श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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गउड़ी ॥ कालबूत की हसतनी मन बउरा रे चलतु रचिओ जगदीस ॥ काम सुआइ गज बसि परे मन बउरा रे अंकसु सहिओ सीस ॥१॥ बिखै बाचु हरि राचु समझु मन बउरा रे ॥ निरभै होइ न हरि भजे मन बउरा रे गहिओ न राम जहाजु ॥१॥ रहाउ ॥ मरकट मुसटी अनाज की मन बउरा रे लीनी हाथु पसारि ॥ छूटन को सहसा परिआ मन बउरा रे नाचिओ घर घर बारि ॥२॥ जिउ नलनी सूअटा गहिओ मन बउरा रे माया इहु बिउहारु ॥ जैसा रंगु कसु्मभ का मन बउरा रे तिउ पसरिओ पासारु ॥३॥ नावन कउ तीरथ घने मन बउरा रे पूजन कउ बहु देव ॥ कहु कबीर छूटनु नही मन बउरा रे छूटनु हरि की सेव ॥४॥१॥६॥५७॥ {पन्ना 336}

पद्अर्थ: कालबूत = ढांचा, बुत। हसतनी = हथिनी (हाथी जंगल में से पकड़ने के लिए लोग लकड़ी का हथिनी का ढांचा बना के उस पर कागज लगा के हथिनी सी बना के कहीं गढे पर खड़ी कर देते हैं। काम में मस्ताया हुआ हाथी आ के उस बुत को हथिनी समझ के उसकी ओर बढ़ता है, पर गढे में गिर जाता है और पकड़ा जाता है)। बउरा = कमला। चलतु = खेल तमाशा। जगदीस = जगत का मालिक प्रभू। सुआइ = स्वाद के कारण, चस्के में, वासना के कारण। बसि परे = काबू आ जाता है। अंकसु = लोहे की सीख़ जो हाथी को चलाने के लिए महावत उसकी गर्दन पर मारता है। सीसि = सिर पर।1।

बिखै = विष, विकार। बाचु = बच के रह। राचु = लीन हो। निरभै = निडर (आम तौर पर मनुष्य को रोजी का सहम लगा रहता है, लालच में फंसता है; जो रोजी पहले निरवाह के लिए कमाता है उसी को सहजे-सहजे जिंदगी का आसरा समझ बैठता है और इस तरह ये सहम बन जाता है कि कहीं ये धन-दौलत खो ना जाए, नुकसान ना हो जाय। बस! सारी उम्र इस सहम में ही गुजरती है)। गहिओ न = पकड़ा नहीं, आसरा नहीं लिया।1। रहाउ।

मरकट = बंदर। मुसटी = मुट्ठी। पसारि = खिलार के। सहसा = सहम। घर घर बारि = हरेक घर के दरवाजे पर। बारि = दरवाजे पर ।2।

(नोट: लोग बंदरों को पकड़ने के लिए संकरे मुंह वाला बरतन ले के जमीन में दबा देते हैं, उसमें भुने हुए चने डाल के मुंह नंगा रखते हैं। बंदर अपना हाथ बरतन में डाल कर दानों की मुट्ठी भर लेता है। पर, भरी हुई मुट्ठी सँकरे मुंह मेंसे निकल नहीं सकती, और लोभ में फंसा हुआ बंदर दाने भी नहीं छोड़ता। इस तरह वहीं पकड़ा जाता है। ठीक यही हाल मनुष्य का होता है, सहजे–सहजे माया में मन फंसा के आखिर और–और माया की खतिर हरेक की खुशामद करता है)।

नलनी– तोतों को पकड़ने वाले लोग लकड़ी का एक छोटा सा ढोल बना के दोनों तरफ से डण्डों के आसरे खड़ा कर देते हैं। बीच में तोते के लिए चोगा डाल देते हैं, और इस ढोल जैसे के नीचे पानी का भरा हुआ बरतन रखते हैं। तोता चोगे की खातिर उस चक्कर पर आ बैठता है। पर तोते के भार से चक्कर उलट जाता है, तोता नीचे की तरफ लटक पड़ता है। नीचे पानी देख के तोता सहम जाता है कि कहीं पानी में गिर के डूब ना जाऊँ। इस डर के कारण लकड़ी के यंत्र को कस के पकड़े रखता है और फस जाता है। यही हाल मनुष्य का है। पहले ये रोजी सिर्फ निर्वाह की खातिर कमाता है। सहजे–सहजे ये सहम बनता है कि अगर ये कमाई बह गयी तो क्या होगा, वृद्धावस्था के लिए अगर बचा के ना रखा तो कैसे गुजारा होगा। इस सहम में पड़ के मनुष्य माया के मोह के पिंजरे में फंस जाता है।

सूअटा = अंजान तोता (संस्कृत: शूक = तोता। शूकटा = छोटा सा तोता, अंजान तोता। संस्कृत के ‘शूकट’ से ‘सूअटा’ प्राकृत रूप है)। गहिओ = पकड़ा जाता है। बिउहारु = सलूक, वरतारा। कुसंभ = एक किस्म का फूल है, इससे लोग कपड़े रंगा करते थे, रंग खासा भड़कीला होता है, पर एक दो दिनों में ही फीका पड़ जाता है।3।

नावन कउ = स्नान करने के लिए। घने = बहुत सारे। पूजन कउ = पूजा करने के लिए। छूटनु = खलासी, माया के मोह और सहम से निजात। सेव = सेवा, बंदगी।4।

अर्थ: हे पागल मन! (ये जगत) परमात्मा ने (जीवों को व्यस्त रखने के लिए) एक खेल बनाई है जैसे (लोग हाथी को पकड़ने के लिए) कलबूत (बुत) की हथनी (बनाते हैं); (उस हथनी को देख के) काम वासना के कारण हाथी पकड़ा जाता है और अपने सिर पर (सदा महावत का) अंकुश बर्दाश्त करता है, (वैसे ही) हे पागल मन! (तू भी मन-मोहनी माया में फंस के दुख सहता है)।1।

हे मूर्ख मन! समझदार बन, विषियों से बचा रह और प्रभू में जुड़ा कर। तू सहम छोड़ के क्यूँ परमात्मा को नहीं सिमरता और क्यूँ प्रभू का आसरा नहीं लेता?।1। रहाउ।

हे कमले मन! बंदर ने हाथ पसार के दानों की मुट्ठी भर ली और उसे डर पड़ गया कि कैद में से कैसे निकले। (उस लालच के कारण अब) हरेक घर के दरवाजे पर नाचता फिरता है।2।

हे झल्ले मना! जगत की माया का ऐसा ही वरतारा है (भाव, माया जीव को ऐसे ही मोह में फंसाती है) जैसे तोता नलिनी (पर बैठ के) फस जाता है। हे कमले मन! जैसे कुसंभ कारंग (थोड़े ही दिन रहता) है, इसी तरह जगत का पसारा (चार दिन के लिए ही) खिलरा हुआ है।3।

हे कबीर! कह– हे झल्ले मन! (हलांकि) स्नान करने के लिए बहुत सारे तीर्थ हैं, और पूजने के लिए बहुत सारे देवते हैं (भाव, चाहे लोग कई तीर्थों पर जा के स्नान करते हैं और कई देवतों की पूजा करते हैं) पर (पर इस सहम से और माया के मोह से) खलासी नहीं हो सकती। निजात सिर्फ प्रभू का सिमरन करने से ही मिलनी है।4।1।6।57।

शबद का भाव:जीव माया के मोह में फंस के अकाल-पुरख को विसार देता है, और कई किस्म के दुख सहता है। फिर इन दुखों से बचने के लिए कहीं तीर्थों के स्नान करता फिरता है, कहीं देवी-देवताओं की पूजा करता है, पर दुखों से बचाव नहीं होता। इनका इलाज एक प्रभू की याद ही है क्योंकि ये सहम होते ही तब हैं जब जीव प्रभू को भुला देता है।57।

गउड़ी ॥ अगनि न दहै पवनु नही मगनै तसकरु नेरि न आवै ॥ राम नाम धनु करि संचउनी सो धनु कत ही न जावै ॥१॥ हमरा धनु माधउ गोबिंदु धरणीधरु इहै सार धनु कहीऐ ॥ जो सुखु प्रभ गोबिंद की सेवा सो सुखु राजि न लहीऐ ॥१॥ रहाउ ॥ इसु धन कारणि सिव सनकादिक खोजत भए उदासी ॥ मनि मुकंदु जिहबा नाराइनु परै न जम की फासी ॥२॥ निज धनु गिआनु भगति गुरि दीनी तासु सुमति मनु लागा ॥ जलत अ्मभ थ्मभि मनु धावत भरम बंधन भउ भागा ॥३॥ कहै कबीरु मदन के माते हिरदै देखु बीचारी ॥ तुम घरि लाख कोटि अस्व हसती हम घरि एकु मुरारी ॥४॥१॥७॥५८॥ {पन्ना 336}

पद्अर्थ: दहै = जलाती है। मगनै = गुंम करती, लोप करती, उड़ा ले जाती। तसकरु = चोर। नेरि = नजदीक। संचउनी करि = इकट्ठा कर, जोड़। कतही = कहीं भी।1।

धरणी धरु = धरती का आसरा। सार = श्रेष्ठ, सबसे बढ़िया। राजि = राज में।1। रहाउ।

स्नकादिक = सनक आदि ब्रहमा के चारों पुत्र। उदासी = विरक्त। मनि = (जिस मनुष्य के) मन में। मुकंद = मुक्ति देने वाला प्रभू। फासी = फांसी।2।

निज धनु = निरोल अपना धन। गुरि = गुरू ने। तासु = उस (भगती) में। सुमति मनु = श्रेष्ठ मति वाले मानस का मन। जलत = जलते को। अंभ = पानी। थंभि = थंमी।3।

मदन = काम वासना। माते = मस्ते हुए। बीचारी = विचार के, सोच के। तुम घरि = तुम्हारे घर में। कोटि = करोड़ों। अस्व = अश्व, घोड़े। हसती = हाथी। मुरारी = (मुर+अरि; मुर दैत्य का वैरी) परमात्मा।4।

अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा का नाम रूपी धन एकत्र कर, यह कहीं नाश नहीं होता। इस धन को ना आग जला सकती है, ना हवा उड़ा के ले जा सकती है, और ना ही कोई चोर इसके नजदीक फटक सकता है।1।

हमारा धन तो माधव गोबिंद ही है जो सारी धरती का आसरा है। (हमारे मत में तो) इसी धन को सब धनों से श्रेष्ठ, अच्छा और बढ़िया कहा जाता है। जो सुख परमात्मा गोबिंद के भजन में मिलता है, वह सुख राज में (भी) नहीं मिलता।1। रहाउ।

इस (नाम) धन की खातिर शिव और सनक आदि (ब्रहमा के चारों पुत्र) तलाश करते-करते जगत से विरक्त हुए। जिस मनुष्य के मन में मुक्तिदाता प्रभू बसता है, जिसकी जीभ पे अकाल-पुरख टिका है, उसे जम की (मोह रूपी) फांसी पड़ नहीं सकती।2।

प्रभू की भक्ति, प्रभू का ज्ञान ही, (जीव का) निरोल अपना धन (हो सकता) है। जिस सुचॅजी मति वाले को गुरू ने (ये दात) दी है, उसका मन उस प्रभू में टिकता है। (माया की तृष्णा की आग में) जलते हुए के लिए (ये नाम-धन) पानी है, और भटकते मन के लिए स्तम्भ (थंमी, सहारा) है, (नाम की बरकति से) भरमों के बंधनों का डर दूर हो जाता है।3।

कबीर कहता है– हे काम वासना में मस्ताए हुए (राजन!) मन में सोच के देख, अगर तेरे घर में लाखों करोड़ों घोड़े और हाथी हैं तो हमारे (हृदय) घर में (ये सारे पदार्थ देने वाला) एक परमात्मा (बसता) है।4।1।7।58।

शबद का भाव: परमात्मा का नाम ही असल धन है जो सदा साथ निभाता है, और जो सुख नाम धन में है, वह सुख राज-भाग की मौज में भी नहीं है।58।

गउड़ी ॥ जिउ कपि के कर मुसटि चनन की लुबधि न तिआगु दइओ ॥ जो जो करम कीए लालच सिउ ते फिरि गरहि परिओ ॥१॥ भगति बिनु बिरथे जनमु गइओ ॥ साधसंगति भगवान भजन बिनु कही न सचु रहिओ ॥१॥ रहाउ ॥ जिउ उदिआन कुसम परफुलित किनहि न घ्राउ लइओ ॥ तैसे भ्रमत अनेक जोनि महि फिरि फिरि काल हइओ ॥२॥ इआ धन जोबन अरु सुत दारा पेखन कउ जु दइओ ॥ तिन ही माहि अटकि जो उरझे इंद्री प्रेरि लइओ ॥३॥ अउध अनल तनु तिन को मंदरु चहु दिस ठाटु ठइओ ॥ कहि कबीर भै सागर तरन कउ मै सतिगुर ओट लइओ ॥४॥१॥८॥५९॥ {पन्ना 336}

पद्अर्थ: कपि = बंदर (इस तुक में दिए ख्याल को समझने के लिए पढो शबद नं:57)। कर = हाथ। मुसटि = मुट्ठी। चनन = चने की। लुबधि = लोभी ने। गरहि = गले में।1।

कही = कहीं भी, किसी और जगह। सचु = सदा स्थिर रहने वाला परमात्मा। बिरथे = खाली, व्यर्थ, सूना।1। रहाउ।

उदिआन = जंगल। कुसम = फूल। परफुलित = खिले हुए। किनहि = (किसी बंदे) ने ही। घ्राउ = सुगंधि। भ्रमत = भटकते हुए। हइओ = हनियो, नाश करता है।2।

इआ = ये सारे। जोबन = जवानी। अरु = और (शब्द ‘अरु’ और ‘अरि’ में मेल और अर्थ में फर्क याद रखने योग्य है; अरि = वैरी)। सुत = पुत्र। दारा = स्त्री, पत्नी। पेखन कउ = देखने के लिए ।

(नोट: कोई खेल तमाशा देखने जाएं, उसमें चाहे कितने ही मन भरमाने वाले या दर्द भरी घटनाएं आएं, हम सिर्फ तमाशबीन ही रहते हैं। ना तो तमाशे के दुख भरे दृश्य से कोई गहरी चोट हमें बजती है, जिस तरह किसी अपने निजी दुख की बज सकती है और ना ही कोई मन को भरमाने वाली चीज हमें ठॅग सकती है। हम जानते हैं कि ये असल नहीं है, किसी हो चुके असल की नकल है। सो, उस तमाशों के दुखों–सुखों के दृश्यों में हम निर्लिप से रहते हैं। यह धन, जवानी, परिवार भी एक खेल प्रभू ने बनाया है, इन में रह के भी इन्हें देखना ही है, भाव, इन्हें तमाशे ही समझना है, इनमें निर्लिप ही रहना है)।

अटकि = उलझ गए, जकड़े गए। प्रेरि लइओ = अपनी ओर खींच लिया।3।

अउध = उम्र, जिंदगी के समय का बीतते जाना। अनल = आग। तनु = शरीर। तिन को मंदरु = तृण का मंदिर, तीलों का घर। चहु दिस = चारों दिशाओं में, हर तरफ। ठाटु = बनतर। ठइओ = बनी हुई है। कहि = कहता है। भै सागर = डरावना संसार समंद्र। तरन कउ = तैरने के लिए, पार लांघने के लिए। ओट = आसरा।4

अर्थ: जैसे (किसी) बंदर के हाथ (भुने हुए) चनों की मुट्ठी आ गई, पर लोभी बंदर ने (कुज्जे में हाथ फसा हुआ पा के भी चनों की मुट्ठी) नहीं छोड़ी (और काबू आ गया, इसी तरह) लोभ वश हो के जो जो काम जीव करता है, वह सारे दुबारा (मोह के बंधन रूप जंजीर बन के इस के) गले में पड़ते हैं।1।

परमात्मा की भक्ति के बिना मानस जनम व्यर्थ ही जाता है (क्योंकि हृदय में प्रभू आ के नहीं बसता)। और, साध-संगति में (आ के) भगवान का सिमरन करे बिना वह सदा स्थिर रहने वाला प्रभू किसी के दिल में टिक नहीं सकता।1। रहाउ।

जैसे जंगल में खिले हुए फूलों की सुगंधि कोई भी नहीं ले सकता (वह फूल उजाड़ में किसी प्राणी को सुगंधि ना देने के कारण अपना खिलना व्यर्थ में ही खेल जाते हैं), वैसे ही, (प्रभू की बंदगी के बगैर) जीव अनेकों जूनियों में भटकते रहते हैं, और बार-बार काल-वश पड़ते रहते हैं।2।

धन-जवानी-पुत्र और स्त्री यह सारे प्रभू ने (जीव को किसी तमाशे में निर्लिप सा रहने की तरह) देखने के लिए दिए हैं (कि इस जगत तमाशे में ये निर्लिप ही रहे), पर जीव इनमें ही रुक के फस जाते हैं; इंद्रियां जीव को खींच लेती है।3।

कबीर कहता है– यह शरीर (मानों) तीलों का बना हुआ कोठा है, उम्र (के दिन बीतते जाने हैं इस कोठे को) आग लगी हुई है, हर तरफ यही बनतर बनी हुई है, (पर कोई भी इस तरफ ध्यान नहीं देता; क्या आश्चर्यजनक भयानक दृश्य है!)। इस भयानक संसार-समुंद्र से पार लांघने के लिए मैंने तो सतिगुरू का आसरा लिया है।4।1।59।

शबद का भाव: बंदगी के बिना जीवन व्यर्थ है। नाम की सुगंधि के बिना जगत फूलवाड़ी का जीव-फूल किस अर्थ का? दुनियां के रसों में फंस के ख्वार होता है।59।

गउड़ी८ ॥ पानी मैला माटी गोरी ॥ इस माटी की पुतरी जोरी ॥१॥ मै नाही कछु आहि न मोरा ॥ तनु धनु सभु रसु गोबिंद तोरा ॥१॥ रहाउ ॥ इस माटी महि पवनु समाइआ ॥ झूठा परपंचु जोरि चलाइआ ॥२॥ किनहू लाख पांच की जोरी ॥ अंत की बार गगरीआ फोरी ॥३॥ कहि कबीर इक नीव उसारी ॥ खिन महि बिनसि जाइ अहंकारी ॥४॥१॥९॥६०॥ {पन्ना 336-337}

पद्अर्थ: पानी = पिता का वीर्य। मैला = गंदा। माटी गोरी = लाल मिट्टी, मां की रक्त रूप धरती जिस में पिता की बूँद रूप बीज उगता है। पुतरी = पुतली। जोरी = जोड़ दी, बना दी।1।

पवनु = प्राण। परपंचु = पसारा। जोरि = जोड़ के।2।

किनहू = कई जीवों ने, जिन जीवों ने। जोरी = इकट्ठी कर ली। फोरी = टूट गई।3।

कहि = कहता है, कहे। नीव = नींव। उसारी = खड़ी की है। अहंकारी = हे अहंकारी!।4।

अर्थ: (हे अहंकारी जीव! तू किस बात का गुमान करता है?) पिता की गंदी बूँद और माँ के रक्त- (इन दोनों से तो परमात्मा ने) जीव का यह मिट्टी का बुत बनाया है।1।

हे मेरे गोबिंद! (तुझसे अलग) मेरी कोई हस्ती नहीं है और कोई मेरी मल्कियत नहीं है। ये शरीर, धन और ये जिंद सब तेरे ही दिए हुए हैं।1। रहाउ।

इस मिट्टी (के पुतले) में (इसे खड़ा करने के लिए) प्राण टिके हुए हैं, (पर इस कमजोर से थंमी के सहारे को ना समझते हुए) जीव झूठा खिलारा खिलार बैठता है।2।

जिन जीवों ने पाँच-पाँच लाख की जयदाद जोड़ ली है, मौत आने पर उनकी भी शरीर रूपी बरतन टूट जाता है।3।

कबीर कहता है– हे अहंकारी जीव! तेरी तो जो नींव ही खड़ी की गई है वह एक पलक में नाश हो जाने वाली है।4।1।9।60।

शबद का भाव: मनुष्य अपनी औकात को ना समझ के धन-पदार्थ का अहंकार करता है। पर लाखों जोड़े हुए रुपए भी यहीं रह जाते हैं, और इस शरीर के नाश होने में एक पल भी नहीं लगता।60।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh