श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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भभा भेदहि भेद मिलावा ॥ अब भउ भानि भरोसउ आवा ॥ जो बाहरि सो भीतरि जानिआ ॥ भइआ भेदु भूपति पहिचानिआ ॥३०॥ {पन्ना 342}

पद्अर्थ: भेदहि = भेद को, (प्रभू से बनी हुई) दूरी को। भेदि = छेद के, समाप्त करके। मिलावा = मिला लिया, प्रभू से अपने आप को जोड़ लिया। अब = अब, उस याद की बरकति से। भानि = तोड़ के, दूर करके। भरोसउ = भरोसा, श्रद्धा, ये यकीन कि प्रभू मेरे अंग-संग है। भेदु = भेद, राज़, गुझी बात। भइआ = (प्रगट) हुआ। भूपति = (भू+पति, धरती का पति), सृष्टि का मालिक प्रभू। पहिचानिआ = पहचान लिया, सांझ बना ली।30।

अर्थ: जो मनुष्य (प्रभू से बनी हुई) दूरी को समाप्त करके (अपने मन को प्रभू की याद में) जोड़ता है, उस याद की बरकति से (सांसारिक) डर दूर करने से उसे प्रभू में श्रद्धा बन जाती है। जो परमात्मा सारे जगत में व्यापक है, उसे वह अपने अंदर बसता जान लेता है, (और ज्यों-ज्यों) ये राज उसे खुलता है (कि अंदर-बाहर हर जगह प्रभू बस रहा है) वह सृष्टि के मालिक-प्रभू से (यादों की) सांझ डाल लेता है।30।

ममा मूल गहिआ मनु मानै ॥ मरमी होइ सु मन कउ जानै ॥ मत कोई मन मिलता बिलमावै ॥ मगन भइआ ते सो सचु पावै ॥३१॥ {पन्ना 342}

पद्अर्थ: मूल = आदि, जगत का मूल, सारे जगत को पैदा करने वाला। गहिआ = पकड़ा, मन में बसाने से। मानै = मानता है, पतीजता है, टिक जाता है, भटकने से हट जाता है। मरम = भेत। मरमी = भेती, वाकफ। मरमी होइ = जो कोई भेती हो जाता है, जो जीव ये भेद पा लेता है (कि प्रभू में जुड़ने से मन भटकने से हट जाता है)। सु = वह जीव। मन कउ = मन को, मन की दौड़ भाग को। मत कोइ बिमलावै = कोई देर ना करे। मगन = मस्त। सचु = सदा सिथर रहने वाला प्रभू। पावै = पा लेता है। तै = और।31।

अर्थ: अगर जगत के मूल प्रभू को अपने मन में बसा लें, तो मन भटकने से हट जाता है। जो जीव ये भेद पा लेता है (कि प्रभू चरणों में टिकने से मन टिक जाता है) वह जीव मन (की दौड़ भाग) को समझ लेता है। (सो,) अगर मन (प्रभू चरणों में) जुड़ने लगे तो कोई (इस नेक काम में) देर ना करे; (क्योंकि, प्रभू चरणों में जुड़ने की बरकति से) मन (प्रभू में) लीन हो जाता है, और उस सदा स्थिर रहने वाले प्रभू को प्राप्त कर लेता है।31।

ममा मन सिउ काजु है मन साधे सिधि होइ ॥ मन ही मन सिउ कहै कबीरा मन सा मिलिआ न कोइ ॥३२॥ {पन्ना 342}

पद्अर्थ: सिउ = साथ। काजु = (असल) काम। साधे = साधने से, वश में करने से। सिधि = सफलता, उस ‘काज’ की सफलता जिस वास्ते जीव जगत में आया है। मन ही मन सिउ = मन से ही, मन से ही, पूरी तरह मन से ही (काम है)। मन सा = मन जैसा।32।

अर्थ: (हरेक जीव का जगत में आने का असल) काम मन से है (वह काम ये है कि जीव अपने मन को काबू में रखे)। मन को वश में करने से ही (जीव को असल मनोरथ की) कामयाबी होती है। कबीर कहता है (कि जीव का असल काम) पूरी तरह से सिर्फ मन से ही है, मन जैसा (जीव को) और कोई नहीं मिला (जिसके साथ इसका असल मतलब पड़ता हो)।32।

इहु मनु सकती इहु मनु सीउ ॥ इहु मनु पंच तत को जीउ ॥ इहु मनु ले जउ उनमनि रहै ॥ तउ तीनि लोक की बातै कहै ॥३३॥ {पन्ना 342}

पद्अर्थ: सकती = माया। सीउ = शिव, आनंद स्वरूप प्रभू। पंच तत को जीउ = पाँच तत्वों का जीव, पाँच तत्वों का बना हुआ शरीर। ले = लेकर, वश में कर के। जउ = जब। उनमनि = खिड़ाव में। रहै = टिकता है। तउ = तब। तीनि लोक की बातै = सारे जगत में व्यापक प्रभू की बातें। कहै = कहता है।33।

अर्थ: (माया के साथ मिल के) ये मन माया (का रूप) हो जाता है। (आनंद स्वरूप हरी के साथ मिल के) ये मन आनंद स्वरूप हरी बन जाता है। (पर, शरीर के साथ जुड़ के) ये मन शरीर-रूप ही हो जाता है (भाव, अपने आप को शरीर से अलग नहीं समझता)।

पर जब मनुष्य इस मन को वश में करके पूर्ण खिड़ाव में टिकता है, तब वह सारे जगत में व्यापक प्रभू की ही बातें करता है।33।

यया जउ जानहि तउ दुरमति हनि करि बसि काइआ गाउ ॥ रणि रूतउ भाजै नही सूरउ थारउ नाउ ॥३४॥ {पन्ना 342}

पद्अर्थ: जउ = अगर। जानहि = तू समझना चाहे, तू जीवन का सही रास्ता जानना चाहे। तउ = तो। दुरमति = खराब बुद्धि। हनि = नाश कर, दूर कर। करि बसि = वश में ला। काइआ = शरीर। गाउ = पिंड। रणि = रण में, युद्ध में। रूतउ = व्यस्त हुआ। सूरउ = सूरमा, शूरवीर। थारउ = तेरा।34।

अर्थ: (हे भाई!) अगर तू (जीवन का सही रास्ता) जानना चाहता है, तो (अपनी) बुरी मति को समाप्त कर दे, इस शरीर (-रूप) पिंड को (अपने) वश में ले आ (भाव, आँख, कान आदि ज्ञानेंद्रियों को विकारों की तरफ ना जाने दे)। (इस शरीर को वश में ले आना, मानो, एक युद्ध है) अगर तू इस युद्ध में उलझ के मात ना खाए तो तेरा नाम शूरवीर (हो सकता) है।34।

रारा रसु निरस करि जानिआ ॥ होइ निरस सु रसु पहिचानिआ ॥ इह रस छाडे उह रसु आवा ॥ उह रसु पीआ इह रसु नही भावा ॥३५॥ {पन्ना 342}

पद्अर्थ: रसु = स्वाद, माया का स्वाद। निरस = (नि+रस) फीका। निरस करि = फीका करके, फीका सा। जानिआ = जान लिया, समझ लिया है। होइ निरस = निरस हो के, रसों से निराला हो के, रसों से उपराम हो के, मायावी चस्कों से बचे रहके। सु रसु = वह स्वाद, वह आत्मिक आनंद। आवा = आ गया। भावा = अच्छा लगा। पहिचानिआ = पहचान लिया है, सांझ डाल ली है।35।

अर्थ: जिस मनुष्य ने माया के स्वाद फीका सा समझ लिया है, उसने मायावी चस्कों से बचे रह के वह आत्मिक आनंद पा लिया है। जिसने ये (दुनिया वाले) चस्के छोड़ दिए हैं, उसे वह (प्रभू के नाम का) आनंद प्राप्त हो गया है; (क्योंकि) जिस ने वह (नाम-) रस पीया है उसे यह (माया वाला) स्वाद अच्छा नहीं लगता।35।

लला ऐसे लिव मनु लावै ॥ अनत न जाइ परम सचु पावै ॥ अरु जउ तहा प्रेम लिव लावै ॥ तउ अलह लहै लहि चरन समावै ॥३६॥ {पन्ना 342}

पद्अर्थ: अैसे = ऐसे तरीके से। लिव लावै = सुरति जोड़े, बिरती लगाए। अनत = (अन्यत्र) किसी और जगह। न जाइ = ना जाऐ, ना भटके। परम = सब से ऊँचा। सचु = सदा कायम रहने वाला प्रभू! पावै = प्राप्त कर लेता है, ढूँढ लेता है। अरु = और। जउ = अगर। तहा = उस लिवलीनता में। प्रेम लिव = प्रेम की तार। तउ = तो। अलह = ना मिलने वाला प्रभू (अलभ, जिसे ढूँढा ना जा सके)। लहै = मिल जाता है। लहि = ढूँढ के। समावै = सदा के लिए टिका रहता है।36।

अर्थ: अगर (किसी मनुष्य का) मन ऐसी एकग्रता से (प्रभू की याद में) बिरती जोड़ ले कि किसी और तरफ ना भटके तो उसे सबसे ऊँचा व सदा स्थिर रहने वाला प्रभू मिल जाता है। और अगर उस लिव की हालत में प्रेम की तार लगा ले तो (भाव, एक-तार मगन रहे) तो उस दुर्लभ प्रभू को वह पा लेता है और पा के सदा के लिए उसके चरणों में टिका रहता है।36।

ववा बार बार बिसन सम्हारि ॥ बिसन सम्हारि न आवै हारि ॥ बलि बलि जे बिसनतना जसु गावै ॥ विसन मिले सभ ही सचु पावै ॥३७॥ {पन्ना 342}

पद्अर्थ: बार बार = बारंबार, हर समय। समारि = संभाल, याद कर, चेते कर। संमारि = संभाल के, याद करके, सिमरने से। हारि = हार के, मानस जनम की बाजी हार के। बलि बलि = सदके। बिसन तना = विष्णु का पुत्र, प्रभू का भगत। मिले = मिल के। सभ ही = हर जगह। सचु = सदा स्थिर रहने वाला प्रभू।37।

नोट: अंजान बालक अपने पिता की गोद में, पिता की उंगली पकड़ के बेफिक्र रहता है और पिता को ही रक्षक समझता है। इसी तरह प्रभू की बंदगी करने वाले बंदे प्रभू को अपना राखा जानते हैं, तभी तो भगत जनों को प्रभू के पुत्र कहा है।

अर्थ: (हे भाई!) सदा प्रभू को (अपने हृदय में) याद रख के (जीव मानस जनम की बाजी) हार के नहीं आता। मैं उस भगत-जन से सदके हूँ जो प्रभू के गुण गाता है। प्रभू को मिल के वह हर जगह सदा-स्थिर रहने वाले प्रभू को ही देखता है।37।

वावा वाही जानीऐ वा जाने इहु होइ ॥ इहु अरु ओहु जब मिलै तब मिलत न जानै कोइ ॥३८॥ {पन्ना 342}

पद्अर्थ: वा ही = उस (प्रभू) को ही। जानीअै = समझें, जान पहिचान डालें, सांझ डालनी चाहिए। वा = उस (प्रभू) को। जाने = जानने से, सांझ डालने से। इहु = ये जीव। ओहु = वह प्रभू। अरु = और।

अर्थ: (हे भाई!) उस प्रभू से ही जान-पहिचान करनी चाहिए। उस प्रभू से सांझ डालने से यह जीव (उस प्रभू का रूप ही) हो जाता है। जब ये जीव और वह प्रभू एक-रूप हो जाते हैं, तो इन मिले हुओं को कोई और नहीं समझ सकता (भाव, फिर कोई इन मिले हुओं में दूरी नहीं डाल सकता)।38।

ससा सो नीका करि सोधहु ॥ घट परचा की बात निरोधहु ॥ घट परचै जउ उपजै भाउ ॥ पूरि रहिआ तह त्रिभवण राउ ॥३९॥ {पन्ना 342}

पद्अर्थ: सो = उस प्रभू को। नीका करि = अच्छी तरह। सोधहु = संभाल करो, याद करो। परचा = (संस्कृत: परिचय), मित्रता, सांझ। बात = बातें। निरोधहु = निरोध, अवरोध, रोको, टिकाओ। घट = हृदय, मन। जउ = जब। भाउ = प्यार। तह = उस अवस्था में। त्रिभवण राउ = तीन भवनों का मालिक परमात्मा।39।

अर्थ: अच्छी तरह उस परमात्मा की संभाल करो। अपने मन को उन वचनों में ला के जोड़ो, जिनसे ये मन परमात्मा में परच जाए। प्रभू में मन परचने से जब (अंदर) प्रेम उपजता है तो उस अवस्था में तीनों भवनों का मालिक परमात्मा ही (हर जगह) व्यापक दिखाई देता है।39।

खखा खोजि परै जउ कोई ॥ जो खोजै सो बहुरि न होई ॥ खोज बूझि जउ करै बीचारा ॥ तउ भवजल तरत न लावै बारा ॥४०॥ {पन्ना 342}

पद्अर्थ: खोजि परै = तलाश में लग जाए। जउ = अगर। खोजै = ढूँढ ले। सो = वह मनुष्य। बहुरि = दुबारा। न होई = नहीं पैदा होता (ना मरता)। खोज = लक्षण, निशान। बूझि = समझ के। जउ = यदि (कोई)। बीचार = प्रभू के गुणों की विचार। भवजल = संसार समुंद्र। बार = देह।40।

अर्थ: अगर कोई मनुष्य परमात्मा की तलाश में लग जाए, (इस तरह) जो भी मनुष्य प्रभू को पा लेता है वह फिर पैदा होता-मरता नहीं। अगर कोई जीव प्रभू के गुणों को समझ के उनको बारंबार याद करता है, उसे संसार-समंद्र को पार करने में देर नहीं लगती।40।

ससा सो सह सेज सवारै ॥ सोई सही संदेह निवारै ॥ अलप सुख छाडि परम सुख पावा ॥ तब इह त्रीअ ओुहु कंतु कहावा ॥४१॥ {पन्ना 342}

पद्अर्थ: सह सेज = पति की सेज, (जीव-स्त्री का हृदय जो प्रभू-) पति की सेज है। सो = वह (सखी)। सोई सही = वही सखी। संदेह = शक, संसा, भरम। निवारै = दूर करती है। अलप = छोटा, होछा। पावा = प्राप्त करती है। त्रीअ = स्त्री। कंतु = पति।41।

अर्थ: जो (जीव-स्त्री दुनिया वाले) तुच्छ सुख छोड़ के (प्रभू के प्यार का) सबसे ऊँचा सुख हासिल करती है, वह (अपना हृदय-रूप) पति प्रभू की सेज सवारती है। वही (जीव) -सखी (अपने मन के) संशय दूर करती है। (इस अवस्था के बनने पर ही असल भाव में) तभी ये (जीव प्रभू की) स्त्री, और वह (प्रभू जीव-स्त्री का) पति कहलवाता है।41।

हाहा होत होइ नही जाना ॥ जब ही होइ तबहि मनु माना ॥ है तउ सही लखै जउ कोई ॥ तब ओही उहु एहु न होई ॥४२॥ {पन्ना 342}

पद्अर्थ: होइ = हो के, जनम ले के, मानस जनम हासिल करके। होत = होता हुआ (प्रभू), अस्तित्व वाले प्रभू को, प्रभू को जो सचमुच हस्ती वाला है। होइ = (प्रभू के वजूद का निश्चय) हो जाए। माना = मान जाता है, पतीज जाता है। सही = सचमुच, जरूर। है तउ सही = है तो सचमुच। जउ = अगर। ओही उहु = वह प्रभू ही प्रभू। ऐहु = यह जीव।42।

अर्थ: जीव ने मानस जनम हासिल करके उस प्रभू को नहीं पहचाना, जो सचमुच हस्ती वाला है। जब जीव को प्रभू के वजूद का निश्चय हो जाता है, तब इसका मन (प्रभू में) पतीज जाता है। (परमात्मा) है तो जरूर (पर इस विश्वास का लाभ तब ही होता है) जब कोई जीव (इस बात को) समझ ले। तब ये जीव उस प्रभू का ही रूप हो जाता है, ये (अलग हस्ती वाला) नहीं रह जाता।42।

लिंउ लिंउ करत फिरै सभु लोगु ॥ ता कारणि बिआपै बहु सोगु ॥ लखिमी बर सिउ जउ लिउ लावै ॥ सोगु मिटै सभ ही सुख पावै ॥४३॥ {पन्ना 342}

पद्अर्थ: लिंउ लिंउ = मैं (लक्ष्मी) हासिल कर लूं, मैं (माया) ले लूँ। करत फिरै = करता फिरता है। सभ लोगु = सारा जगत, हरेक जीव। ता कारणि = उस माया की खातिर। बिआपै = घटित होता है, अपना प्रभाव डालता है। सोगु = ग़म, फिक्र। लखमीबर = लक्ष्मी का वर, माया का पति, परमात्मा। सिउ = से। लिउ = लिव, प्रेम।43।

अर्थ: सारा जगत यही कहता फिरता है (भाव, इसी लालसा में भटकता फिरता है) कि मैं (माया) संभाल लूँ, मैं (माया) एकत्र कर लूँ। इस माया की खातिर ही (फिर जीव को) बड़ी चिंताएं आ घेरती हैं।

पर जब जीव, माया के पति परमात्मा के साथ प्रीत जोड़ता है तब (इसकी) चिंताएं समाप्त हो जाती हैं और ये सारे सुख हासिल कर लेता है।43।

खखा खिरत खपत गए केते ॥ खिरत खपत अजहूं नह चेते ॥ अब जगु जानि जउ मना रहै ॥ जह का बिछुरा तह थिरु लहै ॥४४॥ {पन्ना 342}

पद्अर्थ: खिरत = (संस्कृत: क्षर = to glide, to waste away, perish) नाश होते होते। केते = कई, बेअंत (जनम)। अजहूँ = अभी तक। चेते = (परमात्मा को) याद करना। जगु जानि = जगत की अस्लियत को समझ के। जउ = अगर। मना = मन। रहे = टिक जाए। जह का = जिस (प्रभू) से। तह = उसी प्रभू में।44।

अर्थ: मरते-खपते जीव के कई जनम गुजर गए हैं, चक्करों में पड़ा अभी तक ये (प्रभू को) याद नहीं करता।

अब (इस जनम में ही) अगर जगत की अस्लियत को समझ के (इसका) मन (प्रभू में) टिक जाए तो जिस प्रभू से ये विछुड़ा हुआ है, उसी में इसे ठिकाना मिल सकता है।44।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh