श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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आसा महला ५ ॥ उकति सिआनप किछू न जाना ॥ दिनु रैणि तेरा नामु वखाना ॥१॥ मै निरगुन गुणु नाही कोइ ॥ करन करावनहार प्रभ सोइ ॥१॥ रहाउ ॥ मूरख मुगध अगिआन अवीचारी ॥ नाम तेरे की आस मनि धारी ॥२॥ जपु तपु संजमु करम न साधा ॥ नामु प्रभू का मनहि अराधा ॥३॥ किछू न जाना मति मेरी थोरी ॥ बिनवति नानक ओट प्रभ तोरी ॥४॥१८॥६९॥ {पन्ना 388}

पद्अर्थ: उकति = युक्ति, दलील। किछू = कुछ भी। रैणी = रात। वखाना = मैं उचारता हूँ।1।

निरगुन = गुण हीन। करनहार = (सब जीवों में व्यापक हो के स्वयं ही) करने की ताकत रखने वाला। करावनहार = (सब जीवों को प्रेरित करके उनसे) करवाने की समर्था वाला। प्रभ = हे प्रभू!।1। रहाउ।

मुगध = बेवकूफ़। अगिआन = ज्ञानहीन। अवीचारी = बेसमझ, विचार की बात ना कर सकने वाला। मनि = मन में।2।

साधा = अभ्यास किया। मनहि = मन में। संजमु = इन्द्रियों को विकारों से रोकने का यतन।3।

थोरी = थोड़ी। बिनवति = विनती करता है। तोरी = तेरी।4।

अर्थ: हे प्रभू! मैं गुणहीन हूँ, मेरे में कोई गुण नहीं (जिसके आसरे मैं तुझे प्रसन्न करने की आस कर सकूँ, पर) हे प्रभू! वह तू ही है जो (सब जीवों में व्यापक हो के स्वयं ही) सब कुछ करने की ताकत रखता है और (सब जीवों को प्रेरित करके उनसे) करवाने की समर्था वाला है (मुझे भी खुद ही अपने चरणों में जोड़े रख)।1। रहाउ।

हे प्रभू! मैं कोई दलील (देनी) नहीं जानता, मैं कोई समझदारी (की बात करनी) नहीं जानता (जिससे मैं तुझे खुश कर सकूँ, पर तेरी ही मेहर से) मैं दिन-रात तेरा (ही) नाम उचारता हूँ।1।

हे प्रभू! मैं मूर्ख हूँ, मैं मति हीन हूँ, मैं ज्ञानहीन हूँ, मैं बेसमझ हूँ (पर तू अपने बिरद की लाज रखने वाला है), मैंने तेरे (बिरद-पाल) नाम की आस मन में रखी हुई है (कि तू शरण आए की लाज रखेगा)।2।

हे भाई! मैंने कोई जप नहीं किया, मैंने कोई तप नहीं किया, मैंने कोई संजम नहीं साधा (मुझे किसी जप तपसंजम का सहारा नहीं, का गुमान नहीं) मैं तो परमातमा का नाम ही अपने मन में याद करता रहता हूँ।3।

नानक बिनती करता है– हे प्रभू! (कोई उक्ति, कोई समझदारी, कोई जप, कोई तप, कोई संजम) कुछ भी करना नहीं जानता, मेरी अक्ल बहुत थोड़ी सी है, मैंने सिर्फ तेरा ही आसरा लिया है।4।18।69।

आसा महला ५ ॥ हरि हरि अखर दुइ इह माला ॥ जपत जपत भए दीन दइआला ॥१॥ करउ बेनती सतिगुर अपुनी ॥ करि किरपा राखहु सरणाई मो कउ देहु हरे हरि जपनी ॥१॥ रहाउ ॥ हरि माला उर अंतरि धारै ॥ जनम मरण का दूखु निवारै ॥२॥ हिरदै समालै मुखि हरि हरि बोलै ॥ सो जनु इत उत कतहि न डोलै ॥३॥ कहु नानक जो राचै नाइ ॥ हरि माला ता कै संगि जाइ ॥४॥१९॥७०॥ {पन्ना 388}

पद्अर्थ: अखर दुइ = दोनों अक्षर (हरि हरि)। जपत = जपते हुए। दीन = दीनों पर, कंगालों पे।1।

करउ = करूँ, मैं करता हूँ। सतिगुर = हे सतिगुरू! मो कउ = मुझे। जपनी = माला।1। रहाउ।

उर = हृदय। अंतरि = अंदर। धारै = टिकाए रखता है। निवारै = दूर कर लेता है।2।

समाले = संभाल के रखता है। मुखि = मुंह से। इत उत = लोक परलोक में। कतहि = कहीं भी।3।

नाइ = नाम में। संगि = साथ।4।

अर्थ: हे सतिगुरू! मैं तेरे आगे अपनी ये अर्ज करता हूँ कि कृपा करके मुझे अपनी शरण में रख और मुझे ‘हरि हरि’ नाम की माला दे।1। रहाउ।

(हे भाई! मेरे पास तो) ‘हरि हरि’ - इन दो शब्दों की माला है, इस हरि-नाम-माला को जपते-जपते कंगालों पर भी परमात्मा दयावान हो जाता है।1।

जो मनुष्य हरि-नाम की माला अपने हृदय में टिका के रखता है, वह अपने जनम-मरण के चक्कर का दुख दूर कर लेता है।2।

जो मनुष्य हरि नाम को अपने हृदय में संभाल के रखता है और मुंह से हरि हरि नाम उचारता रहता है वह ना इस लोक में ना ही परलोक में कही भी (किसी बात पर भी) नहीं डोलता।3।

हे नानक! कह– जो मनुष्य परमात्मा के नाम में जुड़ा रहता है, हरि-नाम की माला उस के साथ (परलोक में भी) जाती है।4।19।70।

आसा महला ५ ॥ जिस का सभु किछु तिस का होइ ॥ तिसु जन लेपु न बिआपै कोइ ॥१॥ हरि का सेवकु सद ही मुकता ॥ जो किछु करै सोई भल जन कै अति निरमल दास की जुगता ॥१॥ रहाउ ॥ सगल तिआगि हरि सरणी आइआ ॥ तिसु जन कहा बिआपै माइआ ॥२॥ नामु निधानु जा के मन माहि ॥ तिस कउ चिंता सुपनै नाहि ॥३॥ कहु नानक गुरु पूरा पाइआ ॥ भरमु मोहु सगल बिनसाइआ ॥४॥२०॥७१॥ {पन्ना 388}

पद्अर्थ: जिस का = जिस (परमात्मा) का (शब्द ‘जिस’ की मात्रा ‘ु’ संबंधक ‘का’ के कारण हट गई है)। लेपु = माया का प्रभाव। बिआपै = जोर डाल सकता।1।

मुकता = माया के बंधनों से आजाद। भल = भला। जन कै = सेवक के हृदय में। जुगता = जीवन की जुगति, जिंदगी गुजारने का तरीका।1। रहाउ।

कहा = कहां? बिल्कुल नहीं।2।

निधानु = खजाना। महि = में। सुपनै = सुपने में भी, कभी भी।3।

नानक = हे नानक! भरमु = माया की भटकना। सगल = सारा।4।

अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा का भक्त सदा ही (माया के मोह के बंधनों से) आजाद रहता है, परमात्मा जो कुछ करता है सेवक को वह सदा भलाई ही भलाई प्रतीत होती है, सेवक की जीवन-शैली बहुत ही पवित्र होती है।1। रहाउ।

(हे भाई! जो मनुष्य) उस परमात्मा का (सेवक) बना रहता है जिसका ये सारा जगत रचा हुआ है उस मनुष्य पर माया का किसी तरह का भी प्रभाव नहीं पड़ सकता।1।

(हे भाई! जो मनुष्य और) सारे (आसरे) छोड़ के परमात्मा की शरण आ पड़ता है, माया उस मनुष्य पर कभी अपना प्रभाव नहीं डाल सकती।2।

(हे भाई!) जिस मनुष्य के मन में परमात्मा का नाम-खजाना टिका रहता है उसे कभी भी कोई चिंता छू नहीं सकती।3।

हे नानक! कह– जो मनुष्य पूरा गुरू ढूँढ लेता है उसके अंदर से (माया की खातिर) भटकना दूर हो जाती है (उसके मन में से माया का) सारा मोह दूर हो जाता है।4।20।71।

आसा महला ५ ॥ जउ सुप्रसंन होइओ प्रभु मेरा ॥ तां दूखु भरमु कहु कैसे नेरा ॥१॥ सुनि सुनि जीवा सोइ तुम्हारी ॥ मोहि निरगुन कउ लेहु उधारी ॥१॥ रहाउ ॥ मिटि गइआ दूखु बिसारी चिंता ॥ फलु पाइआ जपि सतिगुर मंता ॥२॥ सोई सति सति है सोइ ॥ सिमरि सिमरि रखु कंठि परोइ ॥३॥ कहु नानक कउन उह करमा ॥ जा कै मनि वसिआ हरि नामा ॥४॥२१॥७२॥ {पन्ना 388}

पद्अर्थ: जउ = जब। सुप्रसंन = बहुत खुश। तां = तब। कहु = बताओ। कैसे = कैसे? नेरा = नजदीक।1।

सुनि = सुन के। जीवा = जीऊँ, मैं जी पड़ता हूँ। सोइ = खबर,शोभा। मोहि = मुझे। कउ = को।1। रहाउ।

जपि = जप के। मंता = उपदेश, शबद।2।

सोई = वह (परमात्मा) ही। सति = सदा कायम रहने वाला। कंठि = गले में। परोइ = परो के।3।

करमा = (मिथा हुआ धार्मिक) काम। जा कै मनि = जिस मनुष्य के मन में।4।

अर्थ: (हे मेरे प्रभू!) तेरी शोभा (महिमा) सुन-सुन के मेरे अंदर आत्मिक जीवन पैदा होता है। (हे मेरे प्रभू! मेहर कर) मुझ गुण-हीन को (दुखों-भ्रमों से) बचाए रख।1। रहाउ।

(हे भाई!) जब मेरा प्रभू (किसी मनुष्य पर) बहुत प्रसन्न होता है तब बताओ, कोई दुख-भ्रम उस मनुष्य के नजदीक कैसे आ सकता है?।1।

(हे भाई!) सतिगुरू की बाणी जपके मैंने ये फल प्राप्त कर लिया है कि (मेरे) अंदर से हरेक किस्म का दुख दूर हो गया है, मैंने (हरेक किस्म की) चिंता भुला दी है।2।

(हे भाई!) वह परमात्मा ही सदा कायम रहने वाला है वह परमात्मा ही सदा स्थिर रहने वाला है, उसे सदा सिमरता रह, उस (के नाम) को अपने गले में परो के रख (जैसे फूलों का हार गले में डालते हैं)।3।

हे नानक! कह– जिस मनुष्य के मन में परमात्मा का नाम आ बसे, और वह कौन सा (निहित धार्मिक) कर्म (रह जाता है जो उसे करना चाहिए?)।4।21।72।

आसा महला ५ ॥ कामि क्रोधि अहंकारि विगूते ॥ हरि सिमरनु करि हरि जन छूटे ॥१॥ सोइ रहे माइआ मद माते ॥ जागत भगत सिमरत हरि राते ॥१॥ रहाउ ॥ मोह भरमि बहु जोनि भवाइआ ॥ असथिरु भगत हरि चरण धिआइआ ॥२॥ बंधन अंध कूप ग्रिह मेरा ॥ मुकते संत बुझहि हरि नेरा ॥३॥ कहु नानक जो प्रभ सरणाई ॥ ईहा सुखु आगै गति पाई ॥४॥२२॥७३॥ {पन्ना 388}

पद्अर्थ: कामि = काम में। क्रोधि = क्रोध में। अहंकारि = अहंकार में। विगूते = दुखी होते हैं। छूटे = बच जाते हैं।1।

माते = मस्त हुए। मद = नशा। राते = रंगे हुए।1। रहाउ।

भरमि = भटकना में। असथिरु = टिका हुआ, जनम मरण के चक्कर से बचा हुआ।2।

अंध कूप = अंधा कूआँ। मुकते = स्वतंत्र, आजाद। नेरा = नजदीक।3।

नानक = हे नानक! ईहा = इस लोक में। गति = उच्च आत्मिक अवस्था।4।

अर्थ: (हे भाई! माया में ग्रसित जीव) माया के नशे में मस्त हो के (आत्मिक जीवन के पक्ष से) सोए रहते हैं (बेपरवाह टिके रहते हैं)। पर परमात्मा की भक्ति करने वाले मनुष्य प्रभू नाम का सिमरन करते हुए (हरि-नाम-रंग में) रंग के (माया के हमलों की तरफ़ से) सचेत रहते हैं।1। रहाउ।

(हे भाई! माया-ग्रसित जीव) काम में, क्रोध में, अहंकार में (फस के) दुखी होते रहते हैं। परमातमा के सेवक परमात्मा के नाम का सिमरन करके (काम-क्रोध-अहंकार आदि से) बचे रहते हैं।1।

(हे भाई! माया के) मोह की भटकना में पड़ के मनुष्य अनेकों जूनियों में भटकते रहते हैं पर भगत जन परमात्मा के चरणों का ध्यान धरते हैं वह (जनम-मरण के चक्कर से) अडोल रहते हैं।2।

(हे भाई!) ये घर मेरा है, ये घर मेरा है– इस मोह के अंधे कूएं के बंधनों से वे संत-जन आजाद रहते हैं जो परमात्मा को (हर वक्त) अपने नजदीक बसता समझते हैं।3।

हे नानक! कह– जो मनुष्य परमात्मा की शरण पड़ा रहता है वह इस लोक में आत्मिक आनंद भोगता है, परलोक में भी वह उच्च आत्मिक अवस्था हासिल किए रहता है।4।22।73।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh