श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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आसा घरु ५ महला १    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

भीतरि पंच गुपत मनि वासे ॥ थिरु न रहहि जैसे भवहि उदासे ॥१॥ मनु मेरा दइआल सेती थिरु न रहै ॥ लोभी कपटी पापी पाखंडी माइआ अधिक लगै ॥१॥ रहाउ ॥ फूल माला गलि पहिरउगी हारो ॥ मिलैगा प्रीतमु तब करउगी सीगारो ॥२॥ पंच सखी हम एकु भतारो ॥ पेडि लगी है जीअड़ा चालणहारो ॥३॥ पंच सखी मिलि रुदनु करेहा ॥ साहु पजूता प्रणवति नानक लेखा देहा ॥४॥१॥३४॥ {पन्ना 359}

नोट: येशबद ‘घरु ५’ का है। नया संग्रह है। मूल–मंत्र फिर नए सिरे से दर्ज है।

पद्अर्थ: भीतरि = मन के अंदर। पंच = पाँच कामादिक। गुपत = छुपे हुए। मनि = मन में। थिरु न रहहि = टिकते नहीं। उदासे = ठठंबरे हुए, बेचैन हुए। जैसे = जिस प्रकार।1।

सेती = साथ। थिरु न रहै = टिकता नहीं, जुड़ता नहीं। अधिक = बहुत।1। रहाउ।

पहिरउगी = मैं पहनूँगी। करउगी = मैं करूँगी।2।

पंच सखी = पाँच सहेलियां, ज्ञान इन्द्रियां। हम = हमारी, मेरी। भतारो = पति, जीवात्मा। पेडि = पेड में, शरीर में, शरीर के भोग में।3।

मिलि = मिल के। रुदनु करेहा = रुदन करती हैं, रोती हैं, साथ छोड़ देती हैं। साहु = जीवात्मा। पजूता = पकड़ा जाता है।4।

अर्थ: मेरा मन दयालु परमात्मा की याद में जुड़ता नहीं है। इस पर माया ने बहुत दबाव डाला हुआ है। ये लोभी-कपटी-पापी-पाखण्डी बना हुआ है।1।

मेरे मन में धुर अंदर पाँच (विकार) कामादिक छुपे पड़े हैं, वे बेचैन डरे हुए भागे फिरते हैं, ना वे खुद टिकते हैं (ना ही मेरे मन को टिकने देते हैं)।1।

(मेरा शरीर उस नारी की तरह अपने श्रृंगार की उमंग में ही रहता है जो अपने पति की राह ताक रही है और कहती है–) मैं अपने गले में फूलों की माला डालूँगी, फूलों का हार डालूँगी, मेरा पति मिलेगा तो मैं श्रृंगार करूँगी।2।

मेरी पाँचों सहेलियां भी (ज्ञानेंद्रियो भी) जिनकी जीवात्मा ही पति है (भाव, जिनका सुख-दुख जीवात्मा के सुख-दुख के साथ सांझा है) (जीवात्मा की मदद करने की बजाए) शरीर के भोग में ही लगी हुई हैं (उन्हें तो याद ही नहीं कि इस शरीर से जीवात्मा का विछोड़ा हो जाना है) जीवात्मा ने चले जाना है।3।

(आखिर, विछोड़े का समय आ जाता है) पाँचों सहेलियां मिल के सिर्फ रोती ही हैं (भाव, पाँचों ज्ञानेन्द्रियां जीवात्मा का साथ छोड़ देती हैं, और) नानक कहता है कि जीवात्मा (अकेली ही) लेखा देने के लिए पकड़ी जाती है।4।1।34।

नोट: ‘घर ५’ यहां समाप्त होता है। फिर मूल मंत्र है, नया संग्रह ‘घरु ६’ आरम्भ होता है। ‘घरु ६’ के पाँच शबद हैं।

ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ आसा घरु ६ महला १ ॥ मनु मोती जे गहणा होवै पउणु होवै सूत धारी ॥ खिमा सीगारु कामणि तनि पहिरै रावै लाल पिआरी ॥१॥ लाल बहु गुणि कामणि मोही ॥ तेरे गुण होहि न अवरी ॥१॥ रहाउ ॥ हरि हरि हारु कंठि ले पहिरै दामोदरु दंतु लेई ॥ कर करि करता कंगन पहिरै इन बिधि चितु धरेई ॥२॥ मधुसूदनु कर मुंदरी पहिरै परमेसरु पटु लेई ॥ धीरजु धड़ी बंधावै कामणि स्रीरंगु सुरमा देई ॥३॥ मन मंदरि जे दीपकु जाले काइआ सेज करेई ॥ गिआन राउ जब सेजै आवै त नानक भोगु करेई ॥४॥१॥३५॥ {पन्ना 359}

पद्अर्थ: पउणु = हवा, श्वास। सूत = धागा। कामणि = स्त्री। तनि = तन पर। रावे = मिलती है, भोगती है।1।

लाल = हे लाल! बहु गुणि = बहुत गुणों वाले। होहि न = नहीं हैं। अवरी = किसी और में।1। रहाउ।

कंठि = गले में। दामोदरु = (दाम उदर = जिसकी कमर पे तगाड़ी है) परमात्मा। दंतु = दाँत। कर = हाथों में। करि = कर के। चित धरेई = चिÙ को टिकाए।2।

मधुसूदनु = परमात्मा। कर = हाथों (की उंगलियों) पर। पटु = रेशमी कपड़ा। धड़ी = मांग, पट्टी। स्रीरंगु = श्री रंग, लक्ष्मी का पति, परमात्मा।3।

मंदरि = मन्दिर मे। दीपकु = दीया। काइआ = शरीर, हृदय। गिआन राउ = ज्ञान का राजा।4।

नोट: स्त्री अपने पति को मिलने की आस में अपना शरीर श्रृंगारती है ता कि पति को उसका शरीर अच्छा लगे। जीव–स्त्री और परमात्मा–पति का आत्मिक मेल ही हो सकता है, इस मेल की संभावना तभी हो सकती है, अगर जीव–स्त्री अपनी आत्मा को सुंदर बनाए। आत्मा की खूबसूरती के लिए इस शबद में निम्नलिखित आत्मिक गहने बताए गए हैं– पवित्र आचरण, श्वास–श्वास नाम का जाप, क्षमा, धैर्य, ज्ञान आदि।

अर्थ: हे बहुगुणी लाल प्रभू! जो जीव-स्त्री तेरे गुणों में सुरति जोड़ती है, उसे तेरे वाले गुण किसी और में नहीं दिखाई देते (वह तुझे विसार के किसी और तरफ़ प्रीति नहीं जोड़ती)।1। रहाउ।

अगर जीव स्त्री अपने मन को सुच्चे मोती जैसा गहना बना ले (मातियों की माला बनाने के लिए धागे की जरूरत पड़ती है) अगर श्वास-श्वास (का सिमरन मोती परोने के लिए) धागा बने, अगर दुनिया की ज्यादतियों को सह लेने के स्वभाव को जीव-स्त्री श्रृंगार बना के अपने शरीर पर पहन ले, तो पति-प्रभू की प्यारी हो के उसे मिल जाती है।1।

अगर जीव-स्त्री परमात्मा की हर समय याद को हार बना के अपने गले में डाल ले, अगर प्रभू सिमरन को (दांतों का) दंदासा की तरह प्रयोग करे, अगर करतार की भक्ति-सेवा को कंगन बना के हाथों में पहन ले, तो इस तरह उसका चित्त प्रभू-चरणों में टिका रहता है।2।

अगर जीव-स्त्री हरी-भजन की मुंद्री (अंगूठी) बना के हाथ की अंगुली में पहन ले, प्रभू नाम की ओट को अपनी इज्जत का रक्षक रेशमी कपड़ा बनाए, (सिमरन की बरकति से प्राप्त की) गंभीरता को पट्टियां सजाने के लिए बरते, लक्ष्मी-पति प्रभू के नाम का (आँखों में) सुरमा डाले।3।

अगर जीव-स्त्री अपने मन के महल में ज्ञान का दीपक जगाए, हृदय को (प्रभू-मिलाप के लिए) सेज बनाए, हे नानक! (उसके इस सारे आत्मिक श्रृंगार पर रीझ के) जब ज्ञान-दाता प्रभू उसकी हृदय-सेज पर प्रकट होता है, तो उसको अपने साथ मिला लेता है।4।1।35।

नोट: ‘घरु ६’ के शबदों के संग्रह में से ये पहला शबद है। इस संग्रह में 5 शबद हैं बड़े अंक से पहला छोटा अंक इस संग्रह का ही है।

आसा महला १ ॥ कीता होवै करे कराइआ तिसु किआ कहीऐ भाई ॥ जो किछु करणा सो करि रहिआ कीते किआ चतुराई ॥१॥ तेरा हुकमु भला तुधु भावै ॥ नानक ता कउ मिलै वडाई साचे नामि समावै ॥१॥ रहाउ ॥ किरतु पइआ परवाणा लिखिआ बाहुड़ि हुकमु न होई ॥ जैसा लिखिआ तैसा पड़िआ मेटि न सकै कोई ॥२॥ जे को दरगह बहुता बोलै नाउ पवै बाजारी ॥ सतरंज बाजी पकै नाही कची आवै सारी ॥३॥ ना को पड़िआ पंडितु बीना ना को मूरखु मंदा ॥ बंदी अंदरि सिफति कराए ता कउ कहीऐ बंदा ॥४॥२॥३६॥ {पन्ना 359}

पद्अर्थ: कीता होवै = जो प्रभू का किया हुआ है, जीव। किआ कहीअै = क्या गिला? भाई = हे भाई! कीते = जीव की। किआ = कुछ सवार नहीं सकती।1।

तुधु भावै = जो जीव तुझे अच्छा लगता है। भला = प्यारा। नामि = नाम में।1। रहाउ।

किरतु = किया हुआ काम, जन्म-जन्मांतरों के किए कामों के संस्कारों का समूह। पइआ = पड़ा हुआ, उकरा हुआ। परवाणा = लेख, परवाना। बाहुड़ि = दुबारा, उसके उलट। पढ़िआ = प्रगट होता है, घटित होता है।2।

दरगह = हजूरी में, सामने। बाजारी = आवारा बुरा बोलने वाला, बड़बोला। पकै नाही = नहीं पुगती, जीती नहीं जाती। सारी = नरद।3।

बीना = सयाना। मंदा = बुरा। बंदी = रजा।4।

अर्थ: (हे प्रभू!) जो जीव तुझे अच्छा लगता है, उसे तेरी रज़ा मीठी लगने लग जाती है। (सो) हे नानक! (प्रभू के दर से) उस जीव को आदर मिलता है जो (उसकी रजा में रह के) उस सदा-स्थिर मालिक के नाम में लीन रहता है।1। रहाउ।

(पर) हे भाई! जीव के क्या वश? जीव वही कुछ करता है जो परमात्मा उससे कराता है। जीव की कोई सियानप काम नहीं आती, जो कुछ अकाल-पुरख करना चाहता है, वही कर रहा है।1।

हमारे जन्म-जन्मांतरों के किए कामों के संस्कारों के समूह जो हमारे मन में उकर चुके होते हैं, उसके अनुसार हमारी जीवन-राहदारी लिखी जा चुकी होती है, उसके उलट जोर नहीं चल सकता। फिर जिस तरह का वह जीवन-लेख लिखा हुआ है, उसके अनुसार (जीवन-यात्रा) बनती चली आती है, कोई (उन लकीरों को अपनी कोशिशों से) मिटा नहीं सकता (उसे मिटाने का एक मात्र तरीका है– रजा में चल के सिफत सालाह करते रहना)।2।

अगर कोई जीव इस धुर से लिखे हुकम के उलट बड़े एतराज किए जाए (हुकम अनुसार चलने की जाच ना सीखे, उसका सँवरता कुछ नहीं, बल्कि) उसका नाम बड़बोला ही पड़ सकता है। (जीवन की बाजी) शतरंज (चौपड़) की बाजी (जैसी ही) है, (रजा के उलट चलने से और गिले-शिकवे करने से ये बाजी) जीती नहीं जा सकेगी, नरदें कच्ची ही रहती है (पुगती सिर्फ वही हैं जो) पुगने वाले घर में जा (पहुँचती हैं)।3।

इस रास्ते में ना कोई विद्वान पण्डित सयाना कहा जा सकता है, ना कोई (अनपढ़) मूर्ख बुरा माना जा सकता है (जीवन के सही रास्ते में ना निरी विद्वता सफलता का तरीका है, ना ही अनपढ़ता के लिए असफलता जरूरी है)। वह जीव बंदा कहलवा सकता है जिसको प्रभू अपनी रजा में रख के उससे अपनी सिफत सालाह करवाता है।4।2।36।

आसा महला १ ॥ गुर का सबदु मनै महि मुंद्रा खिंथा खिमा हढावउ ॥ जो किछु करै भला करि मानउ सहज जोग निधि पावउ ॥१॥ बाबा जुगता जीउ जुगह जुग जोगी परम तंत महि जोगं ॥ अम्रितु नामु निरंजन पाइआ गिआन काइआ रस भोगं ॥१॥ रहाउ ॥ सिव नगरी महि आसणि बैसउ कलप तिआगी बादं ॥ सिंङी सबदु सदा धुनि सोहै अहिनिसि पूरै नादं ॥२॥ पतु वीचारु गिआन मति डंडा वरतमान बिभूतं ॥ हरि कीरति रहरासि हमारी गुरमुखि पंथु अतीतं ॥३॥ सगली जोति हमारी समिआ नाना वरन अनेकं ॥ कहु नानक सुणि भरथरि जोगी पारब्रहम लिव एकं ॥४॥३॥३७॥ {पन्ना 359-360}

पद्अर्थ: मनै महि = मन में। मुंद्रा = वाले (काँच आदि के) जो जोगी लोग कानों में पहनते हैं। खिंथा = गोदड़ी, पोटली। हडावउ = मैं हंडाता हूँ, पहनता हूँ। मानउ = मैं मानता हूँ। सहज = मन की अडोलता, शांति। जोग निधि = योग (की कमाई) का खजाना। पावउ = मैं प्राप्त करता हूँ।1।

जुगता = जुड़ा हुआ। जुगह जुग = हरेक युग तक, सदा के लिए। परम तंत = परमात्मा। जोगं = मिलाप। अंम्रितु = अमृत, अटल आत्मिक जीवन देने वाला। निरंजन = (निर+अंजन। अंजन = कालिख, माया की कालिख, माया का प्रभाव) जिस पे माया का प्रभाव नहीं होता उसका। निरंजन नामु = निरंजन का नाम। गिआन रस = परमात्मा के साथ गहरी सांझ के आत्मिक आनंद। काइआ = शरीर में, हृदय में। भोगं = भोगता है, माणता है।1। रहाउ।

सिव = परमात्मा, कल्याण स्वरूप। आसणि = आसन पर। बैसउ = मैं बैठता हूँ। कलप = कल्पना। बादं = वाद विवाद, झगडे, धंधे। धुनि = आवाज, सुरीली सुर। अहि = दिन। निसि = रात। पूरै = पूरा करता है, बजाता है।

पतु = पात्र, पॅखर, चिप्पी। वरतमान = हर जगह मौजूद। बिभूत = राख। रहरासि = मर्यादा। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख रहना। अतीत पंथु = विरक्त पंथ।3।

संमिआ = बैरागण, लकड़ी आदि की टिक टिकी जिस पर बाँहें टिका के जोगी समाधि में बैठता है। नाना = कई प्रकार के। भरथरि जोगी = हे भरथरी जोगी!।4।

नोट: गोरख भरथरी आदि प्रसिद्ध योगी गुरू नानक देव जी से पहले हो चुके थे। श्रद्धालु लोग अपने ईष्ट गुरू” रहबर के नाम पर अपने घरों में नाम रखते रहते हैं। मुसलमान मुहम्मद अली आदि नाम इस्तेमाल करते आ रहे हैं। हिन्दू राम कृष्ण आदि प्रयोग कर रहे हैं; सिख भी नानक, राम आदि नाम रख लेते हैं। इसी तरह जोगी भी अपने प्रसिद्ध जोगियों के नाम बरतते रहे हैं। भरथरी नाम वाला जोगी भी किसी ऐसी ही श्रेणी में से था।

नोट: जोगी लोग अपने भेष के चिन्ह धारण करते हैं। मुंद्रा खिंथा, बिभूत, सिंगी, डण्डा, बैरागण (संमिआ) जोग–भेष की प्रसिद्ध चीजें हैं। शब्द जोग का अर्थ है ‘मिलाप’, ‘जोगी’ का अर्थ है वह जीव जो परमात्मा से मिला हुआ हो। गुरू नानक देव जी जोग–भेख के चिन्हों की तुलना प्रभू–चरणों में मनुष्य के आत्मक जीवन के भिन्न–भिन्न पहलुओं से करते हैं।

अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य का परमेश्वर के चरणों में जोड़ (योग) हो गया वही जुड़ा हुआ है, वही असल जोगी है, जिसकी समाधि सदा लगी रहती है। जिस मनुष्य ने माया-रहित परमात्मा का अटल आत्मिक जीवन देने वाला नाम प्राप्त कर लिया है वह परमात्मा के साथ गहरी जान-पहचान के आत्मिक आनंद अपने हृदय में (सदा) भोगता है।1। रहाउ।

(हे जोगी!) गुरू का शबद मैंने अपने मन में टिकाया हुआ है–ये हैं मुंद्रें (कुण्डल) (जो मैंने कानों में नही मन में डाली हुई हैं)। मैं क्षमा का स्वाभाव (पक्का कर रहा हूँ, ये मैं) गोदड़ी पहनता हूँ। जो कुछ परमात्मा करता है उसे मैं जीवों की भलाई के लिए ही मानता हूँ, इस तरह मेरा मन डोलने से बचा रहता है– ये है योग-साधना का खजाना, जो मैं इकट्ठा कर रहा हूँ।1।

(हे जोगी!) मैं भी आसन पर बैठता हूँ, मैं मन की कल्पनाएं और दुनिया वाले झगड़े-झमेले छोड़ के कल्याण-स्वरूप प्रभू के देश में (प्रभू के चरणों में) टिक के बैठता हूँ (ये है मेरा आसन पर बैठना)। हे जोगी! तू सिंगी (बजाता है) मेरे अंदर गुरू का शबद (गूँज रहा) है; ये ही सिंगी के मीठे और सुहाने सुर, जो मेरे अंदर चल रहे हैं। दिन-रात मेरा मन गुरू-शबद का नाद बजा रहा है।2।

(हे जोगी! तू हाथ में खप्पर ले के घर-घर से भिक्षा मांगता है, पर मैं प्रभू के दर से उसके गुणों की) विचार (मांगता हूँ, ये) है मेरा खप्पर (कासा)। परमात्मा के साथ गहरी सांझ डाले रखने वाली मति (मेरे हाथ में) डण्डा है (जो किसी विकार को नजदीक नहीं फटकने देता)। प्रभू को हर जगह मौजूद देखना मेरे वास्ते शरीर पर मलने वाली राख है। अकाल पुरख की सिफत सालाह (मेरे वास्ते) जोग की (प्रभू से मिलाप की) मर्यादा है। गुरू के सन्मुख टिके रहना ही हमारा धर्म-रास्ता है जो हमें माया से विरक्त रखता है।3।

हे नानक! (कह–) हे भरथरी योगी! सुन, सब जीवों में अनेकों रूपों-रंगों में प्रभू की ज्योति को देखना- ये है हमारी बैरागण (संमिया) जो हमें प्रभू-चरणों में जुड़ने के लिए सहारा देती है।4।3।37।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh