श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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गउड़ी ॥ गज नव गज दस गज इकीस पुरीआ एक तनाई ॥ साठ सूत नव खंड बहतरि पाटु लगो अधिकाई ॥१॥ गई बुनावन माहो ॥ घर छोडिऐ जाइ जुलाहो ॥१॥ रहाउ ॥ गजी न मिनीऐ तोलि न तुलीऐ पाचनु सेर अढाई ॥ जौ करि पाचनु बेगि न पावै झगरु करै घरहाई ॥२॥ दिन की बैठ खसम की बरकस इह बेला कत आई ॥ छूटे कूंडे भीगै पुरीआ चलिओ जुलाहो रीसाई ॥३॥ छोछी नली तंतु नही निकसै नतर रही उरझाई ॥ छोडि पसारु ईहा रहु बपुरी कहु कबीर समझाई ॥४॥३॥५४॥ {पन्ना 335}

पद्अर्थ: गज नव = नौ गज, नौ गोलकें। गज दस = दस इंद्रियां। गज इकीस = इक्कीस गज (पाँच सूक्ष्म तत्व, पाँच स्थूल तत्व, दस प्राण और एक मन = 21)। पुरीआ तनाई = पूरी (40 गज की) ताणी, ताना। साठ सूत = साठ नाड़ियां लंबी तरफ का ताना। नवखंड = नौ टुकड़े, नौ जोड़ ताने के (4 जोड़ बाहों के, 4 जोड़ लातों के और एक धड़ = 9)। बहतरि = बहत्तर छोटी नाड़ियां। पाटु = पेटा। लगो अधिकाई = ज्यादा लगा है।1।

बुनावट = (ताना) बुनवाने के लिए। माहो = वासना। घरि छोडिअै = घर छोड़ने के कारण, स्वै स्वरूप छोड़ने के कारण, प्रभू के चरण बिसारने के कारण। जाइ = चल पड़ता है, जनम में आता है। जुलाहो = जीव रूपी जुलाहा।1। रहाउ।

गजी = गज़ों से न मिनीअै = नहीं नापते। तोलि = तोल से। पाचनु = पाण (जो कपड़ा बुनने से पहले ताणी को लगाया जाता है ता कि धागे पक्के रहें और बुनने के समय ना टूटें), खुराक। जौ करि = अगर। बेगि = जल्दी, समय पर। घर हाई = घर में ही। हाई = ही।2।

दिन की बैठ = थोड़े दिनों की बैठक के लिए, कुछ समय के जीने के लिए। बरकसि = बर+अकस, अलट, आकी। खसम की बरकसि = मालिक प्रभू से आकी। इह बेला = (मानस जनम का) ये समय। कत आई = कहां से आ सकता है? दुबारा नहीं मिलता। छूटे = छूट जाते हैं, छिन जाते हैं। कूंडे = (भाव, जगत के पदार्थ) मिट्टी के बर्तन, जिनमें पानी डाल के सूत्र की नलियां कपड़ा उनने के समय भिगो के रखी जाती हैं। पुरीआ = नलियां, वासना। रीसाई = रिस के, खिझ के।3।

छोछी = खाली। नली = नलकी। तंतु = तंद (भाव, श्वास)। छोछी नली = नली खाली हो जाती है (भाव, जीवात्मा शरीर को छोड़ जाती है)। तर = तुर, जिस पे उना हुआ कपड़ा लपेटा जाता है। उरझाई = उलझी हुई। न तर रही उरझाई = नाभि भी उलझी नहीं रहती, नाभि का जो श्वासों से संबंध था वह भी नहीं रहता। पसारु = पसारा, खिलारा। ईहा = यहीं। बपुरी = हे बुरी (वासना)! ईहा रहु = यहीं टिकी रह, जीव का साथ छोड़ दे, खलासी कर।4।

अर्थ: जब जीव-जुलाहा प्रभू के चरण बिसारता है, तो वासना (इस शरीर की ताणी) बुनवाने चल पड़ती है (भाव, प्रभू को बिसारने के कारण जीव वासना में बंध जाता है और ये वासना इसे शरीर में लाने का कारण बनती है)।1। रहाउ।

(जब जीव जनम लेता है तो, मानो) पूरी एक ताणी (40 गजों की तैयार हो जाती है) जिसमें नौ गोलकें, दस इंद्रे ओर इक्कीस गज और होते हैं (भाव, पाँच सूक्षम तत्व, पाँच स्थूल तत्व, दस प्राण और एक मन- ये 21 गज ताणी के और हैं)। साठ नाड़ियां (ये उस ताणी की लम्बी तरफ का) सूत्र होता है, (शरीर के नौ जोड़ उस ताणी के) नौ टोटे हैं और बहत्तर छोटी नाड़ियां (ये उस ताणी को) ज्यादा पेटा लगा हुआ समझो।1।

(शरीर रूपी ये ताणी) गजों से नहीं नापी जाती, और बाँट से तोली भी नहीं जाती (वैसे इस ताणी को भी हर रोज) ढाई सेर (खुराक रूपी) पाण चाहिए। अगर इसको ये पाण समय सिर ना मिले तो घर में ही शोर डाल देती है (भाव, अगर खुराक ना मिले तो शरीर में छटपछाहट मच जाती है)।2।

(वासना-बंधा जीव) थोड़े दिनों के जीने की खातिर पति-प्रभू से आकी हो जाता है (प्रभू की याद का समय गवा लेता है और फिर) ये समय हाथ नहीं आता। (आख़िर) ये पदार्थ छिन जाते हैं, मन की वासनाएं इन पदार्थों में फंसी ही रह जाती हैं, (इस विछोड़े के कारण) जीव-जुलाहा खिझ के यहाँ से चल पड़ता है।3।

(आख़िर) नली खाली हो जाती है, तंद नहीं निकलती, तुर उलझी नहीं रहती (भाव, जीवात्मा शरीर को छोड़ देती है, श्वास चलने बंद हो जाते हैं, श्वासों का नाभि से संबंध टूट जाता है)। हे कबीर! अब तो इस वासना को समझा के कह– हे चंदरी वासना! ये जंजाल छोड़ दे, और अब तो इस जीव की खलासी कर।4।3।54।

शबद का भाव: जब जीव प्रभू की याद बिसार देता है तो वासना में बंध जाता है। वासना का बंधा हुआ जीव जगत में आता है। यहां चाहे थोड़े ही दिनों के लिए रहना होता है, पर दुनिया के पदार्थों में फंस जाता है, और प्रभू से आक़ी ही रहता है। आखिर मौत आ जाती है, पर फिर भी वासना इसकी खलासी नहीं करती।54।

गउड़ी ॥ एक जोति एका मिली कि्मबा होइ महोइ ॥ जितु घटि नामु न ऊपजै फूटि मरै जनु सोइ ॥१॥ सावल सुंदर रामईआ ॥ मेरा मनु लागा तोहि ॥१॥ रहाउ ॥ साधु मिलै सिधि पाईऐ कि एहु जोगु कि भोगु ॥ दुहु मिलि कारजु ऊपजै राम नाम संजोगु ॥२॥ लोगु जानै इहु गीतु है इहु तउ ब्रहम बीचार ॥ जिउ कासी उपदेसु होइ मानस मरती बार ॥३॥ कोई गावै को सुणै हरि नामा चितु लाइ ॥ कहु कबीर संसा नही अंति परम गति पाइ ॥४॥१॥४॥५५॥ {पन्ना 335}

पद्अर्थ: किंबा होइ = क्या दुबारा वह (अलग हस्ती वाली) होती है? क्या फिर भी उसका अलग अस्तित्व रहता है? क्या उसमें स्वैभाव टिका रहता है? महोइ = नहीं होता, नहीं रहता। जितु घटि = जिस शरीर में। फूटि मरै = फूट मरता है, अहंकार के कारण दुखी होता है। जनु सोइ = वही मनुष्य।1।

रामईआ = हे सुंदर राम! तोहि = तेरे में, तेरे चरणों में।1। रहाउ।

साधु = गुरू। सिधि = सफलता, सिद्धि। कि = क्या है? (भाव, तुच्छ है)। भोगु = (दुनिया के पदार्थों को) भोगना। दुहु मिलि = सतिगुरू का शबद और सिख की सुरति- इन दोनों के मिलने से। कारजु ऊपजै = काम सफल होता है। संजोग = मिलाप।2।

इहु = ये गुरू शबद, सतिगुरू की बाणी। तउ = तो, बार-बारी, वक्त।3।

चितु लाइ = मन लगा के, प्रेम से। संसा = शक। अंति = आखिर को, नतीजा ये निकलता है कि। परम = ऊँची से ऊँची। गति = आत्मिक अवस्था।4।

अर्थ: (सतिगुरू के शबद की बरकति से जिस मनुष्य की सुरति परमात्मा की) जोति से मिल के एक-रूप हो जाती है, उसके अंदर अहंकार बिल्कुल नहीं रहता। केवल वही मनुष्य अहंकार से दुखी होता है, जिसके अंदर परमात्मा का नाम पैदा नहीं होता।1।

हे मेरे साँवले सुंदर राम! (गुरू की कृपा से) मेरा मन तो तेरे चरणों में जुड़ा हुआ है (मुझे अहंकार क्यूँ दुखी करे?)।1। रहाउ।

(अहंकार के अभाव और अंदरूनी शांति-ठंड की) ये सिद्धि, सतिगुरू को मिलने से ही मिलती है। जब सतिगुरू का शबद और सिख की सुरति मिलते हैं, तो परमात्मा के नाम का मिलाप-रूपी नतीजा निकलता है। (फिर इस सिद्धी के सामने जोगियों का) जोग तुच्छ है, (दुनिया के पदार्थों का) भोगना भी कोई चीज नहीं है।2।

जगत समझता है कि सतिगुरू का शबद (कोई साधारण सा) गीत ही है, पर ये तो परमात्मा के गुणों की विचार है (जो अहंकार से जीते-जी मुक्ति दिलाता है), जैसे काशी में मनुष्य को मरने के समय (शिव जी का मुक्तिदाता) उपदेश मिलता ख्याल किया जाता है (भाव, काशी वाला उपदेश तो मरने केबाद काम करता होगा, पर सतिगुरू का शबद तो यहीं पर जीवन-मुक्त कर देता है)।3।

जो भी मनुष्य प्रेम से प्रभू का नाम गाता है अथवा सुनता है, हे कबीर! कह– इसमें कोई शक नहीं कि वह जरूर सबसे उच्च आत्मिक अवस्था हासिल कर लेता है।4।1।4।55।

शबद का भाव: जो मनुष्य सतिगुरू के शबद में मन जोड़ के प्रभू का नाम सिमरता है, उसके अंदर अहंकार का रोग काटा जाता है, वह जीते-जी ही मुक्त है। ये पक्की बात है कि उसकी आत्मिक अवस्था बहुत ही ऊँची हो जाती है।55।

गउड़ी ॥ जेते जतन करत ते डूबे भव सागरु नही तारिओ रे ॥ करम धरम करते बहु संजम अह्मबुधि मनु जारिओ रे ॥१॥ सास ग्रास को दातो ठाकुरु सो किउ मनहु बिसारिओ रे ॥ हीरा लालु अमोलु जनमु है कउडी बदलै हारिओ रे ॥१॥ रहाउ ॥ त्रिसना त्रिखा भूख भ्रमि लागी हिरदै नाहि बीचारिओ रे ॥ उनमत मान हिरिओ मन माही गुर का सबदु न धारिओ रे ॥२॥ सुआद लुभत इंद्री रस प्रेरिओ मद रस लैत बिकारिओ रे ॥ करम भाग संतन संगाने कासट लोह उधारिओ रे ॥३॥ धावत जोनि जनम भ्रमि थाके अब दुख करि हम हारिओ रे ॥ कहि कबीर गुर मिलत महा रसु प्रेम भगति निसतारिओ रे ॥४॥१॥५॥५६॥ {पन्ना 335}

पद्अर्थ: जेते = जितने भी लोग। ते = वह सारे। भव सागरु = संसार समुंद्र। रे = हे भाई! करम = धार्मिक रसमें। धरम = वर्ण आश्रम की अपनी अपनी रस्में करने फर्ज। संजम = धार्मिक प्रण। अहंबुधि = (अहं = मैं। बुधि = अक्ल) ‘मैं मैं’ करने वाली अक्ल, अहंकार। जारिओ = जला लिया।1।

सास = श्वास, जिंद। ग्रास = ग्रास, रोजी। कउडी बदले = कौड़ियों की खातिर। हारिओ = गवा दिया।1। रहाउ।

त्रिसना = तृष्णा, प्यास, लालसा। भ्रमि = भरम में, भटकना के कारण। उनमत = मस्ताया हुआ। हिरिओ = ठॅगा हुआ। मान हिरिओ = अहंकार का ठगा हुआ।2।

लुभत = लोभी। रस = चस्के। मद = नशा। करम = अच्छे कर्म। करम भाग = जिनके भाग्यों में पिछले किए कर्म हैं। कासट = लकड़ी।3।

धावत = दौड़ते दौड़ते। भ्रमि = भटकना में। दुख करि = दुख पा पा के। हारिओ = हार गया हूँ, थक गया हूँ। कहि = कहे, कहता है। गुर मिलत = गुरू को मिलते ही।4।

अर्थ: हे भाई! धार्मिक रस्में, वर्ण आश्रम की अपनी-अपनी रस्म करने के फर्ज और अन्य कई किस्म के धार्मिक प्रण करने से अहंकार (मनुष्य के) मन को जला देता है। जो जो भी मनुष्य ऐसे यतन करते हैं, वह सारे (संसार समुंद्र में) डूब जाते हैं। ये रस्में संसार समुंद्र से पार नहीं लंघातीं (संसार के विकारों से बचा नहीं सकतीं)।1।

हे भाई! जिंद और रोजी देने वाला एक परमात्मा ही है। तूने उसको अपने मन से क्यूँ भुला दिया? ये (मानस) जनम (मानो) हीरा है, अमोलक लाल है, पर तूने इस कौड़ियों की खातिर गवा दिया है।1। रहाउ।

हे भाई! तूने कभी अपने दिल में विचार नहीं की कि भटकन के कारण तुझे तो माया की भूख-प्यास लगी हुई है। (कर्मों धर्मों में ही) तू मस्ता और अहंकारा रहता है। गुरू का शबद तूने कभी अपने मन में नहीं बसाया।2।

(प्रभू को बिसारने के कारण) तू (दुनियां के) स्वादों का लोभी बन रहा है। इन्द्रियों के चस्कों से प्रेरित हुआ तू विकारों के नशे के स्वाद लेता रहता है। जिनके माथे पर अच्छे भाग्य जागते हैं, उन्हें साध-संगति में (ला के प्रभू विकारों से ऐसे) बचाता है जैसे लकड़ी लोहे को (समंद्र से) पार लंघाती है।3।

कबीर कहता है– जूनियों में, जन्मों में दौड़-दौड़ के, भटक-भटक मैं थक गया हूँ। दुख सह-सह के और आसरे छोड़ बैठा हूँ (और गुरू की शरण ली है) सतिगुरू को मिलते ही (प्रभू का नाम रूप) सबसे श्रेष्ठ रस पैदा होता है, और प्यार से की हुई प्रभू की भगती (संसार-समुंद्र के विकारों की लहरों से) बचा लेती है।4।1।5।56।

शबद का भाव: निरी धार्मिक रस्में और वर्ण आश्रम की रस्में तो बल्किअहंकार पैदा करती हैं, माया में ही फंसाती हैं। प्रभू की मेहर से जो मनुष्य सत्संग में आ के नाम सिमरता है, वही विकारों से बचता है।56।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh