श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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आसा महला ४ ॥ सो पुरखु निरंजनु हरि पुरखु निरंजनु हरि अगमा अगम अपारा ॥ सभि धिआवहि सभि धिआवहि तुधु जी हरि सचे सिरजणहारा ॥ सभि जीअ तुमारे जी तूं जीआ का दातारा ॥ हरि धिआवहु संतहु जी सभि दूख विसारणहारा ॥ हरि आपे ठाकुरु हरि आपे सेवकु जी किआ नानक जंत विचारा ॥१॥ {पन्ना 348}

पद्अर्थ: सो = वह। पुरखु = जो हरेक शरीर में व्यापक है। निरंजनु = निर+अंजन (अंजन = कालिख़, माया) जिस पे माया का प्रभाव नहीं है। अगम = अ+गम (गम = पहुँच) पहुँच से परे। अपार = (अ+पार) जिसका दूसरा छोर ना मिल सके, बेअंत। सभि = सारे जीव। सिरजणहार = हे करतार! दातार = राज़क। ठाकुरु = मालिक।1।

अर्थ: वह परमात्मा सब जीवों में व्यापक है, (फिर भी) माया के प्रभाव से ऊपर है, अपहुँच है और बेअंत है।

हे सदा कायम रहने वाले और सब जीवों को पैदा करने वाले हरी! सारे जीव-जंतु तुझे सिमरते हैं। सारे जीव तेरेही पैदा किए हुए हैं, तू सब जीवों को रिज़क देने वाला है।

हे संत जनों! उस प्रभू को सिमरो, वह सारे दुखों का नाश करने वाला है। वह प्रभू (जीवों में व्यापक होने के कारण) खुद ही मालिक है और खुद ही सेवक है।

हे नानक! जीव बिचारे क्या हैं? (भाव, जीवों की उस प्रभू से कोई अलग हस्ती नहीं)।1।

तूं घट घट अंतरि सरब निरंतरि जी हरि एको पुरखु समाणा ॥ इकि दाते इकि भेखारी जी सभि तेरे चोज विडाणा ॥ तूं आपे दाता आपे भुगता जी हउ तुधु बिनु अवरु न जाणा ॥ तूं पारब्रहमु बेअंतु बेअंतु जी तेरे किआ गुण आखि वखाणा ॥ जो सेवहि जो सेवहि तुधु जी जनु नानकु तिन्ह कुरबाणा ॥२॥ {पन्ना 348}

पद्अर्थ: घट = शरीर। अंतरि = अंदर। घट घट अंतरि = हरेक शरीर के अंदर। निरंतरि = अंदर एक रस। इकि = (सर्वनाम ‘एक’ का बहुवचन) कई जीव। चोज = तमाशे, करिश्मे। विडाणा = आश्चर्य। भुगता = भोगने वाला, खाने वाला। आखि = कह के। वखाणा = मैं बताऊँ।2।

अर्थ: हे हरी! तू हरेक शरीर में व्यापक है, तू सब जीवों में एक रस मौजूद है, तू एक स्वयं ही सब जीवों में समाया हुआ है। (फिर भी) कई जीव दानी हैं, कई जीव मंगते हैं–ये तेरे ही आश्चर्यजनक तमाशे हैं (क्योंकि असल में) तू खुद ही दातें देने वाला है, और खुद ही (उन दातों को) बरतने वाला है। (सारी सृष्टि में) मैं तेरे बिना किसी और को नहीं जानता (भाव, तेरे बिना और कोई दूसरा नहीं दिखता)। मैं तेरे कौन-कौन से गुण कह के बताऊँ? तू बेअंत पारब्रहम है, तू बेअंत पारबंहम है। हे प्रभू! जो तुझे याद करते हैं जो तुझे सिमरते हैं, दास नानक उनसे सदके जाता है।2।

हरि धिआवहि हरि धिआवहि तुधु जी से जन जुग महि सुख वासी ॥ से मुकतु से मुकतु भए जिन्ह हरि धिआइआ जीउ तिन टूटी जम की फासी ॥ जिन निरभउ जिन्ह हरि निरभउ धिआइआ जीउ तिन का भउ सभु गवासी ॥ जिन्ह सेविआ जिन्ह सेविआ मेरा हरि जीउ ते हरि हरि रूपि समासी ॥ से धंनु से धंनु जिन हरि धिआइआ जीउ जनु नानकु तिन बलि जासी ॥३॥ {पन्ना 348}

पद्अर्थ: से जन = वही मनुष्य (बहुवचन)। जुग महि = जिंदगी में। सुख वासी = सुखसे रहने वाले। मुकतु = (माया के बंधनों से) आजाद। रूपि = रूप में। समासी = लीन हो जाते हैं। धंनु = धन्य, भाग्यशाली।3।

अर्थ: हे हरी! जो मनुष्य तुझे सिमरते हैं, जो तुझे ध्याते हैं, वो अपनी जिंदगी में सुखी बसते हैं।

जिन मनुष्यों ने हरी का नाम सिमरा है, वे सदा के लिए माया के बंधनों से आजाद हो गए हैं, उनकी जमों वाली फाही कट गई है। जिन्होंने निरभउ प्रभू को ध्याया है प्रभू उनका सारा डर दूर कर देता है। जिन्होंने प्यारे प्रभू को सिमरा है, वे प्रभू के स्वरूप् में ही लीन हो गए हैं। भाग्यशाली हैं वे मनुष्य, धन्य हैं वे मनुष्य, जिन्होंने प्रभू को ध्याया है, दास नानक उनसे कुर्बान जाता है।3।

तेरी भगति तेरी भगति भंडार जी भरे बेअंत बेअंता ॥ तेरे भगत तेरे भगत सलाहनि तुधु जी हरि अनिक अनेक अनंता ॥ तेरी अनिक तेरी अनिक करहि हरि पूजा जी तपु तापहि जपहि बेअंता ॥ तेरे अनेक तेरे अनेक पड़हि बहु सिम्रिति सासत जी करि किरिआ खटु करम करंता ॥ से भगत से भगत भले जन नानक जी जो भावहि मेरे हरि भगवंता ॥४॥ {पन्ना 348}

पद्अर्थ: भगति भंडार = भगती के खजाने। भगत = बंदगी करने वाले।

(नोट: शब्द ‘भगति’ और ‘भगत’ में फर्क याद रखने योग्य है)।

अनिक = अनेकों। तपु = धूणियों आदि का शारीरिक हठ। सिम्रिति = समृति, वह धार्मिक पुस्तक जो हिन्दू विद्वान ऋषियों ने वेदों को याद करके अपने समाज की अगुवाई के लिए लिखे, इनकी गिनती 27 के करीब है। सासत = शास्त्र, हिन्दू धर्म की फिलासफ़ी की पुस्तकें जो गिनती में छह हैं– सांख, योग, न्याय, विशैषिक, मीमांसा और वेदांत। किरिआ = क्रिया, धार्मिक संस्कार। खटु = छे। खटु करम = मनु = स्मृति के अनुसार ये छे कर्म यूँ हैं– पढ़ना, पढ़ाना, यज्ञ करना, यज्ञ कराना, दान देना, दान लेना। करंता = करते हैं। भावहि = अच्छे लगते हैं।4।

अर्थ: हे प्रभू! तेरी भगती के बेअंत खजाने भरे पड़े हैं। हे हरी! अनेकों और बेअंत तेरे भगत तेरी सिफत सालाह करते हैं। हे प्रभू! अनेकों जीव तेरी पूजा करते हैं, बेअंत जीव (तेरे मिलाप के लिए) तपसाधना करते हैं। तेरे अनेकों सेवक कई समृतियां व शास्त्र पढ़ते हैं, (और उनके बताए हुए) छे धार्मिक कर्म और अन्य कर्म करते हैं।

हे दास नानक! वो भगत भले हैं (अर्थात, उनकी मेहनत सफल हुई जानो) जो प्यारे हरि भगवंत को प्यारे लगते हैं।4।

तूं आदि पुरखु अपर्मपरु करता जी तुधु जेवडु अवरु न कोई ॥ तूं जुगु जुगु एको सदा सदा तूं एको जी तूं निहचलु करता सोई ॥ तुधु आपे भावै सोई वरतै जी तूं आपे करहि सु होई ॥ तुधु आपे स्रिसटि सभ उपाई जी तुधु आपे सिरजि सभ गोई ॥ जनु नानकु गुण गावै करते के जी जो सभसै का जाणोई ॥५॥२॥ {पन्ना 348}

पद्अर्थ: अपरंपर = (अ+परंपर) जिसके परले छोर से भी परला छोर ना मिल सके, बेअंत। जेवडु = जितना कि, बराबर का। जुगु जुगु = हरेक युग में। निहचलु = ना हिलने वाला, सदा स्थिर। वरतै = बर्तता है, होता है। सिरजि = पैदा करके। गोई = नाश कर दी। जाणोई = जानने वाला।5।

अर्थ: हे प्रभू! तू सबका मूल है, सब में व्यापक है, बेअंत है, सबको पैदा करने वाला है, तेरे बराबर का कोई नहीं है। तू हरेक युग में खुद ही है, तू सदा एक स्वयं ही है, तू सदा कायम रहने वाला है, सबका पैदा करने वाला है और सबकी सार लेने वाला है। जगत में वही कुछ होता है जो तुझे खुद को पसंद है, वही होता है जो तू स्वयं ही करता है। (हे प्रभू!) सारी सृष्टि तूने खुद ही पैदा की है, तू खुद ही पैदा करके खुद ही नाश करता है।

दास नानक उस करतार के गुण गाता है, जो हरेक के दिल की जानने वाला है।5।2।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh