श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 358 ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ आसा घरु ३ महला १ ॥ लख लसकर लख वाजे नेजे लख उठि करहि सलामु ॥ लखा उपरि फुरमाइसि तेरी लख उठि राखहि मानु ॥ जां पति लेखै ना पवै तां सभि निराफल काम ॥१॥ हरि के नाम बिना जगु धंधा ॥ जे बहुता समझाईऐ भोला भी सो अंधो अंधा ॥१॥ रहाउ ॥ लख खटीअहि लख संजीअहि खाजहि लख आवहि लख जाहि ॥ जां पति लेखै ना पवै तां जीअ किथै फिरि पाहि ॥२॥ लख सासत समझावणी लख पंडित पड़हि पुराण ॥ जां पति लेखै ना पवै तां सभे कुपरवाण ॥३॥ सच नामि पति ऊपजै करमि नामु करतारु ॥ अहिनिसि हिरदै जे वसै नानक नदरी पारु ॥४॥१॥३१॥ {पन्ना 358} पद्अर्थ: लसकर = फौजें। उठि = उठ के। फुरमाइसि = हकूमत। मानु = आदर। पति = दुनिया में मिली हुई इज्जत। लेखै न पवै = परमात्मा की हजूरी में कबूल ना हो। निराफल = व्यर्थ।1। धंधा = झंबेला, उलझन। अंधो अंधा = अंधा ही अंधा।1। रहाउ। खटीअहि = कमाए जाएं (बहुवचन, करमवाच)। संजीअहि = एकत्र किए जाएं। खाजहि = खाए जाएं, खर्चे जाएं। किथै पाहि = पता नहीं कहाँ पड़ते हैं, दुखी ही रहते हैं।2। कुपरवाण = अप्रवान, कबूल नहीं।3। नामि = नाम में जुड़ने से। करमि = (परमात्मा की) मेहर से। अहि = दिन। निसि = रात। पारु = परला छोर, संसार समुंद्र का परला किनारा।4। अर्थ: परमात्मा के नाम सिमरन के बिना जगत का मोह (मनुष्य के वास्ते) उलझन ही उलझन बन जाता है। (इस उलझन में जीव इतना फसता है कि) चाहे कितना ही समझाते रहो, मन अंधा ही अंधा रहता है (मनुष्य को समझ नहीं आती कि मैं कुराह पर पड़ा हूँ)।1। रहाउ। (हे भाई!) अगर तेरी फौजें लाखों की तादात में हों, उनमें लाखों लोग बाजे बजाने वाले हों, लाखों नेजे-भाले चलाने वाले हों, लाखों ही आदमी उठ के नित्य तुझे सलाम करते हों, (हे भाई!) अगर लाखों लोगों पर तेरी हकूमत हो, लाखों लोग उठ के तेरी इज्जत करते हों, (तो भी क्या हुआ) अगर तेरी ये इज्जत परमात्मा की हजूरी में कबूल ना पड़े, तो तेरे यहाँ किए सारे ही काम व्यर्थ गए।1। अगर लाखों रुपए कमाए जाएं, लाखों रुपए जोड़े जाएं, लाखों रुपए खर्चे भी जाएं, लाखों ही रुपए आएं, और लाखों ही चले जाएं, पर अगर प्रभू की नजर में ये इज्जत परवान ना हो (तो इन लाखों रुपयों का मालिक भी अंदर से) दुखी ही रहते हैं।2। लाखों बार शास्त्रों की व्याख्या की जाय, विद्वान लोग लाखों बार पुराण पढ़ें (और दुनियां में अपनी विद्या के कारण आदर हासिल करें), तो भी अगर ये आदर प्रभू के दर पर कबूल ना हो तो ये सारे पढ़ने-पढ़ाने व्यर्थ गए।3। सदा स्थिर रहने वाले नाम में जुड़ने से ही (प्रभू के दर पर) आदर मिलता है, और करतार (का यह) नाम मिलता है उसकी अपनी मेहर से। हे नानक! अगर परमात्मा का नाम हृदय में दिन-रात बसता रहे तो परमात्मा की मेहर से मनुष्य (संसार-समुंद्र का) परला किनारा पा लेता है।4।1।31। नोट: आखिरी अंकों में अंक 1 बताता है कि ‘घरु ३’ का यह पहला शबद है, और आसा राग में गुरू नानक देव जी के अब तक कुल 31 शबद हो चुके हैं। आसा महला १ ॥ दीवा मेरा एकु नामु दुखु विचि पाइआ तेलु ॥ उनि चानणि ओहु सोखिआ चूका जम सिउ मेलु ॥१॥ लोका मत को फकड़ि पाइ ॥ लख मड़िआ करि एकठे एक रती ले भाहि ॥१॥ रहाउ ॥ पिंडु पतलि मेरी केसउ किरिआ सचु नामु करतारु ॥ ऐथै ओथै आगै पाछै एहु मेरा आधारु ॥२॥ गंग बनारसि सिफति तुमारी नावै आतम राउ ॥ सचा नावणु तां थीऐ जां अहिनिसि लागै भाउ ॥३॥ इक लोकी होरु छमिछरी ब्राहमणु वटि पिंडु खाइ ॥ नानक पिंडु बखसीस का कबहूं निखूटसि नाहि ॥४॥२॥३२॥ {पन्ना 358} नोट: हिन्दू मर्यादा के मुताबक जब कोई प्राणी मरने लगता है तो उसे चारपाई से नीचे उतार लेते हैं। उसके हाथ की तली पर आटे का दीपक रख के जला देते हैं, ता कि जिस अनदेखे अंधेरे राह में उसकी आत्मा ने जाना है, ये दीया उसके रास्ते में रौशनी करे। उसके मरने के बाद जौ अथवा चावलों के आटे के पेड़े पत्तरों की थाली में (पत्तल) रख के सजाए जाते हैं। ये मरे प्राणी के लिए रास्ते की खुराक होती है। मौत के 13 दिन बाद ‘किरिया’ की जाती है। आचार्य (किरिया कराने वाला ब्राहमण) वेद–मंत्र आदि पढ़ता है, मरे प्राणी के नमित्त एक लंबी मर्यादा की जाती है। 360 दीए और इतनी ही बत्तियां और तेल रखा जाता है। वो बत्तियां इकट्ठी ही तेल में भिगो के जला दी जाती हैं। श्रद्धा यही होती है कि मरे प्राणी ने एक साल में पित्र–लोक में पहुँचना है। ये 360 दीए (एक–एक दीया हर रोज) एक साल रास्ते में प्रकाश करेंगे। संस्कार के चौथे दिन राख फरोल के जलने से बच गई हड्डियां (फूल) चुन ली जाती हैं ये ‘फूल’ हरिद्वार, व गंगा में प्रवाहित कर दिए जाते हैं। आम तौर पर किरिया से पहले ही फूल गंगा–परवाह किए जाते हैं। पद्अर्थ: उनि = उस से। चानणि = रौशनी से। उनि चानणि = उस रौशनी से। ओहु = वह दुख तेल। सोखिआ = सूख जाता है, समाप्त हो जाता है।1। फकड़ि = फक्कड़ी, मजाक। मड़िआ = ढेर। भाहि = आग।1। रहाउ। केसउ = (केशव, केश: प्रशस्ता: सन्ति अस्य) लम्बे केसों वाला, परमात्मा। आधारु = आसरा।2। नावै = स्नान करता है। आतम राउ = जिंद, जीवात्मा। अहि = दिन। निसि = रात। भाउ = प्रेम।3। लोकी = देव लोक के रहने वाले, देवते। होर = दूसरा (पिंड)। छमिछरी = (क्षमा चरी। क्षमा, धरती) धरती पर चलने वाले, पित्र। वटि = वट के, बटना। बख्शीश = किरपा, मेहर। निखूटसि = समाप्त।4। अर्थ: मेरे वास्ते परमात्मा का नाम ही दीया है (जो मेरी जिंदगी के रास्ते में आत्मिक रौशनी करता है) उस दीए में मैंने (दुनियां में व्यापने वाला) दुख (-रूपी) तेल डाला हुआ है। उस (आत्मिक) प्रकाश से वह दुख-रूपी तेल जलता जाता है, और जम से मेरा साथ भी समाप्त हो जाता है। ।1। (नोट-संबंधक ‘विचि’ का संबंध ‘दुखु’ से नहीं है। ‘दीवे विचि दुख तेलु पाइआ’- ऐसे अर्थ करना है) हे लोगो! मेरी बात का मजाक मत उड़ाओ। लाखों मन लकड़ी के ढेर इकट्ठे करके (यदि) एक रत्ती जितनी भी आग लगा के देखें (तो वह सारे ढेर जल के राख हो जाते हैं। वैसे ही जनम-जन्मांतरों के पापों को एक ‘नाम’ खत्म कर देता है)।1। रहाउ। पत्तलों पर पिण्ड भरने (मणसाणे) मेरे वास्ते परमात्मा (का नाम) ही है, मेरे वास्ते किरिया भी करतार (का) सच्चा नाम ही है। ये नाम इस लोक में परलोक में हर जगह मेरी जिंदगी का आसरा है।2। (हे प्रभू!) तेरी सिफत सालाह ही मेरे वास्ते गंगा और काशी (आदि तीर्थों) का स्नान है, तेरी सिफत सालाह में ही मेरी आत्मा स्नान करती है। सच्चा स्नान है ही तब, जब दिन-रात प्रभू के चरणों में भेद बना रहे।3। ब्राहमण (जौ और चावलों के आटे का) पिन्न बट के एक पिन्न देवतों को भेटा करता है और दूसरा पिन्न पित्रों को, (पिन्न बटने के बाद) वह खुद (खीर पूड़ी आदि जजमानों के घर से) खाता है। (पर) हे नानक! (ब्राहमण के द्वारा दिया हुआ ये पिन्न कब तक टिका रह सकता है? हाँ) परमात्मा की मेहर का पिन्न कभी समाप्त नहीं होता।4।2।32। नोट: ‘घरु ३’ के यहाँ दो शबद समाप्त होते हैं। आगे ‘घरु ४’ का शबद है। मूल–मंत्र का नए सिरे से लिखे जाना भी यही बताता है कि ये संग्रह समाप्त हो के नया शुरू हो रहा है। (पन्ना 358) आसा घरु ४ महला १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ देवतिआ दरसन कै ताई दूख भूख तीरथ कीए ॥ जोगी जती जुगति महि रहते करि करि भगवे भेख भए ॥१॥ तउ कारणि साहिबा रंगि रते ॥ तेरे नाम अनेका रूप अनंता कहणु न जाही तेरे गुण केते ॥१॥ रहाउ ॥ दर घर महला हसती घोड़े छोडि विलाइति देस गए ॥ पीर पेकांबर सालिक सादिक छोडी दुनीआ थाइ पए ॥२॥ साद सहज सुख रस कस तजीअले कापड़ छोडे चमड़ लीए ॥ दुखीए दरदवंद दरि तेरै नामि रते दरवेस भए ॥३॥ खलड़ी खपरी लकड़ी चमड़ी सिखा सूतु धोती कीन्ही ॥ तूं साहिबु हउ सांगी तेरा प्रणवै नानकु जाति कैसी ॥४॥१॥३३॥ {पन्ना 358} नोट: ‘घरु ४’ का ये एक ही शबद है। पद्अर्थ: कै ताई = की खातिर। जुगति = मर्यादा। भगवे = गेरूऐ रंग के। तउ कारणि = तेरे दीदार की खातिर। रंगि = (तेरे) प्रेम में। कहणु न जाही = बयान नहीं किए जा सकते।1। रहाउ। महला = महल माढ़ीयां। हसती = हाथी। छोडि = छोड़ के। विलाइति = वतन। सालिक = ज्ञानवान, औरों को जीवन राह बताने वाले। सादिक = सिदकी। थाइ पऐ = कबूल होने के वास्ते।2। सहज = आराम। रस कस = सब स्वादों के पदार्थ। तजीअले = त्याग दिए। दर तेरै = तेरे दरवाजे पे। दरवेस = फ़कीर।3। खलड़ी = भांग आदि डालने के लिए चमड़े की झोली। लकड़ी = डण्डा। सिखा = चोटी, बोदी। सूतु = जनेऊ। जाति कैसी = मुझे किसी जाति का मान नहीं।4। अर्थ: हे मेरे मालिक! तुझे मिलने के लिए अनेकों ही लोग तेरे प्यार में रंगे रहते हैं। तेरे अनेकों नाम हैं, तेरे बेअंत रूप हैं, तेरे बेअंत ही गुण हैं, किसी भी तरह बयान नहीं किए जा सकते।1। रहाउ। देवताओं ने भी तेरा दर्शन करने के लिए अनेकों दुख सहे, भूख बर्दाश्त कीं और तीर्थ-रटन किए। अनेको जोगी व जती (अपनी-अपनी) मर्यादा में रहते हुए गेरूऐ रंग के कपड़े पहनते रहे।1। (तेरा दर्शन करने के लिए ही राज-मिलख के मालिक) अपने महल-माढ़ियों अपने घर-दरवाजे पे हाथी-घोड़े अपना देश-वतन छोड़ के (जंगलों में) चले गए। अनेकों पीर-पैग़ंबरों-ज्ञानवानों और सिदकियों ने तेरे दर पे कबूल होने के लिए दुनिया छोड़ दी।2। अनेकों लोगों ने दुनिया के स्वाद, सुख, आराम और सब रसों के पदार्थ छोड़ दिए, कपड़े छोड़ के चमड़ा पहना। अनेकों लोग दुखियों की तरह, दर्दवंदों की तरह तेरे दर पर फ़रियाद करने के लिए तेरे नाम में रंगे रहने के लिए (गृहस्थ छोड़ के) फ़कीर हो गए।3। किसी ने (भांग आदि डालने के लिए) चमड़े की झोली ले ली, किसी ने (घर-घर मांगने के लिए) खप्पर (हाथ में) पकड़ लिया, कोई डण्डाधारी सन्यासी बना, किसी ने म्गछाला ले ली, कोई चोटी-जनेऊ और धोती का धारणी हुआ। पर, नानक बिनती करता है– हे प्रभू! तू मेरा मालिक है, मैं सिर्फ तेरा सांगी हूँ (भाव, मैं सिर्फ तेरा कहलवाता हूँ, जैसे तू मुझे रखता है वैसे ही रहता हूँ) किसी खास श्रेणी में होने का मुझे कोई गुमान नहीं है।4।1।33। देखें पन्ना ६६७ पर महला ४; “संत जना की जाति हरि सुआमी, तुम ठाकुर हम सांगी॥ ” (सांगी का भाव:) जैसी मति देवहु हरि सुआमी, हम तैसे बुलग बुलागी।”3।1। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |