श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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आसा महला १ ॥ ग्रिहु बनु समसरि सहजि सुभाइ ॥ दुरमति गतु भई कीरति ठाइ ॥ सच पउड़ी साचउ मुखि नांउ ॥ सतिगुरु सेवि पाए निज थाउ ॥१॥ मन चूरे खटु दरसन जाणु ॥ सरब जोति पूरन भगवानु ॥१॥ रहाउ ॥ अधिक तिआस भेख बहु करै ॥ दुखु बिखिआ सुखु तनि परहरै ॥ कामु क्रोधु अंतरि धनु हिरै ॥ दुबिधा छोडि नामि निसतरै ॥२॥ सिफति सलाहणु सहज अनंद ॥ सखा सैनु प्रेमु गोबिंद ॥ आपे करे आपे बखसिंदु ॥ तनु मनु हरि पहि आगै जिंदु ॥३॥ झूठ विकार महा दुखु देह ॥ भेख वरन दीसहि सभि खेह ॥ जो उपजै सो आवै जाइ ॥ नानक असथिरु नामु रजाइ ॥४॥११॥ {पन्ना 352}

पद्अर्थ: बनु = जंगल। समसरि = बराबर, एक जैसा। सहजि = अडोलता में। सुभाइ = प्रेम में। गतु भई = दूर हो जाती है। कीरति = कीर्ति, सिफत सालाह। ठाइ = (उसकी) जगह पर। मुखि = मुंह में। नांउ = परमात्मा का नाम। सेवि = सेव के, सेवा करके। निज = अपना। निज थाउ = वह जगह जो अपना बना रहेगा।1।

चूरे = चूरा चूरा करके, बुरे संस्कारों का नाश करे। खटु = छे। खटु दरसन = छे शास्त्र (सांख, न्याय, योग, वेदांत, मीमांसा, वैशेषिक)। जाणु = ज्ञाता। सरब जोति = सब जीवों में व्यापक जोति।1। रहाउ।

अधिक = बहुत। तिआस = तृष्णा। दुखु बिखिआ = माया की तृष्णा से पैदा हुआ दुख। तनि = शरीर। विच परहरै = दूर कर देता है। धनु = नाम धन। हिरै = चुरा लेता है। छोडि = छोड़ के। नामि = नाम में (जुड़ के)। निसतरै = पार गुजर जाता है।2।

सहज अनंद = अडोलता का आनंद। सैनु = मित्र। आगै = (हरी के) आगे।3।

देह = शरीर। दीसहि = दिखते हैं। सभि = सारे। उपजै = पैदा होता है। जाइ = चला जाता है। असथिरु = सदा स्थिर रहने वाला।

अर्थ: जो मनुष्य अपने मन को वश में कर लेता है, वह, मानो, छे शास्त्रों का ज्ञाता हो गया है उसको अकाल-पुरख की जोति सब जीवों में व्यापक दिखती है।1। रहाउ।

(जिसने मन को वश में कर लिया, उस मनुष्य के लिए) घर और जंगल एक समान है, क्योंकि वह अडोल अवस्था में रहता है, प्रभू के प्यार में (मस्त रहता) है, उस मनुष्य की बुरी मति दूर हो जाती है उसकी जगह उसके अंदर प्रभू की सिफत सालाह बसती है। प्रभू का सदा स्थिर रहने वाला नाम उसके मुंह में होता है, (सिमरन की इस) सच्ची सीढ़ी के द्वारा सतिगुरू के बताए हुए रास्ते पे चल के वह मनुष्य वह आत्मिक ठिकाना हासिल कर लेता है जो सदा उसका अपना बना रहता है।1।

पर, अगर मनुष्य के अंदर माया की तृष्णा हो, तो (बाहर जगत दिखावे के लिए चाहे) बहुत धार्मिक लिबास पहने, पर माया के मोह से उपजे कलेश उसके अंदर के आत्मिक सुख को दूर कर देते हैं, और काम-क्रोध उसके अंदर के नाम-धन को चुरा ले जाते हैं। (तृष्णा की बाढ़ में से वही मनुष्य) पार होता है जो प्रभू के नाम में जुड़ा रहता है और जो दुचिक्तापन छोड़ता है।2।

(जिसने मन को मार लिया) वह परमात्मा की सिफत सालाह करता है आत्मिक अडोलता का आनंद पाता है, गोबिंद के प्रेम को अपना साथी-मित्र बनाता है, वह मनुष्य अपना तन, अपना मन अपनी जिंद प्रभू के हवाले किए रहता है। उसे यकीन रहता है कि प्रभू खुद ही (जीवों को) पैदा करता है और खुद ही दातें बख्शने वाला है।3।

(मन मार के आत्मिक आनंद लेने वाले को) झूठ आदि विकार शरीर के लिए भारी कष्ट (का मूल) प्रतीत होते हैं, (जगत दिखावे वाले) सारे धार्मिक भेष और वर्ण (-आश्रमों का गुमान) मिट्टी के समान दिखाई देते हैं। हे नानक! उसे यकीन रहता है कि जगत तो पैदा होता है और नाश हो जाता है। परमात्मा का एक नाम ही सदा स्थिर रहने वाला है (इस वास्ते वह नाम जपता है)।4।11।

आसा महला १ ॥ एको सरवरु कमल अनूप ॥ सदा बिगासै परमल रूप ॥ ऊजल मोती चूगहि हंस ॥ सरब कला जगदीसै अंस ॥१॥ जो दीसै सो उपजै बिनसै ॥ बिनु जल सरवरि कमलु न दीसै ॥१॥ रहाउ ॥ बिरला बूझै पावै भेदु ॥ साखा तीनि कहै नित बेदु ॥ नाद बिंद की सुरति समाइ ॥ सतिगुरु सेवि परम पदु पाइ ॥२॥ मुकतो रातउ रंगि रवांतउ ॥ राजन राजि सदा बिगसांतउ ॥ जिसु तूं राखहि किरपा धारि ॥ बूडत पाहन तारहि तारि ॥३॥ त्रिभवण महि जोति त्रिभवण महि जाणिआ ॥ उलट भई घरु घर महि आणिआ ॥ अहिनिसि भगति करे लिव लाइ ॥ नानकु तिन कै लागै पाइ ॥४॥१२॥ {पन्ना 352}

पद्अर्थ: सरवरु = सोहाना तालाब, सरोवर। अनूप = सुंदर। बिगासे = खिलता है। परमल = सुगंधि। रूप = सुंदरता। हंस = सत्संगी, गुरमुख। सरब कला = सारी ताकतों वाला। जगदीसै = जगदीश का। अंस = हिस्सा।1।

सरवरि = सरोवर में।1। रहाउ।

भेदु = (सत्संग सरोवर की) गुप्त कद्र। साखा तीनि = तीन अवस्थाएं (माया की)। नाद = शबद, सिफत सालाह की बाणी। बिंद = जानना। नाद बिंद की सुरति = शबद को जानने वाली सुरति में। समाइ = लीन होता है। परम = बहुत ऊँचा। पदु = आत्मिक दर्जा।2।

मुकतो = मुक्त, विकारों से आजाद। रातउ = रमा हुआ। रवांतउ = सिमरता है। राजन राजि = राजाओं के राजे (हरी) में। बिगसांतउ = बिगसता है, खिला रहता है। पाहन = पत्थर। तारि = बेड़ी।3।

उलट भई = सुरति माया के प्रभाव से पलट गई। घरु = परमात्मा का निवास स्थान। घर महि = (अपने) दिल में। आणिआ = ले आए। अहि = दिन। निसि = रात। पाइ = पैरों पर।4।

अर्थ: जो कुछ दिखाई दे रहा है (भाव, ये दिखाई देता जगत) पैदा होता है और नाश होता है। पर सरोवर में (उगा हुआ) कमल फूल पानी के बिना नहीं है (इस वास्ते वह नाश होता) नहीं दिखता (भाव, जैसे सरोवर में उगा हुआ कमल फूल पानी के कारण हरा-भरा रहता है, वैसे ही सत्संग में टिके रहने वाले गुरमुख का दिल रूपी कमल सदा आत्मिक जीवन वाला है)।1। रहाउ।

(सत्संग) एक सरोवर है (जिस में) संत-जन सुंदर कमल-पुष्प हैं। (सत्संग उनको नाम-जल दे के) सदा खिलाए रखता है (उन्हें आत्मिक जीवन की) सुगंधि और सुंदरता देता है। संत-हंस (उस सत्संग-सरोवर में रहके प्रभू की सिफत सालाह के) सुंदर मोती चुग के खाते हैं (और इस तरह) सारी ताकतों के मालिक जगदीश का हिस्सा (बने रहते हैं; जगदीश से एक-रूप हुए रहते हैं)।1।

(सत्संग-सरोवर की इस) के इस गुप्त लाभ (के भेद) को कोई दुर्लभ व्यक्ति ही समझता है (जगत आम तौर पर त्रिगुणी संसार की बातें ही करता है) वेद (भी) त्रिगुणी संसार का ही वर्णन करते हैं। (सत्संग में रहके) जिस मनुष्य की सुरति परमात्मा की सिफत सालाह की बाणी की सूझ में लीन रहती है, वह अपने गुरू के बताए हुए राह पर चल के ऊँची से ऊँची आत्मिक अवस्था हासिल कर लेता है।2।

(सत्संग-सरोवर में डुबकी लगाने वाला मनुष्य) माया के प्रभाव से स्वतंत्र है, प्रभू की याद में मस्त रहता है, प्रेम में टिक के सिमरन करता है; राजाओं के राजे प्रभू में (जुड़ा रह के) सदैव प्रसन्न-चित्त रहता है।

(पर, हे प्रभू! ये तेरी ही मेहर है) तू मेहर करके जिसको (माया के असर से) बचा लेता है (वह बच जाता है), तू अपने नाम की बेड़ी में (बड़े-बड़े) पत्थर (-दिलों) को तैरा लेता है।3।

(जो मनुष्य सत्संग में टिका उसने) तीन भवनों में प्रभू की ज्योति देख ली, उसने सारे जगत में बसते को पहिचान लिया, उसकी सुरति माया के मोह से उलट गई, उसने परमात्मा का निवास-स्थान अपने दिल में बना लिया, वह सुरति जोड़ के दिन-रात भक्ति करता है।

नानक ऐसे (भाग्यशाली संत) जनों की चरनीं लगता है।4।12।

आसा महला १ ॥ गुरमति साची हुजति दूरि ॥ बहुतु सिआणप लागै धूरि ॥ लागी मैलु मिटै सच नाइ ॥ गुर परसादि रहै लिव लाइ ॥१॥ है हजूरि हाजरु अरदासि ॥ दुखु सुखु साचु करते प्रभ पासि ॥१॥ रहाउ ॥ कूड़ु कमावै आवै जावै ॥ कहणि कथनि वारा नही आवै ॥ किआ देखा सूझ बूझ न पावै ॥ बिनु नावै मनि त्रिपति न आवै ॥२॥ जो जनमे से रोगि विआपे ॥ हउमै माइआ दूखि संतापे ॥ से जन बाचे जो प्रभि राखे ॥ सतिगुरु सेवि अम्रित रसु चाखे ॥३॥ चलतउ मनु राखै अम्रितु चाखै ॥ सतिगुर सेवि अम्रित सबदु भाखै ॥ साचै सबदि मुकति गति पाए ॥ नानक विचहु आपु गवाए ॥४॥१३॥ {पन्ना 352}

पद्अर्थ: हुजति = दलीलबाजी, अश्रद्धा। धूरि = मैल। नाइ = नाम के द्वारा। गुर परसादि = गुरू की कृपा से।1।

हजूरि = अंग संग। हाजरु = हाजिर हो के, एक मन हो के। साचु = यह यकीन जानो। प्रभ पासि = प्रभू के पास, प्रभू जानता है।1। रहाउ।

कूड़ु = बहिसबाजी आदि जैसे व्यर्थ काम। वारा = अंत। कहणि कथनि = कहने में कथन में, व्यर्थ बातों में। किआ देखा = उसने देखा कुछ नहीं। मनि = मन में। त्रिपति = शांति।2।

रोगि = रोग में। विआपे = ग्रसे हुए। हउमै = मैं मैं, अहंकार, बड़ेपन की लालसा। बाचे = बचे। प्रभि = प्रभू ने।3।

चलतउ = चंचल। सेवि = सेव के, हुकम में चल के। भाखै = उचारता है। सबदि = शबद द्वारा। विचहु = अपने अंदर से। आपु = स्वैभाव, स्वार्थ।4।

अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा हर समय हमारे अंग-संग है, एक-मन हो के उसके आगे अरदास करो। ये यकीन जानो कि हरेक जीव का दुख-सुख वह करतार प्रभू जानता है।1। रहाउ।

जो मनुष्य गुरू की (इस) मति को दृढ़ करके धारण करता है, (परमात्मा की अंग-संगता के बारे में) उस मनुष्य की अश्रद्धा दूर हो जाती है। (गुरू की मति पर श्रद्धा की जगह) मनुष्य की अपनी बहुती चतुराईयों से मन में (विकारों की) मैल इकट्ठी होती है। ये एकत्र हुई मैल सदा-स्थिर-प्रभू के नाम द्वारा ही मिट सकती है, और, गुरू की किरपा से ही मनुष्य (परमात्मा के चरणों में) सुरति टिका के रख सकता है।1।

जो मनुष्य (अश्रद्धा भरी चतुराईयों की) व्यर्थ कमाई करता है वह जनम-मरण के चक्कर में पड़ा रहता है, उसकी ये बेकार की बातें कभी खत्म नहीं होती। (अज्ञानी-अंधे ने हुजॅतों में ही रहके) अस्लियत नहीं देखी, इस वास्ते उसे कोई समझ नहीं आती, और, परमात्मा के नाम के बिना उसके मन में शांति नहीं आती।2।

जो भी जीव जगत में जनम लेते हैं (परमात्मा की हस्ती द्वारा अश्रद्धा के कारण) आत्मिक रोगो से दबे रहते हैं, और अहंकार के दुख में, माया के मोह और दुख में वे कलेश पाते रहते हैं। इस रोग से, इस दुख से वही लोग बचते हैं, जिनकी प्रभू ने खुद रक्षा की; जिन्होंने गुरू के बताए रास्ते पर चल के प्रभू के अमृत-नाम चखा।3।

जो मनुष्य परमात्मा का सदा स्थिर रहने वाला नाम-रस चखता है, और चंचल मन को काबू में रखता है, जो मनुष्य गुरू की शिक्षा पे चल के अटॅल आत्मिक जीवन देने वाली सिफत सालाह की बाणी उचारता है, वह मनुष्य इस सच्ची बाणी के द्वारा विकारों से खलासी हासिल कर लेता है, उच्च आत्मिक अवस्था प्राप्त कर लेता है, और, हे नानक! वह अपने अंदर से (अपनी बुद्धि का) अहंकार खत्म कर लेता है।4।13।

आसा महला १ ॥ जो तिनि कीआ सो सचु थीआ ॥ अम्रित नामु सतिगुरि दीआ ॥ हिरदै नामु नाही मनि भंगु ॥ अनदिनु नालि पिआरे संगु ॥१॥ हरि जीउ राखहु अपनी सरणाई ॥ गुर परसादी हरि रसु पाइआ नामु पदारथु नउ निधि पाई ॥१॥ रहाउ ॥ करम धरम सचु साचा नाउ ॥ ता कै सद बलिहारै जाउ ॥ जो हरि राते से जन परवाणु ॥ तिन की संगति परम निधानु ॥२॥ हरि वरु जिनि पाइआ धन नारी ॥ हरि सिउ राती सबदु वीचारी ॥ आपि तरै संगति कुल तारै ॥ सतिगुरु सेवि ततु वीचारै ॥३॥ हमरी जाति पति सचु नाउ ॥ करम धरम संजमु सत भाउ ॥ नानक बखसे पूछ न होइ ॥ दूजा मेटे एको सोइ ॥४॥१४॥ {पन्ना 352-353}

पद्अर्थ: जो = जिस जीव को। तिनि = उस (परमात्मा) ने। कीआ = अपना बना लिया। सचु = सदा स्थिर प्रभू (का रूप)। सतिगुरि = सतिगुरू ने। अंम्रित = अटल आत्मिक जीवन देने वाला। मनि = मन में। भंगु = कमी, परमात्मा के नाम से विछोड़ा। अनदिनु = हर रोज।1।

राखहु = रखते हो। नउ निधि = नौ खजाने।1। रहाउ।

करम = यज्ञ आदि कर्म। धरम = वर्णाश्रम के निर्धारित कर्तव्य। सचु = सदा स्थिर प्रभू (का सिमरन)। परम = सब से ऊँचा। निधान = खजाना।2।

वरु = पति। जिनि = जिस ने। धन = धन्य, भाग्यशाली। राती = रती हुई। ततु = सार वस्तु; मानस जनम का असल लाभ।3।

सत भाउ = सच्चा प्यार। दूजा = परमात्मा के बिना किसी और का प्यार।4।

अर्थ: जिस जीव को उस परमात्मा ने अपना बना लिया, वह उस सदा स्थिर प्रभू का ही रूप बन गया। उसे सतिगुरू ने अटल आत्मिक जीवन देने वाला नाम हरी-नाम दे दिया। उस जीव के हृदय में (सदा प्रभू का) नाम बसता है, उसका मन हमेशा प्रभू चरणों से जुड़ा रहता है, हर रोज (हर समय) प्यारे प्रभू से उसका साथ बना रहता है।1।

हे प्रभू जी! जिस मनुष्य को तू अपनी शरण में रखता है, गुरू की किरपा से वह तेरे नाम का स्वाद चख लेता है; उसे तेरा उत्तम नाम प्राप्त हो जाता है (जो उसके लिए, जैसे) नौ-खजाने हैं (भाव, धरती का सारा ही धन-पदार्थ नाम के मुकाबले में उसे तुच्छ प्रतीत होता है)।1। रहाउ।

मैं उस मनुष्य से सदके जाता हूँ जो प्रभू के सदा स्थिर नाम को ही सब से श्रेष्ठ कर्म व धार्मिक फर्ज समझता है। प्रभू की हजूरी में वही मनुष्य कबूल हैं जो प्रभू के प्यार में रंगे रहते हैं, उनकी संगति करने से सबसे कीमती (नाम) खजाना मिलता है।2।

वह जीव-स्त्री भाग्यशाली है जिसने प्रभू-पति (को अपने दिल में) पा लिया है, जो प्रभू के प्यार में रंगी रहती है, जो प्रभू की सिफत सालाह की बाणी को (अपने मन में) विचारती है। वह जीव-स्त्री स्वयं (संसार-समुंद्र से) पार लांघ जाती है, और अपनी संगत में अपने कुल को पार लंघा लेती है। सतिगुरू के बताए हुए राह पर चल कर मानस जन्म का असल लाभ वह अपनी आँखों के सामने रखती है।3।

(दुनियां में किसी को उच्च जाति का गुमान है, किसी का ऊँचे कुल का धरवास है। हे प्रभू! मेहर कर) तेरा सदा स्थिर रहने वाला नाम ही मेरे वास्ते ऊँची जाति और कुल हो, तेरा सच्चा प्यार ही मेरे लिए धार्मिक कर्म, धर्म और जीवन-जुगति हो।

हे नानक! जिस मनुष्य पर प्रभू अपने नाम की बख्शिश करता है (उसका जन्म-जन्मांतरों के कर्मों का लेखा निपट जाता है) उससे (फिर) किए कर्मों का हिसाब नहीं लिया जाता, उसको (हर तरफ़) एक प्रभू ही दिखाई देता है, प्रभू के बिना किसी और के अस्तित्व का विचार ही उसके अंदर से मिट जाता है।4।14।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh