बाद) ये शरीर कई तरह से खराब हो जाता है। कोई इसे जला देता है, कोई इसे मिट्टी में दबा देता है।2। हे कबीर! (प्रभू के दर पर ऐसे) कह– हे प्रभू! (मुझे) अपने चरणों के दर्शन करा दे, उसके बाद बेशक जम को ही (मेरे प्राण लेने के लिए) भेज देना।3।32। शबद का भाव: निरा इस शरीर को पालने के लगे रहना जीवन-मनोरथ नहीं, क्योंकि मौत आने पर शरीर ने आखिर ख़ाक में मिल जाना है। जीव यहाँ आया है प्रभू का भजन करने।32। गउड़ी कबीर जी ॥ आपे पावकु आपे पवना ॥ जारै खसमु त राखै कवना ॥१॥ राम जपत तनु जरि की न जाइ ॥ राम नाम चितु रहिआ समाइ ॥१॥ रहाउ ॥ का को जरै काहि होइ हानि ॥ नट वट खेलै सारिगपानि ॥२॥ कहु कबीर अखर दुइ भाखि ॥ होइगा खसमु त लेइगा राखि ॥३॥३३॥ {पन्ना 329} पद्अर्थ: आपे = आप ही। पावकु = आग। पवना = हवा। जारै = जलाता है। त = तो। कवना = कौन?।1। राम जपत = प्रभू का सिमरन करते हुए। की न = क्यूँ ना? चाहे, बेशक। जरि की न जाइ = बेशक जल जाए।1। रहाउ। का को = किस का कुछ? काहि = किस का? हानि = हानि, नुकसान। वट = भेस। सारिगपानि = (सारंग = धनुष, पानि = पाणि, हाथ), जिसके हाथ में सारंग धनुष है, जो सब जीवों को मारने वाला भी है, अर्थात परमात्मा।2। भाखि = कह। अखर दुइ = दोनों अक्षर, दो ही बातें, एक छोटी सी बात। होइगा खसमु = अगर मालिक होगा, अगर पति को मंजूर होगा। लेइगा राखि = बचा लेगा।3। अर्थ: पति (प्रभू) खुद ही आग है, और खुद ही हवा है। अगर वह खुद ही (जीव को) जलाने लगे, तो कौन बचा सकता है?।1। (जिस मनुष्य का) मन प्रभू के नाम में जुड़ रहा है, प्रभू का सिमरन करते करते (उसका) शरीर भी चाहे जल जाए (वह रक्ती भर भी परवाह नहीं करता)।1। रहाउ। (क्योंकि, बंदगी करने वाले को ये निश्चय होता है कि) ना किसी का कुछ जलता है ना किसी का कुछ नुकसान होता है, प्रभू खुद ही (सब जगह) नटों के भेस की तरह (बहरूपिया बन के) खेल रहा है, (भाव, कहीं खुद ही नुकसान कर रहा है, और कहीं खुद ही वह नुकसान सह रहा है)।2। (इस वास्ते) हे कबीर! (तू तो) ये छोटी सी बात याद रख कि यदि पति को मंजूर होगा तो (जहां कहीं भी जरूरत होगी, खुद ही) बचा लेगा।3।33। शबद का भाव: सिमरन की बरकति से ये यकीन बन जाता है कि प्रभू स्वयं ही हर जगह रक्षक है, और कोई किसी का कुछ बिगाड़ नहीं सकता; वह खुद ही जगत की हरेक खेल, खेल रहा है।33। गउड़ी कबीर जी दुपदे२ ॥ ना मै जोग धिआन चितु लाइआ ॥ बिनु बैराग न छूटसि माइआ ॥१॥ कैसे जीवनु होइ हमारा ॥ जब न होइ राम नाम अधारा ॥१॥ रहाउ ॥ कहु कबीर खोजउ असमान ॥ राम समान न देखउ आन ॥२॥३४॥ {पन्ना 329-330} नोट: दुपदे–दो पदों वाले शबद (पद–बंद–stanza), दो बंदों वाले शबद। शब्द ‘दोपदे’ के नीचे लिख अंक‘2’ का भाव ये है कि दो पदों वाले ‘दो’ (2) शबद आगे दर्ज हैं नं:34 और 35। पद्अर्थ: चितु लाइआ = मन जोड़ा, ख्याल किया, विचार की। बैराग = संसार के मोह से उपरामता। छूटसि = दूर होगी। न छूटसि = खलासी नही होगी।1। जब = अगर, जब। आधारा = आसरा।1। खोजउ = मैं खोजता हूँ, मैं तलाश चुका हूँ। असमान = आकाश तक। आन = कोई और, प्रभू के बिना कोई दूसरा। न देखउ = मैं नहीं देखता, मुझे कोई नहीं मिला।2। अर्थ: मैंने तो जोग (के बताए हुए) ध्यान (भाव, समाधियों) का विचार नहीं किया (क्योंकि इससे वैराग पैदा नहीं होता, और) वैराग के बिना माया (के मोह) से खलासी (मुक्ति) नहीं हो सकती।1। (माया इतनी प्रबल है कि) अगर हमें प्रभू के नाम का आसरा ना हो तो हम (सही जीवन) जी नही सकते।1। रहाउ। हे कबीर! कह– मैं आकाश तक (भाव, सारी दुनिया) तलाश कर चुका हूँ (पर प्रभू के बिना) मुझे कोई और नहीं मिला (जो माया के मोह से बचा के असल जीवन दे सके)।2।34। शबद का भाव: प्रभू का एक नाम ही ऐसा है जो माया के मोह से बचा के सही जीवन राह सकता है। ना कोई और व्यक्ति और ना ही (जोग आदि) कोई और साधन इस बात के समर्थ हैं।34। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |