श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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आसा महला ३ ॥ लालै आपणी जाति गवाई ॥ तनु मनु अरपे सतिगुर सरणाई ॥ हिरदै नामु वडी वडिआई ॥ सदा प्रीतमु प्रभु होइ सखाई ॥१॥ सो लाला जीवतु मरै ॥ सोगु हरखु दुइ सम करि जाणै गुर परसादी सबदि उधरै ॥१॥ रहाउ ॥ करणी कार धुरहु फुरमाई ॥ बिनु सबदै को थाइ न पाई ॥ करणी कीरति नामु वसाई ॥ आपे देवै ढिल न पाई ॥२॥ मनमुखि भरमि भुलै संसारु ॥ बिनु रासी कूड़ा करे वापारु ॥ विणु रासी वखरु पलै न पाइ ॥ मनमुखि भुला जनमु गवाइ ॥३॥ सतिगुरु सेवे सु लाला होइ ॥ ऊतम जाती ऊतमु सोइ ॥ गुर पउड़ी सभ दू ऊचा होइ ॥ नानक नामि वडाई होइ ॥४॥७॥४६॥ {पन्ना 363}

पद्अर्थ: लाले = गुलाम ने, दास ने। जाति = हस्ती, अस्तित्व। अरपे = अरपि, अर्पित करके, हवाले करके। हिरदै = हृदय में। सखाई = मित्र।1।

सो लाला = वह है (असली) दास। जीवतु मरै = जीते ही (जीवन ही वासना से) मर जाता है। सोगु = ग़मी। हरखु = खुशी। दुइ = दोनों। सम = बराबर। परसादी = किरपा से। उधरै = विकारों से बचता है।1। रहाउ।

करणी = करणीय, करने योग्य। धुरहु = अपनी हजूरी से। को = कोई मनुष्य। थाइ न पाई = कबूल नहीं होता। कीरति = सिफत सालाह। वसाई = बसाता है। आपे = (प्रभू) खुद ही।2।

मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। भरमि = भटकना में। भुलै = कुमार्ग पर पड़ा रहता है। रासी = राशि, पूँजी, सरमाया। कूड़ा = झूठा, ठॅगी का। वखरु = सौदा। पलै न पाइ = हासिल नहीं कर सकता।3।

ऊतमु = श्रेष्ठ, ऊँचे जीवन वाला। सोइ = वही (लाला)। गुर पउड़ी = गुरू की (दी हुई सिमरन रूपी) सीढ़ी (पर चढ़ के)। दू = से। सभ दू = सबसे। नामि = नाम के द्वारा।4।

अर्थ: (हे भाई!) असली दास वह है (असल में बिका हुआ वह मनुष्य है) जो दुनिया की किरत-कार करता हुआ दुनिया की वासनाओं से मरा हुआ है। (ऐसा दास) खुशी-ग़मी दोनों को एक जैसा ही समझता है, और गुरू की किरपा से वह गुरू के शबद में जुड़ के (दुनियां की वासनाओं से) बचा रहता है।1। रहाउ।

अपना मन, अपना शरीर गुरू के हवाले करके और गुरू की शरण पड़ के सेवक ने अपनी (अलग) हस्ती मिटा ली होती है। जो परमात्मा सब का प्यारा है और सबका साथी मित्र है उसका नाम (प्रभू को बिका हुआ) दास अपने दिल में बसाए रखता है, यही उसके वास्ते सबसे बड़ी इज्जत है।1।

परमात्मा ने अपने दास को सिमरन का ही करने-योग्य काम अपनी हजूरी से बताया है (परमात्मा ने उसे हुकम किया हुआ है कि) गुरू के शबद (में जुड़े) बिना कोई मनुष्य (उसके दर पर) कबूल नहीं हो सकता, इस वास्ते सेवक उसकी सिफत सालाह करता है, उसका नाम (अपने मन में) बसाए रखता है–यही उसके वास्ते करने योग्य कार्य है। (पर ये दाति प्रभू) खुद ही (अपने दास को) देता है (और देते हुए) समय नहीं लगाता।2।

अपने मन के पीछे चलने वाला जगत माया की भटकना में पड़ के कुमार्ग पर पड़ा रहता है (जैसे कोई व्यापारी) पूँजी के बगैर ठॅगी का ही व्यापार करता है। जिसके पास राशि नहीं है उसे सौदा नहीं मिल सकता। (इसी तरह) अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य (सही जीवन-राह से) वंचित हुआ अपनी जिंदगी बरबाद करता है।3।

(प्रभू के दर पर बिका हुआ असली) दास वही है जो सतिगुरू की शरण पड़ता है, वही उच्च हस्ती वाला बन जाता है वही ऊँचे जीवन वाला हो जाता है। गुरू की (दी हुई नाम सिमरन की) सीढ़ी का आसरा ले के वह सबसे ऊँचा हो जाता है (महान बन जाता है)। हे नानक! परमात्मा के नाम सिमरन में ही इज्जत है।4।7।46।

आसा महला ३ ॥ मनमुखि झूठो झूठु कमावै ॥ खसमै का महलु कदे न पावै ॥ दूजै लगी भरमि भुलावै ॥ ममता बाधा आवै जावै ॥१॥ दोहागणी का मन देखु सीगारु ॥ पुत्र कलति धनि माइआ चितु लाए झूठु मोहु पाखंड विकारु ॥१॥ रहाउ ॥ सदा सोहागणि जो प्रभ भावै ॥ गुर सबदी सीगारु बणावै ॥ सेज सुखाली अनदिनु हरि रावै ॥ मिलि प्रीतम सदा सुखु पावै ॥२॥ सा सोहागणि साची जिसु साचि पिआरु ॥ अपणा पिरु राखै सदा उर धारि ॥ नेड़ै वेखै सदा हदूरि ॥ मेरा प्रभु सरब रहिआ भरपूरि ॥३॥ आगै जाति रूपु न जाइ ॥ तेहा होवै जेहे करम कमाइ ॥ सबदे ऊचो ऊचा होइ ॥ नानक साचि समावै सोइ ॥४॥८॥४७॥ {पन्ना 363}

पद्अर्थ: मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाली जीव स्त्री। झूठो झूठ = झूठ ही झूठ, वही काम जो बिल्कुल उसके काम नहीं आ सकता। दूजे = माया के मोह में। भुलावै = कुराहे पड़ी रहती है। ममता बाधा = अपनत्व के बंधनों में बंधा हुआ।1।

दोहागणी = मंद भागिनी, पति के द्वारा त्यागी हुई। मन = हे मन! कलति = स्त्री (के मोह) में। धनि = धन में।1। रहाउ।

प्रभ भावै = प्रभू को प्यारी लगती है। सेज = हृदय सेज। सुखाली = सुखी। अनदिनु = हर रोज, हर समय। मिलि = मिल के। मिलि प्रीतम = प्रीतम को मिल के।2।

साची = सदा स्थिर रहने वाली, सदा के लिए। जिसु पिआरु = जिस का प्यार। साचि = सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा में। उर = हृदय। उर धारि = हृदय में टिका के।3।

आगै = परलोक में। न जाइ = नहीं जाता।4।

अर्थ: हे मन! (पति द्वारा त्यागी हुई) मंद-कर्मी स्त्री के श्रृंगार देख, निरा पाखण्ड है निरा विकार है। (इसी तरह) जो मनुष्य पुत्रों में, स्त्री में, धन में, माया में चित्त जोड़ता है, उसका ये सारा मोह व्यर्थ है।1। रहाउ।

अपने मन के पीछे चलने वाली जीव-स्त्री सदा वही कुछ करती है जो उस के (आत्मिक जीवन के) किसी काम नहीं आ सकता, (उन उद्यमों से वह जीव-स्त्री) पति-प्रभू का ठिकाना कभी भी नहीं ढूँढ सकती, माया के मोह में फंसी हुई, माया की भटकना में पड़ के वह कुमार्ग पर पड़ी रहती है। (हे मन!) अपनत्व के बंधनों में बंधा हुआ जगत जनम-मरण के चक्करों में पड़ा रहता है।1।

जो जीव-स्त्री प्रभू-पति को प्यारी लगती है वह सदा अच्छे भाग्यों वाली है वह गुरू के शबद के द्वारा (प्रभू-मिलाप को अपना आत्मिक) सोहज बनाती है, उसके हृदय की सेज सुखदाई हो जाती है क्योंकि वह हर समय प्रभू-पति का मिलाप का सुख पाती है, प्रभू-प्रीतम को मिल के वह सदा आत्मिक आनंद लेती है।2।

(हे मन!) जिस जीव-स्त्री का प्यार सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा में पड़ जाता है वह सदा के लिए अच्छे भाग्यों वाली बन जाती है। वह अपने प्रभू-पति को हमेशा अपने दिल में टिकाए रखती है, वह प्रभू को सदा अपने नजदीक अपने अंग-संग देखती है, उसे प्यारा प्रभू सबमें व्यापक दिखाई देता है।3।

(हे मन! ऊँची जाति और सुंदर रूप का क्या गुमान?) परलोक में ना ये (ऊँची) जाति जाती है ना ही ये (सुंदर) रूप जाता है। (इस लोक में मनुष्य) जैसे कर्म करता है वैसा ही उसका जीवन बन जाता है (बस! यही है मनुष्य की जाति और मनुष्य का रूप)।

हे नानक! (जैसे जैसे मनुष्य) गुरू के शबद की बरकति से (आत्मिक जीवन में) और ऊँचा और ऊँचा होता जाता है वैसे वैसे वह सदा कायम रहने वाले परमात्मा में लीन होता जाता है।4।8।47।

आसा महला ३ ॥ भगति रता जनु सहजि सुभाइ ॥ गुर कै भै साचै साचि समाइ ॥ बिनु गुर पूरे भगति न होइ ॥ मनमुख रुंने अपनी पति खोइ ॥१॥ मेरे मन हरि जपि सदा धिआइ ॥ सदा अनंदु होवै दिनु राती जो इछै सोई फलु पाइ ॥१॥ रहाउ ॥ गुर पूरे ते पूरा पाए ॥ हिरदै सबदु सचु नामु वसाए ॥ अंतरु निरमलु अम्रित सरि नाए ॥ सदा सूचे साचि समाए ॥२॥ हरि प्रभु वेखै सदा हजूरि ॥ गुर परसादि रहिआ भरपूरि ॥ जहा जाउ तह वेखा सोइ ॥ गुर बिनु दाता अवरु न कोइ ॥३॥ गुरु सागरु पूरा भंडार ॥ ऊतम रतन जवाहर अपार ॥ गुर परसादी देवणहारु ॥ नानक बखसे बखसणहारु ॥४॥९॥४८॥ {पन्ना 363}

पद्अर्थ: रता = रंगा हुआ। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुभाइ = प्रेम में। भै = भय से। भउ = डर, अदब। गुर कै भै = गुरू के अदब से। भै साचै = सदा स्थिर प्रभू के डर से। साचि = सदा स्थिर प्रभू में। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य। खोइ = गवा के। पति = इज्जत।1।

मन = हे मन! इछै = इच्छा करता है।1। रहाउ।

ते = से, द्वारा। पूरा = सारे गुणों का मालिक प्रभू। हिरदै = हृदय में। सचु = सदा स्थिर रहने वाला। अंतरु = अंदरूनी, हृदय, मन। अंम्रितसरि = अमृत के सरोवर में, आत्मिक जीवन देने वाले नाम जल के सरोवर में। नाऐ = नहा के। सचे = पवित्र।2।

हजूरि = हाजिर नाजिर, अंग संग। परसादि = किरपा से। जाउ = मैं जाता हूँ। वेखा = देखूँ, मैं देखता हूँ।3।

सागरु = समुंद्र। पूरा = भरा हुआ। भंडार = खजाने। अपार = बेअंत। परसादी = प्रसादि, कृपा से। देवणहारु = देने की समर्था वाला।4।

अर्थ: हे मेरे मन! परमात्मा के गुण याद कर, सदा परमात्मा का ध्यान धर। (जो मनुष्य परमात्मा का नाम जपता है उसके अंदर) दिन-रात सदा आत्मिक चाव बना रहता है, वह जिस फल की इच्छा करता है, वही फल हासिल कर लेता है।1। रहाउ।

जो मनुष्य परमात्मा की भक्ति के रंग में रंगा जाता है, वह आत्मिक अडोलता में टिका रहता है वह प्रभू के प्रेम में मगन रहता है। गुरू के अदब में रहके सदा स्थिर परमात्मा के भय में रहके वह सदा स्थिर परमात्मा में लीन हो जाता है। (पर) पूरे गुरू की शरण पड़े बिना प्रभू की भक्ति नहीं हो सकती। जो मनुष्य (गुरू की ओट-आस त्याग के) अपने मन के पीछे चलते हैं वह (अंत में) अपनी इज्जत गवा के पछताते हैं।1।

पूरे गुरू के द्वारा ही सारे गुणों का मालिक परमात्मा मिलता है, (पूरे गुरू की शरण पड़ने वाला मनुष्य अपने) हृदय में गुरू का शबद बसाता है, प्रभू का सदा स्थिर नाम बसाता है, (ज्यों-ज्यों) वह आत्मिक जीवन देने वाले नाम-जल के सरोवर में स्नान करता है उसका हृदय पवित्र होता जाता है। (हे भाई!) सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा (की याद) में लीन हो के मनुष्य सदा के लिए पवित्र हो जाते हैं।2।

(हे मेरे मन! मेरे पर भी गुरू ने मेहर की है, और) मैं जिधर जाता हूँ उस परमात्मा को ही देखता हूँ। (पर) गुरू के बिना कोई और ये (ऊँची) दाति देने के लायक नहीं है।3।

हे नानक! गुरू समुंद्र है जिस में परमात्मा और सिफत सालाह के बेअंत बेश-कीमती रत्न जवाहर भरे पड़े हैं। जीवों पर बख्शिश करने वाला परमात्मा बख्शिश करता है और गुरू की किरपा से वह प्रभू-दातार सिफत सालाह के कीमती रतन-जवाहरदेता है।4।9।48।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh