श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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बावन अखर जोरे आनि ॥ सकिआ न अखरु एकु पछानि ॥ सत का सबदु कबीरा कहै ॥ पंडित होइ सु अनभै रहै ॥ पंडित लोगह कउ बिउहार ॥ गिआनवंत कउ ततु बीचार ॥ जा कै जीअ जैसी बुधि होई ॥ कहि कबीर जानैगा सोई ॥४५॥ {पन्ना 343}

पद्अर्थ: बावन = 52, बावन। जोरे आनि = ला के जोड़ दिए, (अक्षर) बरत के पुस्तकें लिख दीं। अखरु ऐकु = एक प्रभू को जो नाश रहित है। अखरु = (संस्कृत: अ+क्षर) नाश रहित। सत का सबदु = प्रभू की सिफत सालाह। कबीरा = हे कबीर! कहै = (जो मनुष्य) कहता है। सु = वह मनुष्य। अनभै = अनुभव में, ज्ञान अवस्था में। रहै = टिका रहता है। कउ = को, का। बिउहार = व्यवहार, रोजी कमाने का ढंग। ततु = अस्लियत। जा के जीअ = जिस मनुष्य के जीअ में, जिसके अंदर। जैसी बुधि = जैसी अकल। सोई = वही कुछ। कहि = कहे, कहता है।

अर्थ: (जगत ने) बावन अक्षरों का प्रयोग करके पुस्तकें लिख दी हैं, पर (ये जगत इन पुस्तकों के द्वारा) उस एक प्रभू को नहीं पहचान सका, जो नाश-रहित है।

हे कबीर! जो मनुष्य (इन अक्षरों की मदद से) प्रभू की सिफॅतसालाह करता है, वही है पंडित, और, वह ज्ञानावस्था में टिका रहता है।

पर पंडित लोगों को तो ये विचार मिला हुआ है (कि अक्षर जोड़ के औरों को सुना देते हैं), ज्ञानवान लोगों के लिए (ये अक्षर) तत्व के विचार का वसीला हैं।

कबीर कहता है– जिस जीव के अंदर जैसी बुद्धि होती है, वह (इन अक्षरों के द्वारा भी) वही कुछ समझेगा (भाव, पुस्तकें लिख-पढ़ के आत्मिक जीवन को जानने वाला हो जाना जरूरी नहीं है)।45।

ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ रागु गउड़ी थितीं कबीर जी कीं ॥

नोट: शब्द ‘थिंती’ और ‘कीं’ में ( ं ) मात्रा का फर्क ध्यान से देखें। सतिगुरू जी के समय ( ी) के साथ ( ं ) बरती जाती थी। ( ी) की मात्रा बिंदी से पहले भी इस्तेमाल होती थी और बाद में भी।

नोट: हमारे देश में सूरज और चाँद, दोनों के अनुसार साल के महीनों व दिनों की गिनती की जाती है। सूरज 12 राशियों में से गुजरता है। जब नई राशि में पहुँचता है, नया महीना चढ़ता है। चंद्रमा के बढ़ने–घटने के हिसाब से दिनों को ‘थित’ कहा जाता है, संस्कृत में शब्द है ‘तिथि’। चंद्रमा के हिसाब से हरेक महीने के दो हिस्से, दो पक्ष, होते हैं– अंधेरा पक्ष (कृष्ण पक्ष) व उजाला पक्ष (शुक्ल पक्ष)। मसिया (अमावस, जिस रात पूरी तरह अंधेरा होता है और चाँद बिल्कुल नहीं दिखता) से आगे प्रकाश पक्ष शुरू होता है, क्योंकि चंद्रमा हर रोज बढ़ता जाता है। पूरनमाशी तक शुक्ल पक्ष होता है। इसके बाद चाँद घटने लग जाता है, इसे अंधेरा पक्ष कहते हैं। कम होता होता अमावस को बिल्कुल छुप जाता है। अमावस से आगे नीचे लिखे अनुसार दिनों (तिथियों) के नाम आते हैं;

एकम, दूज, तीज, चौथ, पंचमी, छट, सतमी, अष्टमी, नौमी, दसमी, इकादशी, द्वादशी, त्रियोदशी, चौदस, पूरनमाशी।

इसी तरह पूरनमाशी के आगे एकम से लेकर अमावस तक यही ‘थितियां’ हैं।

अंधेरे पक्ष की थितिओं को ‘वदी’ और उजाले पक्ष की थितियों को ‘सुदी’ कहते हैं; जैसे ‘जेठ सुदी चौथ’ का भाव है ‘जेठ के महीने की अमावस से आगे चौथा दिन’। वदी सुदी वाले महीने ‘वदी’ पक्ष से शुरू होते हैं, पूरनमासी से अगले दिन।

हिन्दू लोग इन थितियों पे वर्त रखते हैं, और शास्त्रों के बताए कर्म-काण्ड अनुसार और कई किस्म के कर्म-धर्म करते हैं, जैसे एकादशी आदि थितियों पे वर्त रखे जाते हैं, वैसे ही इन सातों वारों के साथ भी कई तरह के कर्म-धर्म का संबंध बनाया गया है। ये ‘वार’ देवी-देवताओं अथवा ‘तारों’ के नामों के साथ संबंध रखते हैं। मंगलवार देवी का वार समझा जाता है, शनिवार शनि देवते का दिन है।

कभी किसी कर्म-काण्डी हिन्दू के पास चार दिन रह के देखो, तो उसके रोजाना कर्तव्य से पता चलेगा कि इन थितियों और वारों के द्वारा कर्म-काण्ड का खासा जाल बिछा हुआ है, तगड़े वहिम-भरम बने हुए हैं।

कबीर जी इस बाणी के माध्यम से उपदेश करते हैं कि इन ‘थितियों-वारों’ के वहिम-भरम को छोड़ के सदा परमात्मा की भगती करो। पर करतार के रंग! गुरू अरजन साहिब की बाणी ‘बारहमाह’ और कबीर जी के इस ‘थिति’ को पढ़ते हुए हम लोग भी मसिआ और पंचमी को खास महत्वता देते हैं, संगरांद को बाकी दिनों से ज्यादा पवित्र दिन मानते हैं ।

(नोट: इस बारे पढ़ो मेरी पुस्तक ‘बुराई का टाकरा’ में मेरा लेख ‘संगरांद’)।

सलोकु ॥ पंद्रह थितीं सात वार ॥ कहि कबीर उरवार न पार ॥ साधिक सिध लखै जउ भेउ ॥ आपे करता आपे देउ ॥१॥ {पन्ना 343}

नोट: जैसे ‘सुखमनी’ के हरेक ‘श्लोक’ में जो भाव है, ‘अष्टपवदी’ में उसी की ही व्याख्या की गई है। वैसे ही कबीर जी ने इस ‘शलोक’ में मुख्य भाव दिया है, आगे ‘थिंती’ की पउड़ियों में उसका विस्तार है। पर इन पौड़ियों में एक ‘बंद’ रहाउ का भी है। ‘रहाउ’ इस सारी बाणी या शबद का तत्व (केन्दिय भाव) होता है। इस नियम के मुताबिक यहाँ रहाउ और पहले शलोक का केन्द्रिय भाव एक ही है। ‘रहाउ’ में लिखा है;

चरन कमल गोबिंद रंगु लागा॥ संत प्रसादि भऐ मन निरमल, हरि कीरतन महि अनदिनु जागा॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: कहि = कहे, कहता है। उरवार न पार = जिस प्रभू का ना इस पार ना उस पार का छोर दिखता है, जो परमात्मा बेअंत है। साधिक = सिफत सालह की साधना करने वाले। सिध = पहुँचे हुए, जो प्रभू चरणों में जुड़ चुके हैं। भेउ = भेद। करता = करतार। देउ = प्रकाश स्वरूप प्रभू। आपे = खुद ही खुद, हर जगह व्यापक।

अर्थ: (भरमी या भ्रमित लोग तो वर्त आदि रख के) पंद्रह तिथियां और सात वार (मनाते हैं), पर कबीर (इन तिथयों-वारों द्वारा हर रोज) उस परमात्मा की सिफत सालाह करता है जो बेअंत है। सिफत सालाह की साधना करने वाला जो भी मनुष्य उस प्रभू का भेत पा लेता है (भाव, गहरा अपनत्व उसके साथ बना लेता है) उसको प्रकाश-स्वरूप करतार ही करतार हर जगह दिखाई देता है।1।

थितीं ॥ अमावस महि आस निवारहु ॥ अंतरजामी रामु समारहु ॥ जीवत पावहु मोख दुआर ॥ अनभउ सबदु ततु निजु सार ॥१॥ {पन्ना 343}

पद्अर्थ: निवारहु = दूर करो। अंमावस महि = मसिआ वाले दिन। समारहु = याद करो, सिमरो। मोख = मुक्ति, वहिम भरमों से खलासी। अनभउ = (संस्कृत: अनुभव = Direct perception or cognition, knowledge derived from personal observation) वह सूझ जो धार्मिक पुस्तकों को पढ़ने से नहीं बल्कि सीधे प्रभू = चरणों में जुड़ने से हासिल होती है। सबदु = सतिगुरू का शबद। ततु = असल, तत्व। निजु = सिर्फ अपना। सार = श्रेष्ठ। निजु सार ततु = निरोल अपना श्रेष्ठ असल।

अर्थ: अमावस वाले दिन (व्रत, तीर्थ-स्नान आदि और कर्म-काण्ड) की आशाएं दूर करो, घट-घट के जानने वाले सर्व-व्यापक परमात्मा को हृदय में बसाओ। (तुम इन तिथियों से जुड़े हुए कर्म-काण्ड करके मरने के बाद मुक्ति की आस रखते हो, पर अगर परमात्मा का सिमरन करोगे तो) इसी जनम में (विकारों, दुखों और वहिम-भरमों से) मुक्ति हासिल कर लोगे। (इस सिमरन की बरकति से) तुम्हारा निरोल असल जगमगा उठेगा (अपना स्वतंत्र अस्तित्व निखर आएगा), सतिगुरू का शबद अनुभवी रूप में प्रगट हो जाएगा।1।

चरन कमल गोबिंद रंगु लागा ॥ संत प्रसादि भए मन निरमल हरि कीरतन महि अनदिनु जागा ॥१॥ रहाउ ॥ {पन्ना 343}

पद्अर्थ: रंगु = प्यार। संत प्रसादि = गुरू की कृपा से। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। जागा = जागता रहता है, विकारों से सुचेत रहता है।

अर्थ: जिस मनुष्य का प्यार गोबिंद के सुंदर चरणों के साथ बन जाता है, गुरू की कृपा से उसका मन पवित्र हो जाता है। परमात्मा की सिफत सालाह में जुड़ के वह मनुष्य विकारों से हर समय सुचेत रहता है।

परिवा प्रीतम करहु बीचार ॥ घट महि खेलै अघट अपार ॥ काल कलपना कदे न खाइ ॥ आदि पुरख महि रहै समाइ ॥२॥ दुतीआ दुह करि जानै अंग ॥ माइआ ब्रहम रमै सभ संग ॥ ना ओहु बढै न घटता जाइ ॥ अकुल निरंजन एकै भाइ ॥३॥ त्रितीआ तीने सम करि लिआवै ॥ आनद मूल परम पदु पावै ॥ साधसंगति उपजै बिस्वास ॥ बाहरि भीतरि सदा प्रगास ॥४॥ {पन्ना 343}

पद्अर्थ: परवा = (संस्कृत: पर्वन् = the day of the new moon) एकम थिति। अघट = अ+घट, जो शरीर रहित है, जो शरीरों की कैद में नहीं है। अपार = अ+पार, बेअंत। कलपना = चिंता फिक्र।2।

रहै समाइ = लीन रहता है। अंग = हिस्से। दुह = दो। रमै = मौजूद है, व्यापक है। ऐकै भाइ = एक सार, एक समान, एक जैसा।3।

सम करि = समान करके। पदु = दरजा, अवस्था। परम पदु = सबसे उच्च आत्मिक अवस्था। आनद मूल = आनंद का श्रोत। बिस्वास = विश्वास, यकीन, भरोसा, श्रद्धा। प्रगास = प्रकाश, रोशनी।4।

अर्थ: जो परमात्मा शरीरों की कैद में नहीं आता, बेअंत है, और (फिर भी) हरेक शरीर में खेल रहा है (हे भाई!) उस प्रीतम (के गुणों) का विचार करो (उस प्रीतम की सिफत सालाह करो, जो मनुष्य प्रभू-प्रीतम की सिफत सालाह करता है) उसे कभी मौत का डर नहीं सताता (क्योंकि) वह सदा सब के सिरजने वाले अकाल पुरख में जुड़ा रहता है।2।

(वह मनुष्य ये समझ लेता है कि जगत निरा प्रकृति नहीं है, वह इस संसार के) दो अंग समझता है–माया और ब्रहम। ब्रहम (इस माया में) हरेक के साथ बस रहा है, वह कभी घटता-बढ़ता नहीं है, सदा एक जैसा ही रहता है, उसका कोई खास कुल नहीं है, वह निरंजन है (भाव, ये माया उस पर अपना प्रभाव नहीं डाल सकती)।3।

(प्रभू की सिफत सालाह करने वाले मनुष्य) माया के तीन गुणों को सहज अवस्था में समान रखता है (भाव, वह इन गुणों में कभी नहीं डोलता), वह मनुष्य सबसे उच्च आत्मिक अवस्था को हासिल कर लेता है जो आनंद का श्रोत है; सत्संग में रहके उस मनुष्य के अंदर ये यकीन पैदा हो जाता है कि अंदर-बाहर हर जगह सदा प्रभू का ही प्रकाश है।4।

चउथहि चंचल मन कउ गहहु ॥ काम क्रोध संगि कबहु न बहहु ॥ जल थल माहे आपहि आप ॥ आपै जपहु आपना जाप ॥५॥ {पन्ना 343}

पद्अर्थ: चउथहि = चौथी तिथि को। कउ = को। गहहु = पकड़ के रखो, वश में लाओ। संगि = साथ। बहहु = बैठो। माहे = में। आपहि आप = खुद ही खुद, स्वयं ही। आपै = उस ‘स्वयं’ में ही, उसकी ज्योति में। आपना जापु = वह जाप जो तुम्हारे काम आएगा।

अर्थ: चौथी तिथि को (किसी कर्म-धर्म की जगह) इस चंचल मन को पकड़ के रखो, कभी काम-क्रोध की संगति में ना बैठो। जो परमात्मा जल में धरती पर (हर जगह) स्वयं ही स्वयं व्यापक है, उसकी ज्योति में जुड़ के वह नाम जपो जो तुम्हारे काम आने वाला है।5।

पांचै पंच तत बिसथार ॥ कनिक कामिनी जुग बिउहार ॥ प्रेम सुधा रसु पीवै कोइ ॥ जरा मरण दुखु फेरि न होइ ॥६॥ {पन्ना 343}

पद्अर्थ: पांचै = पाँचवीं तिथि को, पंचमी को (ये याद रखो)। बिसथार = विस्तार, पसारा, खिलारा। कनिक = सोना, धन। कामिनी = स्त्री। जुग = दोनों में। बिउहार = व्यवहार, व्यस्तता। सुधा = अंमृत। कोइ = कोई, विरला, दुर्लभ। जरा = बुढ़ापा।

अर्थ: ये जगत पाँच तत्वों से ( एक खेल सा) बना है (जो चार दिन में खत्म हो जाता है, पर ये बात भूल के ये जीव) धन और स्त्री दोनों की व्यस्तता में मस्त हो रहा है। यहाँ कोई दुर्लभ ही मनुष्य है जो परमात्मा के प्रेम अमृत का घूट पीता है, (जो पीता है) उसे फिर बुढ़ापे और मौत का सहम दुबारा कभी नहीं व्यापता।6।

छठि खटु चक्र छहूं दिस धाइ ॥ बिनु परचै नही थिरा रहाइ ॥ दुबिधा मेटि खिमा गहि रहहु ॥ करम धरम की सूल न सहहु ॥७॥ {पन्ना 343}

पद्अर्थ: छठि = छेवीं, छेवीं तिथि। खटु चक्र = पाँच ज्ञानेंद्रियां और छेवां मन। छहूं दिस = छेयों दिशाओं में (चार तरफ और ऊपर नीचे) (भाव,) सारे संसार में। धाइ = भटकता है। बिनु परचै = प्रभू में पतीजे बिना, प्रभू में जुड़े बिना। दुबिधा = दुचिक्तापन, भटकना। खिमा = धीरज, जिरांद। गहि रहहु = धारण करो। सूल = दुख, कज़ीआ।

अर्थ: मनुष्य की पाँचों ज्ञानेंद्रियां और छेवां मन- ये सारा साथ संसार (के पदार्थों की लालसा) में भटकता फिरता है, जब तक मनुष्य प्रभू की याद में नहीं जुड़ता, तब तक ये सारा साथ (इस भटकना में से हट के) टिकता नहीं।

हे भाई! भटकना मिटा के धीरज धारण करो और छोड़ो कर्मों-धर्मों का ये लम्बा टंटा (जिससे कुछ भी हाथ आने वाला नहीं है)।7।

सातैं सति करि बाचा जाणि ॥ आतम रामु लेहु परवाणि ॥ छूटै संसा मिटि जाहि दुख ॥ सुंन सरोवरि पावहु सुख ॥८॥ {पन्ना 343}

पद्अर्थ: बाचा = गुरू के वचन। सति करि जाणि = सच्चे समझ, पूरी श्रद्धा धार। आतम रामु = परमात्मा। लेहु परवाणि = परो लो। छूटै = दूर हो जाता है। संसा = सहिसा, सहम। सुंन = शून्य, वह अवस्था जहाँ सहम आदि कोई फुरने नहीं उठते। सरोवरि = सरोवर में।

अर्थ: हे भाई! सतिगुरू की बाणी में श्रद्धा धारो। (इस बाणी के माध्यम से) परमात्मा (के नाम) को (अपने हृदय में) परो लो। (इस तरह) सहम दूर हो जाएगा, दुख-कलेश मिट जाएंगे, उस सरोवर में चुभ्भी लगा सकोगे, जहाँ सहम आदि कोई फुरने नहीं उठते और सुख भोगो।

असटमी असट धातु की काइआ ॥ ता महि अकुल महा निधि राइआ ॥ गुर गम गिआन बतावै भेद ॥ उलटा रहै अभंग अछेद ॥९॥ {पन्ना 343}

पद्अर्थ: असट = आठ। असट धातु = आठों धातें (रस, रुधिर, मास, मेधा, अस्थि, मिझ, वीर्य, नाड़ी)। अकुल = अ+कुल, जिसका कोई खास कुल नहीं। महा निधि = बड़ा खजाना, सब गुणों का खजाना। गुर गम गिआन = पहुँच वाले गुरू का ज्ञान। उलटा = देह अध्यास से पलट के, शारि रिक मोह त्याग के। अभंग = (अ+भंग) अविनाशी। अछेद = (अ+छेद) जो छेदा ना जा सके।

अर्थ: ये शरीर (लहू आदि) आठ धातों का बना हुआ है, इसमें वह परमात्मा बस रहा है जिसकी कोई खास कुल नहीं है, जो सब गुणों का खजाना है। जिस मनुष्य को पहुँच वाले गुरू का ज्ञान ये भेद (कि शरीर में ही है प्रभू) बताता है, वह शारीरिक मोह से विरक्त हो के अविनाशी प्रभू में जुड़ा रहता है।9।

नउमी नवै दुआर कउ साधि ॥ बहती मनसा राखहु बांधि ॥ लोभ मोह सभ बीसरि जाहु ॥ जुगु जुगु जीवहु अमर फल खाहु ॥१०॥ दसमी दह दिस होइ अनंद ॥ छूटै भरमु मिलै गोबिंद ॥ जोति सरूपी तत अनूप ॥ अमल न मल न छाह नही धूप ॥११॥ {पन्ना 343-344}

पद्अर्थ: साधि = (राखहु) साध के, वश में रखो। बहती मनसा = चलते विचार। बांधि = रोक के। जुग जुग = सदा ही। अमर = (अ+मर) कभी ना मरने वाला।10।

दह दिसि = दसों दिशाओं में, हर तरफ, सारे संसार में। जोति सरूपी = वह प्रभू जो ज्योति स्वरूप है, वह प्रभू जो निरा नूर ही नूर है। तत = असल, सबका आदि। अनूप = जिस जैसा और कोई नहीं। अमल = अ+मल, मैल रहित, वकिार रहित। छाह = अंधेरा, अज्ञानता का अंधकार। धूप = धूप, विकारों की गरमी।11।

नोट: बंद 10, 11, 12, 13 और 14 का सांझा भाव है– जो 10 से आरम्भ हो के 14 पर समाप्त होता है।

अर्थ: ( हे भाई! ) सारी शारीरिक इंद्रियों को काबू में रखो, इनसे उठते फुरनों को रोको, लोभ-मोह आदि सारे विकारों को भुला दो। (इस मेहनत का) ऐसा फल मिलेगा जो कभी खत्म नहीं होगा। ऐसा सुंदर जीवन जीओगे जो सदा कायम रहेगा।10।

(इस उद्यम से) मन की भटकना दूर हो जाती है; वह परमात्मा मिल जाता है, जो निरा नूर ही नूर है, जो सारे जगत का असल है। जिस जैसा और कोई नहीं है, जिसमें विकारों की कोई भी मैल नहीं है, ना उसमें अज्ञानता का अंधकार है और ना ही तृष्णा आदि विकारों की आग है। (ऐसे परमात्मा के साथ मेल होने से) सारे संसार में ही मनुष्य के लिए आनंद ही आनंद होता है।11।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh