श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 347 ੴ सति नामु करता पुरखु निरभउ निरवैरु रागु आसा महला १ घरु १ सो दरु ॥ सो दरु तेरा केहा सो घरु केहा जितु बहि सरब सम्हाले ॥ वाजे तेरे नाद अनेक असंखा केते तेरे वावणहारे ॥ केते तेरे राग परी सिउ कहीअहि केते तेरे गावणहारे ॥ {पन्ना 347} पद्अर्थ: केहा = कैसा, बड़ा आश्चर्य भरा। दरु = दरवाजा। जितु = जहां। बहि = बैठ के। सरब = सारे जीवों को। समाले = तूने संभाल की है। नाद = आवाज, शबद, राग। वावणहारे = बजाने वाले। परी = रागिनी। सिउ = समेत। परी सिउ = रागनियों समेत। कहीअहि = कहे जाते हैं। अर्थ: वह दर बड़ा ही आश्चर्य भरा है, जहाँ बैठ के (हे निरंकार!) तू सारे जीवों की संभाल कर रहा है। (तेरी इस रची हुई कुदरति में) अनेकों व अनगिनत बाजे और राग हैं, बेअंत ही जीव (उन बाजों को) बजाने वाले हैं। रागनियों समेत बेअंत ही राग कहे जाते हैं और अनेकों ही जीव (इन रागों के) गाने वाले हैं (जो तुझे गा रहे हैं)। गावन्हि तुधनो पउणु पाणी बैसंतरु गावै राजा धरम दुआरे ॥ गावन्हि तुधनो चितु गुपतु लिखि जाणनि लिखि लिखि धरमु वीचारे ॥ {पन्ना 347} पद्अर्थ: राजा धरम = धर्म राज। दुआरे = तेरे दर पे (हे निरंकार!)। चितु गुपतु = वो व्यक्ति जो संसार के जीवों के अच्छे-बुरे कर्मों का लेखा लिखते हैं (हिंदू मत की पुस्तकों में ये ख्याल चला आ रहा है)। धरमु = धर्म राज। लिखि लिखि = लिख लिख के, जो कुछ वे चित्रगुप्त लिखते हैं। बैसंतरु = आग। अर्थ: (हे निरंकार!) हवा, पानी, आग तेरे गुण गा रहे हैं। धर्मराज तेरे दर पे (खड़ा हो के) तेरी उपमा गा रहा है। वह चित्रगुप्त भी जो (जीवों के अच्छे-बुरे कर्मों के लेख) लिखने जानते हैं और जिनके द्वारा लिखेलेख धर्मराज विचारता है, तेरी महिमा का गुणगान कर रहे हैं। गावन्हि तुधनो ईसरु ब्रहमा देवी सोहनि तेरे सदा सवारे ॥ गावन्हि तुधनो इंद्र इंद्रासणि बैठे देवतिआ दरि नाले ॥ {पन्ना 347} पद्अर्थ: ईसरु = शिव। देवी = देवियां। सोहनि = सोहाते हैं, शोभयमान होते हैं। इंद्रासणि = इन्द्र के आसन पे। देवतिआ नाले = देवताओं समेत। अर्थ: (हे अकाल-पुरख!) देवियां, शिव और ब्रहमा जो तेरे सवारे हुए हैं और शोभायमान हैं, तूझे गा रहे हैं। कई इन्द्र अपने सिंहासन पर बैठे हुए देवताओं सहित तेरे दर पे तूझे सालाह रहे हैं। गावन्हि तुधनो सिध समाधी अंदरि गावन्हि तुधनो साध बीचारे ॥ गावन्हि तुधनो जती सती संतोखी गावनि तुधनो वीर करारे ॥ {पन्ना 347} पद्अर्थ: समाधी अंदरि = समाधि में जुड़ के, समाधी लगा के। सिध = पुरातन संस्कृत पुस्तकों में सिद्ध वो व्यक्ति माने गए हैं जो मनुष्यों की श्रेणी से ऊपर देवाताओं से नीचे थे। ये सिद्ध पवित्रता के पुँज थे, और आठों ही सिद्धियों के मालिक समझे जाते थे। बीचारे = विचार-विचार के। सती = दानी, दान करने वाला। वीर करारे = जबरदस्त सूरमे, शूरवीर। अर्थ: सिद्ध लोग समाधियां लगा के तुझे गा रहे हैं, साधु विचार कर-कर के तुझे सलाह रहे हैं। जटाधारी, दानी और संतोषी पुरुष तेरे गुण गा रहे हैं, और (बेअंत) महान शूरवीर तेरी महिमा गा रहे हैं। गावनि तुधनो पंडित पड़े रखीसुर जुगु जुगु बेदा नाले ॥ गावनि तुधनो मोहणीआ मनु मोहनि सुरगु मछु पइआले ॥ {पन्ना 347} पद्अर्थ: पढ़े = पढ़े हुए। रखीसुर = (ऋषि+ईसुर) बड़े बड़े ऋषि, महर्षि। जुग जुग = हरेक युग में, सदा। बेदा नाले = वेदों समेत। मोहणीआं = सुंदर सि्त्रयां। मनु मोहनि = (जो) मन को मोहती हैं। मछु = मात्र लोक। पइआले = पाताल लोक। अर्थ: (हे अकाल पुरख!) पढ़े हुए पण्डित और महाऋषि वेदों समेत तुझे गा रहे हैं। मन को मोहने वाली सुंदर सि्त्रयां तुझे गा रही हैं। स्वर्ग लोक, मात लोक, पाताल लोक तुझे गा रहे हैं। गावन्हि तुधनो रतन उपाए तेरे जेते अठसठि तीरथ नाले ॥ गावन्हि तुधनो जोध महाबल सूरा गावन्हि तुधनो खाणी चारे ॥ गावन्हि तुधनो खंड मंडल ब्रहमंडा करि करि रखे तेरे धारे ॥ {पन्ना 347} पद्अर्थ: उपाऐ तेरे = तेरे पैदा किए हुए। अठ सठि = अड़सठ। तीरथ नाले = तीर्थों समेत। जेते = जितने भी, सारे। जोधे = योद्धे। महाबल = महाबली, बड़े बल वाले। सूरा = सूरमे। खाणी चारे = चारों खाणियां: अंडज, जेरज, सेतज और उतभुज। खाणी = खान: जिसे खोद के अंदर से धातुएं व रत्न आदि पदार्थ निकाले जाएं। ये संस्कृत का शब्द है। धातु ‘खन’ है, जिसका अर्थ है: ‘खोदना’। (प्राचीन काल से ये ख्याल हिन्दू धर्म-पुस्तकों में चला आ रहा है कि जगत के सारे जड़-चेतन पदार्थों के बनने की चार खानें हैं– अण्डा, जिउर, पसीना और अपने आप उग पड़ना। चारे खाणी का भाव है चारों ही खानों के जीव जन्तु, सारी रचना)। खंड = टोटा, ब्रहमण्ड का टुकड़ा, हरेक धरती। मंडल = चक्र, ब्रहमाण्ड का एक चक्र, जिसमें एक सूरज, एक चंद्रमा और धरती आदि गिने जाते हैं। करि करि = बना के, रच के। धारे = टिकाए हुए। अर्थ: (हे निरंकार!) जितने भी तेरे पैदा किए हुए रत्न हैं, वे अढ़सठ तीर्थों समेत तुझे गा रहे हैं। महाबली योद्धे और शूरवीर तेरी सराहना कर रहे हैं। सारी सृष्टि, सृष्टि के सारे खण्ड और चक्र, जो तूने पैदा करके टिकाए हुए हैं; तुझे गाते हैं। सेई तुधनो गावन्हि जो तुधु भावन्हि रते तेरे भगत रसाले ॥ होरि केते तुधनो गावनि से मै चिति न आवनि नानकु किआ बीचारे ॥ {पन्ना 347} पद्अर्थ: सेई = वह जीव। तुधु भावनि = तुझेअच्छे लगते हैं। राते = रंगे हुए, प्रेम में माते हुए। रसाले = (रस+आलय) रसों के घर, रसिए। होरि केते = और कितने ही, अनेकों जीव। मै चिति = मेरे चित्त में। मै चिति न आवनि = मेरे चित्त में नहीं आते, मुझसे गिने नहीं जाते, मेरे ख्याल में नहीं आ रहे, मेरे विचार से परे हैं। किआ बीचारे = क्या विचार करे? अर्थ: (हे अकाल पुरख!) (दरअसल तो) वही तेरे प्रेम में रंगे हुए रसिए भगतजन तुझे गाते हैं (भाव, उनका ही गाना सफल है) जो तुझे अच्छे लगते हैं। अनेकों और जीव तुझे गा रहे हैं, जो मुझसे गिने भी नहीं जा सकते। (भला) नानक (बिचारा) क्या विचार कर सकता है? सोई सोई सदा सचु साहिबु साचा साची नाई ॥ है भी होसी जाइ न जासी रचना जिनि रचाई ॥ {पन्ना 347} पद्अर्थ: सचु = सदा स्थिर रहने वाला, अटॅल। नाई = (अरबी शब्द: स्ना) महिमा। होसी = होएगा, स्थिर रहेगा। जाइ न = पैदा नहीं होता। न जासी = ना ही मरेगा। जिनि = अकाल पुरख ने। रचाई = पैदा की है। अर्थ: जिस अकाल-पुरखु ने ये सृष्टि पैदा की है वह इस समय मौजूद है, सदा रहेगा, ना वह पैदा हुआ है ना ही मरेगा। वह परमात्मा सदा स्थिर है, वह सच्चा मालिक है, उसकी वडिआई महिमा भी सदा अटॅल है। रंगी रंगी भाती जिनसी माइआ जिनि उपाई ॥ करि करि देखै कीता अपणा जिउ तिस दी वडिआई ॥ {पन्ना 347} पद्अर्थ: रंगी रंगी = रंगों रंगों की, कई रंगों की। भाती = कई किस्मों की। जिनसी = कई जिनसों की। जिनि = जिस (परमात्मा) ने। देखै = संभाल करता है। कीता आपणा = अपना रचा हुआ जगत। जिउ = जैसे। वडिआई = रजा, मर्जी। अर्थ: जिस अकाल-पुरख ने कई रंग, किस्मों और जिनसों की माया रच दी है, वह वैसे उसकी रजा है (भाव, जितना बड़ा वह खुद है उतने बड़े जिगरे के साथ जगत को रच के) अपने पैदा किए हुए की संभाल भी कर रहा है। जो तिसु भावै सोई करसी फिरि हुकमु न करणा जाई ॥ सो पातिसाहु साहा पति साहिबु नानक रहणु रजाई ॥१॥१॥ {पन्ना 347-348} पद्अर्थ: करसी = करेगा। न करणा जाई = नहीं किया जा सकता। साहा पति = शाहों का शाह, शाहों का पति। रहणु = रहना (हो सकता है), रहना फबता है। रजाई = अकाल पुरख की रजा में। अर्थ: जो कुछ अकाल-पुरख को भाता है, वह ही वह करेगा। किसी जीव द्वारा परमात्मा को हुकम नहीं किया जा सकता (उसे ये नहीं कह सकता-ऐसे ना करो, ऐसे करो)। अकाल पुरख बादशाह है, शाहों का शाह है, मालिक है। हे नानक! (हमें) उसकी रजा में रहना (ही फबता है)। नोट: पवन, पानी, बैसंतर आदि अचेतन पदार्थ अकाल पुरख की सिफत सालाह कर रहे हैं? इस का भाव ये है कि उसके पैदा किए सारे तत्व भी उसकी रज़ा में चल रहे हैं। रजा में चलना उसकी सिफत सालाह करनी है। नोट: इस वाक़ के आखिरी अंक को देखें। इसकी संरचना की ओर ध्यान दें। ‘शबदों’ की तरह इसके अलग–अलग बंद नहीं हैं। सारी 22 तुकों का एक ही संग्रह है और आखिर में अंक 1 है। सारे गुरू ग्रंथ साहिब में तरतीब ये है कि पहले गुरू नानक देव जी के सारे शबद दर्ज हैं, फिर गुरू अमरदास जी के, गुरू रामदास जी और गुरू अरजन साहिब के। पर इस वाक़ से आगे गुरू रामदास जी का एक वाक़ है। उपरांत गुरू नानक देव जी के ‘शबद’ शुरू होते हैं जो गिनती में 39 हैं। इस वाक़ को उन शबदों की गिनती में नहीं रखा गया। सो, ये वाक़ ‘शबद’ नहीं है। इसका शीर्षक है ‘सोदरु’। गुरू रामदास जी का वाक़ है ‘सो पुरखु’। ये दोनों ‘सो दरु’ और ‘सो पुरखु’ अलग श्रेणी में रखे गए हैं। इस श्रेणी के बाद मूल–मंत्र नए सिरे से दर्ज है। इसका भी यही भाव है कि पहला संग्रह सम्पन्न हो गया है और अब दूसरा संग्रह आरम्भ होता है। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |