श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

Page 366

ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ रागु आसा घरु २ महला ४ ॥ किस ही धड़ा कीआ मित्र सुत नालि भाई ॥ किस ही धड़ा कीआ कुड़म सके नालि जवाई ॥ किस ही धड़ा कीआ सिकदार चउधरी नालि आपणै सुआई ॥ हमारा धड़ा हरि रहिआ समाई ॥१॥ हम हरि सिउ धड़ा कीआ मेरी हरि टेक ॥ मै हरि बिनु पखु धड़ा अवरु न कोई हउ हरि गुण गावा असंख अनेक ॥१॥ रहाउ ॥ जिन्ह सिउ धड़े करहि से जाहि ॥ झूठु धड़े करि पछोताहि ॥ थिरु न रहहि मनि खोटु कमाहि ॥ हम हरि सिउ धड़ा कीआ जिस का कोई समरथु नाहि ॥२॥ एह सभि धड़े माइआ मोह पसारी ॥ माइआ कउ लूझहि गावारी ॥ जनमि मरहि जूऐ बाजी हारी ॥ हमरै हरि धड़ा जि हलतु पलतु सभु सवारी ॥३॥ कलिजुग महि धड़े पंच चोर झगड़ाए ॥ कामु क्रोधु लोभु मोहु अभिमानु वधाए ॥ जिस नो क्रिपा करे तिसु सतसंगि मिलाए ॥ हमरा हरि धड़ा जिनि एह धड़े सभि गवाए ॥४॥ मिथिआ दूजा भाउ धड़े बहि पावै ॥ पराइआ छिद्रु अटकलै आपणा अहंकारु वधावै ॥ जैसा बीजै तैसा खावै ॥ जन नानक का हरि धड़ा धरमु सभ स्रिसटि जिणि आवै ॥५॥२॥५४॥ {पन्ना 366}

पद्अर्थ: किस ही = किसी ने। सुत = पुत्र। सिकदार = सरदार। सुआई = स्वार्थ के लिए।1।

टेक = आसरा। असंख = अनगिनत।1। रहाउ।

मनि = मन में। खोटु = ठॅगी। जिस का समरथु = जिसके बराबर का।2।

पसारी = पसारा। लूझहि = झगड़ते हैं। जि = जो। हलतु पलतु = ये लोक और परलोक।3।

कलिजुग महि = परमात्मा से विछुड़ के। जिनि = जिस ने। सभि = सारे।4।

मिथिआ = झूठा, व्यर्थ। भाउ = प्यार। अटकलै = जाचता है। छिद्रु = ऐब। जिणि = जीत के।5।

अर्थ: हमने परमात्मा के साथ, साथ बनाया है, परमात्मा ही मेरा आसरा है। परमात्मा के बिना मेरा और कोई पक्ष नहीं धड़ा नहीं। मैं परमात्मा के ही अनेकों और अनगिनत गुण गाता रहता हूँ।1। रहाउ।

किसी मनुष्य ने अपने मित्र से, पुत्र से, भाई से साथ बनाया हुआ है, किसी ने अपने सके संबंधी के साथ, जवाई के साथ धड़ा बनाया हुआ है, किसी मनुष्य ने अपनी गरज़ की खातिर (गाँव के) सरदार चौधरी के साथ धड़ा बनाया हुआ है; पर मेरा साथी वह परमात्मा है जो हर जगह मौजूद है।1।

लोग जिनके साथ धड़े बनाते हैं वह (आख़िर जगत से) कूच कर जाते हैं, (धड़े बनाने वाले ये) झूठा आडंबर करके ये धड़े बना के (उनके मरने पे) पछताते हैं। (धड़े बनाने वाले खुद भी) सदा (दुनिया में) टिके नहीं रहते, (व्यर्थ ही धड़ों की खातिर अपने) मन में ठॅगी-फरेब करते रहते हैं। पर, मैंने तो उस परमात्मा के साथ अपना साथ बनाया है जिसके बराबर की ताकत रखने वाला और कोई नहीं है।2।

(हे भाई! दुनिया के) ये सारे धड़े माया का पसारा हैं। (धड़े बनाने वाले) मूर्ख लोग माया की खातिर ही (आपस में) लड़ते रहते हैं। (इस कारण वह बार-बार) पैदा होते हैं मरते हैं, वह (मानो) जूए में ही (मानस जीवन की) बाजी हार के चले जाते हैं (जिस में से हासिल कुछ नहीं होता)। पर मेरे साथ तो साथी है परमात्मा, जो मेरा लोक और परलोक सब कुछ सँवारने वाला है।3।

परमात्मा से विछुड़ के (कलियुगी स्वभाव में फंस के) मनुष्यों के धड़े बनते हैं, कामादिक पाँचों चोरों के कारण झगड़े पैदा होते हैं, (परमात्मा से विछोड़ा मनुष्यों के अंदर) काम-क्रोध-लोभ-मोह व अहंकार को बढ़ाता है। जिस मनुष्य पर परमात्मा मेहर करता है उसे साध-संगति में मिलाता है (और वह इन पाँचों चोरों की मार से बचता है)। (हे भाई!) मेरी मदद के लिए परमात्मा स्वयं है जिसने (मेरे अंदर से) ये सारे धड़े खत्म कर दिए हैं।4।

(परमात्मा को छोड़ के) माया का झूठा प्यार (मनुष्य के अंदर) टिक के धड़े (-बाजियां) पैदा करता है (माया के मोह के प्रभाव तले मनुष्य) औरों के ऐब जाँचता-फिरता है और (इस तरह अपने आप को अच्छा समझ के) अपना ही अहंकार बढ़ाता है। (औरों के ऐब फरोल के और अपने आप को नेक साबित कर-करके मनुष्य अपने आत्मिक जीवन के वास्ते) जैसा बीज बीजता है वैसे ही फल हासिल करता है।

दास नानक का पक्ष करने वाला साथी तो परमात्मा है (परमात्मा का आसरा ही नानक का) धरम है (जिसकी बरकति से मनुष्य) सारी सृष्टि को जीत के आ सकता है।5।2।54।

आसा महला ४ ॥ हिरदै सुणि सुणि मनि अम्रितु भाइआ ॥ गुरबाणी हरि अलखु लखाइआ ॥१॥ गुरमुखि नामु सुनहु मेरी भैना ॥ एको रवि रहिआ घट अंतरि मुखि बोलहु गुर अम्रित बैना ॥१॥ रहाउ ॥ मै मनि तनि प्रेमु महा बैरागु ॥ सतिगुरु पुरखु पाइआ वडभागु ॥२॥ दूजै भाइ भवहि बिखु माइआ ॥ भागहीन नही सतिगुरु पाइआ ॥३॥ अम्रितु हरि रसु हरि आपि पीआइआ ॥ गुरि पूरै नानक हरि पाइआ ॥४॥३॥५५॥ {पन्ना 366}

पद्अर्थ: हिरदै = हृदय में। सुणि सुणि = (गुरबाणी) बार बार सुन सुन के। मनि = मन में। अंम्रित = अमृत, आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। भाइआ = प्यारा लगा। अलखु = अदृष्ट।1।

गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ के। मेरी भैना = हे मेरी बहिनो! हे सत्संगियो! ऐको = एक प्रभू ही। घट = हृदय। मुखि = मुंह से। गुर बैना = गुरू के बचन।1। रहाउ।

मै मनि = मेरे मन में। मै तनि = मेरे तन में। बैरागु = लगन। वडभागु = बड़े भाग्यों वाला।2।

भाइ = प्यार में। दूजै भाइ = प्रभू के बिना और प्यार में। भवहि = भटकते हैं। बिखु = जहर, आत्मिक मौत लाने वाली।3।

हरि रसु = हरि नाम का रस। गुरि पूरै = पूरे गुरू के द्वारा।4।

अर्थ: हे मेरी बहनो! गुरू की शरण पड़ के उस परमात्मा का नाम सुना करो जो स्वयं ही हरेक जीव के शरीर में मौजूद है। (हे मेरी बहनो!) मुंह से आत्मिक जीवन देने वाले शबद बोला करो।1। रहाउ।

(हे बहनो!) गुरू की बाणी सुन के जिस मनुष्य के हृदय में आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल प्यारा लगने लग जाता है, गुरबाणी की बरकति से वह मनुष्य अदृष्ट परमात्मा के दर्शन कर लेता है।1।

(हे बहनो!) परमात्मा का रूप व भाग्यशाली सतिगुरू तो मुझे भी मिल गया है (उसकी मेहर से) मेरे मन में हृदय में परमात्मा के लिए प्यार पैदा हो गया है परमात्मा के लिए बड़ी लगन पैदा हो गई है।2।

(पर, हे बहनो!) बद-नसीब हैं वे मनुष्य जिन्हें गुरू नहीं मिला वे माया के मोह में फंस के माया की खातिर भटकते फिरते हैं जो उनके लिए आत्मिक मौत का कारण बनती है।3।

हे नानक! (जीव के वश की बात नहीं) परमात्मा ने स्वयं ही जिस मनुष्य को आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल हरि-नाम-रस पिला दिया उसने पूरे गुरू के द्वारा उस परमात्मा को ढूँढ लिया।4।3।55।

आसा महला ४ ॥ मेरै मनि तनि प्रेमु नामु आधारु ॥ नामु जपी नामो सुख सारु ॥१॥ नामु जपहु मेरे साजन सैना ॥ नाम बिना मै अवरु न कोई वडै भागि गुरमुखि हरि लैना ॥१॥ रहाउ ॥ नाम बिना नही जीविआ जाइ ॥ वडै भागि गुरमुखि हरि पाइ ॥२॥ नामहीन कालख मुखि माइआ ॥ नाम बिना ध्रिगु ध्रिगु जीवाइआ ॥३॥ वडा वडा हरि भाग करि पाइआ ॥ नानक गुरमुखि नामु दिवाइआ ॥४॥४॥५६॥ {पन्ना 366}

पद्अर्थ: मनि = मन में। तनि = तन में, हृदय में। अधारु = आसरा। जपी = मैं जपता हूँ। नामो = नाम ही। सुख सारु = सुखों का तत्व।1।

साजन सैना = सज्जनो मित्रो! मै = मुझे। भागि = किस्मत से। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ कर।1। रहाउ।

पाइ = मिलता है।2।

मुखि = मुंह पर। ध्रिगु = धिक्कार योग्य।3।

भाग करि = किस्मत से। गुरमुखि = गुरू के द्वारा।4।

अर्थ: हे मेरे सज्जनों! हे मेरे मित्रो! परमात्मा का नाम जपा करो। परमात्मा के नाम के बिना मुझे (तो जिंदगी का) और कोई (आसरा) दिखाई नहीं देता। ये हरी-नाम बड़ी किस्मत से गुरू के द्वारा ही मिल सकता है।1। रहाउ।

(हे मेरे सज्जनों मित्रो!) परमात्मा का प्यार और परमात्मा का नाम (ही) मेरे मन का मेरे हृदय का आसरा है। मैं (सदा प्रभू का) नाम जपता रहता हूँ, नाम ही (मेरे वास्ते सारे) सुखों का मूल है।1।

(हे मेरे मित्रो!) परमात्मा का नाम जपे बिना आत्मिक जीवन नहीं मिल सकता। ये हरी-नाम बड़ी ही किस्मत से गुरू के माध्यम से ही मिलता है।2।

(हे मेरे मित्रो!) परमात्मा को सिमरे बिना जीवन धिक्कारयोग्य है। परमात्मा के नाम से वंचित रहने से माया के (मोह के) कारण मुंह पर कालिख़ लगती है।3।

हे नानक! गुरू के द्वारा (जिस मनुष्य को परमात्मा) अपने नाम की दाति दिलाता है वह भाग्यशाली मनुष्य उस सबसे बड़े परमात्मा से मिल जाता है।4।4।56।

TOP OF PAGE

Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh