श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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आसा महला १ ॥ गुड़ु करि गिआनु धिआनु करि धावै करि करणी कसु पाईऐ ॥ भाठी भवनु प्रेम का पोचा इतु रसि अमिउ चुआईऐ ॥१॥ बाबा मनु मतवारो नाम रसु पीवै सहज रंग रचि रहिआ ॥ अहिनिसि बनी प्रेम लिव लागी सबदु अनाहद गहिआ ॥१॥ रहाउ ॥ पूरा साचु पिआला सहजे तिसहि पीआए जा कउ नदरि करे ॥ अम्रित का वापारी होवै किआ मदि छूछै भाउ धरे ॥२॥ गुर की साखी अम्रित बाणी पीवत ही परवाणु भइआ ॥ दर दरसन का प्रीतमु होवै मुकति बैकुंठै करै किआ ॥३॥ सिफती रता सद बैरागी जूऐ जनमु न हारै ॥ कहु नानक सुणि भरथरि जोगी खीवा अम्रित धारै ॥४॥४॥३८॥ {पन्ना 360}

पद्अर्थ: गिआनु = अकाल-पुरख के साथ गहरी सांझ। धिआनु = प्रभू की याद में सुरति जुड़ी रहनी। धावै = महूए के फूल। करणी = उच्च आचरण। कसु = बबूल कीछाल। भवनु = शरीर, देह अध्यास। भाठी = शराब निकालने वाली भट्ठी (उतारने वाला बरतन, बरतन के ऊपर नाली, बरतन के नीचे आग, इस सारे का समूह)। पोचा = ठण्डे पानी का पोचा उस नाली पर जिसमें से अर्क की भाप निकलती है, ताकि भाप ठण्डी हो के अर्क बनती जाए। इतु = इस के द्वारा। इतु रसि = इस (तैयार हुए) रस के द्वारा। अमिउ = अमृत।1।

बाबा = हे जोगी! मतवारो = मस्त। सहज = अडोलता। अहि = दिन। निसि = रात। अनाहद = एक रस, लगातार। गहिआ = पकड़ा, ग्रहण किया।1। रहाउ।

पूरा = सब गुणों का मालिक प्रभू। साचु = सदा टिके रहने वाला। सहजे = अडोल अवस्था में (रख के)। मदि = शराब में। छूछै = फोक में। भाउ = प्यार।2।

साखी = शिक्षा, उपदेश। अंम्रित = अटल आत्मिक जीवन देने वाली। परवाणु = कबूल।2।

रता = रंगा हुआ। जूअै = जूए में। खीवा = मस्त। धार = लिव, बिरती।4।

नोट: योगी समाधी के समय सुरति की एकाग्रता के लिए शराब पीते थे। सतिगुरू जी उस शराब का विरोध करते हैं।

अर्थ: हे जोगी! (तुम सुरति को टिकाने के लिए शराब पीते हो, ये नशा उतर जाता है; और सुरति दुबारा उखड़ जाती है) असल मस्ताना वह मन है जो परमात्मा के सिमरन का रस पीता है (सिमरन का आनंद लेता है) जो (सिमरन की बरकति से) अडोलता के हुलारों में टिका रहता है, जिसे प्रभू-चरणों के प्रेम की इतनी लिव लगती है कि दिन-रात बनी रहती है, जो अपने गुरू के शबद को सदा एक-रस अपने अंदर टिकाए रखता है।1। रहाउ।

(हे जोगी!) परमात्मा के साथ गहरी सांझ को गुड़ बना, प्रभू चरणों में जुड़ी सुरति को महूए के फूल बना, उच्च आचरण को बबूल की छाल बना के (इनमें) मिला दे। शारीरिक मोह को जला- ऐसी शराब निकालने की भट्ठी तैयार कर, प्रभू चरणों में प्यार जोड़- ये है वह ठण्डा पोचा जो अर्क वाली नाली पर फेरना है। इस सारे मिलवें रस में से (अटॅल आत्मिक जीवन दाता) अमृत निकलेगा।1।

(हे जोगी!) ये है वह प्याला जिसकी मस्ती सदा टिकी रहती है, सब गुणों का मालिक प्रभू अडोलता में रख के उस मनुष्य को (ये प्याला) पिलाता है जिस पर खुद मेहर की नजर करता है। जो मनुष्य अटॅल आत्मिक जीवन देने वाले इस रस का व्यापारी बन जाए वह (तुम्हारी वाली इस) होछी शराब से प्यार नहीं करता।2।

जिस मनुष्य ने अटॅल आत्मिक जीवन देने वाली गुरू की शिक्षा भरी बाणी का रस पीया है, वह पीते ही प्रभू की नजरों में कबूल हो जाता है, वह परमात्मा के दर के दीदार का प्रेमी बन जाता है, उसे फिर ना मुक्ति की जरूरत रहती है ना बैकुण्ठ की।3।

हे नानक! (कह–) हे भरथरी जोगी! जो मनुष्य प्रभू की सिफत सालाह में रंगा गया है वह सदा (माया के मोह से) विरक्त रहता है। वह आत्मिक मानस जीवन जूए में (भाव, व्यर्थ) नहीं गवाता, वह तो अटॅल आत्मिक जीवन दाते आनंद में मस्त रहता है।4।4।38।

आसा महला १ ॥ खुरासान खसमाना कीआ हिंदुसतानु डराइआ ॥ आपै दोसु न देई करता जमु करि मुगलु चड़ाइआ ॥ एती मार पई करलाणे तैं की दरदु न आइआ ॥१॥ करता तूं सभना का सोई ॥ जे सकता सकते कउ मारे ता मनि रोसु न होई ॥१॥ रहाउ ॥ सकता सीहु मारे पै वगै खसमै सा पुरसाई ॥ रतन विगाड़ि विगोए कुतीं मुइआ सार न काई ॥ आपे जोड़ि विछोड़े आपे वेखु तेरी वडिआई ॥२॥ जे को नाउ धराए वडा साद करे मनि भाणे ॥ खसमै नदरी कीड़ा आवै जेते चुगै दाणे ॥ मरि मरि जीवै ता किछु पाए नानक नामु वखाणे ॥३॥५॥३९॥ {पन्ना 360}

पद्अर्थ: खुरासान = ईरान के पूर्व और अफ़गानिस्तान के पश्चिम का देश जिसमें हरात और मशहद दो प्रसिद्ध नगर हैं। हिन्दुस्तान के लोग सिंध नदी के पश्चिम के देशों को खुरासान ही कह देते हैं। खसम = मालिक। खसमाना = सुपुर्दगी। आपै = अपने आप को। करता = करतार। मुगलु = बाबर। ऐती = इतनी। करलाणै = पुकार उठे। दरदु = दर्द, दुख, तरस।1।

करता = हे करतार! सोई = सार लेने वाला, रक्षा करने वाला। सकता = तगड़ा। मनि = मन में। रोसु = रोश, गिला, गुस्सा।1। रहाउ।

सीहु = शेर। पै = हल्ला कर के। वगै = गायों के झुंड को, गायों के कारवां को, निहत्थों को, गरीबों को। पुरसाई = पुरशिश, पूछ पड़ताल। रतन = रत्नों जैसे स्त्री पुरुष। विगाड़ि = बिगाड़ के। विगोऐ = ख्वार किए, नाश कर दिए। कुतीं = कुत्तों ने, मुग़लों ने। सार = खबर। जोड़ि = जोड़ के। वेखु = हे प्रभू! देख।2।

साद = रंग रलियां। मनि = मन में। भाणे = भाते। मनि भाणे = जो भी मन में अच्छे लगें। खसमै नदरी = खसम प्रभू की निगाहों में। जेते = जितने भी। मरि मरि = मर के मर के, अपने आप को विकारों से हटा के।3।

नोट: जब मक्के के ओर की तीसरी ‘उदासी’ (यात्रा) से गुरू नानक देव जी बग़दाद काबुल के रास्ते सन् 1521 में हिन्दोस्तान को वापस आ रहे थे, उन्हीं दिनों में बाबर ने भेरा सयालकोट मार के सैदपुर (ऐमनाबाद) पर हमला किया था। सतिगुरू जी भी ऐमनाबाद पहुँच चुके थे। बाबर के मुग़ल फौजियों के हाथों जो दुर्गति सैदपुर–निवासियों की आँखों देखी, उसका ज़िक्र सतिगुरू जी इस शबद में कर रहे हैं।

अर्थ: खुरासान की सुपुर्दगी (किसी और को) कर के (बाबर मुग़ल ने हमला करके) हिन्दुस्तान को सहमा दिया है। (जो लोग अपने फर्ज भुला के रंग-रलियों में पड़ जाते हें उन्हें सजा भुगतनी ही पड़ती है, इस बारे) ईश्वर अपने ऊपर दोष नहीं आने देता। (सो, फर्ज भुला के विकारों में मस्त पड़े पठान हाकमों को दण्ड देने के लिए करतार ने) मुग़ल बाबर को यमराज बना के (हिन्दोस्तान पर) चढ़ाई करवा दी। (पर, हे ईश्वर! बद-मस्त पठान हाकिमों के साथ गरीब निहत्थे भी पीसे गए) इतनी मार पड़ी कि वे (हाय-हाय) पुकार उठे। क्या (ये सब कुछ देख के) तुझे उन पे तरस नहीं आया?।1।

हे करतार! तू सभी जीवों की सार रखने वाला है। अगर कोई ताकतवान किसी ताकतवाले की मार-कुटाई करे तो (देखने वालों के) मन में गुस्सा-गिला नहीं होता (क्योंकि दोनों पक्ष एक-दूसरे को करारे हाथ दिखा लेते हैं)।1। रहाउ।

पर, अगर कोई शेर (जैसा) शक्तिशाली गायों के झुंड (जैसे कमजोर निहत्थों) पर हमला करके मारने लगे, तो इसकी पूछ-पड़ताल (तो झुंड के) मालिक खसम से ही होती है (इसीलिए, हे करतार! मैं तेरे आगे पुकार करता हूँ)। (कुत्ते बाहर के कुत्तों को देख के बर्दाश्त नहीं कर सकते, फाड़ खाते हैं। इसी तरह मनुष्य को फाड़ खाने वाले इन मनुष्य-रूपी मुग़ल) कुत्तों ने (तेरे बनाए) सुंदर लोगों को मार-मार के मिट्टी में मिला दिया है, मरे हुओं की कोई सार नहीं लेता।

(हे करतार! तेरी रजा तू ही जाने) तू खुद ही (संबंध) जोड़ के खुद ही (इनको मौत के घाट उतार के आपस में) विछोड़ देता है। देख! हे करतार! ये तेरी ताकत का करिश्मा है।2।

(धन-पदार्थ-हकूमत आदि के नशे में मनुष्य अपनी हस्ती को भूल जाता है और बड़ी अकड़ दिखा-दिखा के औरों को दुख देता है, पर ये नहीं समझता कि) अगर कोई मनुष्य अपने आप को बड़ा कहलवा ले, और मन-मर्जी की रंग-रलियां कर ले, तो भी वह खसम-प्रभू की नजरों में एक कीड़े समान ही है जो (धरती से) दाने चुग-चुग के निरवाह करता है (अहम् की बद्-मस्ती में वह मनुष्य जिंदगी बेकार ही गवा लेता है)।

हे नानक! जो मनुष्य विकारों की ओर से खुद को मार के (आत्मिक जीवन) जीता है, और प्रभू का नाम सिमरता है वही यहाँ से कुछ कमाता है।3।5।39।

नोट: ‘घरु ६’ के कुल 5 शबद हैं। आसा राग में गुरू नानक देव जी के 39 शबद हैं।

रागु आसा घरु २ महला ३    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ हरि दरसनु पावै वडभागि ॥ गुर कै सबदि सचै बैरागि ॥ खटु दरसनु वरतै वरतारा ॥ गुर का दरसनु अगम अपारा ॥१॥ गुर कै दरसनि मुकति गति होइ ॥ साचा आपि वसै मनि सोइ ॥१॥ रहाउ ॥ गुर दरसनि उधरै संसारा ॥ जे को लाए भाउ पिआरा ॥ भाउ पिआरा लाए विरला कोइ ॥ गुर कै दरसनि सदा सुखु होइ ॥२॥ गुर कै दरसनि मोख दुआरु ॥ सतिगुरु सेवै परवार साधारु ॥ निगुरे कउ गति काई नाही ॥ अवगणि मुठे चोटा खाही ॥३॥ गुर कै सबदि सुखु सांति सरीर ॥ गुरमुखि ता कउ लगै न पीर ॥ जमकालु तिसु नेड़ि न आवै ॥ नानक गुरमुखि साचि समावै ॥४॥१॥४०॥ {पन्ना 360-361}

पद्अर्थ: दरसनु = शास्त्र। हरि दरसनु = परमात्मा का (मिलाप कराने वाला) शास्त्र। वडभागि = बड़े भाग्यों से, बड़ी किस्मत से। सबदि = शबद के द्वारा। सचै बैरागि = सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा के बैराग द्वारा। खटु = छे। खटु दरसन = छे शास्त्र (सांख, न्याय, विशेषिक, मीमांसा, योग और वेदांत)। वरतारा = रिवाज। गुर का दरसनु = गुरू का शास्त्र। अगम = अपहुँच। अपारा = जिसका परला छोर ना मिल सके।1।

दरसनि = शास्त्र के द्वारा। मुकति = विकारों से खलासी। गति = उच्च आत्मिक अवस्था। साचा = सदा कायम रहने वाला प्रभू। मनि = मन में। सोइ = वह ही।1। रहाउ।

उधरै = (विकारों से) बच जाता है। को = कोई मनुष्य। भाउ = प्रेम।2।

मोख दुआरु = विकारों से खलासी देने वाला दरवाजा। साधारु = स+आधारु, आसरे वाला। काई गति = ऊँची आत्मिक अवस्था। अवगणि = अवगण में, पाप में। मॅुठे = लूटे जा रहे। खाही = खाहि, खाते हैं।3।

गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ने से। ता कउ = उस (मनुष्य) को। पीर = पीड़ा, दुख। जमकालु = मौत, आत्मिक मौत। साचि = सदा कायम रहने वाले परमात्मा में। समावै = लीन हो जाता है।4।

अर्थ: गुरू के (दिये हुए) शास्त्र के द्वारा विकारों से मुक्ति हो जाती है, वह सदा कायम रहने वाला परमात्मा स्वयं मन में आ बसता है।1। रहाउ।

(जगत में वेदांत आदि) छे शास्त्रों (की विकार) का रिवाज चल रहा है पर गुरू का (दिया हुआ) शास्त्र (इन छे शास्त्रों की) पहुँच से परे है (ये छे शास्त्र गुरू के शास्त्र का) अंत नहीं पा सकते। गुरू के शबद में (जुड़ के) सदा कायम रहने वाले परमात्मा में लगन जोड़ के मनुष्य बड़ी किस्मत से परमात्मा का (मिलाप करवाने वाला गुर-) शास्त्र प्राप्त करता है।2।

अगर कोई मनुष्य (गुरू के शास्त्र में) प्रेम-प्यार जोड़े तो (प्रेम जोड़ने वाला) जगत गुरू के शास्त्र की बरकति से (विकारों से) बच जाता है। पर कोई दुर्लभ (विरला) मनुष्य ही (गुरू के शास्त्र में) प्रेम-प्यार करता है। (हे भाई!) गुरू के शास्त्र में (चित्त जोड़ने से) सदा आत्मिक आनंद मिलता है।2।

गुरू के शास्त्र में (सुरति टिकाने से) विकारों से मुक्ति पाने वाला रास्ता मिल जाता है। जो मनुष्य सतिगुरू की शरण पड़ता है वह अपने परिवार के वास्ते भी (विकारों से बचने के लिए) सहारा बन जाता है। जो मनुष्य गुरू की शरण नहीं पड़ता, उसे कोई उच्च आत्मिक अवस्था नहीं प्राप्त होती। (हे भाई!) जो मनुष्य पाप (-कर्म) में (फस के आत्मिक जीवन की ओर से) लूटे जा रहे हैं, वह (जीवन-सफ़र में) (विकारों की) मार खाते हैं।3।

(हे भाई!) गुरू के शबद में जुड़ने से (मनुष्य के) शरीर को सुख मिलता है शांति मिलती है, गुरू की शरण पड़ने से उसे कोई दुख छू नहीं सकता। हे नानक! जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ता है आत्मिक मौत उसके नजदीक नहीं फटकती। वह मनुष्य सदा कायम रहने वाले परमात्मा में लीन हुआ रहता है।4।1।40।

नोट: अंक 4 बताता है कि इस शबद के चार बंद हैं। अंक 1 बताता है कि तीसरे गुरू, गुरू अमरदास जी का ये पहला शबद है।

गुरू नानक देव जी के शबद---------------39
गुरू अमरदास जी का शबद----------------01
कुल------------------------------------------40

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh