श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 365 आसा घरु ८ काफी महला ३ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ हरि कै भाणै सतिगुरु मिलै सचु सोझी होई ॥ गुर परसादी मनि वसै हरि बूझै सोई ॥१॥ मै सहु दाता एकु है अवरु नाही कोई ॥ गुर किरपा ते मनि वसै ता सदा सुखु होई ॥१॥ रहाउ ॥ इसु जुग महि निरभउ हरि नामु है पाईऐ गुर वीचारि ॥ बिनु नावै जम कै वसि है मनमुखि अंध गवारि ॥२॥ हरि कै भाणै जनु सेवा करै बूझै सचु सोई ॥ हरि कै भाणै सालाहीऐ भाणै मंनिऐ सुखु होई ॥३॥ हरि कै भाणै जनमु पदारथु पाइआ मति ऊतम होई ॥ नानक नामु सलाहि तूं गुरमुखि गति होई ॥४॥३९॥१३॥५२॥ {पन्ना 365} नोट: ये शबद– आसा राग और काफी राग– दोनों मिश्रित रागों में गाए जाने की हिदायत है। पद्अर्थ: भाणै = रजा अनुसार। सचु = सदा स्थिर प्रभू। मनि = मन में। सोई = वही मनुष्य।1। मै = मेरा। सहु = खसम, पति। दाता = दातें देने वाला। ते = से साथ।1। रहाउ। जुग महि = जगत में, जीवन में। वीचारि = विचार से। वसि = वश में। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाली जीव-स्त्री। गवारि = मूर्ख जीव स्त्री।2। हरि कै भाणै = परमात्मा की रजा में रह के। सालाहीअै = सिफत सालाह की जा सकती है। भाणै मंनिअै = अगर प्रभू के हुकम में चला जाए।3। मति = अकल। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ने से। गति = उच्च आत्मिक अवस्था।4। अर्थ: (हे भाई!) एक परमात्मा ही मेरा पति रक्षक है और मुझे सब दातें देने वाला है, उसके बिना मेरा और कोई नहीं है। पर गुरू की मेहर से हीवह मन में बस सकता है (और जब वह प्रभू मन में आ बसता है) तबसदा के लिए आनंद बन जाता है।1। रहाउ। (हे भाई!) परमात्मा की रजा अनुसार गुरू मिलता है (जिसे गुरू मिल जाता है, उसे) सदा कायम रहने वाला प्रभू मिल जाता है, (और उसे सही जीवन-जुगति की) समझ आ जाती है। जिस मनुष्य के मन में गुरू की किरपा से परमातमा आ बसता है, वही मनुष्य परमात्मा के साथ सांझ पाता है।1। (हे भाई!) इस जगत में परमात्मा का नाम ही है जो (जगत के) सारे डरों से बचाने वाला है, पर ये नाम गुरू की बताई हुई विचार की बरकति से मिलता है। परमात्मा के नाम के बिना अपने मन के पीछे चलने वाली जीव-स्त्री आत्मिक मौत के काबू में रहती है, माया के मोह में अंधी हुई रहती है और मूर्खता में टिकी रहती है।2। जो मनुष्य परमात्मा की रज़ा में चलता है वही मनुष्य परमात्मा की सेवा-भक्ति करता है, वही उस सदा स्थिर प्रभू को समझता है। परमात्मा की रजा में चलने से ही परमात्मा की सिफत सालाह हो सकती है। अगर परमात्मा की रजा में चलें तो ही आत्मिक आनंद प्राप्त होता है।3। (हे भाई! जिस मनुष्य ने) परमात्मा की रज़ा में चल के मानस जन्म का मनोरथ हासिल कर लिया उसकी बुद्धि उत्तम बन गई। हे नानक! (गुरू की शरण पड़ के) तू भी परमात्मा के नाम का गुणगान कर। गुरू की शरण पड़ने से ही उच्च आत्मिक अवस्था प्राप्त हो जाती है।4।39।13।52। नोट: शबद महला १---------------39 आसा महला ४ घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ तूं करता सचिआरु मैडा सांई ॥ जो तउ भावै सोई थीसी जो तूं देहि सोई हउ पाई ॥१॥ रहाउ ॥ सभ तेरी तूं सभनी धिआइआ ॥ जिस नो क्रिपा करहि तिनि नाम रतनु पाइआ ॥ गुरमुखि लाधा मनमुखि गवाइआ ॥ तुधु आपि विछोड़िआ आपि मिलाइआ ॥१॥ तूं दरीआउ सभ तुझ ही माहि ॥ तुझ बिनु दूजा कोई नाहि ॥ जीअ जंत सभि तेरा खेलु ॥ विजोगि मिलि विछुड़िआ संजोगी मेलु ॥२॥ जिस नो तू जाणाइहि सोई जनु जाणै ॥ हरि गुण सद ही आखि वखाणै ॥ जिनि हरि सेविआ तिनि सुखु पाइआ ॥ सहजे ही हरि नामि समाइआ ॥३॥ तू आपे करता तेरा कीआ सभु होइ ॥ तुधु बिनु दूजा अवरु न कोइ ॥ तू करि करि वेखहि जाणहि सोइ ॥ जन नानक गुरमुखि परगटु होइ ॥४॥१॥५३॥ {पन्ना 365} पद्अर्थ: सचिआरु = सदा कायम रहने वाला। मैडा = मेरा। सांई = पति। तउ = तुझे। थीसी = होगा। हउ = मैं। पाई = पाता हूँ।1। रहाउ। सभ = सारी लुकाई। तूं = तुझे। तिनि = उस (मनुष्य) ने। लाधा = मिला। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य ने। तुधु = तू।1। माहि = में। सभि = सारे। विजोग = (धुर के) वियोग के कारण। मिलि = मिल के (भी)। संजोगी = (धुर के) संजोग के कारण। मेलु = मिलाप।2। जाणाइहि = तू समझ बख्शता है। सद ही = सदा ही। सहजे = आत्मिक अडोलता में। नामि = नाम में।3। वेखहि = तू देखता है। जाणहि = तू जानता है। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख रहने वाला मनुष्य।4। अर्थ: (हे प्रभू!) तू (सारे जगत का) रचनहार है, तू सदैव कायम रहने वाला है, तू (ही) मेरा पति है। हे प्रभू! (जगत में) वही कुछ घटित हो रहा है जो तुझे अच्छा लगता है। (हे प्रभू!) मैं वही कुछ हासिल कर सकता हूँ जो कुछ तू (मुझे) देता है।1। रहाउ। (हे प्रभू!) सारी दुनिया तेरी (रची हुई) है, सब जीवों ने (अच्छे-बुरे वक्त में) तुझे ही सिमरा है। जिस पर तू मेहर करता है उस मनुष्य ने तेरा नाम-रत्न ढूँढ लिया। (पर) ढूँढा उसने जो गुरू की शरण पड़ा, और गवाया उसने जो अपने मन के पीछे चला। (जीवों के भी क्या वश? मनमुख को) तूने खुद ही (अपने चरणों से) विछोड़े रखा है और (गुरमुखि को) तूने स्वयं ही (अपने चरणों में) जगह दी हुई है।1। (हे प्रभू!) तू (जिंदगी का एक बड़ा) दरिया है, सारी सृष्टि तेरे में (जी रही) है, (तू स्वयं ही स्वयं है) तेरे बिना और कोई दूसरी हस्ती नहीं है। (जगत के ये) सारे जीव-जन्तु तेरा (रचा हुआ) तमाशा हैं (तेरी ही धुर दरगाह से मिले) वियोग के कारण मिला हुआ जीव भी विछुड़ जाता है और संजोग के कारण पुनर्मिलाप हासिल कर लेता है।2। (हे प्रभू!) जिस मनुष्य को तू समझ देता है वही मनुष्य (जीवन-उद्देश्य को) समझता है और वह मनुष्य हरी प्रभू के गुण सदा कह के बयान करता है। (हे भाई!) जिस मनुष्य ने परमात्मा की सेवा-भक्ति की उसने आत्मिक आनंद पाया; वह मनुष्य (सिमरन-भक्ति के कारण) आत्मिक अडोलता में टिक के परमात्मा में लीन हो गया।3। (हे प्रभू!) तू स्वयं ही (जगत को) रचने वाला है (जगत में) सब कुछ तेरा किया ही हो रहा है, तेरे बिना कोई और कुछ करने वाला नहीं है। तू खुद ही (जगत रचना) कर-करके (सबकी) संभाल करता है, तू खुद ही इस सारे भेद को जानता है। हे दास नानक! गुरू के सन्मुख रहने वाले मनुष्य को ये सारी बात समझ आ जाती है।4।1।53। नोट: शबद महला ४ ---------------01 |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |