श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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आसा महला ३ ॥ गुरु साइरु सतिगुरु सचु सोइ ॥ पूरै भागि गुर सेवा होइ ॥ सो बूझै जिसु आपि बुझाए ॥ गुर परसादी सेव कराए ॥१॥ गिआन रतनि सभ सोझी होइ ॥ गुर परसादि अगिआनु बिनासै अनदिनु जागै वेखै सचु सोइ ॥१॥ रहाउ ॥ मोहु गुमानु गुर सबदि जलाए ॥ पूरे गुर ते सोझी पाए ॥ अंतरि महलु गुर सबदि पछाणै ॥ आवण जाणु रहै थिरु नामि समाणे ॥२॥ जमणु मरणा है संसारु ॥ मनमुखु अचेतु माइआ मोहु गुबारु ॥ पर निंदा बहु कूड़ु कमावै ॥ विसटा का कीड़ा विसटा माहि समावै ॥३॥ सतसंगति मिलि सभ सोझी पाए ॥ गुर का सबदु हरि भगति द्रिड़ाए ॥ भाणा मंने सदा सुखु होइ ॥ नानक सचि समावै सोइ ॥४॥१०॥४९॥ {पन्ना 364}

पद्अर्थ: साइरु = सागर, समुंद्र। सचु = सदा स्थिर रहने वाला परमात्मा। सोइ = वही। भागि = किस्मत से। बूझै = समझता है। परसादी = कृपा से, प्रसादि। सेव = सेवा भक्ति।1।

रतनि = रत्न से। गिआनि रतनि = ज्ञान के रतन से। बिनासै = दूर हो जाता है। अनदिनु = हर रोज, हर समय।1। रहाउ।

सबदि = शबद द्वारा। ते = से। अंतरि = अंदर। महलु = ठिकाना। रहै = खत्म हो जाता है। नामि = नाम में।2।

मनमुखु = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। अचेतु = गाफिल। गुबारु = अंधेरा।3।

मिलि = मिल के। द्रिढ़ाऐ = (दिल में) पक्की कर देता है। सचि = सदा स्थिर रहने वाले प्रभू में।4।

अर्थ: (हे भाई!) गुरू के बख्शे हुए ज्ञान-रत्न की बरकति से (मनुष्य को सही जीवन-जुगति के बारे में) हरेक किस्म की समझ आ जाती है। गुरू की कृपा से (जिस मनुष्य का) अज्ञान दूर हो जाता है वह हर समय (माया के हमलों से) सुचेत रहता है, वह (हर जगह) उस सदा कायम रहने वाले परमात्मा को (ही) देखता है।1। रहाउ।

(हे भाई!) गुरू (गुणों का) समुंद्र है, गुरू उस सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा का रूप है, बड़ी किस्मत से ही गुरू की (बताई हुई) सेवा होसकती है। (इस भेद को) वह मनुष्य समझता है जिसे (परमात्मा) स्वयं समझाता है, और (उससे) गुरू की किरपा से (अपनी) सेवा-भक्ति कराता है।1।

(हे भाई!) जो मनुष्य गुरू के शबद की बरकति से (अपने अंदर से) मोह और अहंकार जला देता है, जो मनुष्य पूरे गुरू से (सही जीवन-जुगति) समझ लेता है, वह गुरू के शबद के द्वारा अपने अंदर (बसते परमात्मा का) ठिकाना पहचान लेता है; उसके जनम-मरण का चक्कर समाप्त हो जाता है, वह परमात्मा के नाम में टिका रहता है और अडोल-चित्त हो जाता है।2।

(हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य के वास्ते) जगत जनम-मरण (का चक्र ही) है। अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य (परमात्मा की याद की ओर से) गाफिल रहता है, माया का मोह-रूपी घोर अंधेरा (उसे कुछ सूझने नहीं देता), वह सदा पराई निंदा करता रहता है, वह सदा झूठ-फरेब ही कमाता रहता है (पराई निंदा, झूठ, ठॅगी में ऐसे मस्त रहता है जैसे) गंदगी का कीड़ा गंदगी में ही टिका रहता है (और उसमें से बाहर निकलना पसंद नहीं करता)।3।

हे नानक! जो मनुष्य साध-संगति में मिल के (सही जीवन की) सारी सूझ हासिल करता है, जो गुरू के शबद को (दिल में बसा के) परमात्मा की भक्ति को (अपने अंदर) द्ढ़ करके टिकाता है, जो परमात्मा की रजा को (मीठा करके) मानता है, उसे सदा आत्मिक आनंन्द मिला रहता है, वह सदा-स्थिर रहने वाले परमात्मा में लीन रहता है।4।10।49।

आसा महला ३ पंचपदे२ ॥ सबदि मरै तिसु सदा अनंद ॥ सतिगुर भेटे गुर गोबिंद ॥ ना फिरि मरै न आवै जाइ ॥ पूरे गुर ते साचि समाइ ॥१॥ जिन्ह कउ नामु लिखिआ धुरि लेखु ॥ ते अनदिनु नामु सदा धिआवहि गुर पूरे ते भगति विसेखु ॥१॥ रहाउ ॥ जिन्ह कउ हरि प्रभु लए मिलाइ ॥ तिन्ह की गहण गति कही न जाइ ॥ पूरै सतिगुर दिती वडिआई ॥ ऊतम पदवी हरि नामि समाई ॥२॥ जो किछु करे सु आपे आपि ॥ एक घड़ी महि थापि उथापि ॥ कहि कहि कहणा आखि सुणाए ॥ जे सउ घाले थाइ न पाए ॥३॥ जिन्ह कै पोतै पुंनु तिन्हा गुरू मिलाए ॥ सचु बाणी गुरु सबदु सुणाए ॥ जहां सबदु वसै तहां दुखु जाए ॥ गिआनि रतनि साचै सहजि समाए ॥४॥ नावै जेवडु होरु धनु नाही कोइ ॥ जिस नो बखसे साचा सोइ ॥ पूरै सबदि मंनि वसाए ॥ नानक नामि रते सुखु पाए ॥५॥११॥५०॥ {पन्ना 364}

नोट: पंच पदा–वह शबद जिसमें पाँच बंद हों। पंचपदे– (बहुवचन)। शब्द ‘पंचपदे’ के नीचे लिखे अंक ‘2’ का भाव है कि नं:11 और 12 दो शबद पंच पदे के हैं।

पद्अर्थ: सतिगुर भेटे = गुरू को मिलता है। ते = से। साचि = सदा स्थिर प्रभू में।1।

धुरि = प्रभू की हजूरी से। ते = वह लोग। विसेखु = माथे पर केसर आदि का टीका।1। रहाउ।

गहण = गहरी। गति = आत्मिक अवस्था। पूरै सतिगुर = गुर पूरे ने। नामि = नाम में।2।

थापि = स्थापना करके, बना के। उथापि = नाश करता है। कहि कहि कहणा = बार बार कहना।3।

पोतै = खजाने में। सचु = सदा स्थिर प्रभू। गिआनि = ज्ञान से। रतनि = रतन से।4।

नावै जेवडु = नाम के बराबर। साचा = सदा स्थिर प्रभू। मंनि = मनि, मन में।5।

अर्थ: (हे भाई! पिछले किए कर्मों के अनुसार परमात्मा ने) जिनके माथे पर नाम-सिमरन का लेख लिख दिया, वह मनुष्य हर समय, सदा ही नाम सिमरते हैं, पूरे गुरू से उनको प्रभू-भक्ति का टीका (तिलक) (माथे पे) मिलता है।1। रहाउ।

जो मनुष्य गुरू के शबद में जुड़ के (माया के मोह से) मरता है उसे सदा आत्मिक आनंद मिलता है। जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ता है परमात्मा का आसरा लेता है वह दुबारा आत्मिक मौत नहीं मरता, वह बार-बार पैदा होता मरता नहीं। पूरे गुरू की कृपा से वह सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा में लीन रहता है।1।

(हे भाई!) जिन मनुष्यों को परमात्मा अपने चरणों में जोड़ लेता है उनकी गहरी आत्मिक अवस्था बयान नहीं की जा सकती। जिनको पूरे गुरू ने (प्रभू-चरणों में जुड़ने का ये) आदर बख्शा, उन्हे उच्च आत्मिक अवस्था प्राप्त हो गई, परमात्मा के नाम में उनकी हर समय लीनता हो गई।2।

‘जो कुछ करता है परमात्मा स्वयं ही करता है। परमात्मा एक घड़ी में पैदा करके तुरंत नाश भी कर सकता है’- जो मनुष्य बार-बार यही कह के लोगों को सुना देता है (गुरू की शरण पड़ के परमात्मा का सिमरन कभी नहीं करता, ऐसा मनुष्य) अगर ऐसी (निरी और को कहने की) सौ कोशिशें भी करे तो भी उसकी ऐसी कोई भी मेहनत (परमात्मा के दर पर) कबूल नहीं पड़ती।3।

(पिछले किए कर्मों के अनुसार) जिन के पल्ले (सिमरन के) उत्तम संस्कार हैं, उन्हें परमात्मा गुरू मिलाता है। गुरू उन्हें सिफत सालाह की बाणी सुनाता है, सदा स्थिर प्रभू का नाम सुनाता है, सिफत सालाह के शबद सुनाता है। (हे भाई!) जिस हृदय में गुरू का शबद बसता है, वहाँ से हरेक किस्म के दुख दूर हो जाते हैं। गुरू के बख्शे ज्ञान-रतन की बरकति से मनुष्य सदा स्थिर परमात्मा में जुड़ा रहता है और आत्मिक अडोलता में टिका रहता है।4।

(हे भाई!) परमात्मा के नाम के बराबर का कोई धन नहीं है (पर ये धन सिर्फ उस मनुष्य को मिलता है) जिसे सदा-स्थिर रहने वाला परमात्मा खुद बख्शता है। पूरे गुरू के शबद की सहायता से वह मनुष्य परमात्मा का नाम अपने मन में बसाए रखता है। हे नानक! परमात्मा के नाम में रंग के मनुष्य (सदा) आत्मिक आनंद पाता है।5।11।50।

आसा महला ३ ॥ निरति करे बहु वाजे वजाए ॥ इहु मनु अंधा बोला है किसु आखि सुणाए ॥ अंतरि लोभु भरमु अनल वाउ ॥ दीवा बलै न सोझी पाइ ॥१॥ गुरमुखि भगति घटि चानणु होइ ॥ आपु पछाणि मिलै प्रभु सोइ ॥१॥ रहाउ ॥ गुरमुखि निरति हरि लागै भाउ ॥ पूरे ताल विचहु आपु गवाइ ॥ मेरा प्रभु साचा आपे जाणु ॥ गुर कै सबदि अंतरि ब्रहमु पछाणु ॥२॥ गुरमुखि भगति अंतरि प्रीति पिआरु ॥ गुर का सबदु सहजि वीचारु ॥ गुरमुखि भगति जुगति सचु सोइ ॥ पाखंडि भगति निरति दुखु होइ ॥३॥ एहा भगति जनु जीवत मरै ॥ गुर परसादी भवजलु तरै ॥ गुर कै बचनि भगति थाइ पाइ ॥ हरि जीउ आपि वसै मनि आइ ॥४॥ हरि क्रिपा करे सतिगुरू मिलाए ॥ निहचल भगति हरि सिउ चितु लाए ॥ भगति रते तिन्ह सची सोइ ॥ नानक नामि रते सुखु होइ ॥५॥१२॥५१॥ {पन्ना 364-365}

पद्अर्थ: निरति = नाच। किसु = किसे? आखि = कह के। अनल = आग। वाउ = हवा, आंधी।1।

गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ के। घटि = हृदय में। आपु = अपने आप को, अपने आत्मिक जीवन को। पछाणि = पहचाने, पहचान लेता है।1। रहाउ।

भाउ = प्रेम। आपु = स्वै भाव, अहंकार। जाणु = जानकार। सबदि = शबद से। पछाणु = पहचानने वाला।2।

सहजि = आत्मिक अडोलता में। सचु = सदा स्थिर रहने वाला प्रभू। पाखंडि = पाखण्ड से।3।

परसादी = प्रसादि, कृपा से। भवजलु = संसार समुंद्र। थाइ पाइ = कबूल हो जाती है। थाइ = जगह में, लेखे मे। मनि = मन में।4।

निहचल = ना डोलने वाली। सिउ = साथ। सोइ = शोभा। सची = सदा स्थिर। नामि = नाम में।5।

अर्थ: (हे भाई!) गुरू के सन्मुख रह के की हुई भक्ति की बरकति से हृदय में (आत्मिक ज्ञान का) प्रकाश हो जाता है। (इस भक्ति से मनुष्य) अपने आत्मिक जीवन को परखता रहता है (और मनुष्य को) वह प्रभू मिल जाता है।1। रहाउ।

(पर जब तलक मनुष्य का) ये अपना मन (माया के मोह में) अंधा-बहरा हुआ पड़ा है (वह अगर भगती के नाम पर) नाचता है और कई साज भी बजाता है तो भी वह किसी को भी कह के नहीं सुना रहा (क्योंकि वह खुद ही नहीं सुन रहा)। उसके अपने अंदर तृष्णा की आग जल रही है, भटकना (की) आंधी चल रही है (ऐसी अवस्था में उसके अंदर ज्ञान का दीपक) नहीं जल सकता, वह (सही जीवन की) समझ नहीं हासिल कर सकता।1।

गुरू के सन्मुख रहना ही नृत्य है (इस तरह) परमात्मा से प्यार बनता है (इस तरह मनुष्य अपने) अंदर से अहंकार दूर करता है यही है ताल में नाचना। (जो मनुष्य ये नाच नाचता है) सदा स्थिर प्रभू स्वयं ही उसका मित्र बन जाता है, गुरू के शबद से उसके अंदर बसता प्रभू उसकी जान-पहिचान वाला बन जाता है।2।

गुरू के सन्मुख रहके की गई भक्ति से मनुष्य के अंदर प्रीति पैदा होती है प्यार पैदा होता है। गुरू का शबद मनुष्य को आत्मिक अडोलता में ले जाता है (प्रभू के गुणों का) विचार बख्शता है। गुरू के सन्मुख रहके की हुई भक्ति ही (सही) तरीका है (जिससे) वह परमात्मा मिलता है। दिखावे की भक्ति के नाच से तो दुख होता है।3।

असल भक्ति यही है कि (जिसकी बरकति से) मनुष्य दुनिया की किरत-कार करता हुआ ही माया के मोह से अछोह हो जाता है, और गुरू की कृपा से संसार-समुंद्र (के विकारों की लहरों) से पार लांघ जाता है। गुरू के उपदेश अनुसार की हुई भगती (प्रभू के दर पर) परवान होती है, प्रभू स्वयं ही मनुष्य के मन में आ बसता है।4।

(पर, जीव के भी क्या वश? जिस मनुष्य पर) परमात्मा मेहर करता है उसे गुरू मिलाता है (गुरू की सहायता से) वह ना डोलने वाली भक्ति करता है और परमात्मा से अपना चित्त जोड़े रखता है।

हे नानक! जो मनुष्य (परमात्मा की) भक्ति (के रंग) में रंगे जाते हैं उन्हें सदा कायम रहने वाली शोभा मिलती है। परमात्मा के नाम-रंग में रंगे हुओं को आत्मिक आनंद मिलता है।5।12।51।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh