श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 369 ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ रागु आसा घरु ८ के काफी२ महला ४ ॥ आइआ मरणु धुराहु हउमै रोईऐ ॥ गुरमुखि नामु धिआइ असथिरु होईऐ ॥१॥ गुर पूरे साबासि चलणु जाणिआ ॥ लाहा नामु सु सारु सबदि समाणिआ ॥१॥ रहाउ ॥ पूरबि लिखे डेह सि आए माइआ ॥ चलणु अजु कि कल्हि धुरहु फुरमाइआ ॥२॥ बिरथा जनमु तिना जिन्ही नामु विसारिआ ॥ जूऐ खेलणु जगि कि इहु मनु हारिआ ॥३॥ जीवणि मरणि सुखु होइ जिन्हा गुरु पाइआ ॥ नानक सचे सचि सचि समाइआ ॥४॥१२॥६४॥ {पन्ना 369} नोट: आसा घरु ८ के काफी–शब्द ‘के’ पुलिंग है। अगर शब्द ‘काफी’ ‘काफियां’ के लिए होता तो ‘के’ की जगह ‘कीआं’ होता। सो, ‘काफी’ राग का नाम है। आसा घर अठवें के दो शबद राग काफी के साथ मिला के गाए जाने वाले। पद्अर्थ: धुराहु = धुर दरगह से। मरणु = मौत, मरणा। रोईअै = रोता है। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख हो के। असथिरु = अडोल चित्त।1। गुर पूरे = पूरे गुरू के द्वारा। लाहा = लाभ। सारु = श्रेष्ठ। सबदि = गुरू के शबद द्वारा।1। रहाउ। पूरबि = पहले जनम में। डेह = दिन। सि = वह दिन। माइआ = हे माँ! कि = अथवा।2। जूअै = जूए में। जगि = जग में।3। जीवणि मरणि = जीवन में भी और मरने में भी। सचे = सदा स्थिर प्रभू का रूप। सचि = सदा स्थिर रहने वाले प्रभू में।4। अर्थ: जिन मनुष्यों ने पूरे गुरू के द्वारा ये जान लिया कि जगत से आखिर चले जाना है उन्होंने शाबाशी कमाई, उन्होंने परमात्मा का नाम (-रूपी) श्रेष्ठ लाभ कमा लिया। वे गुरू के शबद के द्वारा (परमात्मा के नाम में) लीन हुए रहे।1। रहाउ। (हे भाई!) धुर दरगाह से ही (हरेक जीव के वास्ते) मौत (का परवाना) आया हुआ है (धुर से ही ये रजा है कि जो पैदा हुआ है उसने मरना भी जरूर है) अहंकार के कारण ही (किसी के मरने पर) रोते हैं। गुरू के द्वारा परमात्मा का नाम सिमर के (मनुष्य) अडोल चित्त हो जाता है (मौत आने पर सहम से डावाँ-डोल नहीं होता)।1। हे माँ! पूर्व जनम में (धुर से) लिखे अनुसार (जिन्हें जिंदगी के) दिन मिलते हैं वे जगत में आ जाते हैं (पैदा हो जाते हैं, इसी तरह ही) धुर से ही ये फुरमान भी है कि यहां से आज या कल चले भी जाना है।2। (हे भाई!) जिन मनुष्यों ने (जगत में आ के) परमात्मा का नाम भुला दिया उनका मानस जन्म व्यर्थ चला गया। उन्होंने जगत में आ के जूए की खेल ही खेली (और इस खेल में) अपना मन (विकारों के हाथों) हार दिया।3। जिन मनुष्यों को गुरू मिल पड़ा उन्होंने (सारे) जीवन में (भी) आत्मिक आनंद पाया, और मरने में भी (मरने के वक्त भी) सुख ही प्राप्त किया, (क्योंकि) हे नानक! वह मनुष्य सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा में सदा लीन रहे हैं और सदा स्थिर प्रभू का रूप बने रहे (सदा स्थिर प्रभू के साथ एक-मेक हुए रहे)।4।12।64। आसा महला ४ ॥ जनमु पदारथु पाइ नामु धिआइआ ॥ गुर परसादी बुझि सचि समाइआ ॥१॥ जिन्ह धुरि लिखिआ लेखु तिन्ही नामु कमाइआ ॥ दरि सचै सचिआर महलि बुलाइआ ॥१॥ रहाउ ॥ अंतरि नामु निधानु गुरमुखि पाईऐ ॥ अनदिनु नामु धिआइ हरि गुण गाईऐ ॥२॥ अंतरि वसतु अनेक मनमुखि नही पाईऐ ॥ हउमै गरबै गरबु आपि खुआईऐ ॥३॥ नानक आपे आपि आपि खुआईऐ ॥ गुरमति मनि परगासु सचा पाईऐ ॥४॥१३॥६५॥ {पन्ना 369} पद्अर्थ: पदारथु = कीमती वस्तु। पाइ = प्राप्त करके। परसादी = प्रसादि, कृपा से। बुझि = समझ के, कद्र समझ के। सचि = स्थिर प्रभू में।1। धुरि = धुर से प्रभू के हुकम से। तिनी = उन्होंने ही। दरि सचै = सदा स्थिर प्रभू के दर पर। सचिआर = सुर्खरू। महलि = प्रभू की हजूरी में।1। रहाउ। अंतरि = (सब के) अंदर। निधानु = खजाना। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ने से। अनदिनु = अनुदिन, हर रोज। गाईअै = आओ गाएं।2। वसतु = नाम पदार्थ। अनेक = अनेकों गुण। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने से। गरबै = गर्व करता है, अहंकार करता है। गरबु = अहंकार। खुआईअै = गवा के फिरता है, जिसने गवाया हो।3। नानक = हे नानक! आपे = आप ही। मनि = मन में। परगासु = (सही जीवन की) रौशनी।4। अर्थ: (हे भाई!) उन मनुष्यों ने ही नाम सिमरन की कमाई की है जिनके माथे पे धुर दरगाह से ये कमाई करने का लेख लिखा हुआ है (जिनके अंदर सिमरन करने के संस्कार मौजूद हैं)। वह मनुष्य सदा स्थिर रहने वाले प्रभू के दर पर सुर्खरू होते हैं उन्हें परमात्मा की हजूरी में बुलाया जाता है (आदर मिलता है)।1। रहाउ। (हे भाई!) जिन मनुष्यों ने कीमती मानस जनम हासिल करके परमात्मा का नाम सिमरा, गुरू की कृपा से (वह मनुष्य जनम की कद्र) समझ के सदा स्थिर प्रभू में लीन हो गए।1। (हे भाई!) नाम-खजाना हरेक मनुष्य के अंदर मौजूद है, पर ये मिलता है गुरू की शरण पड़ने से। (इस वास्ते) हर रोज परमात्मा का नाम सिमर के (आओ, गुरू के द्वारा) परमात्मा के गुण गाते रहें।2। (हे भाई!) नाम-पदार्थ हरेक के अंदर है (परमात्मा वाले) अनेकों (गुण) हरेक के अंदर हैं, पर अपने मन के पीछे चलने वाले को कुछ नहीं मिलता। अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य अपने अहंकार के कारण (अपनी सूझ-बूझ का ही) अहंकार करता रहता है, (और इस तरह) स्वयं ही (परमात्मा से) विछुड़ा रहता है।3। हे नानक! मनमुख मनुष्य सदा स्वयं ही (अपनी ही मूर्खता के कारण) परमात्मा से विछुड़ा रहता है। गुरू की मति पर चलने से मन रौशन हो जाता है, और सदा स्थिर रहने वाला परमात्मा मिल जाता है।4।13।65। रागु आसावरी घरु १६ के २ महला ४ सुधंग ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ हउ अनदिनु हरि नामु कीरतनु करउ ॥ सतिगुरि मो कउ हरि नामु बताइआ हउ हरि बिनु खिनु पलु रहि न सकउ ॥१॥ रहाउ ॥ हमरै स्रवणु सिमरनु हरि कीरतनु हउ हरि बिनु रहि न सकउ हउ इकु खिनु ॥ जैसे हंसु सरवर बिनु रहि न सकै तैसे हरि जनु किउ रहै हरि सेवा बिनु ॥१॥ किनहूं प्रीति लाई दूजा भाउ रिद धारि किनहूं प्रीति लाई मोह अपमान ॥ हरि जन प्रीति लाई हरि निरबाण पद नानक सिमरत हरि हरि भगवान ॥२॥१४॥६६॥ {पन्ना 369} नोट: घरु १६ के २–सोलहवें घर के दो शबद। सुधंग–शुद्ध सुरों वाली। पद्अर्थ: हउ = मैं। अनदिनु = हर रोज। करउ = करता हूँ, करूँ। सतिगुरि = सतिगुरू ने। मो कउ = मुझे। रहि न सकउ = मैं रह नहीं सकता।1। रहाउ। हमरै = मेरे पास। स्रवणु = सुनना।1। किन हूँ = किसी ने। दूजा भाउ = प्रभू के बिना कोई और प्यार। रिद = हृदय में। धारि = धारण करके। अपमान = अभिमान, अहंकार। निरबाण पद = वासना रहित अवस्था।2। अर्थ: (हे भाई! जब से) गुरू ने मुझे परमात्मा के नाम के बारे में बताया है (तब से) मैं परमात्मा के नाम के सिमरन के बिना एक घड़ी पल भी नहीं रह सकता। मैं हर वक्त परमात्मा का नाम जपता हूँ, मैं हर समय परमात्मा की सिफत सालाह करता हूँ।1। रहाउ। (हे भाई!) मेरे पास परमात्मा की सिफत सालाह सुननी और परमात्मा का नाम जपना ही (राशि पूँजी) है, परमात्मा का नाम जपे बिना मैं एक पल भी नहीं रह सकता। जैसे हंस सरोवर के बिना नहीं रह सकता वैसे ही परमात्मा का भगत परमात्मा की सेवा भगती के बिना नहीं रह सकता।1। (हे भाई!) किसी मनुष्य ने माया का प्यार दिल में टिका के माया से प्रीति जोड़ी हुई है, किसी ने मोह और अहंकार से प्रीति जोड़ी हुई है, पर हे नानक! परमात्मा के भक्तों ने परमात्मा के साथ प्रीति लगाई हुई है। वह सदा वासना रहित अवस्था में रहते हैं, वे सदा हरी-भगवान को सिमरते रहते हैं।2।14।66। आसावरी महला ४ ॥ माई मोरो प्रीतमु रामु बतावहु री माई ॥ हउ हरि बिनु खिनु पलु रहि न सकउ जैसे करहलु बेलि रीझाई ॥१॥ रहाउ ॥ हमरा मनु बैराग बिरकतु भइओ हरि दरसन मीत कै ताई ॥ जैसे अलि कमला बिनु रहि न सकै तैसे मोहि हरि बिनु रहनु न जाई ॥१॥ राखु सरणि जगदीसुर पिआरे मोहि सरधा पूरि हरि गुसाई ॥ जन नानक कै मनि अनदु होत है हरि दरसनु निमख दिखाई ॥२॥३९॥१३॥१५॥६७॥ {पन्ना 369-370} पद्अर्थ: माई = हे माँ! री माई = हे माँ! करहलु = ऊठ, ऊठ का बच्चा। रीझाई = खुश होता है।1। रहाउ। बैराग = वैरागवान। बिरकतु = उदास, उपराम। कै ताई = की खातिर। अलि = भौरा। कमला = कमल, कमल का फूल। मोहि = मुझसे।1। जगदीसुर = हे जगत के ईश्वर! मेहि सरधा = मेरी श्रद्धा, मेरी कामना। पूरि = पूरी कर। गुसाई = हे गुसांई! हे धरती के पति! कै मनि = के मन में। निमख = आँख झपकने जितना समय। दिखाई = दिखा। अर्थ: हे माँ! मुझे बता प्यारा राम (कहां है? उसे देख के मेरा मन ऐसे खुश होता है!) जैसे ऊठ का बच्चा बेलों को देख-देख के प्रसन्न होता है। मैं उस हरी (के दर्शन) के बिना एक छिन भी, एक पल भी (सुखी) नहीं रह सकता।1। रहाउ। (हे माँ!) मित्र प्रभू के दर्शन की खातिर मेरा मन उतावला हो रहा है, मेरा मन (दुनिया के तरफ से) उपराम हुआ पड़ा है। जैसे भौरा कमल के फूल के बिना नहीं रह सकता, वैसे ही मुझसे भी परमात्मा (के दर्शनों) के बिना रहा नहीं जा सकता।1। हे जगत के मालिक! हे प्यारे! हे हरी! हे धरती के पति! मुझे अपनी शरण में रख, मेरी ये तमन्ना पूरी कर। (जब तेरा दर्शन होता है तब तेरे) दास नानक के मन में चाव पैदा हो जाता है । हे हरी! (मुझ नानक को) आँख झपकने जितने समय के लिए ही अपना दर्शन दो।2।39।13।15।67। नोट: शबद महला १---------------39 आसा राग के आरम्भ में लिखे हुए ‘सो दरु’ और ‘सो पुरखु’ इस गिनती में शामिल नहीं हैं। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |