श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 370 रागु आसा घरु २ महला ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ जिनि लाई प्रीति सोई फिरि खाइआ ॥ जिनि सुखि बैठाली तिसु भउ बहुतु दिखाइआ ॥ भाई मीत कुट्मब देखि बिबादे ॥ हम आई वसगति गुर परसादे ॥१॥ ऐसा देखि बिमोहित होए ॥ साधिक सिध सुरदेव मनुखा बिनु साधू सभि ध्रोहनि ध्रोहे ॥१॥ रहाउ ॥ इकि फिरहि उदासी तिन्ह कामि विआपै ॥ इकि संचहि गिरही तिन्ह होइ न आपै ॥ इकि सती कहावहि तिन्ह बहुतु कलपावै ॥ हम हरि राखे लगि सतिगुर पावै ॥२॥ तपु करते तपसी भूलाए ॥ पंडित मोहे लोभि सबाए ॥ त्रै गुण मोहे मोहिआ आकासु ॥ हम सतिगुर राखे दे करि हाथु ॥३॥ गिआनी की होइ वरती दासि ॥ कर जोड़े सेवा करे अरदासि ॥ जो तूं कहहि सु कार कमावा ॥ जन नानक गुरमुख नेड़ि न आवा ॥४॥१॥ {पन्ना 370} पद्अर्थ: खाइआ = खाया जाता है। सुखि = सुख से, आदर से। देखि = देख के। बिबादे = झगड़ते हैं। हम वसगति = हमारे वश में। परसादे = प्रसादि, कृपा से।1। बिमोहित = मस्त। साधिक = साधना करने वाले। सुर = देवते। सिध = साधना में माहिर हुए जोगी। साधू = गुरू। सभि = सारे। ध्रोहनि = ठगनी (माया) ने। ध्रोहे = ठॅग लिए।1। रहाउ। इकि = (शब्द ‘इक’ का बहुवचन)। कामि = काम वासना से। विआपै = काबू कर लेती है। संचहि = इकट्ठी करते हैं। आपै = अपनी। सती = दानी। कलपावै = दुखी करती है। पावै = पैरों पर।2। भुलाऐ = गलत रास्ते पर डाल दिए। लोभि = लोभ में। सबाऐ = सारे। आकासु = (भाव) आकाश वासी, देवते।3। दासि = दासी। कर = हाथ। कमावा = कमाऊँ।5। अर्थ: साधना करने वाले जोगी, साधना में पहुँचे हुए जोगी, देवते, मनुष्य- ये सारे (माया को) देख के बहुत मस्त हो जाते हैं। गुरू के बिना ये सारे ठगनी (माया) के हाथों ठगे जाते हैं।1। रहाउ। जिस मनुष्य ने (इस माया के साथ) प्यार डाला, वही पलट के खाया गया (माया ने उसी को ही खा लिया)। जिसने (इसका) आदर करके इसे अपने पास बैठाया उसे ही (माया ने) बहुत डराया। भाई-मित्र-परिवार (के जीव, सारे ही इस माया को) देख के (आपस में) लड़ पड़ते हैं। गुरू की कृपा से ये हमारे वश में आ गई है।1। अनेकों लोग त्यागी बन के घूमते फिरते हैं (पर) उन्हें (ये माया) काम-वासना के रूप में आ दबोचती है। अनेकों लोग (अपने आप को) दानी कहलवाते हैं, उनको (भी) ये बहुत दुखी करती है। सतिगुरू के चरणों में लगने के कारण हमें परमात्मा ने (इस माया के पंजे से) बचा लिया है।2। तप कर रहे तपस्वियों को (इस माया ने) भटका दिया। सारे विद्वान पंडित लोग लोभ में फस के (माया के हाथों) ठगे गए। सारे ही त्रै-गुणी जीव ठगे जा रहे हैं। हमें तो गुरू ने अपना हाथ दे के (इस तरफ से) बचा लिया है।3। हे दास नानक! (कह–) जो मनुष्य परमात्मा के साथ गहरी सांझ डाल लेता है (ये माया) उसकी दासी बन के कार करती है, उसके आगे (दोनों) हाथ जोड़ती है उसकी सेवा करती है, उसके आगे विनती करती है (और कहती है–) मैं वही काम करूँगी जो तू कहे, मैं उस मनुष्य के पास नहीं जाऊँगी (मैं उस मनुष्य पर अपना दबाव नहीं डालूँगी) जो गुरू की शरण पड़ता है।4।1। नोट: अंक १ बताता है कि महला ५ (पाँचवां) का ये पहला शबद है। आसा महला ५ ॥ ससू ते पिरि कीनी वाखि ॥ देर जिठाणी मुई दूखि संतापि ॥ घर के जिठेरे की चूकी काणि ॥ पिरि रखिआ कीनी सुघड़ सुजाणि ॥१॥ सुनहु लोका मै प्रेम रसु पाइआ ॥ दुरजन मारे वैरी संघारे सतिगुरि मो कउ हरि नामु दिवाइआ ॥१॥ रहाउ ॥ प्रथमे तिआगी हउमै प्रीति ॥ दुतीआ तिआगी लोगा रीति ॥ त्रै गुण तिआगि दुरजन मीत समाने ॥ तुरीआ गुणु मिलि साध पछाने ॥२॥ सहज गुफा महि आसणु बाधिआ ॥ जोति सरूप अनाहदु वाजिआ ॥ महा अनंदु गुर सबदु वीचारि ॥ प्रिअ सिउ राती धन सोहागणि नारि ॥३॥ जन नानकु बोले ब्रहम बीचारु ॥ जो सुणे कमावै सु उतरै पारि ॥ जनमि न मरै न आवै न जाइ ॥ हरि सेती ओहु रहै समाइ ॥४॥२॥ {पन्ना 370} पद्अर्थ: ससू ते = सास से (शब्द ‘ससु’ के बाद में ‘ु’ की मात्रा है, पर है स्त्री लिंग। संस्कृत शब्द है स्वश्रू। संबंधक के कारण ‘ु’ की जगह ‘ू’ हो जाता है, जैसे, ‘खाकु’ से ‘खाकू’, ‘जिंदु’ से ‘जिंदू’) ससु = अज्ञानता। पिरि = पिर ने। वाखि = अलग। देर जिठाणी = दिवरानी जेठानी, आशा तृष्णा। जिठेरा = धर्म राज। काणि = धौंस। सुजाणि = सुजान ने।1। दुरजन = बुरे लोग, खराब भाव। संघारे = मार लिए हैं। सतिगुरि = गुरू ने।1। रहाउ। प्रथमै = पहले। लोगा रीति = लोक राज, जगत चाल, लोकाचारी रस्में। समाने = एक जैसे। तुरीआ = चौथा पद जहाँ माया के गुण छू नहीं सकते। साध = गुरू।2। सहज = आत्मिक अडोलता। बाधिआ = बांधा, बनाया। जोति सरूप = वह जिसकी हस्ती नूर ही नूर है। अनाहदु = अनहत, बिना बजाए, एक रस, वह राग जो साज को बजाए बिना ही पैदा हो रहा हो। वीचारि = विचार के। धन = धन्य, भाग्यों वाली। नारि = स्त्री। सोहागणि = सुहाग वाली।3। ब्रहम बीचारु = परमात्मा के गुणों का विचार।4। अर्थ: हे लोगो! सुनो, (गुरू की कृपा से) मैंने परमात्मा के प्यार का आनंद पाया है।, गुरू ने मुझे परमात्मा के नाम की दाति दी है (उसकी बरकति से) मैंने बुरे भाव मार लिए हैं (कामादिक) वैरी समाप्त कर लिए हैं।1। (गुरू की कृपा से मुझे प्रभू पति मिला) पति ने मुझे (आज्ञानता रूपी) सास से अलग कर लिया है, मेरी दिवरानी और जिठानी (आशा और तृष्णा इस) दुख-कलेश से मर गई हैं (कि मुझे पति मिल गया है)। (मेरे पर) जेठ (धर्मराज) की भी धौंस नहीं रही। सुचॅजे सियाने पति ने मुझे (इन सबसे) बचा लिया है।1। (जब गुरू की कृपा से मुझे प्रभू पति मिला, तो सब से) पहले मैं अहंकार को प्यार करना छोड़ दिया, फिर मैंने लोकाचारी रस्में छोड़ीं। फिर मैंने माया के तीनों गुण त्याग के वैरी और मित्र एक समान (मित्र ही) समझ लिए। गुरू को मिल के मैंने उस गुण से सांझडाल ली जो (माया के तीनों गुणों से ऊपर) चौथे आत्मिक दर्जे पर पहुँचाता है।2। (जोगी गुफा में बैठ कर आसन लगाता है। जब प्रभू की कृपा से मुझे प्रभू-पति मिला तो मैं) आत्मिक अडोलता (की) गुफा में अपना आसन जमा लिया। मेरे अंदर निरे नूर ही नूर रूपी परमात्मा के मिलाप का एक-रस बाजा बजने लगा। गुरू के शबद विचार-विचार के मेरे अंदर बड़ा आत्मिक आनंद पैदा हो रहा है। (हे लोगो!) धन्य है वह (जीव-) स्त्री, भाग्यशाली है वह (जीव-) स्त्री जो (प्रभू) पति के प्यार-रंग से रंगी गयी है।3। (हे भाई!) दास नानक परमात्मा के गुणों के विचार ही उचारता रहता है। जो भी मनुष्य परमात्मा की सिफत सालाह सुनता है और उसके अनुसार अपना जीवन ऊँचा उठाता है वह (संसार-समुंद्र से) पार लांघ जाता है, वह (बारंबार) ना पैदा होता है ना मरता है वह (वह जगत में बार-बार) ना आता है ना ही (यहां से बार-बार) जाता है। वह सदा परमात्मा की याद में लीन रहता है।4।2। आसा महला ५ ॥ निज भगती सीलवंती नारि ॥ रूपि अनूप पूरी आचारि ॥ जितु ग्रिहि वसै सो ग्रिहु सोभावंता ॥ गुरमुखि पाई किनै विरलै जंता ॥१॥ सुकरणी कामणि गुर मिलि हम पाई ॥ जजि काजि परथाइ सुहाई ॥१॥ रहाउ ॥ जिचरु वसी पिता कै साथि ॥ तिचरु कंतु बहु फिरै उदासि ॥ करि सेवा सत पुरखु मनाइआ ॥ गुरि आणी घर महि ता सरब सुख पाइआ ॥२॥ बतीह सुलखणी सचु संतति पूत ॥ आगिआकारी सुघड़ सरूप ॥ इछ पूरे मन कंत सुआमी ॥ सगल संतोखी देर जेठानी ॥३॥ सभ परवारै माहि सरेसट ॥ मती देवी देवर जेसट ॥ धंनु सु ग्रिहु जितु प्रगटी आइ ॥ जन नानक सुखे सुखि विहाइ ॥४॥३॥ {पन्ना 370-371} पद्अर्थ: निज = अपनी, अपने आप की, आत्मा के काम आने वाली। सील = मीठा स्वभाव। नारि = स्त्री। रूपि = रूप में। अनूप = उपमा रहित, बेमिसाल। आचारि = आचार में, आचरण में। जितु = जिस में। ग्रिहि = हृदय घर में। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ के।1। सुकरणी = श्रेष्ठ करणी। कामणि = स्त्री। मिलि = मिल के। जजि = जग में। काजि = विवाह में। परथाइ = हर जगहं1। रहाउ। जिचरु = जितना समय। पिता = (भाव) गुरू। कंतु = जीव। फिरै उदासि = भटकता फिरता है। सतपुरखु = अकाल पुरख, परमात्मा। गुरि = गुरू ने। आणी = ला दी।2। बतीह सुलखणी = (लज्जा, निम्रता, दया, प्यार आदि) बक्तीस सुलक्षणों वाली। सचु = सदा कायम रहने वाले परमात्मा का नाम। संतति = संतान। सुघड़ = सुचॅजी। सरूप = सुंदर। इछ मन कंत = कंत के मन की इच्छा। संतोखी = संतोष देती है। देर जेठानी = देवरानी जेठानी, (आशा-तृष्णा) को।3। सरेसट = श्रेष्ठ, उक्तम। मती = (शब्द ‘मति’ का बहुवचन) मतें, सलाहें, मश्वरे। देवी = देने वाली। देवर जेसट = देवरों जठों, (ज्ञानेंद्रियों) को। सुखि = सुख में। विहाइ = बीतती है।4। अर्थ: (हे भाई!) गुरू को मिल के मैंने श्रेष्ठ करणी- (रूप) स्त्री हासिल की है जो विवाह-शादियों में हर जगह सुंदर लगती है।1। रहाउ। आत्मा के काम आने वाली (परमात्मा की) भक्ती (मानो) मीठे स्वभाव वाली एक स्त्री है (जो) रूप में बेमिसाल है (जो) आचरण में मुकम्मल है। जिस (हृदय) घर में (ये स्त्री) बसती है वह घर शोभा वाला बन जाता है। पर, किसी विरले जीव ने गुरू की शरण पड़ के (ये स्त्री) प्राप्त की है।1। (ये भगती रूप स्त्री) जब तक गुरू के पास ही रहती है तब तक जीव बहुत भटकता फिरता है। जब (गुरू के द्वारा जीव ने) सेवा करके परमात्मा को प्रसन्न किया, तब गुरू ने (इसके हृदय-) घर में ला के बैठाई और इसने सुख आनंद प्राप्त कर लिए।2। (ये भगती रूपी स्त्री दया, निम्रता, लज्जा आदि) बक्तीस सुंदर लक्षणों वाली है, सदा स्थिर परमात्मा का नाम इस की संतान है, पुत्र हैं। (ये स्त्री) आज्ञा में चलने वाली है, सुचॅजी है, सुंदर रूप वाली है। जीव-कंत पति की (हरेक) इच्छा ये पूरी करती है, देवरानी जेठानी (आशा-तृष्णा) को ये हर तरह से संतोष देती है (शांत करती है)।3। (मीठे बोल,विनम्रता, सेवा, दान, दया) सार (आत्मिक) परिवार में (भक्ति) सबसे उक्तम है, सारे देवरों-जेठों (ज्ञानेन्द्रियों) को मश्वरे देने वाली है (सही मार्ग-दर्शन करने के काबिल है)। हे दास नानक! (कह–) वह हृदय-घर भाग्यशाली है, जिस घर में (ये भगती रूपी स्त्री) आ के दर्शन देती है, (जिस मनुष्य के हृदय में प्रगट होती है उसकी उम्र) सुख आनंद में बीतती है।4।3। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |