श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

Page 341

झझा उरझि सुरझि नही जाना ॥ रहिओ झझकि नाही परवाना ॥ कत झखि झखि अउरन समझावा ॥ झगरु कीए झगरउ ही पावा ॥१५॥ {पन्ना 341}

पद्अर्थ: जाना = जाना, समझा, सीखा। उरझि जाना = उलझना ही जाना, (जिसने) फंसना ही सीखा। सुरझि नहीं जाना = सुलझना नहीं सीखा, जाल में से निकलना नहीं सीखा। रहिओ झझकि = (वह) झिझकता ही रहा, संसा में ही पड़ा रहा, अनिर्णायक अवस्था में ही फसा रहा। परवाना = कबूल। कत = कहाँ? किस अर्थ? झखि झखि = झाख झाख के, भटक भटक के, खप खप के। समझावा = समझाता रहा। झगरु = बहस ही मिली, बहस करने की आदत ही बनी रही, चर्चा करने का स्वभाव बन गया।

अर्थ: जिस मनुष्य ने (चर्चा आदि में पड़ कर निकम्मी) उलझनों में ही फंसना सीखा, उलझनों में से निकलने की जाच नहीं सीखी, वह (सारी उम्र) शंकाओं में ही पड़ा रहा, (उसका जीवन) कबूल ना हो सका। बहस कर करके औरों को समझाने का क्या लाभ? चर्चा करते-करते खुद को तो निरी चर्चा करने का ही स्वभाव पड़ गया।15।

ञंञा निकटि जु घट रहिओ दूरि कहा तजि जाइ ॥ जा कारणि जगु ढूढिअउ नेरउ पाइअउ ताहि ॥१६॥ {पन्ना 341}

पद्अर्थ: निकटि = नजदीक। जु = जो (प्रभू)। घट = हृदय। रहिओ = रहता है। तजि = छोड़ के। कहा जाइ = कहाँ जाता है? जा कारणि = जिस (को मिलने) की खातिर। नेरउ = नजदीक ही। पाइअउ = ढूँढ लिया है।16।

अर्थ: (हे भाई!) जो प्रभू नजदीक बस रहा है, जो हृदय में बस रहा है, उसको छोड़ के दूर कहाँ जाता है? (जिस प्रभू को) मिलने की खातिर (हमने सारा) जगत तलाशा था, उसे नजदीक ही (अपने अंदर ही) पा लिया है।16।

टटा बिकट घाट घट माही ॥ खोलि कपाट महलि कि न जाही ॥ देखि अटल टलि कतहि न जावा ॥ रहै लपटि घट परचउ पावा ॥१७॥ {पन्ना 341}

पद्अर्थ: टटा = ‘ट’ अक्षर। बिकट = (संस्कृत: विकट) बिखड़ा, मुश्किल। घाट = पत्तन। घट माही = हृदय में ही। कपाट = किवाड़, माया के मोह के पर्दे। खोलि = खोल के। महलि = महल में, प्रभू की हजूरी में। कि न = क्यूँ नही।? देखि = देख के। टलि = टल के, डोल के, भटकना में पड़ के। कतहि = किस और जगह? लपटि रहै = लिपटे रहते हैं, चिपके रहते हैं, जुड़े रहते हैं। परचउ = (संस्कृत:परिचय) सांझ, प्यार।17।

अर्थ: (प्रभू के महल में पहुँचाने वाला) मुश्किल घाट है (पर वह घाट) हृदय में ही है। (हे भाई! माया के मोह वाले) किवाड़ खोल के तू प्रभू की हजूरी में क्यूं नहीं पहुँचता? (जिस मनुष्य ने हृदय में ही) सदा स्थिर रहने वाले प्रभू का दीदार कर लिया है, वह डोल के किसी और तरफ नहीं जाता, वह (प्रभू चरणों से) सांझ पा लेता है।17।

ठठा इहै दूरि ठग नीरा ॥ नीठि नीठि मनु कीआ धीरा ॥ जिनि ठगि ठगिआ सगल जगु खावा ॥ सो ठगु ठगिआ ठउर मनु आवा ॥१८॥ {पन्ना 341}

पद्अर्थ: इहै = यह माया। दूरि = दूर से (देखने पर)। ठगनीरा = (नीर = जल) ठगने वाली पानी, भुलेखे में डालने वाला पानी, वह रेत जो दूर से भुलेखे से पानी प्रतीत होती है, मरीचिका, मृगतृष्णा। नीठि = (संस्कृत: निरीक्ष) नीझ लगा के, ध्यान से देख के। नीठि नीठि = अच्छी तरह नीझ लगा के। कीआ = बना लिया है। धीरा = धीरज वाला, टिके रहने वाला। जिनि ठगि = जिस ठग ने। खावा = खा लिया, फसा लिया। ठगिआ = ठगा, काबू किया। ठउर = ठिकाने पे।18।

अर्थ: ये माया ऐसे है जैसा दूर से देखी हुई रेत जो पानी प्रतीत होती है। सो मैंने ध्यान से (इस माया की अस्लियत) देख के मन को धैर्यवान बना लिया है (भाव, मन को इसके पीछे दौड़ने से बचा लिया है)। जिस (मायावी मोह रूपी) ठग ने सारे जगत को भुलेखे में डाल दिया है, सारे जगत को अपने वश में कर लिया है, उस (मोह-) ठॅग को काबू करके मेरा मन ठिकाने पर आ गया है।18।

नोट: दूर से तपते रेत को देख के इसको पानी समझ के मृग (हिरन) उस पानी की ओर दौड़ता है। वह रेत की चमक दूर होने की वजह से ऐसे प्रतीत होती है जैसे पानी अभी और परे है। प्यासा हिरन इस प्रतीत होते पानी की खातिर ही दौड़–दौड़ के प्राण दे देता है। हिरन की तरह ही जीव माया के पीछे दौड़–दौड़ के सारा जीवन व्यर्थ गवा देता है।

डडा डर उपजे डरु जाई ॥ ता डर महि डरु रहिआ समाई ॥ जउ डर डरै त फिरि डरु लागै ॥ निडर हूआ डरु उर होइ भागै ॥१९॥ {पन्ना 341}

पद्अर्थ: उपजे = पैदा हो जाए। जाई = दूर हो जाता है। ता डर महि = उस डर में। रहिआ समाई = समाए रहा, लीन हो जाता है, समाप्त हो जाता है। जउ = अगर। डर डरै = (परमात्मा के) डर से डरता रहे, प्रभू का डर हृदय में ना टिकने दे। त फिरि = तो दुबारा। डरु लागै = संसारिक डर आ चिपकता है। निडरु = निर्भय। डरु उर होइ = हृदय का जो भी डर हो। उर = हृदय।19।

अर्थ: अगर परमात्मा का डर (भाव, अदब-सत्कार) मनुष्य के हृदय में पैदा हो जाए तो (दुनिया वाला) डर (दिल से) दूर हो जाता है और उस डर में दुनिया वाला डर समाप्त हो जाता है। पर अगर मनुष्य प्रभू का डर मन में ना बसाए तो (दुनिया वाला) डर दुबारा आ चिपकता है। (और प्रभू का डर दिल में बसा के जो मनुष्य) निर्भय हो गया, उसके मन का जो भी सहम है, सब भाग जाता है।19।

ढढा ढिग ढूढहि कत आना ॥ ढूढत ही ढहि गए पराना ॥ चड़ि सुमेरि ढूढि जब आवा ॥ जिह गड़ु गड़िओ सु गड़ महि पावा ॥२०॥ {पन्ना 341}

पद्अर्थ: ढिग = नजदीक (ही)। कत आना = कहां, और जगह? ढहि गऐ = थक गए हैं। पराना = प्राण, जिंद। चढ़ि = चढ़ के। सुमेरि = सुमेर पर्वत पे। ढूढि = ढूँढ के। आवा = आ गया। जिह = जिस परमात्मा ने। गढ़ु = (शरीर रूपी) गढ़, किला। गढ़िओ = बनाया है। सु = वह प्रभू। गढ़ महि = (शरीर रूपी) किले में। पावा = ढूँढ लिया।20।

अर्थ: (हे भाई! परमात्मा तो तेरे) नजदीक ही है, तू (उसे बाहर) और कहाँ ढूँढता है? (बाहर) ढूँढते-ढूँढते तेरे प्राण भी थक गए हैं। सुमेर पर्वत पे (भी) चढ़ के और (परमात्मा को वहाँ) ढूँढ-ढूँढ के जब मनुष्य (अपने शरीर में) आता है (भाव, जब अपने अंदर ही झांकता है), तो वह प्रभू इस (शरीर रूपी) किले में ही मिल जाता है जिसने ये शरीर किला बनाया है।20।

नोट: ‘सुमेर पर चढ़ के’ का भाव है ‘पहाड़ों की चोटियों पे, पहाड़ों की गुफाओं में बैठ के, प्राणयाम द्वारा समाधियां लगा के’।

णाणा रणि रूतउ नर नेही करै ॥ ना निवै ना फुनि संचरै ॥ धंनि जनमु ताही को गणै ॥ मारै एकहि तजि जाइ घणै ॥२१॥ {पन्ना 341}

पद्अर्थ: रणि = रण में, रणभूमि में (जहाँ काम आदि से मनुष्य की जंग होती रहती है)। रूतउ = व्यस्त हुआ। नेही = (संस्कृत: नह, नेहण लेना, वश में कर लेना) विकारों को वश में कर लेने की समर्था, दृढ़ता, धीरज। निवै = निवता है, झुकता है। ना फुनि = ना ही। संचरै = (संस्कृत: सं+चरै = संग चलता है) मेल करता है। धंनि = धन्य, मुबारक, भाग्यशाली। ताही को = उसी (मनुष्य) का ही। गणै = (जगत) गिनता है। ऐकहि = एक (मन को)। तजि जाइ = छोड़ देता है। घणे = बहुतों को (भाव, विकारों) को।21।

अर्थ: (जगत रूपी इस) रणभूमि में (विकारों के साथ युद्ध में) व्यस्त जो मनुष्य विकारों को वश में करने की समर्था प्राप्त कर लेता है जो (विकारों के आगे) ना झुकता है, ना ही (उनसे) मेल करता है, जगत उसी मनुष्य के जीवन को भाग्यशाली गिनता है, क्योंकि वह मनुष्य (अपने) एक मन को मारता है और बहुत सारे (विकारों) को छोड़ देता है।21।

तता अतर तरिओ नह जाई ॥ तन त्रिभवण महि रहिओ समाई ॥ जउ त्रिभवण तन माहि समावा ॥ तउ ततहि तत मिलिआ सचु पावा ॥२२॥ {पन्ना 341}

पद्अर्थ: अतर = (अ+तर) जो तैरा ना जा सके, जिसमें से पार लांघना बहुत मुश्किल है (संसार एक ऐसा बेअंत समुंद्र है जिस में विकारों की लहरें चल रही हैं और मानस जीवन की कमजोर सी बेड़ी को हर समय इन लहरों में डूबने का खतरा बना रहता है)। तन = शरीर, ज्ञान इंद्रियां। त्रिभवण माहि = तीन भवनों में, सारे जगत में, दुनिया के पदार्थों में।22।

अर्थ: ये जगत एक ऐसा समुंद्र है जिसे तैरना मुश्किल है, जिसमें से पार लांघा नहीं जा सकता (तब तक जब तक) आँख, कान, नाक आदि ज्ञानेंद्रियां दुनियां (के रसों) में डूबी रहती हैं; पर जब संसार (के रस) शरीर के अंदर ही मिट जाते हैं (भाव, मनुष्य की इंद्रियों को आकर्षित करने में असफल हो जाते हैं), तब (जीव की) आत्मा (प्रभू की) ज्योति में मिल जाती है, तब सदा स्थिर रहने वाला परमात्मा मिल जाता है।22।

थथा अथाह थाह नही पावा ॥ ओहु अथाह इहु थिरु न रहावा ॥ थोड़ै थलि थानक आर्मभै ॥ बिनु ही थाभह मंदिरु थ्मभै ॥२३॥ {पन्ना 341}

पद्अर्थ: अथाह = (अ+थाह। थाह = गहराई, हाथ) जिसकी गहराई ना नापी जा सके। ओहु = वह प्रभू। इहु = ये मन। थिरु न रहावा = टिका नहीं रहता। थलि = थल में, जमीन पर। थाभह बिनु = खम्भों के बिना। मंदिरु = घर, मकान। थंभै = थंमता है, सहारा देता है, खड़ा करता है। थेड़ै थलि = थोड़ी जमीन में, थोड़ी सी उम्र में। थानक = स्थानक, शहर (भाव, बड़े-बड़े पसारे)।23।

अर्थ: (मनुष्य का मन) अथाह परमात्मा की थाह नहीं पा सकता (क्योंकि, एक तरफ तो) वह प्रभू बेअंत गहरा है (और, दूसरी तरफ, मनुष्य का) ये मन कभी टिक के नहीं रहता (भाव, कभी प्रभू चरणों मेंजुड़ने का उद्यम ही नहीं करता)। ये मन थोड़ी जितनी (मिली) जमीन में (कई) नगर (बनाने) आरम्भ कर देता है (भाव, थोड़ी जितनी मिली उम्र में कई पसारे पसार बैठता है); और इसके ये सारे पसारे पसारने व्यर्थ के काम हैं, ये (मानो) खम्भों (दीवारों) के बिना ही घर का निर्माण कर रहा है।23।

ददा देखि जु बिनसनहारा ॥ जस अदेखि तस राखि बिचारा ॥ दसवै दुआरि कुंची जब दीजै ॥ तउ दइआल को दरसनु कीजै ॥२४॥ {पन्ना 341}

पद्अर्थ: देखि = (संस्कृत: दृश्य) जो देखने में आ रहा है। जु = जो। जस अदेखि = जो अदृश्य है, जो आँखों से नहीं दिखता। तस = उस (प्रभू) को। राखि बिचारा = अपने विचारों में रख, उसमें सुरति जोड़। दसवै दुआरि = दसवें दर में।

(नोट: दो आँखे, दो कान, दो नासिकाएं, एक मुंह, इंद्री, गुदा; ये नौ गोलकें, शरीर के नौ दरवाजे शरीर की स्थूल क्रिया निभाते हैं। इनके अलावा मानस शरीर का एक और दरवाजा भी माना गया है, वह है मनुष्य का दिमाग़, जो विचार केन्द्र है)।

कूँजी = (भाव) गुरू, गुरबाणी।

(नोट: माया में ग्रसे मनुष्य का दिमाग़ सदा माया ही की बातें सोचता है; परमात्मा की तरफ से उसे, मानो, ताला सा लगा रहता है; माया की ललक दसम द्वार को ताला है, सतिगुरू की बाणी इस ताले को खोलती है, और मन माया के असर से निकल के प्रभू की याद में जुड़ता है)।24।

अर्थ: जो ये संसार (इन आँखों से) दिखाई दे रहा है, ये सारा नाशवंत है, (हे भाई!) तू सदा प्रभू में सुरति जोड़, जो (इन आँखों से) दिखाई नहीं देता (भाव, जो दिखाई देते त्रिगुणी संसार से अलग भी है)। पर, उस दयाल प्रभू का दीदार तभी किया जा सकता है, जब (गुरबाणी-रूपी) कूँजी दसवें द्वार में लगाएं (भाव, जब मन को सतिगुरू की बाणी के साथ जोड़ें)।24।

धधा अरधहि उरध निबेरा ॥ अरधहि उरधह मंझि बसेरा ॥ अरधह छाडि उरध जउ आवा ॥ तउ अरधहि उरध मिलिआ सुख पावा ॥२५॥ {पन्ना 341}

पद्अर्थ: उरध = ऊध्र्व, ऊँचा (भाव, परमात्मा)।

(नोट: 'अरधहि' संस्कृत शब्द है ‘अर्ध’, इसका अर्थ है ‘आधा’, पर यहाँ ये अर्थ मेल नहीं खाता। संस्कृत शब्द ‘ऊध्र्व’, जिसका अर्थ है ‘ऊँचा’, के मुकाबले शब्द है ‘अधह’ इसका अर्थ है ‘नीचा’; इसी ही शब्द से बना है ‘अधोगती’। इस बंद में भी शब्द ‘अरधहि’ संस्कृत शब्द ‘अधह’ की जगह ही है) नीचे का, नीचा, निम्न विचारों में रहने वाली (भाव, जीवात्मा)।

निबेरा = फैसला, खात्मा, जनम मरण का खात्मा। उरधह मंझि = उच्च प्रभू में। बसेरा = निवास। अरधहि छाडि = नीची अवस्था को छोड़ के। जउ = जब। उरध आवा = उच्च अवस्था में पहुँचता है।25।

अर्थ: जब जीवात्मा का निवास परमात्मा में होता है (भाव, जब जीव प्रभू चरणों में जुड़ता है), तो प्रभू से (एक रूप) हो के ही जीव (के जनम-मरण) का खात्मा होता है। (जीवात्मा और परमात्मा की दूरी खत्म हो जाती है)। जब जीव निचली अवस्था को (भाव, माया के मोह को) छोड़ के उच्च अवस्था में पहुँचता है तो जीव को परमात्मा मिल जाता है, और इसे (असल) सुख प्राप्त हो जाता है।25।

नंना निसि दिनु निरखत जाई ॥ निरखत नैन रहे रतवाई ॥ निरखत निरखत जब जाइ पावा ॥ तब ले निरखहि निरख मिलावा ॥२६॥ {पन्ना 341}

पद्अर्थ: निसि = रात। निरखत = (संस्कृत: निरीक्षत) ताकते हुए, देखते हुए, तलाशते हुए, इन्तजार करते हुए। जाई = गुजरता है। नैन = आँखें। रतवाई = रंगे हुए, मतवाले, प्रेमी। जाइ पावा = जा के पा लिया, आखिर मिल गया, दीदार कर लिया। निरखहि = (संस्कृत: निरीक्षक् को), तलाश करने वाले को, दर्शनों की चाहत रखने वाले को। निरख = (सं: निरीक्ष्) जिसे देखते हैं, जिसकी तलाश की जाती है, वह प्रभू जिसके दीदार का इन्तजार जीव को लगा रहता है।26।

अर्थ: (जिस जीव के) दिन रात (भाव, सारा समय) (प्रभू के दीदार का) इन्तजार करते गुजरता है, ताकते हुए (भाव, दीदार की लगन में ही) उसके नेत्र (प्रभू दीदार के लिए) मतवाले हो जाते हैं। दीदार की तमन्ना करते-करते जब आखिर दीदार होता है तो वह ईष्ट प्रभू के दर्शनों की चाहत रखने वाले (अपने प्रेमी) को अपने साथ मिला लेता है।26।

पपा अपर पारु नही पावा ॥ परम जोति सिउ परचउ लावा ॥ पांचउ इंद्री निग्रह करई ॥ पापु पुंनु दोऊ निरवरई ॥२७॥ {पन्ना 341}

पद्अर्थ: अपर = (अ+पर, संस्कृत: नास्ति परों यस्मात्) जिससे परे और कोई नहीं, जिससे बड़ा और कोई नहीं। पारु = परला छोर, अंत। पावा = पाया। परचउ = (सं: परिचय) प्यार, सांझ। निग्रह करई = रोक लेता है। निरवरई = निवार देता है, दूर कर देता है। परम जोति = वह प्रकाश जो सब से ऊँचा है, सबको रोशनी देने वाली ज्योति।27।

अर्थ: परमात्मा सबसे बड़ा है, उसका किसी ने अंत नहीं पाया। जिस जीव ने रोशनी के श्रोत प्रभू से प्यार जोड़ा है, वह अपनी पाँचों ही ज्ञानेंद्रियों को (इस प्रकार) वश में कर लेता है कि वह जीव पाप और पुंन दोनों को दूर कर देता है (भाव, पाँचों ज्ञानेंद्रियों को वह इस तरह पूर्ण तौर पर काबू करता हैकि उसको अपने कामों के बारे में ये सोचने की जरूरत नहीं रहती कि मैं जो काम करता हूँ ये पाप है अथवा पुंन। सहज ही उसका हरेक काम कामादिक विकारों से बरी होता है)।27।

फफा बिनु फूलह फलु होई ॥ ता फल फंक लखै जउ कोई ॥ दूणि न परई फंक बिचारै ॥ ता फल फंक सभै तन फारै ॥२८॥ {पन्ना 341}

पद्अर्थ: बिनु फूलह = फूले बिना, अगर जीव फूलना छोड़ दे, अगर जीव अपने शरीर पर फूलना छोड़ दे, अगर अपने आप पर मान करना त्याग दे, अगर जीव देह-अध्यास छोड़ दे। फलु = (मानस जनम का) फल, वह पदार्थ जिसकी खातिर मानस जनम मिला है, परमात्मा के नाम की सूझ। फंक = छोटी सी फाड़ी, थोड़ा सा हिस्सा। ता फल फंक = उस फल की छोटी सी फाड़ी, उस रॅबी सूझ का थोड़ा सी झलक। जउ = अगर। लखै = समझ ले। दूणि = दून, दो पहाड़ों के बीच का मैदानी इलाका, जनम और मरन का चक्कर। परई = पड़ता है। फंक = (ज्ञान की) थोड़ी सी झलक। सभै तन = सारे शरीरों को, सारा ही देह अध्यास, सारा ही शारीरिक मोह। फारै = फाड़ता है, नाश कर देता है।28।

अर्थ: अगर जीव अपने आप पर गुमान छोड़ दे, तो इसे (नाम-पदार्थ रूपी वह) फल प्राप्त हो जाता है (जिसकी खातिर मानस जनम मिला है)। और, अगर कोई उस रॅबी सूझ का रॅत्ती भर भी झलक समझ ले, और अगर उस झलक को विचारे, तो वह जनम-मरन के गड्ढे में नहीं गिरता। (क्योंकि) ईश्वरीय सूझ की वह छोटी सी चमक भी उसके देह-अध्यास (स्वै पर गुमान) को पूरे तौर पर खत्म कर देती है।28।

बबा बिंदहि बिंद मिलावा ॥ बिंदहि बिंदि न बिछुरन पावा ॥ बंदउ होइ बंदगी गहै ॥ बंदक होइ बंध सुधि लहै ॥२९॥ {पन्ना 341}

पद्अर्थ: बिंदहि = (पानी की) बूँद में। बिंद = पानी की बूँद। मिलावा = मिल गई। बिंदहि = बिंद मात्र, निमख मात्र, थोड़े से समय के लिए भी। बिंदि = बिंद के, जान के, सांझ डाल के। (संस्कृत: विन्दति = जानता है)। बंदउ = बंदा, गुलाम, सेवक। होइ = हो के, बन के। गहै = ग्रहण करता है, पकड़ लेता है, प्रेम से करता है। बंदक = (संस्कृत: वंदक, वंदना करने वाला) उस्तति करने वाला, सिफति सालाह करने वाला, ढाढी। बंध = जकड़, जंजीर। सुधि = सूझ, समझ। बंध सुधि = बंदों की सूझ, (माया के मोह के) जंजीरों की समझ। लहै = ढूँढ लेता है।29।

अर्थ: (जैसे पानी की) बूंद में (पानी की) बूंद मिल जाती है, (और, फिर अलग नहीं हो सकती, वैसे ही प्रभू से) निमख मात्र भी सांझ डाल के (जीव प्रभू से) विछुड़ नहीं सकता (क्योंकि जो मनुष्य प्रभू का) सेवक बन के प्रेम से (प्रभू की) भगती करता है, वह (प्रभू के दर का) ढाढी बन के (माया के मोह की) जंजीरों का भेद पा लेता है (और इनके धोखे में नहीं आता)।29।

TOP OF PAGE

Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh