श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 356 आसा महला १ पंचपदे२ ॥ मोहु कुट्मबु मोहु सभ कार ॥ मोहु तुम तजहु सगल वेकार ॥१॥ मोहु अरु भरमु तजहु तुम्ह बीर ॥ साचु नामु रिदे रवै सरीर ॥१॥ रहाउ ॥ सचु नामु जा नव निधि पाई ॥ रोवै पूतु न कलपै माई ॥२॥ एतु मोहि डूबा संसारु ॥ गुरमुखि कोई उतरै पारि ॥३॥ एतु मोहि फिरि जूनी पाहि ॥ मोहे लागा जम पुरि जाहि ॥४॥ गुर दीखिआ ले जपु तपु कमाहि ॥ ना मोहु तूटै ना थाइ पाहि ॥५॥ नदरि करे ता एहु मोहु जाइ ॥ नानक हरि सिउ रहै समाइ ॥६॥२३॥ {पन्ना 356} नोट: शबद नं:19 का शीर्षक था ‘पंचपदे’। सो, शबद नंबर 24 तक पंचपदे ही हैं। पर यहां फिर शीर्षक आ गया ‘पंच पदे’। ये ‘पंचपदे’ उस संग्रह का हिस्सा ही हैं, वैसे इनके ‘बंद’ छोटे हैं। ये शबद नंबर 23 छे बंदों का है, पर शीर्षक आम तौर पर चौपदे, पंचपदे, दुपदे ही हैं। ‘छेपदा’ शीर्षक कहीं भी नहीं बरता गया। सो, इसे भी ‘पंचपदा’ ही कहा गया है। पद्अर्थ: कुटंबु = परिवार, परिवार की ममता।1। बीर = हे वीर! हे भाई! सरीर = (भाव) मनुष्य। रवै = सिमरता है।1। रहाउ। जा = जब। नवनिधि = नौ खजाने। पूतु = माया का पुत्र मन, माया में खचित मन। माई = माया (की खातिर)।2। ऐतु = इस में। मोहि = मोह में। ऐतु मोहि = इस मोह में।3। पाहि = तू पाएगा। जमपुरि = जमके देश में। जाहि = तू जाएगा।4। दीखिआ = दिक्षा, शिक्षा। कमाहि = लोग कमाते हैं। थाइ पाहि = कबूल होते हैं।5। रहै समाइ = लीन हुआ रहता है।6। अर्थ: हे भाई! (दुनिया का) मोह छोड़ और मन की भटकना दूर कर। (मोह त्याग के ही) मनुष्य परमात्मा का अटल नाम हृदय में सिमर सकता है।1। रहाउ। (हे भाई!) मोह (मनुष्य के मन में) परिवार की ममता पैदा करता है, मोह (जगत की) सारी कार चला रहा है, (पर मोह ही) विकार पैदा करता है, (इस वास्ते) मोह त्याग।1। जब मनुष्य परमात्मा का सदा स्थिर नाम (-रूपी) नौ-निधि प्राप्त कर लेता है (तो उसका मन माया में खचित नहीं रहता, फिर) मन माया की खातिर रोता नहीं, कलपता नहीं।2। इस मोह में सारा जगत डूबा पड़ा है, कोई विरला मनुष्य जो गुरू के बताए रास्ते पर चलता है (मोह के समुंद्र में से) पार लांघता है।3। (हे भाई!) इस मोह में (फसा हुआ) तू बार-बार जूनियों में पड़ेगा, मोह में ही जकड़ा हुआ तू यमराज के देश में जाएगा।4। जो लोग (रिवाज के तौर पे) गुरू की शिक्षा ले के जप-तप कमाते हैं, उनका मोह नहीं टूटता, (इन जपों-तपों से) वह (प्रभू की हजूरी में) कबूल नहीं होते।5। हे नानक! जिस मनुष्य पे प्रभू की नजर करता है, उसका ये मोह दूर होता है, वह सदा परमात्मा (की याद) में लीन रहता है।6।23। आसा महला १ ॥ आपि करे सचु अलख अपारु ॥ हउ पापी तूं बखसणहारु ॥१॥ तेरा भाणा सभु किछु होवै ॥ मनहठि कीचै अंति विगोवै ॥१॥ रहाउ ॥ मनमुख की मति कूड़ि विआपी ॥ बिनु हरि सिमरण पापि संतापी ॥२॥ दुरमति तिआगि लाहा किछु लेवहु ॥ जो उपजै सो अलख अभेवहु ॥३॥ ऐसा हमरा सखा सहाई ॥ गुर हरि मिलिआ भगति द्रिड़ाई ॥४॥ सगलीं सउदीं तोटा आवै ॥ नानक राम नामु मनि भावै ॥५॥२४॥ {पन्ना 356} पद्अर्थ: सचु = सदा कायम रहने वाला। अलखु = जिसका स्वरूप बयान ना हो सके।1। तेरा भाणा = जो कुछ तुझे अच्छा लगता है। हठि = हठ से। अंति = आखिर को। विगोवै = ख्वार होता है।1। रहाउ। मनमुख = जो अपने मन के पीछे चलता है। कूड़ि = झूठ में, माया के मोह मे। विआपी = ग्रसी रहती है, फसी रहती है। पापि = पाप के कारण। संतापी = दुखी।2। दुरमति = बुरी मति। तिआगि = छोड़ के। लाहा = लाभ। अभेवहु = अभेव प्रभू से।3। सहाई = मदद करने वाला। द्रिढ़ाई = मन में दृढ़ कर दी।4। सउदीं = सौदों में। तोटा = घाटा। मनि = मन में।5। अर्थ: (जो कुछ जगत में हो रहा है) सदा कायम रहने वाला अलख बेअंत परमात्मा (सब जीवों में व्यापक हो के) खुद कर रहा है। (हे प्रभू! ये अॅटल नियम भुला के) मैं गुनाहगार हूँ (पर फिर भी तू) बख्शिश करने वाला है।1। जगत में जो कुछ होता है सब कुछ वही होता है जो (हे प्रभू!) तुझे अच्छा लगता है, (पर ये अटल सच्चाई भुला के) मनुष्य निरे अपने मन के हठ से (भाव, निरी अपनी अक्ल का आसरा ले के) काम करने पर आखिर दुखी होता है।1। रहाउ। (निरे) अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य की अक्ल माया के मोह में फंसी रहती है, (इस तरह) प्रभू के सिमरन से वंचित हो के (माया के लालच में किए) किसी बुरे कर्म के कारण दुखी होती है।2। (हे भाई! माया के मोह में फसी) दुर्मति त्याग के कुछ आत्मिक लाभ भी कमाओ, (ये यकीन लाओ कि) जो कुछ पैदा हुआ है, उस अलख और अभेव प्रभू से ही पैदा हुआ है (भाव, परमातमा सब कुछ करने के समर्थ है)।3। (हम जीव बार-बार भूलते हैं और अपनी अक्ल पर मान करते हैं, पर) हमारा मित्र प्रभू सदा सहायता करने वाला है (उसकी मेहर से) जो मनुष्य गुरू से मिल जाता है, गुरू उसे परमात्मा की भक्ति की ही ताकीद करता है।4। (प्रभू का सिमरन भुला के) सारे दुनियावी सौदों में घाटा ही घाटा है (उम्र व्यर्थ गुजरती जाती है); हे नानक! (उस मनुष्य को कोई कमी नहीं आती) जिसके मन में परमात्मा का नाम प्यारा लगता है।5।24। आसा महला १ चउपदे४ ॥ विदिआ वीचारी तां परउपकारी ॥ जां पंच रासी तां तीरथ वासी ॥१॥ घुंघरू वाजै जे मनु लागै ॥ तउ जमु कहा करे मो सिउ आगै ॥१॥ रहाउ ॥ आस निरासी तउ संनिआसी ॥ जां जतु जोगी तां काइआ भोगी ॥२॥ दइआ दिग्मबरु देह बीचारी ॥ आपि मरै अवरा नह मारी ॥३॥ एकु तू होरि वेस बहुतेरे ॥ नानकु जाणै चोज न तेरे ॥४॥२५॥ {पन्ना 356} नोट: ये सारा संग्रह ‘घरु 2’ का चला आ रहा है। पहले 18 शबद‘चउपदे’ हैं, फिर 6 शबद ‘पंचपदे’ हैं। अब फिर ‘चउपदे’ आरम्भ हो गए हैं। ये गिनती में चार हैं। देखें शब्द ‘चउपदे’ के नीचे 4 लिखा है। पहले चउपदे–शबदों के हरेक बंद में ‘चौपाई’ की तरह की कम से कम चार तुकें हैं, ‘दोहरा’–मेल की दो तुकें हैं। पर इस नए संग्रह में ‘चौपाई–मेल की तुकें ही सिर्फ दो–दो हैं। यह संग्रह पहले से अलग लिख दिया गया है। नोट: इस शबद की तुकों में दो–दो चीजों का मुकाबला करके एक से दूसरी बढ़िया बताई गई है– तीरथवासी वही समझो जो पंचरासी है। अगर ‘मनु लागै’ तो ‘घुंघरू वाजै’ प्रवान है। अगर ‘आस निरासी’ है तो ही ‘संनिआसी’ है। अगर ‘जोगी जतु’ है तो ही असल ‘काइआ भोगी’ है। अगर ‘दइआ’ है, अगर ‘देह बीचारी’ है तो ही ‘दिगंबर’ है। अगर ‘आपि मरै’ तो ही समझो कि ‘अवरा नह मारी’। इसी तरह पहली तुक में भी एक चीज के मुकाबले दूसरी प्रवान की गई है; भाव, वही है ‘विदिआ वीचारी’ जो ‘परउपकारी’ है। सो, पहली तुक के पाठ के समय शब्द ‘तां’ पे विश्राम करना है। अर्थ के समय शब्द ‘परउपकारी’ के साथ शब्द ‘या’ इस्तेमाल करना है। पद्अर्थ: पंचरासी = पाँच कामादिकों रास कर लेने वाला, वश में कर लेने वाला।1। आगै = परलोक में।1। रहाउ। काइआ भोगी = काया को भोगने वाला, गृहस्थी।2। दिगंबरु = (दिग+अंबर) दिशा हैं जिसके कपड़े, नंगा रहने वाला, नागा जैनी।3। चोज = करिश्मे, तमाशे।4। अर्थ: (विद्या प्राप्त करके) जो मनुष्य दूसरों के साथ भलाई करने वाला हो गया है तो ही समझो कि वह विद्या पा के विचारवान बना है। तीर्थों पर निवास रखने वाला तभी सफल है, अगर उसने पाँचो कामादिक वश में कर लिए हैं।1। अगर मेरा मन प्रभू चरणों में जुड़ना सीख गया है तभी (भक्तिया बन के) घुंघरू बजाने सफल हैं। फिर परलोक में यम मेरा कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता।1। रहाउ। अगर सब मायावी-आशाओं से उपराम है तो समझो ये सन्यासी है। अगर (गृहस्थ में होते हुए) जोगी वाला जत (कायम) है तो उसे असल गृहस्थी जानो।2। अगर (हृदय में) दया है, अगर शरीर को (विकारों की ओर से पवित्र रखने की) विचार वाला भी है,तो वह असल दिगंबर (नागा जैनी); जो मनुष्य खुद (विकारों की ओर से) मरा हुआ है वही है (असल अहिंसावादी) जो औरों को नहीं मारता।3। (पर किसी को बुरा नहीं कहा जा सकता, हे प्रभू!) ये सारे तेरे ही अनेको वेश है, हरेक वेश में तू खुद ही मौजूद है। नानक (बिचारा) तेरे करिश्मे-तमाशे समझ नहीं सकता।4।25। आसा महला १ ॥ एक न भरीआ गुण करि धोवा ॥ मेरा सहु जागै हउ निसि भरि सोवा ॥१॥ इउ किउ कंत पिआरी होवा ॥ सहु जागै हउ निस भरि सोवा ॥१॥ रहाउ ॥ आस पिआसी सेजै आवा ॥ आगै सह भावा कि न भावा ॥२॥ किआ जाना किआ होइगा री माई ॥ हरि दरसन बिनु रहनु न जाई ॥१॥ रहाउ ॥ प्रेमु न चाखिआ मेरी तिस न बुझानी ॥ गइआ सु जोबनु धन पछुतानी ॥३॥ अजै सु जागउ आस पिआसी ॥ भईले उदासी रहउ निरासी ॥१॥ रहाउ ॥ हउमै खोइ करे सीगारु ॥ तउ कामणि सेजै रवै भतारु ॥४॥ तउ नानक कंतै मनि भावै ॥ छोडि वडाई अपणे खसम समावै ॥१॥ रहाउ ॥२६॥ {पन्ना 356-357} पद्अर्थ: निसि = रात। निसि भरि = सारी रात, सारी उम्र। सोवा = मैं सोऊँ, मैं मोह की नींद में सोई रहूँ। जागै = जागता है, विकार उसके नजदीक नहीं फटकते।1। पिआसी = प्यास से व्याकुल। आस प्यासी = दुनिया की आशाओं की प्यास से व्याकुल।2। तिस = तिख, प्यास, माया की तृष्णा। धन = जीव स्त्री।3। अजै = अब भी जब कि शरीर कायम है। रहउ = मैं रह जाऊँ, मैं हो जाऊँ।1। रहाउ। खोइ = नाश करके। सीगारु = आत्मिक श्रृंगार, आत्मा को सुंदर बनाने वाला उद्यम। भतारु = पति, खसम, प्रभू।4। नोट: आम तौर पर हरेक शबद में एक बंद ‘रहाउ’ का होता है। शब्द ‘रहाउ’ का अर्थ है ‘ठहर जाओ’। यही बंद है शबद का ‘केन्द्रिय भाव’ वाला। उपरोक्त शबद में चार ‘रहाउ’ के बंद हैं। शबद के हरेक बंद के साथ एक–एक ‘रहाउ’ का बंद है। इनमें तरतीब वार मनुष्य की चारों अवस्थाओं का वर्णन किया गया है, जिनमें से गुजर के जीव का प्रभू से मिलाप होता है:1. पछतावा, 2. दर्शन की चाह, 3. व्याकुलता और 4. रज़ा में लीनता। अर्थ: मैं सिर्फ किसी अवगुण से लिबड़ी हुई नहीं हूँ कि अपने अंदर गुण पैदा करके एक अवगुण को धो सकूँ (मेरे अंदर तो बेअंत अवगुण हैं, क्योंकि) मैं तो सारी उम्र-रात ही (मोह की नींद में) सोई रही और मेरा पति-प्रभू जागता रहता है (उसके नजदीक मोह फटक ही नहीं सकता)।1। ऐसी हालत में, मैं पति-प्रभू को कैसे प्यारी लग सकती हूँ? पति जागता है और मैं सारी रात सोई रहती हूँ।1। रहाउ। मैं सेज पर आती हूँ (मैं हृदय रूपी सेज की तरफ पलटती हूँ, पर अभी भी) दुनिया की आशाओं की प्यास से मैं व्याकुल हूँ। (ऐसी आत्मिक दशा से कैसे यकीन बने, कैसे पक्का हो कि) मैं पति-प्रभू को पसंद आऊँ।2। हे माँ! (सारी उम्र माया की नींद में सोए रहने के कारण) मुझे समझ नहीं आ रही कि मेरा क्या बनेगा (मुझे पति-प्रभू परवान करेगा कि नहीं, पर अब) प्रभू-पति के दर्शन के बिना मुझे ढाढस नहीं बंधता।1। रहाउ। (हे माँ! सारी उम्र) मैंने प्रभू-पति के प्रेमका स्वाद नहीं चखा; इस करके मेरी माया वाली तृष्णा (की आग) नहीं बुझ सकी। मेरी जवानी गुजर गई है, अब मेरी जिंद पछतावा कर रही है।3। (हे माँ! जवानी तो गुजर गई है, पर अरदास कर) अभी भी मैं माया की आशाओं की प्यास से उपराम हो के माया की आशाएं त्याग के जीवन गुजारूँ (शायद मेहर कर ही दे)।1। रहाउ। जब जीव-स्त्री अहंकार गवा देती है जब जिंद को सुंदर बनाने का ऐसा प्रयत्न करती है, तब उस जीव-स्त्री को पति-प्रभू उसकी हृदय-सेज पे आ के मिलता है।4। हे नानक! तब ही जीव-स्त्री पति-प्रभू के मन को भाती है, जब मान-वडिआई (घमण्ड वगैरा) छोड़ के अपने पति की रज़ा में लीन होती है।1। रहाउ। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |