श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 389 आसा महला ५ ॥ तू मेरा तरंगु हम मीन तुमारे ॥ तू मेरा ठाकुरु हम तेरै दुआरे ॥१॥ तूं मेरा करता हउ सेवकु तेरा ॥ सरणि गही प्रभ गुनी गहेरा ॥१॥ रहाउ ॥ तू मेरा जीवनु तू आधारु ॥ तुझहि पेखि बिगसै कउलारु ॥२॥ तू मेरी गति पति तू परवानु ॥ तू समरथु मै तेरा ताणु ॥३॥ अनदिनु जपउ नाम गुणतासि ॥ नानक की प्रभ पहि अरदासि ॥४॥२३॥७४॥ {पन्ना 389} पद्अर्थ: तरंगु = पानी की लहर, पानी, दरिया। मीन = मछली। ठाकुरु = मालिक। तेरै दुआरे = तेरे दर पे।1। करता = पैदा करने वाला। हउ = मैं। गही = पकड़ी। प्रभू = हे प्रभू! गुनी गहेरा = गुणों का गहरा समुंद्र।1। रहाउ। आधारु = आसरा। पेखि = देख के। कउलारु = कमल फूल। बिगसै = खिलता है।2। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था। पति = इज्जत। परवानु = कबूल। समरथु = ताकतों का मालिक।3। अनदिनु = हर रोज। जपउ = मैं जपूँ, जपूँ। गुणतासि = हे गुणों के खजाने! पहि = पास।4। अर्थ: हे प्रभू! तू मेरा पैदा करने वाला है, मैं तेरा दास हूँ। हे सारे गुणों के गहरे समुंद्र प्रभू! मैंने तेरी शरण पकड़ी है।1। रहाउ। हे मालिक प्रभू! तू मेरा दरिया है, मैं तेरी मछली हूँ (मछली की तरह मैं जब तक तेरे में टिका रहता हूँ तब तक मुझे आत्मिक जीवन मिला रहता है)। हे प्रभू! तू मेरा मालिक है, मैं तेरे दर पे आ गिरा हूँ।1। हे प्रभू! तू ही मेरी जिंदगी (का मूल) है तू ही मेरा आसरा है, तुझे देख के (मेरा हृदय ऐसे) खिलता है (जैसे) कमल फूल (सूरज को देख के खिलता है)।2। हे प्रभू! तू ही मेरी ऊँची आत्मिक अवस्था और (लोक-परलोक की) इज्जत (का रखवाला) है, (जो कुछ) तू (करता है वह) मैं खुशी से मानता हूँ। तू हरेक ताकत का मालिक है, मुझे तेरा ही सहारा है।3। हे प्रभू! हे गुणों के खजाने! नानक की तेरे पास ये विनती है (-मेहर कर) मैं सदा हर समय तेरा ही नाम जपता रहूँ।4।23।74। आसा महला ५ ॥ रोवनहारै झूठु कमाना ॥ हसि हसि सोगु करत बेगाना ॥१॥ को मूआ का कै घरि गावनु ॥ को रोवै को हसि हसि पावनु ॥१॥ रहाउ ॥ बाल बिवसथा ते बिरधाना ॥ पहुचि न मूका फिरि पछुताना ॥२॥ त्रिहु गुण महि वरतै संसारा ॥ नरक सुरग फिरि फिरि अउतारा ॥३॥ कहु नानक जो लाइआ नाम ॥ सफल जनमु ता का परवान ॥४॥२४॥७५॥ {पन्ना 389} पद्अर्थ: रोवनहारै = रोने वाले ने। झूठु कमाना = झूठ मूठ ही रोने का काम किया है, झूठा रोता है, अपने स्वार्थ की खातिर रोता है। हसि = हस के। सोगु = (किसी की मौत पर) अफसोस। बेगाना = पराया।1। को = कोई मनुष्य। मूआ = मरा, मरता है। का कै घरि = किसी का घर में। गावनु = गाना, खुशी आदि के कारण गाना। हसि हसि पावनु = हस हस के पड़ता है।1। ते = से (शुरू करके)। पहुचि न मूका = अभी पहुँचा भी नहीं, अभी मुश्किल से पहुँचा ही है।2। वरतै = दौड़ भाग कर रहा है। फिरि फिरि = बार बार। अउतारा = जनम।3। जो = जिस मनुष्य को। सफल = कामयाब। परवान = कबूल।4। अर्थ: (हे भाई!) जगत में सुख-दुख का चक्कर चलता ही रहता है, जहाँ कोई मरता है (वहाँ रोना-धोना हो रहा है), और किसी के घर में (किसी खुशी आदि के कारण) गाना-बजाना हो रहा है। कोई रोता है कोई हॅस-हॅस पड़ता है।1। रहाउ। (हे भाई! जहाँ कोई मरता है तो उसे कोई संबंधी रोता है वह) रोने वाला भी (अपने दुखों को रोता है और इस तरह) झूठा रोना ही रोता है। अगर कोई बेगाना मनुष्य (उसके मरने पे अफ़सोस करने आता है वह) हॅस-हॅस के अफ़सोस करता है।1। बाल उम्र से ले के बुढे होने तक (मनुष्य आगे-आगे वाली उम्र में सुख की आस धारता है, पर अगली अवस्था पर) मुश्किल से पहुँचता ही है (कि वहाँ भी दुख देख के सुख की आस त्याग देता है, और) फिर पछताता है (कि ऐसे ही आशाएं बनाता रहा)।2। (हे भाई!) जगत माया के तीन गुणों के प्रभाव में ही दौड़-भाग कर रहा है और बार-बार (कभी) नर्कों (दुखों) में (कभी) स्वर्गों (सुखों) में पड़ता है (कभी सुख पाता है कभी दुख भोगता है)।3। हे नानक! कह–जिस मनुष्य को परमात्मा अपने नाम में जोड़ता है उसका मानस जनम कामयाब हो जाता है, (वह परमात्मा की नजरों में) कबूल हो जाता है।4।24।75। आसा महला ५ ॥ सोइ रही प्रभ खबरि न जानी ॥ भोरु भइआ बहुरि पछुतानी ॥१॥ प्रिअ प्रेम सहजि मनि अनदु धरउ री ॥ प्रभ मिलबे की लालसा ता ते आलसु कहा करउ री ॥१॥ रहाउ ॥ कर महि अम्रितु आणि निसारिओ ॥ खिसरि गइओ भूम परि डारिओ ॥२॥ सादि मोहि लादी अहंकारे ॥ दोसु नाही प्रभ करणैहारे ॥३॥ साधसंगि मिटे भरम अंधारे ॥ नानक मेली सिरजणहारे ॥४॥२५॥७६॥ {पन्ना 389} पद्अर्थ: सोइ रही = (उम्र की सारी रात) सोई रही, सारी उम्र आत्मिक जीवन की ओर से बेपरवाही टिकी रही। भोरु = दिन, उम्र रात का अंत, मौत का समय। बहुरि = दुबारा, फिर, तब।1। सहजि = आत्मिक अडोलता में। प्रिअ प्रेम-प्यारे के प्रेम (की बरकति से)। मनि = मन में। अनदु = आनंद। धरउ = धरूँ, मैं टिकाए रखती हूँ। री = हे सखी! मिलबे की = मिलने की। लालसा = तमन्ना। ता ते = इस करके। कहा करउ = मैं कहाँ कर सकती हूँ?।1। रहाउ। कर महि = हाथों में। आणि = ला के। निसारिओ = डाल दिया, बहा दिया। खिसरि गइओ = डुल गया। भूमि परि = धरती पर, मिट्टी में।2। सादि = स्वाद में। मोहि = मोह में, मोह के भार तले। लादी = लदी रही, दबी रही। अहंकारे = अहंकार तले, अहंकार के भार के नीचे।3। साध संगि = साध-संगति में। अंधारे = अंधेरे। सिरजनहारे = सृजनहार ने।4। अर्थ: हे सखी! प्यारे (प्रभू) के प्रेम की बरकति से आत्मिक अडोलता में टिक के मैं अपने मन में (उसके दर्शनों की तांघ का) आनंद टिकाए रखती हूँ। हे सखी! (मेरे अंदर हर वक्त) प्रभू के मिलाप की तमन्ना बनी रहती है, इस वास्ते (उसे याद रखने में) मैं कभी भी आलस नहीं कर सकती।1। रहाउ। हे सखी! (जो जीव-स्त्री माया के मोह की नींद में) सोई रहती है (आत्मिक जीवन की ओर से बेपरवाह टिकी रहती है) वह प्रभू (के मिलाप) की किसी शिक्षा को नहीं समझती। पर जब दिन चढ़ आता है (जिंदगी की रात समाप्त हो के मौत का समय आ जाता है) तबवह पछताती है।1। हे सखी! (मानस जनम दे के परमात्मा ने) हमारे हाथों में आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल ला के डाला था (हमें नाम-अंमृत पीने का मौका दिया था। पर, जो जीव-स्त्री सारी उम्र मोह की नींद में सोई रहती है, उसके हाथों में से वह अमृत) बह जाता है और मिट्टी में जा मिलता है।2। हे सखी! (जीव-स्त्री के इस दुर्भाग्य के बारे में) सृजनहार प्रभू को कोई दोष नहीं दिया जा सकता, (जीव-स्त्री स्वयं ही) पदार्थों के स्वाद में, माया के मोह में, अहंकार में दबी रहती है।3। हे नानक! साध-संगति में आ के (जिस जीव-स्त्री के अंदर से) माया की भटकना के अंधेरे मिट जाते हैं, सृजनहार प्रभू (उसे अपने चरणों में) जोड़ लेता है।4।25।76। आसा महला ५ ॥ चरन कमल की आस पिआरे ॥ जमकंकर नसि गए विचारे ॥१॥ तू चिति आवहि तेरी मइआ ॥ सिमरत नाम सगल रोग खइआ ॥१॥ रहाउ ॥ अनिक दूख देवहि अवरा कउ ॥ पहुचि न साकहि जन तेरे कउ ॥२॥ दरस तेरे की पिआस मनि लागी ॥ सहज अनंद बसै बैरागी ॥३॥ नानक की अरदासि सुणीजै ॥ केवल नामु रिदे महि दीजै ॥४॥२६॥७७॥ {पन्ना 389} पद्अर्थ: चरन कमल = कमल फूल जैसे सुंदर चरण। पिआरे = हे प्यारे! क्ंकर = किंकर, सेवक। जम कंकर = जम दूत। विचारे = निमाणे, बेवस से, अपना जोर ना पड़ता देख के।1। चिति = चित्त में। मइआ = दया। सगल रोग = सारे रोग। खइआ = खय (क्षय) हो जाते हैं।1। रहाउ। अवरा कउ = औरों को।2। मनि = मन में। सहज = आत्मिक अडोलता। बैरागी = वैरागणि हो के, माया के मोह से उपराम हो के।3। रिदे महि = हृदय में। दीजै = दे।4। अर्थ: हे प्रभू! जिस मनुष्य पे तेरी मेहर होती है उसके चित्त में तू आ बसता है, तेरा नाम सिमरने से उसके सारे रोग नाश हो जाते हैं।1। रहाउ। हे प्यारे प्रभू! जिस मनुष्य के हृदय में तेरे सुंदर चरणों से जुड़ने की आस पैदा हो जाती है, जम-दूत भी उस पर अपना जोर ना पड़ता देख के उससे दूर भाग जाते हैं।1। हे प्रभू! औरों को तो (ये जम-दूत) अनेकों किस्म के दुख देते हैं, पर सेवक कें ये नजदीक भी नहीं फटक सकते।2। हे प्रभू! जिस मनुष्य के मन में तेरे दर्शन की तमन्ना पैदा होती है वह माया की ओर से वैरागवान हो के आत्मिक अडोलता के आनंद में टिका रहता है।3। हे प्रभू! (अपने सेवक) नानक की भी आरजू सुन, (नानक को अपना) सिर्फ नाम हृदय में (बसाने के लिए) दे।4।26।77। आसा महला ५ ॥ मनु त्रिपतानो मिटे जंजाल ॥ प्रभु अपुना होइआ किरपाल ॥१॥ संत प्रसादि भली बनी ॥ जा कै ग्रिहि सभु किछु है पूरनु सो भेटिआ निरभै धनी ॥१॥ रहाउ ॥ नामु द्रिड़ाइआ साध क्रिपाल ॥ मिटि गई भूख महा बिकराल ॥२॥ ठाकुरि अपुनै कीनी दाति ॥ जलनि बुझी मनि होई सांति ॥३॥ मिटि गई भाल मनु सहजि समाना ॥ नानक पाइआ नाम खजाना ॥४॥२७॥७८॥ {पन्ना 389} पद्अर्थ: त्रिपतानो = तृप्त हो गया। जंजाल = माया के मोह के बंधन। किरपाल = कृपालु, दयावान।1। संत प्रसादि = गुरू की कृपा से। पूरन = पूर्ण। भेटिआ = मिला। धनी = मालिक।1। रहाउ। साध = गुरू। द्रिढ़ाइआ = हृदय में पक्का कर दिया। बिकराल = डरावनी, भयानक।2। ठाकुरि = ठाकुर ने। जलनि = जलन। मनि = मन में।3। भाल = (दुनिया के धन पदार्थ की) तलाश। सहजि = आत्मिक अडोलता में।4। अर्थ: (हे भाई!) गुरू की कृपा से मेरे भाग्य जाग पड़े हैं मुझे वह मालिक मिल गया है जिसे किसी से कोई डर नहीं और जिसके घर में हरेक चीज ना समाप्त होने वाली है।1। रहाउ। (हे भाई! जिस मनुष्य पर) प्यारा प्रभू दयावान हो जाता है उसका मन माया की तृष्णा की ओर से तृप्त हो जाता है उसके माया के मोह के सारे बंधन टूट जाते हैं।1। (हे भाई!) दया-स्वरूप गुरू ने (जिस मनुष्य के हृदय में) नाम पक्का कर दिया (उसके अंदर से) बड़ी डरावनी (माया की) भूख दूर हो गई।2। (हे भाई!) ठाकुर प्रभू ने जिसको अपने नाम की दाति बख्शी (उसके मन में से तृष्णा की) जलन बुझ गई उसके मन में ठंड पड़ गई।3। हे नानक! (जिस मनुष्य ने गुरू की कृपा से) परमात्मा के नाम का खजाना पा लिया (दुनिया के खजानों के वास्ते उस की) तलाश दूर हो गई, उसका मन आत्मिक अडोलता में टिक गया।4।27।78। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |