श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 351 आसा महला १ ॥ करम करतूति बेलि बिसथारी राम नामु फलु हूआ ॥ तिसु रूपु न रेख अनाहदु वाजै सबदु निरंजनि कीआ ॥१॥ करे वखिआणु जाणै जे कोई ॥ अम्रितु पीवै सोई ॥१॥ रहाउ ॥ जिन्ह पीआ से मसत भए है तूटे बंधन फाहे ॥ जोती जोति समाणी भीतरि ता छोडे माइआ के लाहे ॥२॥ सरब जोति रूपु तेरा देखिआ सगल भवन तेरी माइआ ॥ रारै रूपि निरालमु बैठा नदरि करे विचि छाइआ ॥३॥ बीणा सबदु वजावै जोगी दरसनि रूपि अपारा ॥ सबदि अनाहदि सो सहु राता नानकु कहै विचारा ॥४॥८॥ {पन्ना 351} पद्अर्थ: करम करतूति = अच्छे कर्म, अच्छा आचरण। बेलि = बेल। विसथारी = बिखरी हुई। रेख = चिन्ह। अनाहदु = बिना बाजों के, एक रस (साज तभी बजता है जब उसे उंगलियों से छेड़ें। जब उंगली की चोट बंद कर दें, साज बंद हो जाता है)। सबदु = सिफत सालाह की रौअ। निरंजनि = निरंजन ने, उस परमात्मा ने जो अंजन (माया की कालिख) से परे है।1। जाणै = जान-पहिचान डाल ले।1। रहाउ। जिन् = नित मनुष्यों ने। जोती जोति = परमात्मा की ज्योति। लाहे = लाभ।2। सरब जोति = सारी जोतियों में। रारै = रात में, तकरार में, झगड़े में। रारै रूपि = तकरार रूप संसार में। निरालमु = निराला, अलग, निरलेप। छाइआ = प्रतिबिंब, अक्स।3। बीणा = बीन। सबदु = सिफत सालाह की बाणी। दरसनि = दर्शनों में, दृश्य में। रूपि = रूप में, सुंदरता में। सबदि = शबद में (जुड़ के) (शब्द ‘सबदु’ और ‘सबदि’ के जोड़ों में व्याकर्णिक फर्क है, अर्थ भी अलग-अलग)। अनाहदि = एक रस में। सहु राता = पति प्रभू के रंग में रंगा हुआ। विचारा = विचार, ख्याल।4। अर्थ: अगर कोई मनुष्य (सिमरन के द्वारा) परमात्मा से जान-पहिचान बना ले और उसकी सिफत-सालाह करता रहे तो वह नाम-अमृत पीता है (सिमरन से पैदा होने वाला आत्मिक आनंद पाता है)।1। रहाउ। (सिमरन की बरकति से) उस मनुष्य का उच्च आचरण बनता है (ये, मानो, ऊँची मनुष्यता की फुटी हुई) फैली हुई बेल है, (इस बेल को) परमात्मा का नाम-फल लगता है (उसकी सुरति नाम में जुड़ी रहती है) माया-रहित प्रभू ने उसके अंदर सिफत-सालाह का एक प्रवाह चला दिया होता है (वह प्रवाह, मानो, एक संगीत है) जो एक-रस (निरंतर) प्रभाव डाले रखता है, पर उसकी कोई रूप-रेखा बयान नहीं की जा सकती।1। जिन-जिन जीवों ने वह नाम रस पीया, वे मस्त हो गए। (उन) के (माया के) बंधन और जंजीरें छूट गई। उनके अंदर परमात्मा की जोति टिक गई, उन्होंने माया की खातिर (दिन-रात की) दौड़-भाग छोड़ दी (भा, वे माया के मोह-जाल में से निकल गए)।2। (जिस मनुष्य ने सिमरन की बरकति से नाम-रस पीया, उस ने, हे प्रभू!) सारे जीवों में तेरा ही दीदार किया, उसने सारे भवनों में तेरी पैदा की हुई माया प्रभाव डालती देखी। (वह मनुष्य देखता है कि) परमात्मा इस झगड़ा-रूपी संसार से निराला बैठा हुआ है, और बीच में ही प्रतिबिंब की भांति व्यापक हो के देख भी रहा है।3। वही (मनुष्य है असल) जोगी, जो अपार परमात्मा के (इस) दृश्य में (मस्त हो के) परमात्मा की सिफत-सालाह रूपी वीणा बजाता रहता है। नानक (अपना ये) ख्याल बताता है कि एक-रस सिफत-सालाह में जुड़े रहने के कारण वह मनुष्य पति-प्रभू के रंग में रंगा रहता है।4।8। आसा महला १ ॥ मै गुण गला के सिरि भार ॥ गली गला सिरजणहार ॥ खाणा पीणा हसणा बादि ॥ जब लगु रिदै न आवहि यादि ॥१॥ तउ परवाह केही किआ कीजै ॥ जनमि जनमि किछु लीजी लीजै ॥१॥ रहाउ ॥ मन की मति मतागलु मता ॥ जो किछु बोलीऐ सभु खतो खता ॥ किआ मुहु लै कीचै अरदासि ॥ पापु पुंनु दुइ साखी पासि ॥२॥ जैसा तूं करहि तैसा को होइ ॥ तुझ बिनु दूजा नाही कोइ ॥ जेही तूं मति देहि तेही को पावै ॥ तुधु आपे भावै तिवै चलावै ॥३॥ राग रतन परीआ परवार ॥ तिसु विचि उपजै अम्रितु सार ॥ नानक करते का इहु धनु मालु ॥ जे को बूझै एहु बीचारु ॥४॥९॥ {पन्ना 351} पद्अर्थ: सिरि = सिर पर। मै गुण = मेरे गुण (सिर्फ यही हैं)। गली गला = बातों में (अच्छी) बातें। गला सिरजणहार = सृजनहार की बातें। बादि = व्यर्थ। आवहि = तू आए (हे प्रभू!)।1। तउ = तब। किआ परवाह कीजै = कोई परवाह नहीं करते, कोई मुथाजी नहीं रह जाती। जनमि = जनम में। जनमि = जनम ले के। जनमि जनमि = मानस जनम में आ के। लीजी = लेने योग्य पदार्थ।1। रहाउ। मतागलु = हाथी। मता = मस्त। खतो खता = ख़ता ही ख़ता, गलतियां ही गलतियां। किआ मुहु लै = कौन सा मुंह ले के? किस मुंह से? साखी = गवाही।2। चलावै = तू चला रहा है (जगत की कार्रवाही)।3। रतन राग = श्रेष्ठ बढ़िया राग। परीआ = रागों की परियां, रागनियां। तिसु विचि = इस (सारे परिवार) में । अंम्रितु सार = श्रेष्ठ अमृत, नाम रस।4। (नोट: शब्द ‘तिसु’ एकवचन है) अर्थ: मनुष्य जनम में आ के कमाने लायक पदार्थ एकत्र करें, तो कोई परवाह नहीं रह जाती, किसी की मुहताजी नहीं रहती।1। रहाउ। (पर हे सृजनहार!) मेरे में तो सिर्फ यही गुण हैं (मैंने तो सिर्फ यही कमाई की है) कि मैंने अपने सिर पर (निरी) बातों का भार ही बाँधा हुआ है। बातों में से सिर्फ वही बातें ही ठीक हैं जो, हे सृजनहार! तेरी बातें हैं (तेरी सिफत-सालाह करी बाते हैं)। जब तक, हे सृजनहार! तू मेरे दिल में याद ना आए, तब तक मेरा खाना-पीना मेरा हस-हस के समय गुजारना- ये सब व्यर्थ है।1। (हमने कमाने-योग्य पदार्थ नहीं कमाया, इसलिए) हमारी मन की मति यह है कि मन मस्त हाथी बना पड़ा है (इस अहंकारी मन की अगुवाई में) जो कुछ बोलते हैं सब बुरा ही बुरा है। (हे प्रभू! तेरे दर पर) अरदास भी किस मुंह से करें? (अपनी ढीठता में अरदास करते हुए भी शर्म आती है, क्योंकि) हमारा भला और हमारा बुरा (अच्छाईयों का संग्रह और बुराईयों का संग्रह) ये दोनों हमारी करतूतों के गवाह मौजूद हैं।2। (पर, हमारे बस में कुछ भी नहीं है, हे प्रभू!) तू खुद ही जीव को जैसा बनाता है वैसा हीवह बन जाता है। तेरे बगैर और कोई नहीं (जो हमें मति दे सके)। तू ही जैसी बुद्धि बख्शता है, वही मति जीव ग्रहण कर लेता है। जैसे तुझे ठीक लगता है, तू उसी तरह जगत का कार चला रहा है।3। श्रेष्ठ बढ़िया राग और उनकी रागनियां आदि ये सारा परिवार -अगर इस राग-परिवार में श्रेष्ठ नाम-रस भी पैदा हो जाए (तो इस मेल से आश्चर्यजनक आत्मिक आनंद पैदा होता है)। हे नानक! यदि किसी भाग्यशाली मनुष्य को ये समझ आ जाए (तो, वह इस आत्मिक आनंद को भोगे, और ये आत्मिक आनंद ही) ईश्वर तक पहुँचाने वाला माल-असबाब है।4।9। आसा महला १ ॥ करि किरपा अपनै घरि आइआ ता मिलि सखीआ काजु रचाइआ ॥ खेलु देखि मनि अनदु भइआ सहु वीआहण आइआ ॥१॥ गावहु गावहु कामणी बिबेक बीचारु ॥ हमरै घरि आइआ जगजीवनु भतारु ॥१॥ रहाउ ॥ गुरू दुआरै हमरा वीआहु जि होआ जां सहु मिलिआ तां जानिआ ॥ तिहु लोका महि सबदु रविआ है आपु गइआ मनु मानिआ ॥२॥ आपणा कारजु आपि सवारे होरनि कारजु न होई ॥ जितु कारजि सतु संतोखु दइआ धरमु है गुरमुखि बूझै कोई ॥३॥ भनति नानकु सभना का पिरु एको सोइ ॥ जिस नो नदरि करे सा सोहागणि होइ ॥४॥१०॥ {पन्ना 351} नोट: आसा राग में कबीर जी का शबद नं:24 देखें, पृष्ठ 482 पे। उस शबद का ‘रहाउ’ की तुक इस प्रकार है; “गाउ गाउ री दुलहनी मंगलचारा॥ कबीर जी ने अपने शबद में ‘आत्मिक विवाह’ का वर्णन किया है, लिखते हैं– “कहि कबीर मोहि बिआहि चलै है पुरख ऐक भगवाना॥3॥ ” अब पढ़ें गुरू नानक देव जी के इस शबद का ‘रहाउ’– “गावहु गावहु कामणी बिबेक बीचारु॥ गुरू नानक देव जी भी इस शबद में ‘आत्मिक विवाह’ का ही वर्णनल करते हैं और कहते हैं कि हमारा विवाह गुरू के द्वारा ही हुआ है– “गुरू दुआरै हमरा वीआहु जि होआ, कबीर जी गुरू नानक देव जी से पहले हो चुके थे। सतिगुरू जी इनकी बाणी पहली ‘उदासी’ के समय ले आए थे। पद्अर्थ: करि = कर के। घरि = घर में, मेरे हृदय घर में। ता = तब (शब्द ‘ता’ का भाव समझने के लिए पहली तुक के साथ शब्द ‘जब’ का प्रयोग करें)। मिलि = मिल के। सखीआ = इंद्रियों ने। काजु = विवाह। काजु रचाइआ = विवाह रचा दिया, प्रभू पति के साथ मेल के गीत गाने शुरू कर दिए, प्रभू पति की सिफत सालाह की ओर चल पड़ीं। खेलु = विवाह का खेल, विवाह का चाव मलार। देखि = देख के। मनि = मेरे मन में।1। कामणी = हे सि्त्रयो! हे इन्द्रियो! बिबेक = पुरख, ज्ञान। बिबेक बिचारु = ज्ञान पैदा करने वाला ख़्याल, प्रभू-पति के साथ गहरी सांझ पैदा करने वाला गीत। जगजीवनु = सारे जगत की जिंदगी (का आसरा)। भतारु = पति प्रभू।1। रहाउ। गुरू दुआरै = गुरू के दर पर (पड़ के), गुरू की शरण पड़ने से। जां = जब। तां = तब। जानिआ = जान लिया, पहचान लिया, गहरी सांझ डाल ली, पूरी समझ आ गई। तिहु = उन्होंने। सबदु = जीवन रौअ (हो के)। रविआ = व्यापक है। आपु = स्वै भाव, स्वार्थ। मानिआ = मान गया।2। कारजु = काज, विवाह का उद्यम, मेल का प्रबंध। होरनि = किसी ओर से। जितु कारजि = जिस काम से, जिस विवाह से, जिस मेल की बरकति से। है = पैदा होता है।3। भनति = कहता है। पिरु = पति। नदरि = कृपा की दृष्टि, मेहर की निगाह। सोहागणि = अच्छे भाग्यों वाली, पति वाली।4। अर्थ: हे सि्त्रयो! (हे मेरी ज्ञानेन्द्रियो! अच्छे-बुरे की) परख की विचार (पैदा करने वाला गीत) बारंबार गाओ (हे मेरी जीभ! सिफत सालाह में जुड़, ता कि तुझे निंदा करने से हटने की सूझ आ जाए। हे मेरे कानो! सिफत सालाह के गीत सुनते रहो, ताकि निंदा सुनने का चस्का हटे)। हमारे घर में (मेरे हृदय-घर में) वह पति-प्रभू आ बसा है जो सारे जगत की जिंदगी (का आसरा) है।1। रहाउ। जब मेरा पति-प्रभू (मुझ जीव-स्त्री को अपना के मेरे दिल को अपने रहने का घर बना के) अपने घर में आ टिका, तो मेरी सहेलियों ने मिल के (जीभ-आँखों-कानों ने मिल के) प्रभू-पति के साथ मेल के गीत गान शुरू कर दिए। मेरा पति-प्रभू मुझे ब्याहने आया है (मुझे अपने चरणों में जोड़ने आया है) - प्रभू मिलाप के लिए ये उद्यम देख के मेरे मन में आनंद पैदा हो गया है।1। गुरू की शरण पड़ने से हमारा ये विवाह हुआ (गुरू ने मुझे प्रभू-पति के साथ जोड़ा), जब मुझे पति-प्रभू मिल गया, तब मुझे समझ आ गई कि वह प्रभू जीवन-रौअ बन के सारे जगत में व्यापक हो रहा है। मेरे अंदर से स्वैभाव दूर हो गया, मेरा मन उस प्रभू-पति की याद में रम गया।2। प्रभू-पति जीव-स्त्री को अपने साथ मिलाने का ये काम अपना समझता है, और खुद ही इस कारज को सिरे चढ़ाता है, किसी और द्वारा ये काम नहीं किया जा सकता। इस मेल की बरकति से (जीव स्त्री के अंदर) सेवा-संतोख-दया-धर्म आदि गुण पैदा होते हैं। इस भेद को वही मनुष्य समझता है जो गुरू के सन्मुख होता है।3। नानक कहता है– (चाहे जैसे) परमात्मा ही सब जीव-सि्त्रयों का पति है, (फिर भी) जिस के ऊपर मेहर की निगाह करता है (जिसके हृदय में आ के प्रगट होता है) वही भाग्यशाली होती है।4।10। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |