श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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आसा महला १ ॥ पेवकड़ै धन खरी इआणी ॥ तिसु सह की मै सार न जाणी ॥१॥ सहु मेरा एकु दूजा नही कोई ॥ नदरि करे मेलावा होई ॥१॥ रहाउ ॥ साहुरड़ै धन साचु पछाणिआ ॥ सहजि सुभाइ अपणा पिरु जाणिआ ॥२॥ गुर परसादी ऐसी मति आवै ॥ तां कामणि कंतै मनि भावै ॥३॥ कहतु नानकु भै भाव का करे सीगारु ॥ सद ही सेजै रवै भतारु ॥४॥२७॥ {पन्ना 357}

पद्अर्थ: पेवकड़ै = पेके घर में, जगत के मोह में। धन = स्त्री, जीव स्त्री। खरी = बहुत। इआणी = अंजान, मूर्ख। सह की = पति की। (शब्द ‘सहु’ और ‘सह’ का फर्क याद रखने योग्य है। शब्द ‘सहु’ कर्ताकारक एकवचन है और ‘ु’ की मात्रा से शब्द समाप्त होता है। परन्तु संबंधक ‘की’ के कारण ये ‘ु’ की मात्रा हट गई है)। सार = कद्र।1।

ऐकु = सदा एक रस रहने वाला।1। रहाउ।

सहुरड़ै = साहुरे घर में, जगत के मोह से निकल के, प्रभू चरणों में जुड़ के। सहजि = अडोल अवस्था में। सुभाइ = प्रेम में।2।

गुर परसादी = गुर प्रसादि, गुरू की किरपा से। कंतै मनि = कंत के मन में।3।

भै का = डर का। भाव का = प्रेम का। सीगारु = आत्मिक सोहज।4।

अर्थ: मेरा पति-प्रभू हर समय एक रस रहता है, उस जैसा और कोई नहीं है। वह सदा मेहर की नजर करता है (उसकी मेहर की नजर से ही) मेरा उससे मिलाप हो सकता है।1। रहाउ।

पर, जगत के मोह में फंस के जीव-स्त्री बहुत मूर्ख रहती है। (इस मोह में फस के ही) मैं उस पति-प्रभू (के मेहर की नजर) की कद्र नहीं समझ सकी (और उसके चरणों से विछुड़ी रही)।1।

जो जीव-स्त्री जगत के मोह से निकल के प्रभू-चरणों में जुड़ती है वह (प्रभू की मेहर की नजर से) सदा उस स्थिर प्रभू (की कद्र) पहचान लेती है; अडोल अवस्था में टिक के प्रेम में जुड़ के वह अपने पति प्रभू के साथ गहरी सांझ डाल लेती है।2।

जब गुरू की किरपा से (जीव-स्त्री को) ऐसी अक्ल आ जाती है (कि वह जगत का मोह छोड़ के प्रभू चरणों में जुड़ने का उद्यम करती है) तब जीव-स्त्री कंत (पति) प्रभू के मन को भाने लगती है।3।

नानक कहता है जो जीव-स्त्री परमात्मा के डर का और प्रेम का श्रृंगार बनाती है, उसके हृदय-सेज पर प्रभू-पति सदा आ के टिका रहता है।4।27।

आसा महला १ ॥ न किस का पूतु न किस की माई ॥ झूठै मोहि भरमि भुलाई ॥१॥ मेरे साहिब हउ कीता तेरा ॥ जां तूं देहि जपी नाउ तेरा ॥१॥ रहाउ ॥ बहुते अउगण कूकै कोई ॥ जा तिसु भावै बखसे सोई ॥२॥ गुर परसादी दुरमति खोई ॥ जह देखा तह एको सोई ॥३॥ कहत नानक ऐसी मति आवै ॥ तां को सचे सचि समावै ॥४॥२८॥ {पन्ना 357}

पद्अर्थ: झूठै मोहि = झूठे मोह के कारण। भरमि = भटकना में (पड़ कर)। भुलाई = (दुनिया) भूली हुई है, गलत रास्ते पर पड़ी हुई है।1।

कीता तेरा = तेरा पैदा किया हुआ। जपी = मैं जपता हूँ।1। रहाउ।

कूकै = पुकार करे। तिसु भावै = उस प्रभू को ठीक लगे।2।

दुरमति = खोटी मति। जह = जिस तरफ, जिधर। देखा = मैं देखता हूँ।3।

सचे = सच में ही, सदा कायम रहने वाले प्रभू में ही।4।

अर्थ: हे मेरे मालिक प्रभू! मैं तेरा पैदा किया हुआ हूँ (मेरी सारी शारीरिक व आत्मिक जरूरतें तू ही जानता है और पूरी करने के समर्थ है, मेरे आत्मिक जीवन की खातिर) जब तू मुझे अपना नाम देता है, तभी मैं जप सकता हूँ।1। रहाउ।

झूठे मोह के कारण दुनिया भटकना में पड़ के गलत रास्ते पर पड़ी हुई है (माता-पिता-पुत्र आदि को ही अपना सदा साथी जान के जीव परमात्मा को बिसारे बैठा है) असल में ना माँ, ना पुत्र कोई भी किसी का पक्का साथी नहीं है।1।

अनेकों ही पाप किए हुए हों, फिर भी अगर कोई मनुष्य (परमात्मा के दर पर) अरजोई करता है (परमात्मा पैदा किए की लाज रखता है) जब उसे (उस अति विकारी की भी आरजू) पसंद आती है तो वह बख्शिश करता है (और उसके आत्मिक जीवन के वास्ते उसको अपने नाम की दाति देता है)।2।

मैं जिधर भी देखता हूँ उधर (सब जीवों को पैदा करने वाला) वह परमातमा ही व्यापक देखता हूँ (पर ये भी तभी दिखाई देता है जब) गुरू की किरपा से हमारी खोटी मति नाश होती है।3।

नानक कहता है कि जब (प्रभू की अपनी मेहर से गुरू के द्वारा) जीव को ऐसी अक्ल आ जाए कि हर तरफ उसे परमात्मा ही दिखे, तो जीव सदा उस सदा-स्थिर परमात्मा की याद में लीन रहता है।4।28।

आसा महला १ दुपदे ॥ तितु सरवरड़ै भईले निवासा पाणी पावकु तिनहि कीआ ॥ पंकजु मोह पगु नही चालै हम देखा तह डूबीअले ॥१॥ मन एकु न चेतसि मूड़ मना ॥ हरि बिसरत तेरे गुण गलिआ ॥१॥ रहाउ ॥ ना हउ जती सती नही पड़िआ मूरख मुगधा जनमु भइआ ॥ प्रणवति नानक तिन्ह की सरणा जिन्ह तूं नाही वीसरिआ ॥२॥२९॥ {पन्ना 357}

पद्अर्थ: दुपदे = दा पदों वाले, दो बंदों वाले शबद।

तितु = उस में। सरवरड़ै = भयानक सरोवर में। तितु सरवरड़ै = उस डरावने सरोवर में। भईले = हुआ है। पावकु = आग। तिनहि = उस (प्रभू) ने (खुद ही)। पंक = कीचड़। पंकजु मोह = पंक जो मोह, मोह का कीचड़। पगु = पैर। हम देखा = हमारे देखते ही, हमारे सामने ही। तह = उस में, वहाँ। डूबीअले = डूब गए।1।

मन = हे मन! मूढ़ = हे मूर्ख! गलिआ = गलते जाते हैं, कम होते जाते हैं।1। रहाउ।

हउ = मैं। जती = जत वाला, काम वासना को रोक के रखने वाला। सती = सत वाला, उच्च आचरण वाला। मुगधा = मूर्ख, बेसमझ। जनमु = जीवन। प्रणवति = विनती करता है।2।

अर्थ: (हम जीवों का) उस भयानक सरोवर में बसेरा है जिसमें उस प्रभू ने खुद ही पानी की जगह (तृष्णा की) आग पैदा की है, (और उस सरोवर में) जो मोह का कीचड़ है (उसमें जीवों के) पैर चल नहीं सकते (भाव, जीव मोह के कीचड़ में फंसे हुए हैं), हमारे सामने ही कई जीव (मोह के कीचड़ में फस के तृष्णा की आग के अथाह जल में) डूबते जा रहे हैं।1।

हे मन! हे मूर्ख मन! तू एक प्रभू को याद नहीं करता। तू ज्यों-ज्यों प्रभू को बिसारता है, तेरे (अंदर से) गुण कम होते जाते हैं।1। रहाउ।

हे प्रभू! ना मैं जती हूँ, ना मैं सती हूँ, ना ही मैं पढ़ा (-लिखा) हूँ, मेरा जीवन तो मूर्खों बेसमझों वाला बना हुआ है, (भाव, जत-सत और विद्या इस तृष्णा की आग और मोह के कीचड़ में गिरने से बचा नहीं सकते। अगर मनुष्य प्रभू को बिसार दे, तो जत-सत-विद्या के होते हुए भी मनुष्य की जिंदगी महा मूर्खों वाली ही होती है)। (सो) नानक बिनती करता है– (हे प्रभू! मुझे) उन (गुरमुखों) की शरण में (रख) जिन्हें तू नहीं भूला (जिन्हें तेरी याद नहीं भूली)।2।29।

आसा महला १ ॥ छिअ घर छिअ गुर छिअ उपदेस ॥ गुर गुरु एको वेस अनेक ॥१॥ जै घरि करते कीरति होइ ॥ सो घरु राखु वडाई तोहि ॥१॥ रहाउ ॥ विसुए चसिआ घड़ीआ पहरा थिती वारी माहु भइआ ॥ सूरजु एको रुति अनेक ॥ नानक करते के केते वेस ॥२॥३०॥ {पन्ना 357}

पद्अर्थ: छिअ = छे। घर = शास्त्र। छिअ घर = (सांख, न्याय, वैशेषिक, मीमांसा, योग, वेदांत)। गुर = करता, शास्त्र के रचयता। छिअ गुर = (कल्प, गौतम, कणाद, जैमिनी, पतंजलि, व्यास)। उपदेस = शिक्षा, सिद्धांत। गुरु गुरु = ईष्ट गुरू। ऐको = एक ही।1।

जै घरि = जिस घर के द्वारा, जिस सत्संग घर में। कीरति = कीर्ति, सिफत सालाह। वडाई = उपमा। तोहि = तुझे।1। रहाउ।

आँख की 15 झपक =1 विसा।
15 विसुए = 1 चसा।
30 चसे = 1 पल।
30 पल = 1 घड़ी।
7.5 घड़ियां = 1 पहर।

15 तिथियां। 7 वार। 12 महीने। 6 ऋतुएं। वेस = रूप। केते = कितने, अनेकों।2।

अर्थ: छे शास्त्र हैं, छे ही (इन शास्त्रों के) चलाने वाले हैं, छे ही इनके सिद्धांत हैं। पर इन सभी का मूल-गुरू (परमातमा) एक ही है। (ये सारे सिद्धांत) उस एक प्रभू के ही अनेकों वेश हैं (प्रभू की हस्ती के प्रकाश के कई रूप हैं)।1।

जिस (सत्संग-) घर में अकाल पुरख की सिफत सालाह होती है, (हे भाई!) तू घर को संभाल के रख (उस सत्संग का आसरा ले, इसी में) तुझे वडिआई मिलेगी।1। रहाउ।

जैसे विसूए, चसे, घड़ियां, पहर, तिथिएं, वार, महीने (आदि) व अनेकों ऋतुएं हैं, पर सूरज एक ही है (जिसके ये सारें अलग-अलग स्वरूप हैं), वैसे ही, हे नानक! करतार के (ये सारे जीव-जंतु) अनेको स्वरूपों में हैं।2।30।

नोट: ‘घरु २’ के 30 शब्दों का संग्रह यहीं पर समाप्त होता है। आगे ‘घरु ३’ के शबद शुरू होते हैं। नए सिरे से मूलमंत्र का लिखा जाना भी यही बताता है कि नया संग्रह आरम्भ हो रहा है।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh