श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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आसा महला १ ॥ काइआ ब्रहमा मनु है धोती ॥ गिआनु जनेऊ धिआनु कुसपाती ॥ हरि नामा जसु जाचउ नाउ ॥ गुर परसादी ब्रहमि समाउ ॥१॥ पांडे ऐसा ब्रहम बीचारु ॥ नामे सुचि नामो पड़उ नामे चजु आचारु ॥१॥ रहाउ ॥ बाहरि जनेऊ जिचरु जोति है नालि ॥ धोती टिका नामु समालि ॥ ऐथै ओथै निबही नालि ॥ विणु नावै होरि करम न भालि ॥२॥ पूजा प्रेम माइआ परजालि ॥ एको वेखहु अवरु न भालि ॥ चीन्है ततु गगन दस दुआर ॥ हरि मुखि पाठ पड़ै बीचार ॥३॥ भोजनु भाउ भरमु भउ भागै ॥ पाहरूअरा छबि चोरु न लागै ॥ तिलकु लिलाटि जाणै प्रभु एकु ॥ बूझै ब्रहमु अंतरि बिबेकु ॥४॥ आचारी नही जीतिआ जाइ ॥ पाठ पड़ै नही कीमति पाइ ॥ असट दसी चहु भेदु न पाइआ ॥ नानक सतिगुरि ब्रहमु दिखाइआ ॥५॥२०॥ {पन्ना 355}

पद्अर्थ: काइआ = शरीर, मनुष्य का शरीर, विकारों से बचा हुआ शरीर। ब्रहमा = ब्राहमण। मनु = पवित्र मन। गिआनु = परमात्मा के साथ गहरी सांझ। धिआनु = परमात्मा की याद में सुरति जोड़नी। कुस = कुश, दूब, दॅभ। कुस पाती = हरी घास का छल्ला, दूब का छल्ला (जो कानी उंगली के साथ की उंगली में पहना जाता है कोई पूजा आदि करने के समय)। जसु = सिफत सालाह। जाचउ = मैं मांगता हूँ। परसादी = प्रसादि, किरपा से। ब्रहमि = परमात्मा में। समाउ = मैं लीन रहूँ।1।

पांडे = हे पणि्उत! नामे = नाम में ही। नामो पढ़उ = मैं नाम (-रूपी वेद आदि) पढ़ता हूँ। चजु = धार्मिक रस्में करनी। आचारु = धार्मिक रस्में करनीं।1। रहाउ।

बाहरि = शरीर पर पहना हुआ। अेथै = इस लोक में। ओथै = परलोक में। होरि = (शब्द ‘होर’ का बहुवचन)। भालि = ढूँढ।2।

पूजा = मूर्ति के आगे धूप धुखाना। प्रेम माइआ = माया का मोह। परजालि = अच्छी तरह जला दे। चीनै = जो मनुष्य देखता है। ततु = सर्व-व्यापक ज्योति। गगन = आकाश, चित्त-रूपी आकाश, दिमाग। लिलाट = माथे पर। बिबेकु = दो चीजों में अंतर करने की सूझ।4।

आचारी = धार्मिक रस्मों के द्वारा। कीमति = कद्र। असटदसी = अठारह (पुराणों) ने। चहु = चार वेदों ने। सतिगुरि = गुरू ने।5।

अर्थ: हे पांडे! परमात्मा के नाम में ही स्वच्छता है, मैं तो परमातमा का नाम-सिमरन (रूपी वेद) पढ़ता हूँ। प्रभू के नाम में ही सारी धार्मिक रस्में आ जाती हैं। तू भी इसी तरह परमात्मा के गुणों की विचार कर।1। रहाउ।

(नाम की बरकति से विकारों से बचा हुआ) मानव शरीर ही (उच्च जाति का) ब्राहमण है, (पवित्र हुआ) मन (ब्राहमण की) धोती है। परमात्मा के साथ गहरी जान-पहचान जनेऊ है और प्रभू चरणों में जुड़ी हुई सुरति दूब का छल्ला। मैं तो (हे पांडे!) परमात्मा का नाम ही (दक्षिणा) मांगता हूँ, सिफत सालाह ही मांगता हूँ, ताकि गुरू की किरपा से (नाम सिमर के) परमात्मा में लीन रहूँ।1।

(हे पांडे!) बाहरी जनेऊ तब तक ही है जब तक ज्योति शरीर में मौजूद है (फिर ये किस काम का?)। प्रभू का नाम दिल में संभाल- यही धोती है यही है टीका (तिलक)। ये नाम ही लोक-परलोक में साथ निभाता है। (हे पांडे!) नाम बिसार के धर्म के नाम पर और ही रस्में ना तलाशता फिर।2।

(नाम में जुड़ के) माया का मोह (अपने अंदर से) अच्छी तरह जला दे- यही है देव-पूजा। हर जगह एक परमात्मा को देख, (हे पांडे!) उसके बिना किसी और देवते को ना ढूँढता रह। जो मनुष्य हर जगह व्यापक परमात्मा को पहचान लेता है उसने मानों दसवें-द्वार में समाधि लगाई हुई है। जो मनुष्य प्रभू के नाम को सदा अपने मुँह में रखता है (उचारता है), वह (वेद आदि पुस्तकों के) विचार पढ़ रहा है।3।

(हे पांडे! प्रभू चरणों से) प्रीत (जोड़, ये) है (मूर्ति को) भोग, (इसकी बरकति से) मन की भटकना दूर हो जाती है, डर उतर जाता है। प्रभू-रक्षक के तेज से (अपने अंदर प्रकाश कर) कोई कामादिक चोर नजदीक नहीं फटकता। जो मनुष्य एक परमात्मा के साथ गहरी सांझ डालता है, उसने मानो, माथे पर तिलक लगाया हुआ है। जो अपने अंदर बसते प्रभू को पहचानता है वह अच्छे-बुरे कर्म की परख सीख लेता है (यही है असल बिबेक)।4।

(हे पांडे!) परमात्मा निरी धार्मिक रस्मों से वश में नहीं किया जा सकता, वेद आदि पुस्तकों आदि के पाठ पढ़ने से भी उसकी समझ नहीं पड़ सकती। जिस परमात्मा का भेद अठारह पुराणों और चारों वेदों को नही मिला, हे नानक! सतिगुरू ने (हमें) वह (अंदर-बाहर हर जगह) दिखा दिया है।5।20।

आसा महला १ ॥ सेवकु दासु भगतु जनु सोई ॥ ठाकुर का दासु गुरमुखि होई ॥ जिनि सिरि साजी तिनि फुनि गोई ॥ तिसु बिनु दूजा अवरु न कोई ॥१॥ साचु नामु गुर सबदि वीचारि ॥ गुरमुखि साचे साचै दरबारि ॥१॥ रहाउ ॥ सचा अरजु सची अरदासि ॥ महली खसमु सुणे साबासि ॥ सचै तखति बुलावै सोइ ॥ दे वडिआई करे सु होइ ॥२॥ तेरा ताणु तूहै दीबाणु ॥ गुर का सबदु सचु नीसाणु ॥ मंने हुकमु सु परगटु जाइ ॥ सचु नीसाणै ठाक न पाइ ॥३॥ पंडित पड़हि वखाणहि वेदु ॥ अंतरि वसतु न जाणहि भेदु ॥ गुर बिनु सोझी बूझ न होइ ॥ साचा रवि रहिआ प्रभु सोइ ॥४॥ किआ हउ आखा आखि वखाणी ॥ तूं आपे जाणहि सरब विडाणी ॥ नानक एको दरु दीबाणु ॥ गुरमुखि साचु तहा गुदराणु ॥५॥२१॥ {पन्ना 355}

पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरू की तरफ मुंह रखने वाला, जो गुरू के सन्मुख रहे, गुरू के बताए राह पर चलने वाला। जिनि = जिस प्रभू ने। सिरि = सृष्टि। फुनि = दुबारा। गोई = नाश की।1।

सबदि = शबद के द्वारा। विचारि = विचार के। साचे = सुर्ख़रू। दरबारि = दरबार में।1। रहाउ।

अरजु = विनती। तखति = तख़्त पर। करे सु होइ = सब कुछ करने के समर्थ।2।

ताणु = ताकत। दीबाणु = आसरा। नीसाणु = परवाना, राहदारी। परगटु = मशहूर, आदर पा के। नीसाणै = राहदारी के कारण। ठाक = रोक।3।

वखाणहि = व्याख्यान करते हैं, समझाते हैं। बूझ = समझ। रवि रहिआ = व्यापक है।4।

हउ = मैं। आखि = कह के। सरब विडाणी = हे सारे करिश्में करने वाले! गुदराणु = गुजरान, जिंदगी का सहारा।5।

(नोट: जैसे शब्द ‘काज़ी’ का दूसरा उच्चारण ‘कादी’ है, जैसे ‘नज़रि’ का दूसरा ‘नदरि’ है, वैसे ही शब्द ‘गुजराणु’ का ‘गुदराणु’ है)।

अर्थ: गुरू के शबद के द्वारा परमात्मा का सदा स्थिर रहने वाला नाम विचार के गुरू के सन्मुख रहने वाले लोग सदा अटल प्रभू के दरबार में सुर्खरू होते हैं।1। रहाउ।

गुरू के सन्मुख रहने वाला मनुष्य ही परमात्मा का दास बनता है, वही मनुष्य (असल) सेवक है दास है भगत है, (उसे सदा ये यकीन रहता है कि) जिस प्रभू ने ये सृष्टि रची है वही इसे दुबारा नाश करता है, उस जैसा और कोई दूसरा नहीं है।1।

गुरू के सन्मुख रहके की हुई विनती और अरदास ही असल (प्रार्थना) है, महल का मालिक पति-प्रभू उस अरदास को सुनता है और आदर देता है (शाबाश कहता है), अपने सदा अटॅल तख़्त पर (बैठा हुआ प्रभू) उस सेवक को बुलाता है, और वह सब कुछ करने में समर्थ प्रभू उसे आदर-मान देता है।2।

(हे प्रभू!) गुरमुख को तेरा ही ताण है (सहारा है) तेरा ही आसरा है। गुरू का शबद ही उसके पास रहने वाला सदा चिर परवाना है। गुरमुखि परमात्मा की रज़ा को (सिर माथे, पूरी तरह से) मानता है, जगत में शोभा कमा के जाता है, गुरू-शबद की सच्ची राहदारी के कारण उसकी जिंदगी के रास्ते में कोई विकार रुकावट नहीं डाल सकता।3।

पण्डित लोग वेद पढ़ते हैं और औरों को व्याख्या करके सुनाते हैं, पर (निरे विद्या के मान में रहके) ये भेद नहीं जानते कि परमात्मा का नाम-पदार्थ अंदर ही मौजूद है। सदा-स्थिर प्रभू हरेक के अंदर व्यापक हे, पर ये समझ गुरू की शरण पड़े बिना नहीं आती।4।

हे चोजी प्रभू! गुरू के सन्मुख रहने का मैं क्या ज़िक्र करूँ? क्या कह के सुनाऊँ? तू (इस भेद) को खुद ही जानता है।

हे नानक! गुरमुखि के लिए प्रभू का ही एक दरवाजा है आसरा है जहाँ गुरू के सन्मुख रहके सिमरन करना उसकी जिंदगी का सहारा बना रहता है।5।21।

आसा महला १ ॥ काची गागरि देह दुहेली उपजै बिनसै दुखु पाई ॥ इहु जगु सागरु दुतरु किउ तरीऐ बिनु हरि गुर पारि न पाई ॥१॥ तुझ बिनु अवरु न कोई मेरे पिआरे तुझ बिनु अवरु न कोइ हरे ॥ सरबी रंगी रूपी तूंहै तिसु बखसे जिसु नदरि करे ॥१॥ रहाउ ॥ सासु बुरी घरि वासु न देवै पिर सिउ मिलण न देइ बुरी ॥ सखी साजनी के हउ चरन सरेवउ हरि गुर किरपा ते नदरि धरी ॥२॥ आपु बीचारि मारि मनु देखिआ तुम सा मीतु न अवरु कोई ॥ जिउ तूं राखहि तिव ही रहणा दुखु सुखु देवहि करहि सोई ॥३॥ आसा मनसा दोऊ बिनासत त्रिहु गुण आस निरास भई ॥ तुरीआवसथा गुरमुखि पाईऐ संत सभा की ओट लही ॥४॥ गिआन धिआन सगले सभि जप तप जिसु हरि हिरदै अलख अभेवा ॥ नानक राम नामि मनु राता गुरमति पाए सहज सेवा ॥५॥२२॥ {पन्ना 355-356}

पद्अर्थ: काची गागरि = कच्चा घड़ा। देह = शरीर। दुहेली = दुखों का घर बनी हुई। दुतरु = जिसे तैरना मुश्किल है।1।

हरे = हे हरी! रंगी रूपी = रंगों में रूपों में।1। रहाउ।

सासु = सास, माया । घरि = घर मे। बुरी = चंदरी, बुरे स्वभाव वाली। सखी साजनी = सजनियां सहेलियां, सत्संगी। हउ = मैं। सरेवउ = मैं सेवा करती हूँ।2।

(नोट: शब्द ‘सासु’ संस्कृत के शब्द ‘श्वश्रु’ से बना है। अंत में ‘ु’ मात्रा होने के कारण पुलिंग प्रतीत होता है, पर है स्त्रीलिंग)।

आपु = अपने आप को। मारि = मार के। करहि = तू करता है।3।

आसा = उमीद। मनसा = मन का फुरना, तांघ, तमन्ना, लालसा। तुरीआवसथा = वह आत्मिक हालत जहाँ माया नहीं पकड़ सकती।4।

गिआन = धर्म चर्चा। धिआन = समाधियां। सभि = सारे। अलख = जिसके गुण बयान ना हो सकें। अभेव = जिसका भेद ना पाया जा सके। नामि = नाम में। सेवा = सिमरन। सहज सेवा = अडोल अवस्था में टिक के सिमरन।5।

अर्थ:

(नोट-नदियों के किनारे के तैराक बाढ़ के दौरान पक्के घड़ों का आसरा ले के दरिया से पार लांघ जाते हैं। रावी नदी के किनारे पर रहते हुए ये आँखों देखा नजारा यहाँ दृष्टांत के तौर पर यहाँ प्रयोग करते हैं)।

(नित्य विकारों में खचित रहने के कारण) ये शरीर दुखों का घर बन गया है (विकारों के असर से ये नहीं निकलता) और कच्चे घड़े के समान है (जो तुरंत पानी में गल जाता है), पैदा होता है, (सारी उम्र) दुख पाता है और फिर नाश हो जाता है (एक तरफ़ तो कच्चे घड़े जैसा ये शरीर है, दूसरी तरफ़) ये जगत एक ऐसा समुंद्र है जिससे पार लांघना बहुत मुश्किल है, (इस विकार भरे शरीर का आसरा ले के) इसमें से तैरा नहीं जा सकता, गुरू परमात्मा का आसरा लिए बिना पार नहीं किया जा सकता।1।

हे मेरे प्यारे हरी! मेरा तेरे बिना और कोई (आसरा) नहीं, तेरे बिना मेरा कोई नहीं। तू सारे रंगों में, सारे रूपों में मौजूद है। (हे भाई!) जिस जीव पर (वह) मेहर की नजर करता है उसको बख्श लेता है।1। रहाउ।

(मेरा प्रभू-पति मेरे हृदय-घर में ही बसता है, पर) ये बुरी सास (माया) मुझे हृदय-घर में टिकने ही नहीं देती (मेरे मन को सदा बाहर मायावी पदार्थों के पीछे भगाए फिरती है) ये चंद्री मुझे पति से मिलने नहीं देती। (इस बुरी औरत से बचने के लिए) मैं सत्संगी सहेलियों की सेवा करती हूँ (सत्संग में गुरू मिलता है), गुरू की किरपा से पति-प्रभू मेरे पर मेहर की नजर करता है।2।

हे प्रभू! (गुरू की किरपा से) जब मैंने अपने आप को सवार के अपना मन मार के देखा तो (मुझे दिखाई पड़ा कि) तेरे जैसा मित्र और कोई नहीं है। हम जीवों को तू जिस हालत में रखता है, उसी हालत में हम रह सकते हैं। दुख भी तू ही देता है, सुख भी तू ही देता है। जो कुछ तू करता है, वही होता है।3।

गुरू की शरण पड़ने से ही माया वाली आस और लालसा मिटती हैं। त्रिगुणी माया की आशाओं से निर्लिप रह सकते हैं। जब सत्संग का आसरा लें, जब गुरू के बताए हुए राह पर चलें, तभी वह आत्मिक अवस्था बनती है जहाँ माया छू ना सके।4।

जिस मनुष्य के हृदय में अलख व अभेव परमात्मा बस जाए, उसे मानो सारे जप-तप-ज्ञान-ध्यान प्राप्त हो गए। हे नानक! गुरू की मति पर चलने से मन प्रभू के नाम में रंगा जाता है, मन अडोल अवस्था में रहके सिमरन करता है।5।22।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh