श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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आसा महला १ ॥ इकि आवहि इकि जावहि आई ॥ इकि हरि राते रहहि समाई ॥ इकि धरनि गगन महि ठउर न पावहि ॥ से करमहीण हरि नामु न धिआवहि ॥१॥ गुर पूरे ते गति मिति पाई ॥ इहु संसारु बिखु वत अति भउजलु गुर सबदी हरि पारि लंघाई ॥१॥ रहाउ ॥ जिन्ह कउ आपि लए प्रभु मेलि ॥ तिन कउ कालु न साकै पेलि ॥ गुरमुखि निरमल रहहि पिआरे ॥ जिउ जल अ्मभ ऊपरि कमल निरारे ॥२॥ बुरा भला कहु किस नो कहीऐ ॥ दीसै ब्रहमु गुरमुखि सचु लहीऐ ॥ अकथु कथउ गुरमति वीचारु ॥ मिलि गुर संगति पावउ पारु ॥३॥ सासत बेद सिम्रिति बहु भेद ॥ अठसठि मजनु हरि रसु रेद ॥ गुरमुखि निरमलु मैलु न लागै ॥ नानक हिरदै नामु वडे धुरि भागै ॥४॥१५॥ {पन्ना 353}

पद्अर्थ: इकि = (सर्वनाम ‘इक’ का बहुवचन) कई, अनेकों जीव। आवहि = जनम लेते हैं। आई = आ के, जनम ले के। जावहि = (खाली ही) चले जाते हैं। रहहि समाई = (प्रभू चरणों में) लीन रहते हैं। धरनि = धरती। गगन = आकाश। महि = में। ठउर = जगह, मन के टिकने के लिए जगह। करमहीण = कर्महीन, अभागे।1।

गति = उच्च आत्मिक अवस्था। मिति = मर्यादा। बिखु = विष, ज़हर। बिखु वत = विहुला, विषौला। अति = बहुत। भउजलु = घुम्मणघेरी।1। रहाउ।

पेलि न साकै = (पेलना = सरसों अलसी आदि को मशीन में पीढ़ के तेल निकालने की क्रिया) पीढ़ नहीं सकता, गिरा नहीं सकता। कालु = मौत (का डर)। निरमल = पवित्र आत्मा। अंभ = पानी। निरारे = निरलेप।2।

कहु = कहो। सचु = सदा स्थिर रहने वाला हरी। कथउ = मैं कहता हूँ। पावउ = मैं ढूँढता हूँ। पारु = परला छोर (शब्द ‘पारि’ और ‘पारु’ में अंदर है। “हरि पारि लंघाई” में शब्द ‘पारि’ क्रिया विशेषण है, इसका अर्थ है ‘परली ओर’ परली तरफ। “पावउ पारु” में ‘पारु’ संज्ञा है, अर्थ है ‘परला बन्ना’ परला किनारा)।3।

सासत = छे शस्त्र (वेदांत, न्याय, योग, सांख, मीमांसा, वैशैषिक)। भेद = अलग अलग विचार। अठसठि = अढ़सठ। मजनु = डुबकी, स्नान। रेद = रिदै में, हृदय में। धुरि = धुर से, प्रभू की मेहर से।4।

अर्थ: ऊँचे आत्मिक जीवन की मर्यादा पूरे गुरू से ही मिलती है। ये संसार एक बहुत ही विषौला चक्रवात है। परमात्मा, गुरू के शबद में जोड़ के और (उच्च आत्मिक जीवन बख्श के) इसमें से पार लंघाता है।1। रहाउ।

अनेकों जीव जगत में जन्म लेते हैं और (ऊँची आत्मिक अवस्था की प्राप्ति के बिना) सिर्फ पैदा ही होते हैं और (फिर यहां से) चले जाते हैं। पर, एक (सौभाग्यशाली ऐसे) हैं जो प्रभू के प्यार में रंगे रहते हैं और प्रभू की याद में रहते हैं। जो लोग प्रभू का नाम नहीं सिमरते, वे अभागे हैं (उनके मन सदा भटकते रहते हैं) सारी सृष्टि में उन्हें कहीं भी शांति नहीं मिलती।1।

जिन लोगों को प्रभू स्वयं अपनी याद में जोड़ता है, उन्हें मौत का डर डरा नहीं सकता। गुरू के सन्मुख रहके (माया में रहते हुए भी) वह प्यारे ऐसे पवित्र-आत्मा बने रहते हैं जैसे पानी में कमल-फूल निर्लिप रहते हैं।2।

पर, ना किसी को बुरा ना किसी को अच्छा कहा जा सकता है क्योंकि हरेक में परमात्मा ही बसता दिखाई देता है। हाँ, वह सदा स्थिर प्रभू मिलता है गुरू के सन्मुख होने पर ही। परमात्मा का स्वरूप बयान से परे है। गुरू की मति ले के ही मैं उस के (कुछ) गुण कह सकता हूँ और विचार सकता हूँ। गुरू की संगति में रहके ही मैं (इस विषौले चक्रवात का) परला सिरा पा सकता हूँ।3।

(हे भाई!) परमात्मा के नाम का आनंद हृदय में महसूस करो- यही है वेद-शास्त्रों स्मृतियों के विभिन्न पहलुओं का विचार, यही है अढ़सठ तीर्थों का स्नान। गुरू के सन्मुख रहके (नाम का आनंद लेने से) जीवन पवित्र रहता है और विकारों की मैल नहीं लगती। हे नानक! धुर से परमात्मा की द्वारा ही मेहर हो, तो नाम हृदय में बसता है।4।15।

आसा महला १ ॥ निवि निवि पाइ लगउ गुर अपुने आतम रामु निहारिआ ॥ करत बीचारु हिरदै हरि रविआ हिरदै देखि बीचारिआ ॥१॥ बोलहु रामु करे निसतारा ॥ गुर परसादि रतनु हरि लाभै मिटै अगिआनु होइ उजीआरा ॥१॥ रहाउ ॥ रवनी रवै बंधन नही तूटहि विचि हउमै भरमु न जाई ॥ सतिगुरु मिलै त हउमै तूटै ता को लेखै पाई ॥२॥ हरि हरि नामु भगति प्रिअ प्रीतमु सुख सागरु उर धारे ॥ भगति वछलु जगजीवनु दाता मति गुरमति हरि निसतारे ॥३॥ मन सिउ जूझि मरै प्रभु पाए मनसा मनहि समाए ॥ नानक क्रिपा करे जगजीवनु सहज भाइ लिव लाए ॥४॥१६॥ {पन्ना 353}

पद्अर्थ: निवि = झुक के। पाइ = पैरों पर। लागउ = मैं लगूँ। आतम रामु = अपने अंदर बसता राम। निहारिआ = मैं देखता हूँ। रविआ = सिमरा है। देखि = देख के।1।

लाभै = मिलता है।1। रहाउ।

रवनी = रवाणी, ज़बानी ज़बानी। रवै = जो बोलता है। भरमु = भटकना। ता = तब। को = कोई मनुष्य। लेखै पाई = कबूल होता है।2।

भगति प्रिअ = प्यारे की भक्ति। सुख सागरु = सुखों का समुंद्र (प्रभू)। उर धारे = दिल में टिकाता है। वछलु = वत्सल, प्यार करने वाला। जग जीवनु = जगत का जीवन (प्रभू)।3।

जूझि = जूझ के, लड़ के, तगड़ा मुकाबला करके। मनसा = मन का फुरना। मनहि = मन में ही। समाऐ = लीन कर दे। सहज भाइ = आसानी से ही।4।

अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा का नाम सिमरो। सिमरन (संसार-समुंद्र से) पार लंघा लेता है। जब गुरू की किरपा से कीमती हरी-नाम मिल जाता है अंदर से अज्ञानता का अंधकार मिट जाता है, और ज्ञान का प्रकाश हो जाता है।1। रहाउ।

मैं बार-बार अपने गुरू के चरणों में नत्-मस्तक होता हूँ (गुरू की किरपा से) मैंने अपने अंदर बसता राम देख लिया है। (गुरू की सहायता से) परमात्मा के गुणों का विचार करके मैं उसे अपने हृदय में उसका दीदार कर रहा हूँ, उसकी सिफतों को विचार रहा हूँ।1।

(जो मनुष्य सिमरन तो नहीं करता, पर) सिर्फ ज़बानी-ज़बानी से (ब्रहमज्ञान की) बातें करता है, उसके (माया के) बंधन नहीं टूटते, वह अहंकार में ही फंसा रहता है (भाव, मैं बड़ा बन जाऊँ, मैं बड़ा बन जाऊँ- इसी चक्रवात में फंसा रहता है), उसके मन की भटकना दूर नहीं होती। जब पूरा गुरू मिले तभी हउमें टूटती है, और तभी मनुष्य (प्रभू की हजूरी में) परवान होता है।2।

जो मनुष्य हरी नाम सिमरता है, प्यारे की भक्ति करता है, सुखों के समुंद्र प्रभू प्रीतम को अपने हृदय में बसाता है, उस मनुष्य को भक्ति को प्यार करने वाला प्रभू, जगत की जिंदगी का आसरा प्रभू, श्रेष्ठ मति देने वाला प्रभू, गुरू के उपदेश की बरकति से (संसार-समुंद्र से) पार लंघा लेता है।3।

जो जीव अपने मन से करारा मुकाबला करके अहंकार को मार लेता है, मन के फुरनों को मन के अंदर ही (प्रभू की याद में) लीन कर लेता है। हे नानक! जगत का जीवन, प्रभू, जिस मनुष्य पर मेहर करता है, वह अडोल चिक्त रहके (प्रभू चरणों में) जुड़ा रहता है।4।16।

आसा महला १ ॥ किस कउ कहहि सुणावहि किस कउ किसु समझावहि समझि रहे ॥ किसै पड़ावहि पड़ि गुणि बूझे सतिगुर सबदि संतोखि रहे ॥१॥ ऐसा गुरमति रमतु सरीरा ॥ हरि भजु मेरे मन गहिर ग्मभीरा ॥१॥ रहाउ ॥ अनत तरंग भगति हरि रंगा ॥ अनदिनु सूचे हरि गुण संगा ॥ मिथिआ जनमु साकत संसारा ॥ राम भगति जनु रहै निरारा ॥२॥ सूची काइआ हरि गुण गाइआ ॥ आतमु चीनि रहै लिव लाइआ ॥ आदि अपारु अपर्मपरु हीरा ॥ लालि रता मेरा मनु धीरा ॥३॥ कथनी कहहि कहहि से मूए ॥ सो प्रभु दूरि नाही प्रभु तूं है ॥ सभु जगु देखिआ माइआ छाइआ ॥ नानक गुरमति नामु धिआइआ ॥४॥१७॥ {पन्ना 353-354}

पद्अर्थ: समझि रहे = जो ज्ञानवान हो गए। किसे पढ़ावहि = अपनी विद्या का दिखावा किसी के आगे नहीं करते। गुणि = विचार के। संतोखि = संतोष में। रहे = रहते हैं, जीवन व्यतीत करते हैं।1।

अैसा हरि = ऐसा परमात्मा। रमतु सरीरा = जो सब शरीरों में व्यापक है। रमतु = व्यापक। मन = हे मन!1। रहाउ।

अनत = अनंत, बेअंत। तरंग = लहरें। रंगु = प्यार। अनदिनु = हर रोज। मिथिआ = व्यर्थ। साकत = परमात्मा से टूटे हुए, माया में उलझे हुए। जनु = दास, सेवक।2।

सूची = पवित्र। काइआ = शरीर। आतमु = अपने आप को। चीनि = पहचान के। मेरा मनु = वह मन जो हर समय ‘मेरा मेरा’ करता रहता है।3।

कहहि कहहि = हर वक्त कहते रहते हैं। छाइआ = छाया, परछांई।4।

अर्थ: हे मेरे मन! गुरू की मति पर चल के उस अथाह और बड़े जिगरे वाले हरी का भजन कर जो सारे शरीरों में व्यापक है।1। रहाउ।

(‘गहिर-गंभीर’ प्रभू को सिमरने से, सिमरन करने वाला भी गंभीर स्वभाव वाला हो जाता है, उसके अंदर दिखावा और होछापन नहीं रहता), जो मनुष्य (‘गहर गंभीर’ को सिमर के) ज्ञानवान हो जाते हैं, वे अपना आप ना किसी को बताते हैं ना सुनाते हैं ना समझाते हैं। जो मनुष्य (‘गहर गंभीर’ की सिफतें) पढ़ के विचार के (जीवन भेद को) समझ लेते हैं, वे अपनी विद्या का दिखावा नहीं करते, गुरू के शबद में जुड़ के (होछापन त्याग के) वह संतोख का जीवन व्यतीत करते हैं।1।

जो मनुष्य हर रोज (हर समय) परमात्मा की सिफत सालाह से साथ बनाते हैं उनका जीवन पवित्र होता है, उनके अंदर प्रभू के प्यार की प्रभू की भक्ति की अनेकों लहरें उठती रहती हैं। माया में फंसे जीव का जीवन व्यर्थ चला जाता है। जो मनुष्य परमात्मा की भक्ति करता है वह (माया के मोह से) निर्लिप रहता है।2।

जो मनुष्य हरी के गुण गाता है उसका शरीर (विकारों से बचा रह के) पवित्र रहता है। अपने आप को (अपने असल को) पहचान के वह सदा प्रभू चरणों में सुरति जोड़े रखता है। वह मनुष्य उस प्रभू का रूप हो जाता है जो सब का आदि है, जो बेअंत है, जो परे से परे है जो हीरे समान अमोलक है। उसका वह मन, जो पहले ममता का शिकार था, लाल रत्न के समान अमूल्य प्रभू के प्यार में रंगा जाता है और ठहराव वाले स्वभाव का हो जाता है।3।

जो मनुष्य (सिमरन से वंचित हैं और) निरी ज़बानी-ज़बानी ही ज्ञान की बाते करते हैं वे आत्मिक मौत मरे हुए हैं (उनके अंदर आत्मिक जीवन नहीं है)।

(पर) हे नानक! जिन मनुष्यों ने गुरू की मति का आसरा ले के प्रभू का नाम सिमरा है, उन्हें परमात्मा अपने बहुत नजदीक दिखाई देता है (वे मनुष्य जगत के पदार्थों से मोह नहीं बनाते, क्योंकि) उन्हें सारा जगत माया का पसारा दिखाई देता है।4।17।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh