श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

Page 350

आसा महला १ ॥ जेता सबदु सुरति धुनि तेती जेता रूपु काइआ तेरी ॥ तूं आपे रसना आपे बसना अवरु न दूजा कहउ माई ॥१॥ साहिबु मेरा एको है ॥ एको है भाई एको है ॥१॥ रहाउ ॥ आपे मारे आपे छोडै आपे लेवै देइ ॥ आपे वेखै आपे विगसै आपे नदरि करेइ ॥२॥ जो किछु करणा सो करि रहिआ अवरु न करणा जाई ॥ जैसा वरतै तैसो कहीऐ सभ तेरी वडिआई ॥३॥ कलि कलवाली माइआ मदु मीठा मनु मतवाला पीवतु रहै ॥ आपे रूप करे बहु भांतीं नानकु बपुड़ा एव कहै ॥४॥५॥ {पन्ना 350}

पद्अर्थ: जेता = जितना ही (ये सारा)। सबदु = आवाज, बोलना। सुरति = सुनना। धुनि = जीवन-रौंअ। धुनि तेती = तेती (तेरी) धुनि, ये सारी तेरी ही जीवन रौंअ है। रूपु = दिखता आकार। काइआ = शरीर। रसना = रस लेने वाला। आपे = खुद ही। बसना = जिंदगी। कहउ = कहूँ, मैं कह सकूँ। माई = हे माँ!

ऐको = एक ही, सिर्फ।1। रहाउ।

वेखै = संभाल करता है। विगसै = खुश होता है।2।

न करणा जाई = किया नहीं जा सकता। वरतै = काम काज चलाता है। तैसो कहीअै = वैसा ही उसका नाम रखा जाता है।3।

कलि = कलियुगी स्वभाव। कलवाली = कलालन, शराब बेचने वाली। मदु = शराब। मतवाला = मस्त। बहु भांती = कई किस्मों के । बपुड़ा = बिचारा, अजिज़। ऐव = इस तरह।4।

(नोट: पहली तुक में ‘रूपु’ एकवचन है; दूसरी तुक में ‘रूप’ बहुवचन है)। ।

अर्थ: (हे प्रभू!) (जगत में) ये जितना बोलना और सुनना है (जितनी ये बोलने और सुनने की क्रिया है), ये सारी तेरी जीवन-लौअ (के सदके) है, ये जितना दिखाई देता आकार है, ये सारा तेरा ही शरीर है (तेरे स्वै का विस्तार है)। (सारे जीवों में व्यापक हो के) तू खुद ही रस लेने वाला है, तू खुद ही (जीवों की) जिंदगी है।

हे माँ! परमात्मा के बिना और कोई दूसरी हस्ती नहीं है जिसके प्रथाय मैं कह सकूँ (कि ये हस्ती परमात्मा के बराबर की है)।1।

हे भाई! परमात्मा ही हमारा एकमेव पति-मालिक है, बस! वही एक मालिक है, उस जैसा, और कोई नहीं है।1। रहाउ।

प्रभू खुद ही (सब जीवों को) मारता है खुद ही बचाता है, खुद ही (जिंद) ले लेता है खुद ही (जिंद) देता है। प्रभू स्वयं ही (सबकी) संभाल करता है, स्वयं ही (संभाल करके) खुश होता है, स्वयं ही (सब पर) मेहर की नजर करता है।2।

(जगत में) जो कुछ घटित हो रहा है (प्रभू से आक़ी हो के किसी और जीव द्वारा) कुछ नहीं किया जा सकता। जैसी कार्रवाही प्रभू करता है, वैसा ही उसका नाम पड़ जाता है।

(हे प्रभू!) ये जो कुछ दिखाई दे रहा है तेरी ही बुजुर्गीयत (का प्रकाश) है।3।

जैसे एक शराब बेचने वाली है उसके पास शराब है; शराबी आ के रोज पीता रहता है वैसे ही जगत में कलियुगी स्वभाव है (उसके असर तले) माया मीठी लग रही है, और जीवों का मन (माया में) मस्त हो रहा है– ऐ भांति-भांति के रूप भी प्रभू खुद ही बना रहा है (चाहे ये बात अलौकिक ही प्रतीत होती है; पर उस प्रभू को हर अच्छे-बुरे में व्यापक देख के) बिचारा नानक यही कह सकता है।4।5।

आसा महला १ ॥ वाजा मति पखावजु भाउ ॥ होइ अनंदु सदा मनि चाउ ॥ एहा भगति एहो तप ताउ ॥ इतु रंगि नाचहु रखि रखि पाउ ॥१॥ पूरे ताल जाणै सालाह ॥ होरु नचणा खुसीआ मन माह ॥१॥ रहाउ ॥ सतु संतोखु वजहि दुइ ताल ॥ पैरी वाजा सदा निहाल ॥ रागु नादु नही दूजा भाउ ॥ इतु रंगि नाचहु रखि रखि पाउ ॥२॥ भउ फेरी होवै मन चीति ॥ बहदिआ उठदिआ नीता नीति ॥ लेटणि लेटि जाणै तनु सुआहु ॥ इतु रंगि नाचहु रखि रखि पाउ ॥३॥ सिख सभा दीखिआ का भाउ ॥ गुरमुखि सुणणा साचा नाउ ॥ नानक आखणु वेरा वेर ॥ इतु रंगि नाचहु रखि रखि पैर ॥४॥६॥ {पन्ना 350}

पद्अर्थ: मति = श्रेष्ठ बुद्धि। पखावजु = जोड़ी, तबला। भाउ = प्रेम। अनंद = आत्मिक सुख। मनि = मन में। भगति = रास पानी। तप ताउ = तपकरना, तपना।

(नोट: ‘ऐहा’ और ‘ऐहो’ का फर्क याद रखने वाला है। ‘ऐहा’ विशेषण, स्त्रीलिंग है, ‘इहो’ विशेषण पुलिंग है)।

इतु = इस में। इतु रंगि = इस रंग में, इस मौज में। रखि रखि पाउ = पैर रख रख के, जीवन राह पर चल चल के।1।

पूरे ताल = ताल पूरता है, ताल के साथ नाचता है। सालाह = परमात्मा की सिफत सालाह। मन माह = मन के उमाह, मन के चाव।1। रहाउ।

सतु = दान, सेवा। ताल = छैणे। पैरी वाजा = घुंघरू। निहाल = प्रसन्न। दूजा भाउ = प्रभू के बिना और का प्यार।2।

फेरी = चक्कर, घूमना। चीति = चित्त में। नीता नीत = रोजाना, सदा ही। लेटणि = लेटनी, लेट के नाचना। लेटि = लेट के। सुआह = नाशवंत (राख की तरह)।3।

सिख सभा = सत्संग। दीखिआ = गुरू का उपदेश। भाउ = प्यार। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख रह के। आखणु = (नाम) जपना। वेरा वेर = बार बार।4।

अर्थ: जिस मनुष्य ने श्रेष्ठ बुद्धि को बाजा बनाया है, प्रभू के प्यार को तबला बनाया है (इन साजों के बजने से, श्रेष्ठ बुद्धि और प्रभू-प्रेम की बरकति से) उसके अंदर सदा आनंद बना रहता है, उसके मन में उत्साह रहता है। असल भक्ति यही है, और यही है महान तप। इस आत्मिक आनंद में टिके रहके सदैव जीवन राह पर चलो। बस! यही नृत्य करो (रासों में नाच-नाच के उसको कृष्ण लीला समझना भुलेखा है)।1।

जो मनुष्य परमात्मा की सिफत सालाह करनी जानता है वह (जीवन-नृत्य में) ताल में नाचता है (जीवन की सही राहों पर चलता है)। (रास आदि में कृष्ण मूर्ति के आगे ये) नाच और ही हैं निरी मन का परचावा मात्र हैं, मन के चाव हैं (ये भगती नहीं, ये तो मन के नचाए नाचना है)।1। रहाउ।

(ख़लकत की) सेवा, संतोख (वाला जीवन) - ये दोनों छेणैं बजें, सदा प्रसन्न मुद्रा में रहना- ये पैरों में घुंघरू (बजें); (प्रभू-प्रेम के बिना) कोई और लगन ना हो - ये (हर समय अंदर) राग व अलाप (होता रहे)। (हे भाई!) इस आत्मिक आनंद में टिको, इस जीवन-राह पर चलो। बस! ये नाच नाचो (भाव, इस तरह जीवन के आत्मिक हिलोरों का आनंद लो)।2।

उठते-बैठते सदा हर समय प्रभू का डर-अदब मन-चित्त में टिका रहे- नृत्य का ये चक्कर हो; अपने शरीर को मनुष्य नाशवंत समझे- ये लेट के नृत्यकारी हो। (हे भाई!) इस आनंद में टिके रहो; ये जीवन जीओ। बस! ये नाच नाचो (ये आत्मिक हिलोरे लो)।3।

सत्संग में रहके गुरू के उपदेश का प्यार (अपने अंदर पैदा करना); गुरू के सन्मुख रहके परमात्मा का अटल नाम सुनते रहना; परमात्मा का नाम बरंबार जपना- इस रंग में, हे नानक! टिको, इस जीवन-राह पर पैर धरो। बस! ये नाच नाचो (ये जीवन आनंद लो)।4।6।

आसा महला १ ॥ पउणु उपाइ धरी सभ धरती जल अगनी का बंधु कीआ ॥ अंधुलै दहसिरि मूंडु कटाइआ रावणु मारि किआ वडा भइआ ॥१॥ किआ उपमा तेरी आखी जाइ ॥ तूं सरबे पूरि रहिआ लिव लाइ ॥१॥ रहाउ ॥ जीअ उपाइ जुगति हथि कीनी काली नथि किआ वडा भइआ ॥ किसु तूं पुरखु जोरू कउण कहीऐ सरब निरंतरि रवि रहिआ ॥२॥ नालि कुट्मबु साथि वरदाता ब्रहमा भालण स्रिसटि गइआ ॥ आगै अंतु न पाइओ ता का कंसु छेदि किआ वडा भइआ ॥३॥ रतन उपाइ धरे खीरु मथिआ होरि भखलाए जि असी कीआ ॥ कहै नानकु छपै किउ छपिआ एकी एकी वंडि दीआ ॥४॥७॥ {पन्ना 350}

पद्अर्थ: पउणु = हवा। उपाइ = उपाई, पैदा की। धरी = टिकाई। बंधु = मेल। दहसिरि = दस सिर वाले ने, रावण ने। अंधुलै = अंधे ने, मूर्ख ने। मूंडु = सिर। मारि = मार के। किआ वडा भइआ = कौन सा बड़ा हो गया, बड़ा नहीं हो गया।1।

उपमा = महिमा। लिव लाइ = व्यापक हो के।1। रहाउ।

हथि कीनी = अपने हाथ में रखी हुई है। नथि = नाथ के, बस में करके। किसु = किस (स्त्री) का? पुरखु = पति। जोरू कउणु = कौन तेरी स्त्री? निरंतरि = (निर+अंतरि) बिना दूरी के, एक रस।2।

नालि = कमल फूल की नाली। कुटंबु = परिवार (कुटंबिनी = माँ, जननी)। साथि = साथ, पास। वरदाता = वर देने वाला, विष्णु। कंसु = राजा उग्रसेन का पुत्र, कृष्ण जी का मामा। इसे कृष्ण जी ने मार के पुनः उग्रसेन को सिंहासन पर बैठाया था।3।

उपाइ धरे = पैदा किए। खीरु = समुंद्र। मथिआ = मथा। (पुराणों की कथा है कि देवतों और दैत्यों ने मिल के समुंद्र मंथन किया था, उसमें से 14 रत्न निकले। बँटवारे के समय झगड़ा हो गया। विष्णु ने ये झगड़ा निपटाने के लिए मोहनी अवतार धारा और रत्न एक-एक करके बाँट दिए)। होरि = दैत्य और देवते। भखलाऐ = क्रोध में आकर बोलने लगे। जि = कि। अयी कीआ = हमने (रत्न समुंद्र में से) निकाले हैं। ऐकी ऐकी = एक एक करके।4।

अर्थ: परमात्मा ने हवा बनाई, सारी धरती की रचना की, आग व पानी का मेल किया (भाव, ये सारे विरोधी तत्व इकट्ठे करके जगत रचना की। रचनहार प्रभू की ये एक आश्चर्य भरी लीला है, जिससे दिखता है किवह बेअंत बड़ी ताकतों वाला है, पर उसकी ये महिमा भूल के निरा रावण को मारने में ही उसकी महानता समझनी भूल है)। अकल के अंधे रावण ने अपनी मौत को (मूर्खता में) दावत दी, परमात्मा (निरा उस मूर्ख) रावण को ही मार के बड़ा नहीं हो गया।1।

(हे प्रभू!) तेरी महिमा बयान नहीं की जा सकती। तू सब जीवों में व्यापक है, मौजूद है।1। रहाउ।

(हे अकाल-पुरख!) सृष्टि के सारे जीव पैदा करके सब की जीवन जुगति तूने अपने हाथ में रखी हुई है, (सबको नाथा हुआ है) सिर्फ काली-नाग को नाथ के तू बड़ा नहीं हो गया। ना तू किसी खास स्त्री (स्त्री विशेष) का पति है, ना कोई स्त्री तेरी पत्नी है, तू सब जीवों के अंदर एक-रस मौजूद है।2।

(कहते हैं कि जो) ब्रहमा कमल की नाल में से पैदा हुआ था, विष्णु उसका हिमायती था, वह ब्रहमा परमात्मा का अंत तलाशने के लिए गया, (उस नालि में ही भटकता रहा) पर अंत ना मिल सका। (अकाल-पुरख बेअंत कुदरत का मालिक है) सिर्फ कंस को मार के वह कितना बड़ा बन गया? (ये तो उसके आगे एक साधारण सी बात है)।3।

(कहते हैं कि देवताओं और दैत्यों ने मिल के) समुंद्र-मंथन किया और (उसमें से) चौदह रत्न निकाले, (बाँटने के समय दोनों धड़े) गुस्से में आ-आ के कहने लगे कि ये रत्न हमने निकाले हैं, हमने निकाले हैं (अपनी ओर से परमात्मा की महिमा बयान करने के लिए कहते हैं कि परमात्मा ने मोहनी अवतार धार के वह रत्न) एक-एक करके बाँट दिए, (पर) नानक कहता है (कि निरे ये रत्न बाँटने से परमात्मा की कौन सी महानता बन गई, उसकी महानता तो उसकी रची कुदरत में जगह-जगह दिखाई दे रही हैं) वह चाहे अपनी कुदरत में छुपा हुआ है, पर छुपा नहीं रह सकता (प्रत्यक्ष उसकी बेअंत कुदरत बता रही है किवह बहुत ताकतों का मालिक है)।4।7।

TOP OF PAGE

Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh