श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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आसा महला ५ ॥ ठाकुर सिउ जा की बनि आई ॥ भोजन पूरन रहे अघाई ॥१॥ कछू न थोरा हरि भगतन कउ ॥ खात खरचत बिलछत देवन कउ ॥१॥ रहाउ ॥ जा का धनी अगम गुसाई ॥ मानुख की कहु केत चलाई ॥२॥ जा की सेवा दस असट सिधाई ॥ पलक दिसटि ता की लागहु पाई ॥३॥ जा कउ दइआ करहु मेरे सुआमी ॥ कहु नानक नाही तिन कामी ॥४॥२८॥७९॥ {पन्ना 390}

पद्अर्थ: सिउ = साथ। भोजन पूरन = ना खत्म होने वाले नाम-भोजन की बरकति से। अघाई रहे = पेट भरा रहता है, तृप्त रहता है।1।

थोरा = थोड़ा। कउ = को। बिलछत = आनंद पाते हैं। देवन कउ = (औरों को) देने के लिए।1। रहाउ।

धनी = मालिक। अगम = अपहुँच। गुसाई = पति। केत चलाई = कितनी पेश जा सकती है?।2।

छस असट = दस और आठ, अठारह। सिधाई = सिद्धियां। दिसटि = दृष्टि, निगाह। पाई = पैरों पर।3।

सुआमी = हे स्वामी! कामी = कमी।4।

अर्थ: (हे भाई! हरी के भक्तों के पास इतना ना खत्म होने वाला नाम-खजाना होता है कि) भक्त जनों को किसी चीज की कमी नहीं होती, वे उस खजाने को स्वयं भी बरतते हैं औरों को भी बाँटते हैं, स्वयं आनंद लेते हैं, और औरों को भी आनंद देने के समर्थ होते हैं।1। रहाउ।

(हे भाई!) जिस मनुष्य की प्रीति मालिक प्रभू के साथ पक्की बन जाती है ना-समाप्त होने वाले नाम-भोजन की बरकति से वह (माया की तृष्णा की ओर से सदा) तृप्त रहता है।1।

जगत का पति अपहुँच अगम मालिक जिस मनुष्य का (रखवाला) बन जाता है (हे भाई!) बता, किसी मनुष्य का उस पर क्या जोर चल सकता है?।2।

(हे भाई!) जिसकी सेवा-भक्ति करने से और जिसकी मेहर की निगाह से अठारहों (ही) करामाती ताकतें मिल जाती हैं सदा उसके चरणों में लगे रहो।3।

हे नानक! कह– हे मेरे सवामी! जिन मनुष्यों पे तू मेहर करता है उन्हे किसी भी बात की कोई कमी नहीं रहती।4।28।79।

आसा महला ५ ॥ जउ मै अपुना सतिगुरु धिआइआ ॥ तब मेरै मनि महा सुखु पाइआ ॥१॥ मिटि गई गणत बिनासिउ संसा ॥ नामि रते जन भए भगवंता ॥१॥ रहाउ ॥ जउ मै अपुना साहिबु चीति ॥ तउ भउ मिटिओ मेरे मीत ॥२॥ जउ मै ओट गही प्रभ तेरी ॥ तां पूरन होई मनसा मेरी ॥३॥ देखि चलित मनि भए दिलासा ॥ नानक दास तेरा भरवासा ॥४॥२९॥८०॥ {पन्ना 390}

पद्अर्थ: जउ = जब। धिआइआ = याद किया, दिल में बसाया। मनि = मन ने।1।

गणत = चिंता। संसा = सहम। नामि = नाम में। रते = रंगे हुए। भगवंता = भाग्यों वाले।1। रहाउ।

चीति = चित्त में। मीत = हे मीत!।2।

ओट = आसरा। गही = पकड़ी। प्रभ = हे प्रभू! मनसा = मनीषा, मन की इच्छा।3।

देखि = देख के। चलित = चरित्र, करिश्में, चोज तमाशे। मनि = मन में। दिलासा = सहारा, धीरज।4।

अर्थ: (हे भाई!) जो मनुष्य परमात्मा के नाम रंग में रंगे जाते हैं वह भाग्यशाली हो जाते हें, उनकी हरेक चिंता मिट जाती है उनका हरेक सहम दूर हो जाता है।1। रहाउ।

(हे भाई!) जब से मैंने अपने गुरू को अपने मन में बसा लिया है तब से मेरे मन ने बड़ा आनंद प्राप्त किया है।1।

हे मेरे मित्र! जब से मैंने अपने मालिक को अपने चित्त में (बसाया है) तब से मेरा हरेक किस्म का डर दूर हो गया है।2।

हे प्रभू! जब से मैंने तेरी ओट पकड़ी है तब से मेरी हरेक मनोकामना पूरी हो रही है।3।

हे नानक! (कह– हे प्रभू! मुझे तेरे) दास को तेरा ही भरोसा है तेरे चरित्र देख-देख के मेरे मन में सहारा बनता जाता है (कि शरण पड़ों की तू सहायता करता है)।4।29।80।

आसा महला ५ ॥ अनदिनु मूसा लाजु टुकाई ॥ गिरत कूप महि खाहि मिठाई ॥१॥ सोचत साचत रैनि बिहानी ॥ अनिक रंग माइआ के चितवत कबहू न सिमरै सारिंगपानी ॥१॥ रहाउ ॥ द्रुम की छाइआ निहचल ग्रिहु बांधिआ ॥ काल कै फांसि सकत सरु सांधिआ ॥२॥ बालू कनारा तरंग मुखि आइआ ॥ सो थानु मूड़ि निहचलु करि पाइआ ॥३॥ साधसंगि जपिओ हरि राइ ॥ नानक जीवै हरि गुण गाइ ॥४॥३०॥८१॥ {पन्ना 390}

पद्अर्थ: अनदिनु = हर रोज। मूसा = चूहा। लाजु = लॅज, रस्सी। कूप = कूआँ। खाहि = तू खाता है।1।

सोचत साचत = चिंता फिक्र करते हुए। रैनि = (जिंदगी की) रात। सारिंगपानी = (सारंग = धनुष। पानी = पाणि, हाथ। जिसके हाथ में धनुष है) परमात्मा।1। रहाउ।

द्रुम = वृक्ष। छाइआ = छाया। निहचल = ना हिलने वाला, पक्का। ग्रिह = घर। कै फांसि = की फासी में। सकत = तगड़ा। सरु = तीर। सांधिआ = कसा हुआ।2।

बालू = रेत। तरंग = लहरें। मुखि = मुंह में। मूढ़ि = मूर्ख ने।3।

साध संगि = गुरू की संगति में। गाइ = गा के।4।

अर्थ: माया की सोचें सोचते हुए ही मनुष्य की (जिंदगी की सारी) रात बीत जाती है, मनुष्य माया के ही अनेकों रंग-तमाशे सोचता रहता है और परमात्मा को कभी भी नहीं सिमरता।1। रहाउ।

(हे भाई! तू माया के मोह के कूएं में लटका हुआ है, जिस रस्सी के आसरे तू लटका हुआ है उस) लॅज (रस्सी) को हर रोज चूहा कुतर रहा है (उम्र की लॅज को जम-चूहा कुतरता जा रहा है, पर) तू कूएं में गिरा हुआ भी मिठाई खाए जा रहा है (दुनिया के पदार्थ खाने में मगन है)।1।

(माया के मोह में फस के मनुष्य इतना मूर्ख हो जाता है कि) वृक्ष की छाया को पक्का घर मान बैठता है, मनुष्य काल (आत्मिक मौत) की फासी में (जाल में) फंसा हुआ है, ऊपर से माया ने (उस पर) तृष्णा (मोह का) तीर कसा हुआ है।2।

(ये जगत-वासा, मानो,) रेतीला किनारा (जो दरिया की) लहरों के मुंह में आया हुआ है (पर माया के मोह में फसे हुए) मूर्ख ने इस जगह को पक्का समझा हुआ है।3।

हे नानक! जिस मनुष्य ने साध-संगत में टिक के प्रभू-पातशाह का नाम जपा है वह परमातमा के गुण गा गा के आत्मिक जीवन हासिल कर लेता है।4।30।81।

आसा महला ५ दुतुके ९ ॥ उन कै संगि तू करती केल ॥ उन कै संगि हम तुम संगि मेल ॥ उन्ह कै संगि तुम सभु कोऊ लोरै ॥ ओसु बिना कोऊ मुखु नही जोरै ॥१॥ ते बैरागी कहा समाए ॥ तिसु बिनु तुही दुहेरी री ॥१॥ रहाउ ॥ उन्ह कै संगि तू ग्रिह महि माहरि ॥ उन्ह कै संगि तू होई है जाहरि ॥ उन्ह कै संगि तू रखी पपोलि ॥ ओसु बिना तूं छुटकी रोलि ॥२॥ उन्ह कै संगि तेरा मानु महतु ॥ उन्ह कै संगि तुम साकु जगतु ॥ उन्ह कै संगि तेरी सभ बिधि थाटी ॥ ओसु बिना तूं होई है माटी ॥३॥ ओहु बैरागी मरै न जाइ ॥ हुकमे बाधा कार कमाइ ॥ जोड़ि विछोड़े नानक थापि ॥ अपनी कुदरति जाणै आपि ॥४॥३१॥८२॥ {पन्ना 390}

पद्अर्थ: उन कै संगि = उस जीवात्मा की संगत में। केल = खेल, चोज तमाशे। हम तुम संगि = सभी के साथ। लोरै = लोचता है, मिलना चाहता है। सभ कोऊ = हर कोई। जोरै = जोड़ता।1।

ते बैरागी = वह जीवात्मा पक्षी। दुहेरी = दुखी। री = हे काया! ।1। रहाउ।

माहरि = माहिर, समझदार। पपोलि = पाल के। तूं = तुझे। रोलि = रुल गई, किसी काम ना आ सकी, बेकार हो गई। छुटकी = छुटॅड़।2।

महतु = महत्वता, महिमा। सभ बिधि = हरेक तरीके से। तेरी थाटी = तेरी संरचना कायम रखी जाती है, तेरी हर तरह पालना की जाती है।3।

बैरागी = चले जाने वाली जीवात्मा। जोड़ि = जोड़ के। थापि = स्थापना करके, बना के।4।

अर्थ: हे काया! उस (जीवात्मा) के बिना तू दुखी हो जाती है। पता नहीं लगता वह जीवात्मा तुझसे उपराम हो के कहां चली जाती है।1। रहाउ।

हे काया! जीवात्मा की संगति में रह के तू (कई तरह के) खेल-तमाशे करती रहती है, सभी से तेरा मेल मिलाप बना रहता है, हर कोई तुझे मिलना चाहता है, पर उस जीवात्मा के मिलाप के बिना तुझे कोई मुंह नहीं लगाता।1।

हे काया! जब तक तू जीवात्मा के साथ थी तू समझदार (समझी जाती है, हर जगह) तू उजागर होती है, तुझे पाल-पोस के रखते हैं। पर जब वह जीवात्मा (तुझसे दूर) चली जाती है तो तू छॅुटड़ हो जाती है किसी काम की नहीं रह जाती।2।

हे काया! जीवात्मा के साथ होते हुए तेरा आदर-मान होता है तुझे महिमा मिलती है, सारा जगत तेरा साक-संबंधी प्रतीत होता है, तेरी हर जगह पालणा की जाती है। पर जब उस जीवात्मा से तू विछुड़ जाती है तो तू मिट्टी में मिल जाती है।3।

हे नानक! (कह– जीवात्मा के भी क्या वश? परमात्मा) मनुष्य का शरीर बना के (जीवात्मा और काया का जोड़ जोड़ता है) जोड़ के फिर विछोड़ देता है। काया में से उपराम हो के चले जाने वाली जीवात्मा (अपने आप) ना मरती है ना पैदा होती है (वह तो परमात्मा के) हुकम में बंधी हुई (काया में आने और फिर इस में से चले जाने की) कार करती है। (जीवात्मा और काया को जोड़ने-विछोड़ने की) अपनी अजब खेल को परमात्मा खुद ही जानता है।4।31।82।

नोट: दुतुके ९। इस शबद से ले के शबद नं: 90 तक 9 शबद ऐसे शबद हैं जिनके हरेक बंद में दो–दो तुकें हैं।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh