श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 361 आसा महला ३ ॥ सबदि मुआ विचहु आपु गवाइ ॥ सतिगुरु सेवे तिलु न तमाइ ॥ निरभउ दाता सदा मनि होइ ॥ सची बाणी पाए भागि कोइ ॥१॥ गुण संग्रहु विचहु अउगुण जाहि ॥ पूरे गुर कै सबदि समाहि ॥१॥ रहाउ ॥ गुणा का गाहकु होवै सो गुण जाणै ॥ अम्रित सबदि नामु वखाणै ॥ साची बाणी सूचा होइ ॥ गुण ते नामु परापति होइ ॥२॥ गुण अमोलक पाए न जाहि ॥ मनि निरमल साचै सबदि समाहि ॥ से वडभागी जिन्ह नामु धिआइआ ॥ सदा गुणदाता मंनि वसाइआ ॥३॥ जो गुण संग्रहै तिन्ह बलिहारै जाउ ॥ दरि साचै साचे गुण गाउ ॥ आपे देवै सहजि सुभाइ ॥ नानक कीमति कहणु न जाइ ॥४॥२॥४१॥ {पन्ना 361} पद्अर्थ: सबदि = गुरू के शबद द्वारा। मुआ = (माया के मोह से) अछोह हो गया। आपु = स्वै भाव। तिलु = रत्ती भर भी। तमाइआ = लालच। मनि = मन में। भागि = किस्मत से।1। संग्रहु = इकट्ठे करो (अपने अंदर)। जाहि = दूर हो जाएंगे। समाहि = (प्रभू में) लीन हो जाएगा।1। रहाउ। वखाणै = उच्चारता है, सिमरता है। सूचा = पवित्र। ते = से।2। मनि निरमल = पवित्र मन में। सबदि = शबद के द्वारा। मंनि = मनि, मन में।3। जाउ = मैं जाता हूँ। दरि साचै = सदा स्थिर प्रभू के दर पर। गाउ = मैं गाता हूँ। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुभाइ = प्रेम में।4। अर्थ: (हे भाई! अपने अंदर परमात्मा के) गुण इकट्ठे करो। (परमात्मा की सिफत सालाह करते रहो, सिफत सालाह की बरकति से) मन में से विकार दूर हो जाते हैं। पूरे गुरू के शबद से (सिफत सालाह करके) तू (गुणों के मालिक प्रभू में) टिका रहेगा।1। रहाउ। जो मनुष्य गुरू के शबद में जुड़ के (माया के मोह की ओर से) निर्लिप हो जाता है वह अपने अंदर से स्वै-भाव दूर कर लेता है। जो मनुष्य सतिगुरू की शरण पड़ता है उसे (माया की) रत्ती भर भी लालच नहीं रहती। उस मनुष्य के मन में वह दातार सदा बसा रहता है जिसे किसी का कोई डर नहीं। पर कोई विरला मनुष्य ही अच्छी किस्मत से सदा स्थिर रहने वाले प्रभू की सिफत सालाह की बाणी के द्वारा उस को मिल सकता है।1। जो मनुष्य परमात्मा की सिफत सालाह का सौदा करता है वह उस सिफत सालाह की कद्र समझता है; वह मनुष्य आत्मिक जीवन देने वाले गुरू शबद के द्वारा परमात्मा का नाम सिमरता रहता है। सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा की सिफत सालाह की बाणी की बरकति से वह मनुष्य पवित्र जीवन वाला हो जाता है। सिफत सालाह की बरकति से उसको परमात्मा के नाम का सौदा मिल जाता है।2। परमात्मा के गुणों का मूल्य नहीं पड़ सकता, किसी भी कीमत पर नहीं मिल सकते, (हां,) सदा स्थिर रहने वाले प्रभू की सिफत सालाह के शबदके द्वारा (ये गुण) पवित्र हुए मन में आ बसते हैं। (हे भाई!) जिन लोगों ने परमात्मा का नाम सिमरा है, अपने गुणों की दाति देने वाला प्रभू अपने मन में बसाया है वे बड़े भाग्यशाली हैं।3। (हे भाई!) जो जो मनुष्य परमातमा के गुण (अपने अंदर) इकट्ठे करता है, मैं उनसे कुर्बान जाता हूँ (उनकी संगति की बरकति से) मैं सदा स्थिर प्रभू के दर पर (टिक के) उस सदा कायम रहने वाले के गुण गाता हूँ। हे नानक! (गुणों की दाति जिस मनुष्य को) प्रभू खुद देता है (वह मनुष्य) आत्मिक अडोलता में टिकता है प्रेम में जुड़ा रहता है (उसके उच्च जीवन का मूल्य नहीं बताया जा सकता)।4।2।41। आसा महला ३ ॥ सतिगुर विचि वडी वडिआई ॥ चिरी विछुंने मेलि मिलाई ॥ आपे मेले मेलि मिलाए ॥ आपणी कीमति आपे पाए ॥१॥ हरि की कीमति किन बिधि होइ ॥ हरि अपर्मपरु अगम अगोचरु गुर कै सबदि मिलै जनु कोइ ॥१॥ रहाउ ॥ गुरमुखि कीमति जाणै कोइ ॥ विरले करमि परापति होइ ॥ ऊची बाणी ऊचा होइ ॥ गुरमुखि सबदि वखाणै कोइ ॥२॥ विणु नावै दुखु दरदु सरीरि ॥ सतिगुरु भेटे ता उतरै पीर ॥ बिनु गुर भेटे दुखु कमाइ ॥ मनमुखि बहुती मिलै सजाइ ॥३॥ हरि का नामु मीठा अति रसु होइ ॥ पीवत रहै पीआए सोइ ॥ गुर किरपा ते हरि रसु पाए ॥ नानक नामि रते गति पाए ॥४॥३॥४२॥ {पन्ना 361} पद्अर्थ: मेलि = (प्रभू के) मिलाप में। आपे = (प्रभू) स्वयं ही। कीमति = कद्र।1। किन बिधि = किस तरीके से? अपरंपरु = परे से परे। अगम = अपहुँच। अगोचरु = (अ+गो+चरु। गो = ज्ञानेन्द्रियां। चरु = पहुँच) जिस तक ज्ञानेन्द्रियो की पहुँच नहीं हो सकती। कोइ = को बिरला।1। रहाउ। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ के। करमि = मेहर से। ऊचा = उच्च जीवन वाला।2। सरीरि = शरीर में, हृदय में। भेटे = मिले। ता = तब। बिनु गुर भेटे = गुरू को मिले बिना। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाला।2। अति रसु = बहुत रस वाला। पीआऐ = पिलाता है। सोइ = वह (प्रभू) ही। ते = से। नामि = नाम में। रते = रंग के। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था।4। अर्थ: (हे भाई!) किस तरीके से (मनुष्य के मन में) परमात्मा (के नाम) की कद्र पैदा हो? परमात्मा परे से परे है, परमात्मा अपहुँच है, परमात्मा तक ज्ञानेन्द्रियों द्वारा पहुँच नहीं हो सकती। (बस!) गुरू के शबद से (ही) कोई विरला मनुष्य प्रभू को मिलता है (और उसके अंदर प्रभू के नाम की कद्र पैदा होती है)।1। रहाउ। (हे भाई!) सतिगुरू में ये बहुत बड़ा गुण है कि वह अनेकों जन्मों से विछुड़े हुए जीवों को परमात्मा के चरणों में जोड़ देता है। प्रभू स्वयं ही (गुरू) मिलाता है, गुरू मिला के अपने चरणों में जोड़ता है और (इसतरह जीवों के दिल में) अपने नाम की कद्र स्वयं ही पैदा करता है।1। कोई विरला मनुष्य गुरू की शरण पड़ कर परमात्मा के नाम की कद्र समझता है किसी विरले को परमात्मा की मेहर से (परमात्मा का नाम) मिलता है। सबसे उच्च प्रभू के सिफत सालाह की बाणी की बरकति से मनुष्य उच्च जीवन वाला बन जाता है। कोई (विरला भाग्यशाली मनुष्य) गुरू की शरण पड़ कर गुरू के शबद के द्वारा परमात्मा का नाम सिमरता है।2। परमात्मा का नाम सिमरन के बिना मनुष्य के शरीर में (विकारों का) दुख रोग पैदा होया रहता है। जब मनुष्य को गुरू मिलता है तब उसका ये दुख दूर हो जाता है। गुरू को मिले बिना मनुष्य वही कर्म कमाता है जो दुख पैदा करें, (इस तरह) अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य को सदा बहुत ज्यादा सजा मिलती रहती है।3। (हे भाई!) परमात्मा का नाम (एक ऐसा अमृत है जो) मीठा है, बड़े रस वाला है। पर वही मनुष्य ये नाम-रस पीता रहता है, जिसको वह परमात्मा खुद पिलाए। हे नानक! गुरू की किरपा से ही मनुष्य परमात्मा के नाम-जल का आनंद लेता है, नाम-रंग में रंग के मनुष्य उच्च आत्मिक अवस्था हासिल कर लेता है।4।3।42। आसा महला ३ ॥ मेरा प्रभु साचा गहिर ग्मभीर ॥ सेवत ही सुखु सांति सरीर ॥ सबदि तरे जन सहजि सुभाइ ॥ तिन कै हम सद लागह पाइ ॥१॥ जो मनि राते हरि रंगु लाइ ॥ तिन का जनम मरण दुखु लाथा ते हरि दरगह मिले सुभाइ ॥१॥ रहाउ ॥ सबदु चाखै साचा सादु पाए ॥ हरि का नामु मंनि वसाए ॥ हरि प्रभु सदा रहिआ भरपूरि ॥ आपे नेड़ै आपे दूरि ॥२॥ आखणि आखै बकै सभु कोइ ॥ आपे बखसि मिलाए सोइ ॥ कहणै कथनि न पाइआ जाइ ॥ गुर परसादि वसै मनि आइ ॥३॥ गुरमुखि विचहु आपु गवाइ ॥ हरि रंगि राते मोहु चुकाइ ॥ अति निरमलु गुर सबद वीचार ॥ नानक नामि सवारणहार ॥४॥४॥४३॥ {पन्ना 361-362} पद्अर्थ: साचा = सदा कायम रहने वाला। गहिर = गहिरा, जिसके दिल का भेद ना पाया जा सके। गंभीर = गहरे जिगरे वाला, बड़े जिगरे वाला। सेवत = सिमर के। सबदि = गुर शबद के द्वारा। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुभाइ = प्रेम में। सद = सदा। लागह = (हम) लगते हैं। पाइ = पैरों में।1। मनि = मन में। लाइ = लगा के। दरगह = हजूरी में। सुभाइ = प्रेम से।1। रहाउ। मंनि = मनि, मन में।2। आखणि आखै = कहने को कहता है, रिवाज के तौर पर कहता है। बकै = बोलता है। सभु कोइ = हरेक मनुष्य। कहणै = कहने से। कथनि = कहने से। परसादि = किरपा से। मनि = मन में।3। आपु = स्वै भाव। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख रहने वाला। रंगि राते = रंग में रंगे जाने के कारण। अति = बहुत। नामि = नाम के द्वारा।4। अर्थ: (हे भाई!) जो मनुष्य परमात्मा का प्रेम-रंग इस्तेमाल कर करके अपने मन में (प्रेम रंग से) रंगे जाते हैं, उन मनुष्यों का जनम-मरण का चक्कर का दुख दूर हो जाता है। प्रेम की बरकति से वह मनुष्य परमात्मा की हजूरी में टिके रहते हैं।1। रहाउ। (हे भाई!) प्यारा प्रभू सदा कायम रहने वाला है, गहरा है और बड़े जिगरे वाला है। उसका सिमरन करने से शरीर को सुख मिलता है, शांति मिलती है। (जो मनुष्य) गुरू के माध्यम से (सिमरन करते हैं वह संसार समुंद्र से) पार लांघ जाते हैं। वे आत्मिक अडोलता में टिके रहते हैं, वे प्रभू-प्रेम में जुड़े रहते हैं। हम (मैं) सदा उनके चरणों में नत्मस्तक होते हैं (होता हूँ)।1। (हे भाई!) जो मनुष्य गुरू के शबद का रस चखता है (उसे फिर प्रत्यक्ष यूँ दिखता है कि) परमात्मा सदा हर जगह व्याप रहा है, वह खुद ही (हरेक जीव के) अंग-संग है और खुद ही दूर (अपहुँच) भी है।2। (हे भाई!) रिवाजी तौर पर (कहने को तो) हरेक मनुष्य कहता है, सुनाता है कि (परमात्मा) हरेक के नजदीक बसता है, पर जिस किसी को वह अपने चरणों में मिलाता है, वह खुद ही मेहर करके मिलाता है। ज़ुबानी कहने अथवा बातें करने से परमात्मा नहीं मिलता, गुरू की किरपा से मन में आ बसता है।3। गुरू के सन्मुख रहने वाला मनुष्य अपने अंदर से स्वै-भाव दूर कर लेता है, और परमात्मा के प्रेम रंग में रंग के (अपने अंदर से माया का) मोह समाप्त कर लेता है। हे नानक! गुरू के शबद की विचार मनुष्य को बहुत पवित्र जीवन वाला बना देती है, प्रभू नाम में जुड़ के मनुष्य औरों का जीवन सँवारने के लायक भी हो जाता है।4।4।43। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |