श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 368 ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ महला ४ रागु आसा घरु ६ के ३ ॥ हथि करि तंतु वजावै जोगी थोथर वाजै बेन ॥ गुरमति हरि गुण बोलहु जोगी इहु मनूआ हरि रंगि भेन ॥१॥ जोगी हरि देहु मती उपदेसु ॥ जुगु जुगु हरि हरि एको वरतै तिसु आगै हम आदेसु ॥१॥ रहाउ ॥ गावहि राग भाति बहु बोलहि इहु मनूआ खेलै खेल ॥ जोवहि कूप सिंचन कउ बसुधा उठि बैल गए चरि बेल ॥२॥ काइआ नगर महि करम हरि बोवहु हरि जामै हरिआ खेतु ॥ मनूआ असथिरु बैलु मनु जोवहु हरि सिंचहु गुरमति जेतु ॥३॥ जोगी जंगम स्रिसटि सभ तुमरी जो देहु मती तितु चेल ॥ जन नानक के प्रभ अंतरजामी हरि लावहु मनूआ पेल ॥४॥९॥६१॥ {पन्ना 368} पद्अर्थ: घरु ६ के ३ = घर छेवें के तीन शबद (नं:९, १० और ११)। हथि = हाथ में। करि = कर के, (किंगुरी) पकड़ के। तंतु = तार। थोथर = खाली, व्यर्थ, बेअसर। बेन = वीणा, किंगुरी। जोगी = हे जोगी! रंगि = रंग में। भेन = भीग जाए।1। मती = मति, बुद्धि। ऐको = एक ही, स्वयं ही। वरतै = मौजूद रहता है। हम = हमारी। आदेसु = नमस्कार।1। रहाउ। गावहि = गाते हैं। भाति बहु = कई तरीकों से। खेल = खेलें। जोवहि = जोतते हैं। कूप = कूआँ। सिंचन कउ = सींचने के लिए। बसुधा = धरती। उठि = उठ के।2। काइआ = शरीर। करम हरि = हरि नाम सिमरन के काम। बोवहु = बीजो। जामै = पैदा होता है, उगता है। असथिरु = स्थिर, अडोल, टिका हुआ। जेतु = जिस, जिस मन रूपी बैल के द्वारा।3। जंगम = जोगियों का एक फिरका। ये कानों में पीतल के फूल पहनते हैं। सिर पर मोर के पंख परोते हैं और सांप के शकल की काली रस्सी लपेट के रखते हैं। तितु = उस तरफ। चेल = चलती है। पेल = प्रेर के।4। अर्थ: हे जोगी! तुम (अपने मन को) हरि-नाम सिमरन की बुद्धि शिक्षा दिया करो। वह परमात्मा हरेक युग में खुद ही खुद सब कुछ करता रहता है। मैं तो उस परमात्मा के आगे ही सदा सिर निवाता हूँ।1। रहाउ। जोगी (किंगुरी) हाथ में पकड़ के तार बजाता है, पर उसकी किंगुरी बेअसर ही बजती है (क्योंकि, मन हरी-नाम से सूना टिका रहता है)। हे जोगी! गुरू की शिक्षा ले के परमात्मा के गुणों का उच्चारण करता रहा कर (इस तरह) ये (बेकाबू) मन परमात्मा के प्रेम-रंग में भीगा रहता है।1। जोगी लोग राग गाते हैं, और भी कई किस्म के बोल बोलते हैं, पर उनका ये बे-काबू मन और ही खेलें खेलता रहता है (किंगुरी आदि का मन पर असर नहीं पड़ता, उनकी हालत ऐसे ही होती है, जैसे किसान) फसल की सिंचाई के लिए रहट (कूएं पर लगे पानी निकालने वाले यंत्र को चलाने के लिए) बैल जोहते हैं, पर उनके (अपने) बैल (ही) उठ के बेल आदि (फसल) को खा जाते हैं।2। (हे जोगी!) इस शरीर नगर में हरी-नाम-सिमरन का कर्म बीजो; (जो मनुष्य अपने हृदय-खेत में हरी-नाम का बीज बीजता है, उसके अंदर) हरी-नाम का सुंदर खेत उग पड़ता है। (हे जोगी! सिमरन की बरकति से) इस मन को डोलने से रोको, इस टिके हुए मन बैल को जोहो, जिससे गुरू की मति से (अपने अंदर) हरी-नाम जल को सींचो।3। (पर हे प्रभू! जीवों के भी क्या वश?) जोगी, जंगम आदि ये सारी सृष्टि तेरी ही रची हुई है, स्वयं जो मति इस सृष्टि को देता है उधर ही चलती है। दास नानक के हे अंतरजामी प्रभू! हमारे मन को प्रेरित करके तू खुद ही अपने चरणों में जोड़।4।9।61। आसा महला ४ ॥ कब को भालै घुंघरू ताला कब को बजावै रबाबु ॥ आवत जात बार खिनु लागै हउ तब लगु समारउ नामु ॥१॥ मेरै मनि ऐसी भगति बनि आई ॥ हउ हरि बिनु खिनु पलु रहि न सकउ जैसे जल बिनु मीनु मरि जाई ॥१॥ रहाउ ॥ कब कोऊ मेलै पंच सत गाइण कब को राग धुनि उठावै ॥ मेलत चुनत खिनु पलु चसा लागै तब लगु मेरा मनु राम गुन गावै ॥२॥ कब को नाचै पाव पसारै कब को हाथ पसारै ॥ हाथ पाव पसारत बिलमु तिलु लागै तब लगु मेरा मनु राम सम्हारै ॥३॥ कब कोऊ लोगन कउ पतीआवै लोकि पतीणै ना पति होइ ॥ जन नानक हरि हिरदै सद धिआवहु ता जै जै करे सभु कोइ ॥४॥१०॥६२॥ {पन्ना 368} पद्अर्थ: कब = कब, क्यूँ? को = कोई। भालै = ढूँढे। आवत जात = आते जाते। बार = देर। खिनु = घड़ी पल। हउ = मैं। तब लगु = उतनी देर। समारउ = मैं संभालता हूँ, मैं याद करता हूँ।1। मनि = मन में। मीनु = मछी।1। रहाउ। पंच = पाँच तारें। सत = सात सुरें। चसा = थोड़ा सा समय।2। पाव = (‘पाउ’ का बहुवचन) पैर। पसारै = खिलारे। बिलमु = देर, विलम्ब। समारै = सम्भालता है।3। कउ = को। पतीआवै = यकीन दिलाए। लोकि पतीणै = अगर जगत पतीज भी जाए। पति = इज्जत। जै जै = आदर सत्कार। सभ कोइ = हरेक जीव।4। अर्थ: क्यूँ कोई ताल देने के लिए घुंघरू तलाशता फिरे? (भाव, मुझे घुंघरूओंकी जरूरत नहीं), क्यूँ कोई रबाब (आदि साज) बजाता फिरे? (ये घुंघरू रबाब आदि लाने के लिए) आते-जाते कुछ ना कुछ समय तो लगता ही है। पर मैं तो उतना समय भी परमात्मा का नाम ही याद करूँगा।1। (हे भाई!) मेरे मन में परमात्मा की भगती ऐसी बनी हुई है कि मैं परमात्मा की याद के बिना एक घड़ी पल भी नहीं रह सकता (मुझे याद के बिना आत्मिक मौत सी प्रतीत होने लग जाती है) जैसे पानी से बिछुड़ के मछली मर जाती है।1। रहाउ। (हे भाई!) गाने के लिए क्यूँ कोई पंचतारा और सात सुरें मिलाता फिरे? क्यूँ कोई राग की सुर उठाता फिरे? ये तारें, सुरें मिलाते और सुर उठाते हुए कुछ ना कुछ समय तो जरूर लगता है। मेरा मन तो उतना समय भी परमात्मा के गुण गाता रहेगा।2। (हे भाई!) क्यूँ कोई नाचता फिरे? (नाचने के लिए) क्यूँ को पैर फैलाए? क्यूँ कोई हाथ फैलाए? इन हाथों-पैरों को पसारने में भी थोड़ा बहुत समय तो लगता ही है। मेरा मन तो उतना समय भी परमात्मा को हृदय में बसाता रहेगा।3। (हे भाई! अपने आप को भक्त जाहिर करने के लिए) क्यूँ कोई यकीन दिलाता फिरे? अगर लोगों की तसल्ली हो भी जाए तो भी (प्रभू-दर से) आदर नहीं मिलेगा। हे दास नानक! (कह–हे भाई!) सदा अपने हृदय में परमात्मा को सिमरते रहो, इस तरह हरेक जीव आदर-सत्कार करता है।4।10।62। आसा महला ४ ॥ सतसंगति मिलीऐ हरि साधू मिलि संगति हरि गुण गाइ ॥ गिआन रतनु बलिआ घटि चानणु अगिआनु अंधेरा जाइ ॥१॥ हरि जन नाचहु हरि हरि धिआइ ॥ ऐसे संत मिलहि मेरे भाई हम जन के धोवह पाइ ॥१॥ रहाउ ॥ हरि हरि नामु जपहु मन मेरे अनदिनु हरि लिव लाइ ॥ जो इछहु सोई फलु पावहु फिरि भूख न लागै आइ ॥२॥ आपे हरि अपर्मपरु करता हरि आपे बोलि बुलाइ ॥ सेई संत भले तुधु भावहि जिन्ह की पति पावहि थाइ ॥३॥ नानकु आखि न राजै हरि गुण जिउ आखै तिउ सुखु पाइ ॥ भगति भंडार दीए हरि अपुने गुण गाहकु वणजि लै जाइ ॥४॥११॥६३॥ {पन्ना 368} पद्अर्थ: साधू = गुरू। मिलि = मिल के। बलिआ = चमक पड़ा। घटि = घट में, हृदय में।1। हरि जन = हे हरि जनो! पाइ = पैर।1। रहाउ। मन = हे मन! अनदिनु = हर रोज। लिव लाइ = सुरति जोड़ के।2। अपरंपरु = परे से परे। बोलि = बोले, बोलता है। पावहि थाइ = तू परवान करता है।3। भंउार = खजाने। वणजि = खरीद के।4। अर्थ: हे हरी के सेवको! परमात्मा का नाम सिमर-सिमर के नाचो (नाम सिमरो-यही नाच नाचो। सिमरन करो, मन नाच उठेगा, मन चाउ भरपूर हो जाएगा)। हे मेरे वीर! अगर मुझे ऐसे संत-जन मिल जाएं, तो मैं उनके पैर धोऊँ (हम उनके पैर धोएं-लफ़जी)।1। रहाउ। (हे मेरे वीर!) प्रभू की गुरू की साध-संगति में मिलना चाहिए। (हे वीर!) संगति में मिल के परमात्मा के गुण गाता रह। (जो मनुष्य प्रभू के गुण गाता है उसके अंदर गुरू के बख्शे) ज्ञान का रतन चमक उठता है, उसके हृदय में (आत्मिक) प्रकाश हो जाता है, (उसके अंदर से) अज्ञानता का अंधेरा दूर हो जाता है।1। हे मेरे मन! हर रोज परमात्मा (के चरणों) में सुरति जोड़ के परमात्मा का नाम जपा कर, जिस फल की इच्छा करेगा वही फल हासिल होगा, और दुबारा तुझे माया की भूख नहीं लगेगी।2। (पर सिमरन करना जीव के अपने वश की बात नहीं) सृजनहार बेअंत परमात्मा स्वयं ही (सब जीवों में व्यापक हो के) बोलता है और खुद ही जीवों को बोलने के लिये प्रेरता है। हे प्रभू! वही मनुष्य अच्छे संत जन हैं जो तुझे प्यारे लगते हैं, जिनकी इज्जत तेरे दर पर कबूल होती है।3। (हे भाई! प्रभू का दास) नानक परमात्मा के गुण बयान कर कर के थकता नहीं है ज्यों-ज्यों नानक उसकी सिफत सालाह करता है त्यों-त्यों आत्मिक आनंद पाता है। (हे भाई!) परमात्मा ने (जीवों को) अपनी भक्ति के खजाने दिए हुए हैं, पर इन गुणों का गाहक ही खरीद के (इस जगत से अपने साथ) ले जाता है।4।11।63। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |