श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 367 आसा महला ४ ॥ गुण गावा गुण बोली बाणी ॥ गुरमुखि हरि गुण आखि वखाणी ॥१॥ जपि जपि नामु मनि भइआ अनंदा ॥ सति सति सतिगुरि नामु दिड़ाइआ रसि गाए गुण परमानंदा ॥१॥ रहाउ ॥ हरि गुण गावै हरि जन लोगा ॥ वडै भागि पाए हरि निरजोगा ॥२॥ गुण विहूण माइआ मलु धारी ॥ विणु गुण जनमि मुए अहंकारी ॥३॥ सरीरि सरोवरि गुण परगटि कीए ॥ नानक गुरमुखि मथि ततु कढीए ॥४॥५॥५७॥ {पन्ना 367} पद्अर्थ: गावा = मैं गाता हूँ, गाऊँ। बोली = बोलूँ, मैं उचारता हूँ। गुण बाणी = सिफत सालाह की बाणी। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख हो के, गुरू के बताए हुए राह पर चल के। आखि = कह के, उचार के। वखाणी = मैं बयान करता हूँ।1। मनि = मन में। सति सति सति नामु = सतिनामु, सतिनामु, सतिनामु। गुरि = गुरू ने। रसि = रस से, प्रेम से। गुण परमानंदा = सबसे ऊँचे आत्मिक आनंद के मालिक प्रभू के गुण।1। रहाउ। निरजोग = निर्लिप।2। धारी = धरने वाला। जनमि मुऐ = पैदा होते मरते रहते हैं।3। सरीरि = शरीर में। सरोवरि = सरोवर में। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ने वाले मनुष्य ने। मथि = रिड़क के, विचार के। ततु = निचोड़, अस्लियत।4। अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा का नाम बार-बार जप के मन में आनंद पैदा हो जाता है। जिस मनुष्य के हृदय में गुरू ने सतनाम-सतनाम-सतनाम पक्का कर दिया, उसने बड़े प्रेम से परमानंद प्रभू के गुण गाने शुरू कर दिए।1। रहाउ। (हे भाई!) गुरू की शरण पड़ के मैं भी परमात्मा के गुण गाता रहता हूँ, परमात्मा की सिफत सालाह की बाणी उचारता रहता हूँ, परमात्मा के गुण उचार-उचार के बयान करता रहता हूँ।1। (गुरू की शरण पड़ कर ही) परमात्मा का भक्त परमात्मा के गुण गाता है, और बड़ी किस्मत से उस निर्लिप परमात्मा को मिलता है।2। (हे भाई!) परमात्मा की सिफत सालाह से वंचित हुए मनुष्य माया के मोह की मैल (अपने मन में) टिकाए रखते हैं। सिफत सालाह के बिना अहंकार में मस्ताए हुए जीव बार-बार पैदा होते मरते रहते हैं।3। (हे भाई! मनुष्य के) इस शरीर सरोवर में (परमात्मा के गुण गुरू ने ही) प्रगट किए हैं। हे नानक! (जैसे दूध मथ के मक्खन निकालते हैं, वैसे ही) गुरू की शरण पड़ने वाला मनुष्य (परमात्मा के गुणों को) बारम्बार विचार के (जीवन का) निचोड़ (ऊँचा और स्वच्छ जीवन) प्राप्त कर लेता है।4।5।57। आसा महला ४ ॥ नामु सुणी नामो मनि भावै ॥ वडै भागि गुरमुखि हरि पावै ॥१॥ नामु जपहु गुरमुखि परगासा ॥ नाम बिना मै धर नही काई नामु रविआ सभ सास गिरासा ॥१॥ रहाउ ॥ नामै सुरति सुनी मनि भाई ॥ जो नामु सुनावै सो मेरा मीतु सखाई ॥२॥ नामहीण गए मूड़ नंगा ॥ पचि पचि मुए बिखु देखि पतंगा ॥३॥ आपे थापे थापि उथापे ॥ नानक नामु देवै हरि आपे ॥४॥६॥५८॥ {पन्ना 367} पद्अर्थ: सुणी = सुनना, मैं सुनता हूँ। नामो = नाम ही। मनि = मन में। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ने वाला मनुष्य।1। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ के। परगासा = प्रकाश। धर = आसरा। मै = मुझे। रविआ = सिमरा। सास गिरासा = सांस और ग्रास से।1। रहाउ। नामै सुरति = नाम की ही सुरति, श्रोत। भाई = भा गई, प्यारी लगी। सखाई = साथी।2। मूढ़ = मूर्ख। नंगा = नंगे, कंगाल। पचि पचि = जल जल के, ख्वार हो हो के। मुऐ = आत्मिक मौत मरे। बिख = जहर। देखि = देख के।3। थापे = बनाता है। थापि = बना के। उथापे = नाश करता है। आपे = स्वयं ही।4। अर्थ: (हे भाई!) गुरू की शरण पड़ के परमात्मा का नाम जपा करो (नाम सिमरन की बरकति से अंदर ऊँचे आत्मिक जीवन का) प्रकाश हो जाएगा। परमात्मा के नाम के बिना मुझे (तो आत्मिक जीवन के वास्ते) और कोई आत्मिक जीवन नहीं दिखता (इस वास्ते) मैं हरेक सांस से, हरेक ग्रास से प्रभू का नाम सिमरता रहता हूँ।1। रहाउ। (हे भाई!) मैं (सदा परमात्मा का) नाम सुनता रहता हूँ, नाम ही मेरे मन में प्यारा लग रहा है। गुरू की शरण पड़ने वाला मनुष्य बड़ी किस्मत से ये हरी नाम प्राप्त कर लेता है।1। (हे भाई!) जब से मैंने हरी नाम की श्रोत सुनी है (तब से ये मेरे) मन को प्यारी लग रही है। वही मनुष्य मेरा मित्र है, मेरा साथी है, जो मुझे परमातमा का नाम सुनाता है।2। (हे भाई!) परमात्मा के नाम से वंचित हुए मूर्ख मनुष्य (यहां से) ख़ाली हाथ चले जाते हैं, (जैसे) पतंगा (जलते दीपक को) देख के (जल मरता है, वैसे ही नाम-हीन मनुष्य आत्मिक मौत लाने वाली माया के) ज़हर में दुखी हो-हो के आत्मिक मौत मरते हैं।3। (पर) हे नानक! (जीवों के भी क्या वश?) जो परमात्मा खुद ही जगत की रचना रचता है, जो स्वयं ही रच के नाश भी करता है, वह परमात्मा खुद ही हरी-नाम की दाति देता है।4।6।58। आसा महला ४ ॥ गुरमुखि हरि हरि वेलि वधाई ॥ फल लागे हरि रसक रसाई ॥१॥ हरि हरि नामु जपि अनत तरंगा ॥ जपि जपि नामु गुरमति सालाही मारिआ कालु जमकंकर भुइअंगा ॥१॥ रहाउ ॥ हरि हरि गुर महि भगति रखाई ॥ गुरु तुठा सिख देवै मेरे भाई ॥२॥ हउमै करम किछु बिधि नही जाणै ॥ जिउ कुंचरु नाइ खाकु सिरि छाणै ॥३॥ जे वड भाग होवहि वड ऊचे ॥ नानक नामु जपहि सचि सूचे ॥४॥७॥५९॥ {पन्ना 367} पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरू के सन्मुख रहने वाले मनुष्य। वधाई = पाल के बड़ी की। हरि रसक = हरी नाम के रसिए। रसाई = रस देने वाले, स्वादिष्ट।1। हरि अनत तरंगा = बेअंत लहरों के मालिक हरी। अनत = अनंत, बेअंत। तरंग = लहरे। सालाही = सिफत सालाह कर। कालु = मौत, आत्मिक मौत, मौत का डर। जम कंकर = (किंकर = नौकर) जमदूत। भुइअंगा = सांप।1। रहाउ। महि = में। तुठा = प्रसन्न। सिख = सिख को, सिखों को। भाई = हे भाई!।2। बिधि = तरीका। कुंचरु = हाथी। नाई = नहा के। सिरि = सिर पर।3। होवहि = हो जाएं। जपहि = जपते हैं। सचि = सदा स्थिर प्रभू में (जुड़ के)। सुचे = पवित्र।4। अर्थ: (हे भाई! जगत के अनेकों जीव-जंतु रूप) बेअंत लहरों के मालिक परमात्मा का नाम जप सिमर। गुरू की मति ले के बार-बार हरि नाम सिमर और सिफत सालाह करता रह। (जिस मनुष्य ने नाम जपा, जिसने सिफत सालाह की उसने मन-) सर्प को मार लिया, उसने मौत के डर को खत्म कर लिया, उसने जमदूतों को मार लिया। जमदूत उसके नजदीक नहीं फटकते।1। रहाउ। (हे भाई! परमात्मा का नाम, जैसे, बेल है) गुरू की शरण पड़ने वाले मनुष्यों ने इस हरी-नाम बेल को (सिमरन के जल से सींच-सींच के अपने अंदर) बड़ा कर लिया है, (उनके अंदर उनके आत्मिक जीवन में इस बेल को) रस देने वाले स्वादिष्ट (आत्मिक गुणों के) फल लगते हैं।1। हे मेरे भाई! परमात्मा ने (अपनी) भगती गुरू में टिका रखी है, और गुरू प्रसन्न हो के (भक्ति की ये दाति) सिख को देता है।2। (पर, जो मनुष्य गुरू की शरण नहीं पड़ता और अपने) अहंकार में ही (अपनी ओर से धार्मिक) काम (भी करता है, वह परमात्मा की) भक्ती की रत्ती मात्र भी सार नहीं जानता (अहंकार के आसरे किए हुए उसके धार्मिक काम ऐसे हैं) जैसे हाथी नहा के अपने सिर पर मिट्टी डाल लेता है।3। हे नानक! अगर बड़े भाग्य हों, यदि बहुत उच्च भाग्य हों तो मनुष्य (गुरू की शरण में पड़ के परमात्मा का) नाम जपते हैं। (इस तरह) सदा कायम रहने वाले परमात्मा में जुड़ के वह पवित्र जीवन वाले बन जाते हैं।4।7।59। आसा महला ४ ॥ हरि हरि नाम की मनि भूख लगाई ॥ नामि सुनिऐ मनु त्रिपतै मेरे भाई ॥१॥ नामु जपहु मेरे गुरसिख मीता ॥ नामु जपहु नामे सुखु पावहु नामु रखहु गुरमति मनि चीता ॥१॥ रहाउ ॥ नामो नामु सुणी मनु सरसा ॥ नामु लाहा लै गुरमति बिगसा ॥२॥ नाम बिना कुसटी मोह अंधा ॥ सभ निहफल करम कीए दुखु धंधा ॥३॥ हरि हरि हरि जसु जपै वडभागी ॥ नानक गुरमति नामि लिव लागी ॥४॥८॥६०॥ {पन्ना 367} पद्अर्थ: मनि = मन में। नामि सुनिअै = अगर हरी नाम सुनते रहे। त्रिपतै = तृप्त हो जाता है। भाई = हे भाई!।1। नामे = नाम में ही। मनि = मन मे।1। रहाउ। नामो नामु = नाम ही नाम। सुणी = सुन-सुन के। सरसा = स+रस, हरा, जीवन रस वाला। लाहा = लाभ। बिगसा = खिल जाता है।2। कुसटी = कोढ़ी। निहफल = व्यर्थ। धंधा = माया का जंजाल।3। जसु = सिफत सालाह। नामि = नाम में। लिव = लगन।4। अर्थ: हे मेरे गुरू के सिखो! हे मेरे मित्रो! (सदा परमात्मा का) नाम जपते रहो, नाम जपते रहो। नाम में जुड़ के आत्मिक आनंद लो। गुरू की मति के द्वारा परमात्मा के नाम को अपने मन में, अपने चित्त में टिकाए रखो।1। रहाउ। हे मेरे भाई! (मेरे) मन में सदा परमात्मा की भूख लगी रहती है (इस भूख की बरकति से माया की भूख नहीं लगती, क्योंकि) अगर परमात्मा का नाम सुनते रहें तो मन (माया की ओर से) संतुष्ट रहता है (तृप्त रहता है)।1। (हे मेरे भाई!) सदा परमात्मा का नाम ही नाम सुन के मन (प्रेम-दया आदि गुणों के साथ) हरा हुआ रहता है। गुरू की मति की बरकति से परमात्मा का नाम कमा-कमा के मन प्रसन्न टिका रहता है।2। (जैसे कोई कोढ़ी, कोढ़ के दर्द से बिलकता रहता है, वैसे ही) परमात्मा के नाम से विछुड़ा हुआ मनुष्य आत्मिक रोगों से ग्रसित हुआ दुखी रहता है। माया के मोह उसे (सही जीवन-जुगति की ओर से) अंधा किए रहते हैं। और जितने भी काम वह करता है, सब व्यर्थ जाते हैं, वह काम उसको (आत्मिक) दुख ही देते हैं, उसके लिए माया का जाल ही बने रहते हैं।3। हे नानक! बहुत भाग्यशाली है वह मनुष्य जो (गुरू की मति ले के) सदा परमात्मा की सिफत सालाह करता है। गुरू की मति की बरकति से परमात्मा के नाम में लगन बनी रहती है।4।8।60। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |